विश्व व्यापर संगठन (W.T.O.) क्या है ?
15 दिसम्बर 1994 को भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन समझौता WTO Agreement स्वीकार कर, इस पर हस्ताक्षर किया। यह एक ऐसा अन्तरराष्ट्रीय समझौता है जिसे या तेा पूरी तरह से स्वीकार करना है या पूरी तरह से छोड़ना है। अर्थात इस समझौते की कुछ शर्तों को मानना और कुछ शर्तों को छोड़ना सम्भव नहीं है। लेकिन इस समझौते की शर्तों पर हस्ताक्षर करने वाले देशों के बीच में बहस हो सकती है। लगभग वर्ष में एक बार या कभी-कभी 2 बार इस समझौते में शामिल देशों के प्रतिनिधियों के बीच बहस होती रहती है। दो साल में एक बार विश्व व्यापार संगठन में शामिल देशों की सामान्य सभा होती है। विश्व व्यापार संगठन में इस समय लगभग 126 देश शामिल हैं। विश्व व्यापार संगठन का मुख्य कार्यालय जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) में है। लेकिन महत्व की बात यह है कि स्विटजरलैण्ड ने अभी तक गैट करार या विश्व व्यापार संगठन समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन समझौते पर हस्ताक्षर तो 15 दिसम्बर 1994 को किये, लेकिन यह समझौता पूरी तरह से 1 जनवरी 2005 से लागू हुआ। जिस समय भारत सरकार ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था, उस समय इसका नाम बहुपक्षीय व्यापार संगठन (M.T.O) था। लेकिन 1 जनवरी 1995 को यह नाम बदलकर विश्व व्यापार संगठन हो गया। महत्व की बात समझने की यह है कि यह समझौता 1 जनवरी 2005 से लागू हुआ, लेकिन भारत सरकार ने गत 10 वर्षों में इस समझौते की कई शर्तों को उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर लागू कर दिया है। विश्व व्यापार संगठन समझौते में कुल 28 विषय हैं, जो अपने आप में एक-एक समझौते के जैसे ही हैं।
इस विश्व व्यापार संगठन समझौते का अपना एक इतिहास है। सन 1948 में दुनिया के देशों में व्यापार को व्यवस्थित और सरल बनाने के उद्देश्य से जनरल एग्रीमेन्ट आन टेªड एन्ड टैरिफ (GATT) किया गया। भारत उसी समय गैट का सदस्य बन गया था। शुरू में इसमें 23 देश शामिल हुये थे। सन् 1930 में दुनिया के देशों में भंयकर मंदी आ गयी थी। इस मंदी को दूर करने के लिये पश्चिमी देशों ने तरह-तरह के उपाय किये। इन्हीं में से एक उपाय था, दूसरा विश्व युद्ध। पश्चिमी देशों में एक मान्यता है, वह यह कि जब बहुत अधिक आर्थिक मंदी आये तो युद्ध लड़ना चाहिए। इससे हथियारों की खपत बढ़ती है और फिर हथियारों का उत्पादन बढ़ता है। हथियारों का उत्पादन पश्चिमी देशों (अमरीका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, आदि) का सबसे मुख्य उत्पादन है। पश्चिमी देशों में हथियार उद्योग के साथ 10 अन्य उद्योग जुड़े हुये हैं। इसलिये जब हथियार उद्योग में उत्पादन और खपत बढ़ती है तो बाकी अन्य 10 उद्योगों में भी खपत और उत्पादन बढ़ता जाता है। आर्थिक मंदी दूर करने के इसी उपाय के साथ 1939 से 1945 तक दूसरा विश्व युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में अरबों-खरबों डालर के हथियार बिके। इससे यूरोप-अमरीका के हथियार उद्योग में बहुत तेजी आयी। इस तेजी ने बाकी दूसरे उद्योगों में भी तेजी लाने का कार्य किया।
जब 1945 में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो कई अन्तरराष्ट्रीय समझौते हुये। इन समझौतों के आधार पर कई अन्तरराष्ट्रीय संस्थायें बनीं। सभी देशों के बीच राजनैतिक प्रश्नों को सुलझाने के लिये एवं विश्व शांति की स्थापना के लिये संयुक्त राष्ट्र महासंघ बना। लेकिन दुर्भाग्य से इस संयुक्त राष्ट्र महासंघ की स्थापना के बाद भी दुनिया के देशों के राजनैतिक प्रश्नों का समाधान अभी तक नहीं हो सका। दूसरी इससे भी बड़ी असफलता संयुक्त राष्ट्र महासंघ की यह है कि विश्व शांति की स्थापना के लिये बने इस संगठन के बाद अभी तक दुनिया मे 325 छोटे-बड़े युद्ध हो चुके हैं, जिसमें लाखों लोग मारे गये, करोड़ों घरों से बेघर हुये हैं। अभी हाल में ही अमरीका और उसके सहयोगी देशों द्वारा ईराक पर किये गये हमले से यह सिध्द हो गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ अब अमरीकी राष्ट्र संघ बन चुका है। 1945 के दूसरे विश्व युध्द की समाप्ति पर यह देखा गया कि यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ चुकी है, तो फिर इस बिगड़ी हुयी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये दो संस्थायें बनायी गयीं। एक थी विश्व बैंक या जागतिक बैंक (World Bank) दूसरी थी, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष। (International Monetary fund) विश्व बैंक का कार्य था, युद्ध में बरबाद हुये देशों के अधिसंरचनात्मक ढाँचे के विकास (Infrastructural Development) के लिये कर्जा देना तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष का कार्य था, देशों को भुगतान असंतुलन की स्थिति में तात्कालिक कर्जा उपलब्ध कराना। ये दोनों संस्थायें बनी तो थीं सभी संयुक्त राष्ट्र में शामिल देशों के विकास के लिये लेकिन इन संस्थाओं द्वारा विकास यूरोपीय देशों का ही हुआ। या फिर अमरीका समर्थक देशों को ही इन संस्थाओं से लाभ मिला। क्योंकि इन दोनों संस्थाओं विश्व बैंक एवं मुद्राकोष की नीतियां हमेशा से ही अमरीकी और यूरोपीय देशों के समर्थन में रही हैं और दुनिया के गरीब देशों के हितांे के विरोध में रही हैं। दूसरे विश्व युद्ध में सबसे अधिक तबाही यूरोपीय देशों की ही हुयी थी। सबसे अधिक इमारतें युद्ध के दौरान यूरोपीय देशों की नष्ट हुयीं। सबसे अधिक लोग भी यूरोप के ही मारे गये। विश्व बैंक द्वारा इन यूरोपीय देशों को बहुत ही कम ब्याज दर तथा आसान शर्तों पर कर्जे दिये गये। इन्हीं कर्जों का इस्तेमाल करके गत 50 वर्षों में यूरोपीय देश काफी ऊपर आये। विश्व बैंक और मुद्राकोष की नीतियों से अमरीका को भी काफी फायदा हुआ। विश्व बैंक तथा मुद्राकोष में धनराशि तो उन सभी देशों की लगी हुयी है जो संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल हैं, लेकिन इस धनराशि का सबसे अधिक लाभ यूरोप एवं अमरीकी देशों को ही हुआ है।
इसी तरह दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति पर सभी देशों के बीच व्यापार को सुगम (आसान) बनाने के लिये एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था बनायी गयी। उसी संस्था का नाम गैट (GATT) जनरल एग्रीमेन्ट आन ट्रेड एन्ड टैरिफ, एक समझौते के आधार पर रखा गया। इस समझौते को हिन्दी में ”तटकर एवं व्यापार पर सामान्य समझौता” कहा जाता है। 30 अक्टूबर 1947 को हस्ताक्षर किया गया यह समझौता जनवरी 1948 से लागू हुआ। समझौते की मूल भावना यह थी, कि देशों के बीच होने वाले आपसी व्यापार में वस्तुओं पर लगने वाले टैक्स, कस्टम ड्यूटी या आयात करों के विवादों को सुलझाना और व्यापार को बढ़ावा देना। समझौते के प्रारंभ में 23 देश इसमे शामिल हुये, जिनमें भारत भी था। समय-समय पर इसमें अन्य देश भी शामिल होते गये। दूसरे देश यूरोपीय थे, एवं अमरीका भी इसमें शामिल था। सन् 1948 से लेकर सन् 1986 तक इस गैट द्वारा व्यापार को काफी बढ़ावा मिला। जो भी आपसी झगड़े सदस्य देशों के बीच तटकरों से सम्बन्धित हुये, उनका समाधान इस गैट में होता रहा। दुनिया के देशों में निर्यात-आयात का व्यापार दो तरीके से होता है। एक तो द्विपक्षीय पद्धति से दूसरा बहुपक्षीय तरीके से। द्विपक्षीय पद्धति में दो देश आपसी निर्यात व्यापार के लिये समझौते करते हैं। बहुपक्षीय पद्धति यें सभी देश सामूहिक व्यापारिक नियम तय करके व्यापार करते हैं। गैट करार हमेशा से ही बहुपक्षीय व्यापार के लिये ही बना था। 1948 से 1986 तक इस गैट करार के माध्यम से बहुपक्षीय व्यापार काफी अच्छा चला। लेकिन इस बहुपक्षीय व्यापार में अमरीका एवं यूरोपीय देशों को जितना फायदा हुआ, उतना फायदा गरीब देशों (एशियाई, अफ्रीकी देश) को नहीं हो पाया। चीन एक ऐसा देश रहा जिसने 53 सालों तक गैट करार को स्वीकार नहीं किया। बिना गैट की मदद के चीन ने मात्र द्विपक्षीय व्यापार करके ही अपने को आर्थिक जगत की ऊचाईयों तक पहुँचाया।
सन् 1980 के आस-पास पश्चिमी देशों के बाजारों में फिर से मंदी का दौर शुरू हुआ। इस मंदी के दौर का सबसे बुरा असर अमरीका के ऊपर पड़ा। अमरीका की कई बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ दिवालिया हो गयी। कई अमरीकी कारखाने बन्द हो गये। अमरीका में हजारों लोग बेरोजगार होने लगे। इसी तरह यूरोप में भी आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। इस 80 के दशक की आर्थिक मंदी को दूर करने के लिये अमरीका ने फिर युद्ध का सहारा लिया। ईरान और ईराक के बीच लगभग 8 वर्षों तक चलने वाले युद्ध में अमरीकी कम्पनियों ने अरबो-खरबों डालर के हथियार बेच कर अपने उद्योगों की मन्दी को कम करने का प्रयास किया। इसी तरह खाड़ी युद्ध को भी अमरीका ने अपने हित में ही इस्तेमाल करके अरबों-खरबों डालर के हथियारों का व्यापार किया। हाल ही में अमरीका द्वारा अफगानिस्तान एवं ईराक पर किया गया हमला भी इसी रणनीती का हिस्सा है। यूरोपीय-अमरीकी अर्थव्यवस्था की एक सबसे बड़ी परेशानी यह है कि हर 30-40 साल बाद इसमें मंदी आती है। उस मंदी को दूर किये बिना इन अमरीकी-यूरोपीय देशों का गुजारा नहीं चलता है। इसलिये अमरीकी-यूरोपीय अर्थशास्त्रियों ने इस आर्थिक मंदी का स्थायी इलाज करने की कोशिशों में गैट करार को आधार बना लिया है। उद्देश्य यह है कि मंदी को दूर करने के लिये अमरीकी- यूरोपीय सामान दुनिया के तमाम देशों के बाजारों में बिकते रहें। अमरीकी एवं यूरोपीय बाजारों में एक तरह की स्थिरता आ चुकी है। इसलिये अमरीकी-यूरोपीय अर्थव्यवस्था को जीवित रखने के लिये, दूसरे देशों के बाजारों का सहारा लेना बहुत जरूरी है। अतः अमरीकी-यूरोपीय देशों की सरकारों ने गैट करार का उपयोग करके दूसरे देशों के बाजारों को और अधिक खुलवाने का प्रयास शुरू किया है।
सन् 1986 में गैट के सदस्य देशों की एक सामान्य सभा लैटिन अमरीका के एक देश उरूग्वे मे शुरू हुयी। इस बैठक में अमरीका और यूरोपीय देशों की दादागिरी में गैट करार की सीमा को बढ़ाया गया। मूलतः 1948 से 1986 तक गैट एक बहुपक्षीय व्यापार का मंच था, तटकरों (सीमाशुल्क) का विवाद सुलझाने के लिये। लेकिन उरूग्वे दौर की वार्ताओं ने इसका स्वरूप पूरी रह से बदल दिया। गैट करार में सीमा शुल्क के मुद्दों के अलावा 28 और विषय शामिल कर दिये गये। जिसमें कृषि व्यापार, कपड़ा व्यापार, बौद्धिक सम्पदा अधिकार जैसे अवांछित विषय शामिल कर लिये गये। हालांकि इन विषयों पर कोई और समझौता होने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि ये सभी विषय सभी देशों के आन्तरिक विषय हैं। गैट करार का 1948 से 1986 तक यह नियम रहा कि देशों के आन्तरिक विषयों को गैट करार के तहत नहीं लाना चाहिए। क्योंकि ये सभी विषय आन्तरिक सम्प्रभुता से जुड़े हुये हैं। लेकिन अमरीकी दबाव में आन्तरिक सम्प्रभुता से जुड़े हुये विषय भी शामिल कर लिये गये और एक नया समझौता तैयार हुआ। इस नये समझौते को तैयार करने के लिये जो टीम बनायी गयी, उस टीम के मुखिया आर्थर डंकल नाम के एक अमरीकी थे। इसलिये इस समझौते का, शुरूआती नाम ”डंकल ड्राफ्ट” भी पड़ गया। सन् 1986 से यह डंकल ड्राफ्ट बनना शुरू हुआ और 1991 में सभी सदस्य देशों के सामने विचार-विमर्श के लिये रखा गया। इस ड्राफ्ट को बनाने वाली समिति में पूरी तरह अमरीकी-यूरोपीय प्रतिनिधियों का दबदबा था, इसलिये इसमें अधिक से अधिक ऐसी शर्तें डाली गयी जिनसे अमरीकी एवं यूरोपीय देशों को अधिक लाभ हो। गरीब अफ्रीकी, ऐशियाई, लैटिन अमरकी देशों ने थोड़ी कोशिश की, कि गरीब देशों के हितों में भी लाभ देने वाली शर्तें ड्राफ्ट में शामिल हों, लेकिन इसमें कुछ खास सफलता नहीं मिल सकी। भारत की ओर से भी काफी कोशिश 1986 से 1991 के बीच गरीब देशों के हितों को साधने वाली शर्तें ड्राफ्ट में लाने की हुयीं, लेकिन भारत सरकार को इसमें सफलता नहीं मिल सकी। इसलिये भारत सरकर ने 1986 से लगातार यह कहना शुरू किया, कि गैट करार की शर्तें भारतीय हितों के अनुकूल नहीं हैं। इस आधार पर भारत सरकार ने समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। लगातार भारत सरकार यह कहती रही कि जब तक गैट करार के वर्तमान स्वरूप को बदला नहीं जायेगा, तब तक हस्ताक्षर नहीं किये जायेंगे। संसद के अंदर और संसद के बाहर भारत सरकार की ओर से गैट करार पर हस्ताक्षर नहीं करने का वायदा किया गया। लेकिन 15 दिसम्बर 1994 को भारत सरकर ने देश के लोगों को धोखा देते हुये और संसद के खिलाफ वायदाखिलाफी करते हुये गैट करार पर हस्ताक्षर कर दिये। देश के लिये यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण था। सन् 1991 से सन् 1994 के बीच संसद में गैट करार के विषय पर मात्र 11 घंटे ही चर्चा हुयी। हमारी संसद में बहुत बार फालतू विषयों पर घंटों-घंटों चर्चा होती है और अनावश्यक हंगामें होते रहते हैं। लेकिन गैट करार जैसे गंभीर एवं संवेदनशील मुद्दे पर 4 वर्षों में मात्र 11 घंटों की ही चर्चा हो सकी। भारत में 28 राज्य और 9 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। लेकिन किसी भी राज्य की विधानसभा और केन्द्र शासित प्रदेशों की प्रतिनिधि सभा में गैट करार की शर्तों एवं प्रस्तावों पर कोई चर्चा नहीं हो सकी। थोड़ी बहुत चर्चा पं. बंगाल और पंजाब विधानसभा में हुयी लेकिन यह भी अधूरी रही। हालांकि गैट करार के कई ऐसे प्रावधान हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध राज्यों के विशेष अधिकारों के साथ है। गैट करार के बारे में जो भी थोड़ी-बहुत चर्चा हुयी है, तो वह समाचर-पत्रों एवं पत्रिकाओं में ही हो पायी है। भारत देश में प्रकाशित होने वाले कई महत्वपूर्ण दैनिक समाचार पत्रों, साप्ताहिक पत्रिकाओं और मासिक पत्रिकाओं में गैट करार पर लेख लिखे गये। इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भारत के नागरिकों को गैट-करार के बारे में थोड़ी जानकारी हो पायी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। भारत सरकार की यह जिम्मेदारी थी कि, वह गैट-करार के बारे में अधिक से अधिक जानकरी संसद में दे और देश के लोगों को भी बताये। लेकिन भारत सरकार ने अपनी जिम्मेदारी को ठीक से नहीं पूरा किया।
30 अक्टूबर 1947 को हस्ताक्षर किया गया गैट करार , जनवरी 1948 से लागू हुआ। समय-समय पर इसमें अन्य दूसरे देश भी शामिल होते गये। समय-समय पर गैट करार की वार्ताओं के दौर होते गये। वार्ता का पहला दौर क्यूबा देश के हवाना शहर में हुआ। वार्ता का दूसरा दौर 5 अगस्त 1949 फ्रांस के ऐन्सी शहर में हुआ। वार्ता का तीसरा दौर इंग्लैंड के टार्के शहर में हुआ। वार्ता के इस दौर में 4 और नये देश गैट करार में शामिल हुये। इसी तरह गैट वार्ता का चैथा दौर मई 1956 में जिनेवा में हुआ। गैट वार्ता का पांचवा दौर 1960 में, छठ़वां दौर 1964 में, सातवां दौर 1973 में टोक्यों में, आठवां दौर 1982 में जिनेवा में तथा नवां दौर 1986 में उरूग्वे देश में हुआ। 1986 के पहले और गैट करार शुरू होने तक कृषि विषय इसमें शामिल नहीं था। 1948 से 1986 तक गैट करार में सिर्फ वस्तुओं के व्यापार का ही मुद्दा शामिल था। यह वस्तुओं का व्यापार भी एक विशेष व्यापार ही होता था। देश की सीमाओं के बाहर का व्यापार अर्थात विदेश व्यापार से ही सम्ब्न्धित मुद्दे गैट करार में शामिल रहे। गैट करार में सम्बन्धित सदस्य देशों के आयात-निर्यात से सम्बन्धित आपसी झगड़ों को सुलझाने की ही व्यवस्था बनायी गयी थी। प्रत्येक देश बाहर से आनेवाली वस्तुओं पर आयात कर तथा अन्य कई तरह के करों को लगाता है। इन करों की ऊँची दरें अक्सर ही झगड़ों का कारण बनती रहीं हैं। प्रत्येक देश अपने-अपने स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण देने के लिये बाहर से आनेवाली विदेशी वस्तुओं पर अधिक से अधिक मात्रात्मक प्रतिबन्ध और ऊँचा आयात कर लगाता रहा है। इन्हीं अधिक आयात करों में तथा मात्रात्मक प्रतिबन्ध में छूट लेने-देने के लिये 1948 से 1986 तक गैट वार्तायें हुईं। इन वार्ताओं के माध्यम से देशों ने एक दूसरे को आयात करों तथा मात्रात्मक प्रतिबन्धों में अपने-अपने राष्ट्र हितों को ध्यान में रखते हुये कई तरह की छूटें दीं।
सन 1986 की उरूग्वे दौर की गैट वार्ता में पहली बार कृषि विषय, बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार विषय, सेवा क्षेत्र का विषय आदि शामिल किये गये। इन नये विषयों को गैट करार में शामिल करने पर काफी विरोध हुआ। यह विरोध सबसे अधिक अफ्रीकी देश, एशियाई देश तथा लैटिन अमरीकी देशों की ओर से हुआ। इस विरोध में भारत, नाईजीरिया, ब्राजील, मिस्त्र जैसे देश सबसे आगे थे। लेकिन अमरीकी-यूरोपीय देशों के सामने इन देशों का विरोध धीरे-धीरे कम होता गया। अन्त में इन सभी देशों ने अमरीका और यूरोपीय देशों के सामने घुटने टेक दिये। गैट करार में कृषि समझौता, बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार समझौता, सेवाक्षेत्र समझौता आदि अमरीकी और यूरोपीय देशों के दबाव में शामिल किया गया। कृषि समझौते को गैट करार में शामिल करने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह है कि कृषि को उद्योग और व्यापार जैसा ही मानना और दुनिया के तमाम देशों का बाजार कृषि उत्पादों के लिये उपलब्ध कराना।
गैट करार में कुल 28 अध्याय हैं। जिनके कुछ नाम हैं। जैसे कृषि समझौता, पूँजीनिवेश समझौता, सेवा व्यापार का समझौता, बौद्धिक सम्पदा अधिकार का समझौता आदि-आदि। इन सभी अध्यायों के बारे में विस्तार से जानना जरूरी है। यह गैट करार हमारे देश के संविधान के पूरी तरह विरूद्ध है, यह भी जानना जरूरी है। हमारे देश की संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के विरूद्ध भी है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की मान्यताओं के पूरी तरह खिलाफ है यह गैट करार। यह गैट करार अफ्रीकी, ऐशियाई और लैटिन अमरीकी देशों की लूट का वही रास्ता खोल रहा है, जो 500 वर्षों पहले कोलम्बस एवं वास्को-डिगामा जैसे लुटेरों ने खोला था। कोलम्बस, वास्को डिगामा तथा अन्य यूरोपीय देशों ने 500 वर्ष पूर्व जो लूट-मार पूरी दुनिया के लगभग 60-70 देशों में की थी, वही अब विश्व व्यापार संगठन करार के कानूनी स्वरूप से होने जा रही है।
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