लोक-सहित्य
जन-साधारण में वे लोग समूह सम्मिलित माने जाते हैं जो
विशिष्ट वर्ग से पृथक होते हैं,इनका जो मौखिक साहित्य रहा उसे लोक साहित्य कहते है
। उनके ज्ञान का आधार विज्ञान नहीं होता अपितु पूर्व प्रचलित परम्पराए और पीढ़ी दर
पीढ़ी श्रुत ज्ञान होता हैं । अत: लोक-साहित्य, लोक-संस्कृति का प्रतिबम्ब होता हैं
। परिष्कृत साहित्य के विपरीत लोक-साहित्य होता हैं । इसकी भाषा व्याकरण के नियमों
से सदा मुक्त होती हैं । जनभाषा के माध्यम से उनकी चिंता, पीड़ा, वेदना तथा
हर्ष-उल्लास की अकृत्रिम अभिव्यक्ति लोक-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता हैं ।
डॉ.हजारीप्रसाद द्धिवेदी ने,“ जो
चीजें लोक-चित्त से सीधे उत्पन्न हो साधारणजन को आंदोलित करती हैं वे ही
लोक-साहित्य नाम से पुकारी जाती हैं ।” लोक-चित्त से तात्पर्य हैं जो परम्परा
प्रतीत विवेचानापरक शास्त्रों और उनकी टिप्पणियों से अपरिचित हो ।
डॉ.धीरेन्द्र वर्मा ने,“ ऐसी मौलिक अभिव्यक्ति जो लोक की युग-युगीन साधना में
समाहित रहते हुये जिसमे लोक मानस प्रतिबिंबित रहता है,लोक-साहित्य हैं । वह मौलिक
अभिव्यक्ति हैं और सामान्य जन समूह उसे अपना मानता हैं ।”
डॉ.सत्येन्द्र ने,विस्तार के साथ लोक-साहित्य के बारे में सुस्पष्ट शब्दों
में लिखते हैं,“ पिछड़ी जातियों में अपेक्षाकृत समुन्नत जातियों के असंस्कृत समुदायों
में, अविशिष्ट विश्वास, रीति-रिवाज, कहानियां, गीत, कहावतें, जादू-टोना, रोग तथा
मृत्यु के सम्बन्ध में आदि तथा असभ्य विश्वास, अनुष्ठान और त्यौहार, धर्मकथा अवदान,
लोक कहानियां, गीत,पहेलियाँ तथा लोरियां भी उसके विषय हैं । ”
डॉ.सत्येन्द्र की लोक साहित्य विषयक धरणा में
स्परूप और वैशिष्ट्य का कथन नहीं था । लोक साहित्य के उपासक डॉ.कृष्णदेव
उपाध्याय ने लोक-साहित्य की परिभाषा इस प्रकार दी हैं,“ सभ्यता के प्रभाव से
दूर रहने वाली अपनी सहज व्यवस्था में जो निरक्षर जनता वर्तमान में हैं उसकी
आशा-निराशा, हर्ष-विषद, जीवन-मरण, सुख-दुःख की अभिव्यंजना जिस साहित्य में प्राप्त
होती हैं ; उसे ही लोक-साहित्य कहते हैं ।”
इस प्रकार
लोक-साहित्य लोगों का वहा साहित्य है जो लोगों द्वारा लोगों के लिए लिखा गया हो ।
विदेशों में भी लोक-साहित्य का काफी अध्ययन हो रहा हैं । इन्सायक्लोपीडिया ऑफ
अमेरिका में लोक-साहित्य की परिभाषा इस प्रकार हैं,“FLOKLORE ।S THE SC।ENCE WH।CH EMBRESS CELL THAT RELATES TO ANC।ENT
OBSERVANCES AND CUSTOMES TO THE NOT।ONS,LECLE।FS TRAD।T।ONS SUPERST।T।ONS AND PREJUD।CES OF THE COUENEN PEOPLE.” इसी प्रकार लोक-साहित्य को लेकर R.R. MER।T ने लिखा हैं
कि–“FLOKLORE MAY BE SA।D TO ।NCLUDE THE CULTURE OF THE PEOPLE WH।CH HAS NOT BE EN WORKES ।NTO THE OFFC।AL REL।G।ON AND H।STORY BUT WH।CH ।S AND HAS ALWAYS BEEN OF SELF GROWTH.”
उपरोक्त विविध परिभाषाओं से
लोक-साहित्य का स्परूप स्पष्ट निर्देशित होता हो यह कहना तो ठीक नहीं हैं हां
सभावित जरुर हो सकती है ।‘ब्रजलोक’ ग्रंथ में डॉ.कैलाशचंद भाटिया ने
लोक-साहित्य के संदर्भ में लिखा हैं कि“ लोक-साहित्य में लोक प्रतिबिंबित होता है ।
लोक जीवन की सृष्टि रूप में अभिव्यक्ति लोक-साहित्य में मिलती हैं । कोई
एक्व्यक्ति ऐसे साहित्य का न निर्माण कर सकता हैं न विनाश हो । समस्त जीवन का
प्रतिनिधित्व ही लोक-साहित्य हैं ।” अब तक लोक-साहित्य की विभिन्न हिंदी ,अंग्रेजी
विषयक परिभाषाए देखि गई हैं । इससे लोक-साहित्य के अध्ययन के कई रूप ,स्परूप
,वैशिष्ट्य विकसित दिखाई देता है । इस प्रकार लोक-साहित्य मनुष्य की आदिम और
प्रकृत भावाभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साहित्य हैं । इस साहित्य की शैली अनलंकृत तथा
गतिशील होती हैं । यह हमेशा कालसापेक्ष तथा परिवेश संपन्न साहित्य हैं । संक्षेप
में यह लोक-साहित्य बहुविध, बहुरंगी, बहुशैली, बहुजन-हिताय साहित्य है ।
पंकज 'वेला'