सूनी द्घाटी का दैदीप्यमान सूरज :-
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हर लेखक की जीवन-शैली ही नहीं, लेखन-शैली
भी भिन्न होती है, अपने समकालीनों से भी और पूर्ववर्ती और
परवर्ती लेखकों से भी। यही नहीं कई बार एक लेखक की प्रतिभा में दूसरे लेखक की
प्रतिभा जोड़ने का जो गुणनफल होता है, साहित्य में उसकी
ऊँचाई को ठीक से नापा नहीं जा सकता है। बहुत पहले फणीश्वरनाथ रेणु ने त्रिालोचन
पर एक संस्मरण लिखा था, संस्मरण के अंत में लिखते हैं-'त्रिालोचन ;जीद्ध को देखते ही हर बार मेरे मन के
ब्लैक बोर्ड पर, एक 'अगणितक',
असाहित्यिक तथा अवैज्ञानिक प्रश्न अपने आप लिख जाता हैः 'वह कौन सी चीज है, जिसे त्रिालोचन में जोड़ देने पर
वह शमशेर हो जाता है और द्घटा देने पर नागार्जुन?'
यद्यपि रेणु की यह टिप्पणी कवियों के प्रसंग
में है लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि रेणु में अद्भुत काव्य विवेक था। इसी
के समकक्ष कभी उपेन्द्र नाथ अश्क ने श्रीलाल जी को अपने एक पत्रा में लिखा था-'पिफर मैंने
आपका संग्रह 'अंगद के पाँव' पढ़ा और
मैंने अपनी प्रतिक्रिया विस्तार से अपनी पुस्तक 'हिन्दी
कहानी : एक अंतरंग परिचय' में दी थी ;जाने आपने देखा या नहींद्ध। मैंने उसमें कहीं लिखा था कि यदि श्रीलाल
शुक्ल के पास परसाई की दृष्टि हो और परसाई के पास श्रीलाल शुक्ल का मंजाव हो तो
अद्भुत व्यंग्य की सृष्टि हो सकती है।'
यदि गहराई से त्रिालोचन पर रेणु की टिप्पणी
और श्रीलाल शुक्ल पर अश्क की टिप्पणी पर विचार करें तो स्पष्ट होगा कि रेणु की
टिप्पणी धारदार ही नहीं,
सूक्ष्म भी है, जबकि अश्क की टिप्पणी स्थूल
ही नहीं, लेखक के व्यक्तित्व को गौण भी करती है। यही नहीं
उनकी टिप्पणी का संदर्भ भी अनुपयुक्त है। हम जानते हैं कि परसाई जी ने छोटे
उपन्यास और कई छोटी-छोटी लेकिन तीखी कहानियाँ भी लिखी हैं लेकिन मूलतः वे
व्यंग्यकार हैं। जबकि श्रीलाल जी मूलतः उपन्यासकार हैं। यह बात अलग है कि वे
व्यंग्य लेखक भी हैं। दूसरी बात जो इस संदर्भ में प्रासंगिक है, वो यह है कि यदि श्रीलाल शुक्ल के पास अपनी दृष्टि नहीं होती तो 'राग दरबारी' जैसा कालजयी उपन्यास कभी नहीं लिख
पाते। इसी तरह यदि परसाई के लेखन में 'मंजाव' नहीं होता तो वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार कभी नहीं होते। दोनों
लेखक अपने क्षेत्रा में श्रेष्ठ हैं, अपनी लेखकीय दृष्टि
और भाषा के मंजाव-कसाव के कारण।
३१ दिसम्बर, १९२५ को उत्तर प्रदेश के
लखनऊ शहर के पास के गाँव अतरौली में जन्मे श्रीलाल शुक्ल ने ८३ वर्ष पूरे किए
हैं। इलाहाबाद विश्व विद्यालय से स्नातक करने के बाद १९४९ में राज्य सिविल सेवा
से सेवानिवृत हुए। १९५४ में प्रकाशित 'स्वर्ण ग्राम और
वर्षा' व्यंग्य कथा से रचना यात्राा की शुरूआत की और अब तक
कविता छोड़कर साहित्य की अन्य विधाओं में विपुल लेखन किया है। १९७० में 'राग दरबारी ' उपन्यास पर इन्हें साहित्य अकादेमी
का पुरस्कार मिला और भारत सरकार द्वारा २००८ में इन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत
किया गया। इसके अतिरिक्त भी इन्हें अन्य सम्मान और पुरस्कार मिले हैं। विदेश की
कई साहित्यिक यात्रााएँ भी इन्होंने की हैं। इस उम्र में भी लेखन में सक्रिय
हैं। २००५ में श्रीलाल शुक्ल के अमृत महोत्सव के अवसर पर संगीत में गहरी रुचि और
समझ रखने वाले मूर्धन्य हिन्दी कथाकार श्रीलाल शुक्ल की हँसी की जो व्याख्या
कथाकार कृष्णबलदेव वैद ने की, उसी को दृष्टि में रखते हुए
आलोचक नामवर सिंह ने निराला की पंक्तियों में कहा कि 'ओ
हँसी बहुत कुछ कहती थी ;हैद्ध/पिफर भी अपने में रहती थी ।
कृष्णबलदेव वैद ने श्रीलाल शुक्ल की
औपन्यासिक हँसी का जिक्र करते हुए कहा था कि 'सबसे ऊँची और असाध्य हँसी
गमगीन या काली हँसी है, यह व्यंग्यातीत है। श्रीलाल शुक्ल
का शुमार उन बड़े व्यंग्यकारों में है, जिनके काम में
व्यंग्य की मौलिक और बौ(कि हँसी को सुना जा सकता है।' अमृत
महोत्सव के अवसर पर डॉ. नामवर सिंह के संपादन में 'श्रीलाल
शुक्ल : जीवन ही जीवन' पुस्तक लोकार्पित की गई, जिसमें संपादक का पहला लेख 'कस्मै देवाय... का 'क' से दो प्रसंगों का उल्लेख जरुरी है। पहला-'तय हुआ था कि अस्सी पार का यह ऐतिहासिक जन्मदिवस 'सहस्र
चन्द्रोदय' के नाम से मनाया जाए क्योंकि अस्सी वर्ष की
उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मनुष्य एक सहस्र पूर्ण चन्द्र के दर्शन कर लेता है।
ज्योतिष की गणना भी यही कहती है। ...श्रीलाल जी को किसी तरह संयोग से इसकी भनक
लग गई और उन्होंने तत्काल इसे खारिज कर दिया।
फोन पर मुझे पिफर वही 'हम्बग'
की सी गूंज सुनाई पड़ी।' दूसरे प्रसंग का
उल्लेख करते हुए नामवर जी लिखते हैं-'श्रीलाल शुक्ल कहानी
कहने में जिस 'युक्ति' का प्रयोग
करते हैं, उसका गुर दरअसल, उनकी रहस्यपूर्ण
अपराध कथा 'आदमी का जहर' में है। एक
तरह से यह उपन्यास उनकी कथा-कृतियों में अत्यंत तिरस्कृत है। इस उपन्यास के
तिरस्कार में कुछ हाथ स्वयं लेखक का भी है। एक साक्षात्कार में उन्होंने ही अपने
श्रीमुख से कहा है कि 'यह सिपर्फ मनोरंजन के उद्देश्य से
लिखी गई थी। यह 'राग दरबारी' के पहले
,एक अस्थायी आर्थिक कठिनाई के समाधान के लिए अलग-अलग कुल
सैंतीस द्घंटों में लिखी गई-लिखी भी नहीं, बोलकर लिखाई गई
थी। पर शिल्प की बात जाने दें, ऐसी कृतियाँ कोई सर्जनात्मक
चुनौती नहीं देतीं, इसलिए उस अनुभव को दोहराया नहीं।'
हिन्दी में जिन उपन्यासों की चर्चा हुई है, उनमें 'राग दरबारी' ;१९६८द्ध, 'मकान'
;१९७६द्ध, 'पहला पड़ाव' ;१९८७द्ध, और 'विश्रामपुर का
संत' ;१९९८द्ध हैं। उपन्यास की तुलना में कहानी संग्रह की
संख्या बहुत कम है। व्यंग्य संग्रहों में 'उमराव नगर में
कुछ दिन', 'कुछ जमीन पर, कुछ हवा में',
'जहालत के पचास साल' और 'खबरों की जुगाली' चर्चित हुए। श्रीलाल जी ने
साहित्य अकादेमी के लिए भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर पर मोनोग्राफ लिखे।
आलोचना की इनकी एकमात्रा पुस्तक है-'अज्ञेय : कुछ रंग,
कुछ राग' ;१९९९द्ध। 'हिन्दी
हास्य व्यंग्य' संकलन का संपादन भी इन्होंने किया है। 'मेरे साक्षात्कार' उनकी अन्य पुस्तक है। 'राग दरबारी', 'पहला पड़ाव' और
'मकान' पुस्तकों का अंग्रेजी एवं सभी
प्रमुख्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन नई
दिल्ली से 'संचयिता : श्रीलाल शुक्ल' प्रकाशित हुई है, जिसमें उनका विशिष्ट लेखन संकलित
है।
श्रीलाल शुक्ल हिन्दी के उन थोड़े से शिखर
कथाकारों में से हैं जिनकी चिंता के केन्द्र में भारतीय लोकतंत्रा और उसकी
विडंबनाओं में फंसा साधारण मनुष्य रहा है। अपने लेखन में उन्होंने हिन्दी प्रदेश
के संद्घर्षों,
तनावों और अंतर्विरोधों, हताशा, निराशा, जिजीविषा और अंतर्भूत करुणा के सबसे
प्रामाणिक और विश्वसनीय वृतांत प्रस्तुत किए हैं। उनकी अंतर्दृष्टि अपने समय और
समाज में फैलती-बढ़ती पतनशीलता और विषमता को तीक्ष्णता के साथ देखती है तो दूसरी
ओर उसी समाज की मानवीयता और संद्घर्षशीलता को भी ओझल नहीं करती है। श्रीलाल जी
की सृजनशीलता का दायरा व्यापक है, जिसमें बुजुर्ग लेखक,
समवयस्क और युवतर कथाकारों के प्रति संवेदनशीलता भी है। उनके लेखन
की एक बड़ी विशेषता यह है कि वे दूर से दृश्यों को तटस्थ भाव से अपने लेखन से
कैप्चर नहीं करते, उसमें खुद इन्वाल्व होते हैं।
श्रीलाल जी अपने लेखन से हिन्दी साहित्य के
शीर्ष पर आसानी से नहीं पहुँचे हैं बल्कि हिन्दी के संपादक और आलोचक की
भविष्यवाणियों को अपनी औपन्यासिक प्रतिभा से झुठला करके। १९६८ में जब उनका तीसरा
उपन्यास 'राग दरबारी' छपा था तो 'कथा'
;संपादक मार्कण्डे यद्ध के सितंबर १९६९ के अंक में श्रीपत राय ने
इस पुस्तक की आलोचना करते हुए यह लिखकर इसे रिजेक्ट कर दिया था कि 'यह बहुत बड़ी ऊब का महाग्रंथ' व अतिशय उबाने वाली
कुरुचिपूर्ण और कुरचित कृति है'। यही नहीं यह भविष्यवाणी
भी की थी कि 'यह अपठित रह जाएगी'। आलोचक
नेमिचन्द्र जैन ने इसे 'असंतुष्ट, क्षुब्ध
व्यक्ति की बेशुमार शिकायतों और खीज भरे आक्षेपों का अंतहीन सिलसिला' करार दिया था।
'कसौटी' ;संपादक नंदकिशोर नवलद्ध के समापन अंक 'बीसवीं
शताब्दी की कालजयी कृतियाँ' में सुवास कुमार ने 'राग दरबारी' का पुनर्मूल्यांकन करते हुए लिखा है-'श्रीपत राय के मंतव्य और भविष्यवाणी को झुठलाते हुए 'गोदान' और 'मैला आंचल'
की तरह 'राग दरबारी' भी
हिन्दी का 'बेस्ट सेलर' अर्थात
बहुपठित और लोकप्रिय उपन्यास साबित हुआ है। आज इसकी पठनीयता को लेकर किसी को
शंका करने की गुंजाइश नहीं है। पिछले ४० सालों में इसका खुमार कम हुआ हो,
ऐसा नहीं लगता। उलटे, इस बीच इसने 'क्लैसिक' का दर्जा पा लिया है।' समकालीन हिन्दी आलोचना में जिस तरह आलोचकों या संपादकों के प्रयत्न से
अनेक कृतियाँ जिस तरह उछाली जाती हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ
ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जहां आलोचक चाह कर भी कृतियों को
दबाये रखने में सफल नहीं हुए हैं।
उदाहरण के लिए नंददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक 'गोदान'
के स्थापत्य से नाखुश थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने 'मैला आंचल' की प्रतिकूल समीक्षा लिखी। डॉ. नामवर
सिंह 'मैला आंचल' के महत्व को सही
वक्त पर नहीं पहचान सके लेकिन इससे इन पुस्तकों का महत्व कम नहीं हुआ। एक आलोचक
ने सही टिप्पणी की है-'मैला आंचल' का
गाँव 'गोदान' के गाँव से, समय के लिहाज से लगभग एक दशक की दूरी पर है तो 'राग
दरबारी' का गाँव 'मैला आंचल' के गाँव से कोई दो दशकों की दूरी पर। गाँवों में होने वाले परिवर्तनों
और परिवर्तनों की तह में छिपी हुई प्राणधारा को पकड़ने की रेणु और शुक्ल ने
अपने-अपने ढंग से ईमानदार कोशिश की है। 'गोदान' और 'मैला आंचल' की भांति ही 'राग दरबारी' की रचना की अपनी मौलिकता और अपना
औचित्य है।
वैसे तो श्रीलाल शुक्ल के 'मकान'
में कुछ दिन राजेश जोशी भी रह चुके हैं। किरायेदार के रूप में
नहीं, एक पाठक के रुप में लेकिन 'पंडित
श्रीलाल शुक्ल' से जिस तरह रवीन्द्र कालिया की अंतरंगता है,
उस तरह नहीं। अपने संस्मरण में कालिया जी लिखते हैं-'मैं हिन्दी के उन खुशनसीब लेखकों में हूँ, जिसने
श्रीलाल जी के साथ जमकर दारु पी है, डाँट खाई है और उससे
कहीं ज्यादा स्नेह पाया है।'
हिन्दी में कुछ ही ऐसे साहित्यकार हैं जिनके जीवन और लेखन में संतुलन है, श्रीलाल जी उन्हीं में एक हैं। 'सूनी द्घाटी का यह सूरज' हिन्दी साहित्य के आकाश में सदियों तक दैदीप्यमान रहे, यही हमारी शुभकामना है।
मूल लेखिका:- साधना अग्रवाल
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पंकज वेला ‘दशकंठी’
एम.ए. गांधी एवं शांति अध्ययन
महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
मैं मात्र प्रस्तुतकर्ता
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