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भारत में सर्वाधिक प्रचलित लिपि जिसमें संस्कृत, हिन्दी और मराठी भाषाएँ लिखी जाती हैं। इस शब्द का सबसे पहला उल्लेख 453 ई. में जैन ग्रंथों में मिलता है। ‘नागरी’ नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग इसका कारण नगरों में
प्रयोग को बताते हैं। यह अपने आरंभिक रूप में ब्राह्मी लिपिके नाम से जानी जाती थी। इसका वर्तमान रूप नवी-दसवीं शताब्दी से
मिलने लगता है।
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भाषा विज्ञान की शब्दावली में यह ‘अक्षरात्मक’
लिपि कहलाती है। यह
विश्व में प्रचलित सभी लिपियों की अपेक्षा अधिक पूर्णतर है। इसके लिखित और उच्चरित
रूप में कोई अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक ध्वनि संकेत यथावत लिखा जाता है।
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देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी
भाषाएँ लिखीं जाती हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, नेपाली, गढ़वाली, बोडो,
अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसे
नागरी लिपि भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी,
बिष्णुपुरिया मणिपुरी,
रोमन और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।
उत्तर
भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं–9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण
भारत में
इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’
कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’
की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’
नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’
के आधार पर नागरी लिपि
का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता। एक अन्य मत के अनुसार, गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका
नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु काशी देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं।
एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत
को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगरराजाओं
के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर, महाराष्ट्र की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम
अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब
उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में
8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की
लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में पंजाब और कश्मीर में प्रयुक्त शारदा
लिपि नागरी
की बहन थी,
और बांग्ला
लिपि को
हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं। आज समस्त उत्तर भारत में और नेपाल में भी और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।
देवनागरी
की विशेषता अक्षरों के शीर्ष पर लंबी क्षैतिज रेखा है, जो आधुनिक उपयोग में सामान्य तौर पर जुड़ी हुई
होती है,
जिससे लेखन के दौरान
शब्द के ऊपर अटूट क्षैतिक रेखा का निर्माण होता है। देवनागरी को बाएं से दाहिनी ओर
लिखा जाता है। हालांकि यह लिपि मूलत: वर्णाक्षरीय है, लेकिन उपयोग में यह आक्षरिक है, जिसमें प्रत्येक व्यंजन के अंत में एक लघु ध्वनि को मान लिया जाता है, बशर्ते इससे पहले वैकल्पिक स्वर के चिह्न का
उपयोग न किया गया हो। देवनागरी को स्वर चिह्नों के बिना भी लिखा जाता रहा है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है
जो प्रचलित लिपियों (रोमन,
अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे
वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है।
देवनागरी का विकास उत्तर
भारतीय ऐतिहासिक गुप्त लिपि से हुआ, हालांकि अंतत: इसकी व्युत्पत्ति ब्राह्मी वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। सातवीं शताब्दी
से इसका उपयोग हो रहा है,
लेकिन इसके परिपक्व
स्वरूप का विकास 11वीं शताब्दी में हुआ। उच्चरित ध्वनि संकेतों की
सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति ‘भाषा‘
कहलाती है। जबकि लिखित
वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा श्रव्य होती है, जबकि लिपि दृश्य। भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी
लिपि से ही निकली हैं। ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यों ने शुरू किया। ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना
5वीं सदी BC
का है जो कि बौद्धकालीन है। गुप्तकाल के प्रारम्भ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए, उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी
ब्राह्मी से तमिल
लिपि / कलिंग
लिपि,तेलुगु, एवं कन्नड़ लिपि, ग्रंथ
लिपि तमिलनाडु, मलयालम
लिपि का
विकास हुआ।
उत्तरी
ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास
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उत्तरी
ब्राह्मी (350ई. तक)
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गुप्त
लिपि (4थी-5वीं सदी)
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सिद्धमातृका
लिपि (6ठी सदी)
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कुटिल
लिपि (8वीं-9वीं सदी)
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नागरी
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शारदा
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गुरुमुखी
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कश्मीरी
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लहंदा
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टाकरी
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देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी
कठिनाठयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेज़ों की भाषा नीति फ़ारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी। इसीलिए हिन्दी को भी फ़ारसी लिपि में लिखने का षड़यंत्र किया
गया।
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जॉन गिलक्राइस्ट— हिन्दी भाषा और फ़ारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी
विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं—दरबारी या फ़ारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फ़ारसी
शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी
शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था, किन्तु उसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फ़ारसी लिपि
में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही
प्रचार किया।
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विलियम प्राइस— 1823 ई. में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप
में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी पर बल
दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा–सम्बन्धी भ्राँन्ति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के
बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
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अदालत सम्बन्धी विज्ञप्ति (1837 ई.)— वर्ष 1830
ई. में अंग्रेज़ कम्पनी के द्वारा अदालतों में फ़ारसी के साथ–साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव
में,
इस विज्ञप्तिका पालन 1837 ई. में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला
भाषा और
बांग्ला लिपि पचलित हुई। संयुक्त प्रान्त उत्तर
प्रदेश, बिहार व मध्य प्रान्त मध्य
प्रदेश में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ, लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर
उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी
ही,
साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार पर जी–जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी
से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
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1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू – मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी
सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदभावपूर्ण हो गई।
अंग्रेज़ विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्ष–विपक्ष में अनेक तर्क–वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस
साहब हिन्दी
का समर्थन करने वालों में प्रमुख थे।
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नागरी लिपि और हिन्दी तथा फ़ारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न सम्बन्ध
हो गया। अतः दोनों के पक्ष–विपक्ष में काफ़ी विवाद हुआ।
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राजा शिव प्रसाद ‘सितारे–हिन्द’ का लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)—फ़ारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी
भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई. में उनके लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन ‘मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ
इंडिया’
से आरम्भ हुआ।
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जॉन शोर—एक अंग्रेज़ अधिकारी फ्रेडरिक़ जॉन शोर ने
फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायलय
में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।
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बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई. व 1873 ई.)—वर्ष 1870 ई. में गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि फ़ारसी – पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए। बल्कि ऐसी भाषा लिखी
जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फ़ारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है।
वर्ष 1873
ई. में बंगाल सरकार ने
यह आदेश जारी किया कि पटना, भागलपुर तथा छोटा नागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायलयों व कार्यालयों
में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएँ हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में ही की जाएँ।
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वर्ष 1881
ई. तक आते–आते उत्तर
प्रदेश के
पड़ोसी प्रान्तों बिहार, मध्य
प्रदेश में
नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में
नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।
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प्रचार की दृष्टि से वर्ष 1874 ई. में मेरठ में ‘नागरी प्रकाश’ पत्रिका प्रकाशित हुई। वर्ष 1881 ई. में ‘देवनागरी प्रचारक’ तथा 1888
ई. में ‘देवनागरी गजट’ पत्र प्रकाशित हुए।
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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की
और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न–पत्र का जवाब देते हुए कहा- ‘सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की
बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है, जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।’
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प्रताप नारायण मिश्र - पं. प्रताप नारायण मिश्र ने हिन्दी–हिन्दू–हिन्दूस्तान का नारा लगाना शुरू कर दिया।
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1893
ई. में अंग्रेज़ सरकार
ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र
प्रतिक्रिया हुई।
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नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना–1893 ई.) व मदन मोहन मालवीय— नागरी प्रचारिणी सभी की स्थापना—वर्ष 1893
में नागरी प्रचार एवं
हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने
कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने
‘नागरी कैरेक्टर’ नामक एक पुस्तक अंग्रेज़ी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की
अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।
मालवीय
के नेतृत्व में 17
सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल
द्वारा लेफ्टिनेंट गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई.)—मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ–वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ (1897 ई.) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई. में प्रान्त के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर
के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला
और हज़ारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीय जी का ही अथक
प्रयास था,
जिसके परिणामस्वरूप
अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसीलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का
श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
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गौरी दत्त—व्यक्तिगत रूप से मेरठ के गौरी दत्त को नागरी प्रचार के लिए की गई
सेवाएँ अविस्मरणीय हैं।
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इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई. को गवर्नर साहब ने फ़ारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों
में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभीमान के लिए संतोषप्रद नहीं था। इससे
हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं दिया गया था। बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई
गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबन्ध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि कचहरियों में स्थान
दिला सका और यह मज़बूत आधार प्रदान किया, जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।
देवनागरी लिपि के गुण:-
1. एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत।
2. एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि
व्यक्त।
3. जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम।
4. मूक वर्ण नहीं।
5. जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
6. एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं।
7. उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की
क्षमता।
8. वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप।
10. भारत की अनेक लिपियों के निकट।
देवनागरी लिपि के दोष:-
1. कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुंद्रण में कठिनाई।
2. शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए।
3. अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ,
लृ, ॡ, ङ्,
ञ्, ष)— आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चारित नहीं कर पाता।
4. द्विरूप वर्ण (ञ्प्र अ, ज्ञ, क्ष,
त, त्र, छ,
झ, रा ण, श)
5. समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
6. वर्णों के संयुक्त करने की कोई नश्चित् व्यवस्था
नहीं।
7. अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता
का अभाव।
8. त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार–बार उठाना पड़ता है।
9. वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर
भ्रम की स्थिति।
10. इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले पर
उच्चारण वर्ण के बाद।
देवनागरी लिपि में किए गए
सुधार:-
2. सावरकर बंधुओं का ‘अ की बारहखड़ी’।
4. गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद
दाहिने तरफ़ अलग रखने का सुझाव।
5. श्रीनिवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्प्रमाण के
नीचे ऽ चिह्न लगाने का सुझाव।
6. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी
लिपि सुधार समिति का गठन (1935)
और उसकी सिफ़ारिशें।
8. उत्तर
प्रदेश सरकार
द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफ़ारिशें।
9. शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि सम्बन्धी
पकाशन—’मानक देवनागरी वर्णमाला’ (1966 ई.), ‘हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ (1967 ई.), ‘देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण’ (1983 ई.) आदि।
शिवराममूर्ति की राय है कि हर्षवर्धन के समकालीन गौड़देश (पश्चिम
बंगाल) के
राजा शशांक के ताम्रपत्रों में पूर्वी भारत की नागरी लिपि का स्वरूप पहले-पहल
देखने को मिलता है। परंतु इन ताम्रपत्रों की लिपि को हम अभी नागरी नहीं कह सकते।
अधिक से अधिक इसे हम ‘प्राक-नागरी’ का नाम दे सकते हैं, क्योंकि इस लिपि के अक्षर न्यूनकोणीय (तिरछे) और ठोस त्रिकोणी
सिरोंवाले हैं। उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग पहले-पहल कन्नौज के प्रतिहारवंशीय राजा
महेन्द्रपाल (891-907 ई.) के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इनमें ‘आ’ की मात्रा पहले की तरह अक्षर की दाईं ओर आड़ी न होकर, खड़ी और पूरी लंबी हो गई है। ‘क’ का नीचे का मुड़ा हुआ वक्र उसके दंड के साथ मिल जाता है। इस लिपि
में अक्षरों के नीचे के सिरे सरल है और सिरों पर, पहले की तरह ठोस त्रिकोण न होकर, अब आड़ी लकीरें हैं। इसके बाद तो उत्तर भारत से नागरी लिपि के
ढेरों लेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशी, चाहमान
(चौहान) वंशी, राष्ट्रकूट, चालुक्य(सोलंकी), परमार, चंदेलवंशी, हैहय (कलचुरि) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए
दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं। दक्षिण के पल्लव शासकों ने भी अपने लेखों के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया था। इसी लिपि
से आगे चलकर ‘ग्रंथ लिपि’ का विकास हुआ। तमिल
लिपि की
अपूर्णता के कारण उसमें संस्कृत के ग्रन्थ लिखे नहीं जा सकते थे, इसलिए संस्कृत के ग्रंथ जिस नागरी लिपि में लिखे जाने लगे, उसी का बाद में ‘ग्रन्थ
लिपि’ नाम पड़ गया। कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर में नागरी लिपि में लिखे हुए
बहुत से विवरण मिलते हैं। इनमें सरल और कलात्मक दोनों ही प्रकार की लिपियों का
प्रयोग देखने को मिलता है। यह लिपि हर्षवर्धन की लिपि से काफ़ी मिलती-जुलती दिखाई देती है।
सुदूर
दक्षिण में भी पाड़य शासकों ने 8वीं
शताब्दी में नागरी का इस्तेमाल किया था। महाबलिपुरम के अतिरणचंड़ेश्वर नामक
गुफामंदिर में जो लेख मिलता है, वह भी नागरी में है। सबसे नीचे दक्षिण में नागरी का जो लेख मिलता
है,
वह है पाड़य-राजा वरगुण
(9वीं शताब्दी) का पलियम दानपत्र्। इस दानपत्र की
लिपि में और अतिरणचंड़ेश्वर के गुफालेख की लिपि में काफ़ी साम्य है। दक्षिण के
उत्तम,
राजराज और राजेन्द्र
जैसे चोल राजाओं ने अपने सिक्कों के लेखों के लिए नागरी का इस्तेमाल किया है। श्रीलंका के पराक्रमबाहु, विजयबाहु जैसे राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी का उपयोग हुआ है। 13वीं शताब्दी के केरल के शासकों के सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य’ जैसे शब्द नागरी में अंकित मिलते हैं। विजयनगर शासनकाल से तो नागरी (नंदिनागरी) का बहुतायत से उपयोग देखने को
मिलता है। इस काल के अधिकांश ताम्रपत्रों पर नागरी लिपि में ही लेख अंकित हैं, हस्ताक्षर ही प्राय: तेलुगु-कन्नड़ लिपि में है। सिक्कों पर भी नागरी का
प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिणी शैली की नागरी लिपि (नंदिनागरी लिपि) का
प्राचीनतम नमूना हमें राष्ट्रकूट राजा
दंतिदुर्ग के समंगड दानपत्रों में, जो 754
ई. के हैं, दिखाई देता है। बाद में बादामी के चालुक्यों के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट शासकों ने तो इस नागरी लिपि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया।
राष्ट्रकूट राजा
कृष्णराज प्रथम के नागरी लिपि में लिखे हुए तलेगाँव-दानपत्र प्रसिद्ध हैं। देवगिरि
के यादववंशी राजाओं ने भी नागरी लिपि का ही उपयोग किया था। धार नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध
है। बांसवाड़ा तथा वेतमा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र (1020 ई.) उसकी ‘कोंकणविजय’
के उपलक्ष्य में जारी
किए गये थे। ये आरंभिक नागरी लिपि में है।
संदर्भ:-
25नवम्बर,2011 .http://portal.iecit.in/archives/1281
प्रस्तुतकर्त्ता:-
पंकज ‘वेला’ दशकंठी
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन ,सत्र:- 2017-19
एम.जी.ए.एच.वी. वर्धा ,महाराष्ट
सम्पर्क सूत्र :-9119568237
KUMARPANKAJ20JAN1988@GMAIL.COM