Wednesday, 20 February 2019

मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी, और भारतीय भाषाएं





फ़रवरी 21, 2014
मूल लेखक....योगेंद्र जोशी



आज (21 फरवरी) मातृभाषा दिवस है । उन सभी जनों को इस दिवस की बधाई जिन्हें अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव हो, जो उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, और जो उसे यथासंभव व्यवहार में लाते हैं । उन शेष जनों के प्रति बधाई का कोई अर्थ नहीं हैं जो किसी भारतीय भाषा को अपनी मातृभाषा घोषित करते हैं, लेकिन उसी से परहेज भी रखते हैं, उसे पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं ।


अपना भारत ऐसा देश है जहां अनेकों भाषाएं बोली जाती हैं, और जहां के लोगों की क्षेत्रीय विविधता के अनुरूप अपनी-अपनी मातृभाषाएं हैं । विडंबना यह है कि अधिकांश भारतीय अंग्रेजी के सापेक्ष अपनी घोषित मातृभाषा को दोयम दर्जे का मानते हैं । वे समझते हैं कि उनकी मातृभाषा सामान्य रोजमर्रा की बोलचाल से आगे किसी काम की नहीं । वे समझते हैं कि किसी गहन अथवा विशेषज्ञता स्तर की अभिव्यक्ति उनकी मातृभाषा में संभव नहीं । अतः वे अंग्रेजी का ही प्रयोग अधिकाधिक करते हैं । अंग्रेजी उनके जबान पर इस कदर चड़ी रहती है कि उनकी बोलचाल में अंग्रेजी के शब्दों की भरमार रहती है । लेखन में वे अंग्रेजी को वरीयता देते हैं, या यों कहें कि वे अपनी तथाकथित मातृभाषा में लिख तक नहीं सकते हैं । अध्ययन-पठन के प्रयोजन हेतु भी वे अंग्रेजी ही इस्तेमाल में लाते हैं । उनके घरों में आपको अंगरेजी पत्र-पत्रिकाएं एवं पुस्तकें ही देखने को मिलेंगी । उनके बच्चे जन्म के बाद से ही अंगरेजी की घुट्टी पीने लगते हैं । घर और बाहर वे जो बोलते हैं वह उनकी तथाकथित मातृभाषा न होती है, बल्कि उस भाषा का अंगरेजी के साथ मिश्रण रहता है ।


उन लोगों को देखकर मेरे समझ में नहीं आता है कि उनकी असल मातृभाषा क्या मानी जाए ? मैं यहां पर जो टिप्पणियां करने जा रहा हूं वे दरअसल देश की अन्य भाषाओं के संदर्भ में भी लागू होती हैं । एक स्पष्ट उदाहरण के तौर पर मैं अपनी बातें हिंदी को संदर्भ में लेकर  कह रहा हूं, जिसे मैं अपनी मातृभाषा मानता हूं । मैं सर्वप्रथम यह सवाल पूछता हूं कि आप उस भाषा को क्या कहेंगे जिसमें अंगरेजी के शब्दों की बहुलता इतनी हो कि उसे अंगरेजी का पर्याप्त ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति समझ ही न सके । प्रश्न का उत्तर और कठिन हो जाता है जब उस भाषा में अंगरेजी शब्दों के अलावा अंगरेजी के पदबंध तथा वाक्यांश और कभी-कभी पूरे वाक्य भी प्रयुक्त रहते हों । सामान्य हिंदीभाषी उनके कथनों को कैसे समझ सकेगा यह प्रश्न मेरे मन में प्रायः उठता है । हिंदी को अपनी मातृभाषा बताने वाले अनेक शहरी आपको मिल जाएंगे जो उक्त प्रकार की भाषा आपसी बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं, घर पर, कार्यस्थल पर, वस्तुतः सर्वत्र, अपने बच्चों के साथ भी ।


आज के शहरी, विशेषकर महानगरीय, परिवेश में लोगों की बोलचाल से हिंदी के वे तमाम शब्द गायब हो चुके हैं जो सदियों से प्रयुक्त होते रहे हैं । अवश्य ही साहित्यिक रचनाओं में ऐसा देखने को सामान्यतः नहीं मिलेगा । लेकिन सवाल साहित्यकारों की मातृभाषा का नहीं है । (भारत में ऐसे साहित्यकारों की संख्या कम नहीं होगी जो अपनी घेषित मातृभाषा में लिखने के बजाय अंगरेजी में रचना करते हैं और तर्क देते हैं कि वे अंगरेजी में अपने भाव बेहतर व्यक्त कर सकते हैं ।) बात साहित्यकारों से परे के लोगों की हो रही है जिनके लिए भाषा रोजमर्रा की अभिव्यक्ति के लिए होती है, व्यवसाय अथवा कार्यालय में संपर्क के लिए, बाजार में खरीद-फरोख्त के लिए, पारिवारिक सदस्यों, मित्रों, पड़ोसियों से वार्तालाप के लिए, इत्यादि । इन सभी मौकों पर कौन-सी भाषा प्रयोग में लेते हैं शहरी लोग ? वही जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं । मैं उस भाषा को हिंदी हरगिज नहीं मान सकता । वह न हिंदी है और न ही अंगरेजी, वह तो दोनों का नियमहीन मिश्रण है, जिसमें स्वेच्छया, नितांत उन्मुक्तता के साथ, हिंदी एवं अंगरेजी ठूंस दी जाती है । यह आज की भाषा है उन शहरी लोगों की जो दावा करते हैं कि उनकी मातृभाषा हिंदी है जिसे वे ठीक-से बोल तक नहीं सकते हैं । तब उनकी मातृभाषा क्या मानी जानी चाहिए ?


मेरा यह सवाल हिंदी को अपनी मातृभाषा कहने वालों के संदर्भ में था । अब में दूसरी बात पर आता हूं, मातृभाषा दिवस की अवधारणा के औचित्य पर ?
आज दुनिया में दिवसों को मनाने की परंपरा चल पड़ी है । दिवस तो सदियों से मनाये जाते रहे हैं त्योहारों के रूप में या उत्सवों के तौर पर, अथवा किसी और तरीके से । जन्मदिन या त्योहार रोज-रोज नहीं मनाए जा सकते हैं, अतः उनके लिए तार्किक आधार पर दिन-विशेष चुनना अर्थयुक्त कहा जाएगा । किंतु कई अन्य प्रयोजनों के लिए किसी दिन को मुकर्रर करना मेरे समझ से परे है । मैं वैलेंटाइन डेका उदाहरण लेता हूं । प्रेमी-प्रमिका अपने प्यार का इजहार एक विशेष दिन ही करें यह विचार क्या बेवकूफी भरा नहीं है ? (मेरी जानकरी में वैलेंटाइन डे दो प्रेमियों के मध्य प्रेमाभिव्यक्ति के लिए ही नियत है; पता नहीं कि मैं सही हूं या गलत ।) क्या वजह है कि प्रेम की अभिव्यक्ति एक ही दिन एक ही शैली में सभी मनाने बैठ जाएं ? और वह भी सर्वत्र विज्ञापित करते हुए । प्रेम की अभिव्यक्ति दुनिया को बताके करने की क्या जरूरत है ? यह तो नितांत निजी मामला माना जाना चाहिए दो जनों के बीच का और वह पूर्णतः मूक भी हो सकता है । उसमें भौतिक उपहारों की अहमियत उतनी नहीं जितनी भावनाओं की । प्रेमाभिव्यक्ति कभी भी कहीं भी की जा सकती है, उसमें औपचारिकता ठूंसना मेरी समझ से परे है । फिर भी लोग उसे औपचारिक तरीके से मनाते हैं वैलेंटाइन डे के तौर पर । क्या साल के शेष 364 दिन हम उसे भूल जाएं । इसी प्रकार की बात मैं फादर्स डे”, “मदर्स डे”, “फ़्रेंड्स डेआदि के बारे में भी सोचता हूं । इन रिश्तों को किसी एक दिन औपचारिक तरीके से मनाने का औचित्य मेरी समझ से परे है । ये रिश्ते साल के 365 दिन, चौबीसों घंटे, माने रखते हैं । जब जिस रूप में आवश्यकता पड़े उन्हें निभाया जाना चाहिए । किसी एक दिन उन्हें याद करने की बात बेमानी लगती है । फिर भी लोग इन दिवसों को मनाते हैं, जैसे कि उन्हें निभाने की बात अगले 364 दिनों के बाद ही की जानी चाहिए ।


और कुछ ऐसा ही मैं मातृभाषा विदस के बारे में भी सोचता हूं ।
कहा जाता है कि विश्व की सांस्कृतिक विविधता बचाए रखने के उद्येश्य से राष्ट्रसंघ ने 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस घोषित किया है । किंतु क्या ग्लोबलाइजेशनके इस युग में सांस्कृतिक संक्रमण और तदनुसार भाषाओं का विद्रूपण अथवा विलोपन रुक सकता है ? अपने देश में अंगरेजी के प्रभाव से जिस प्रकार हिंदी एवं अन्य भाषाएं प्रदूषित हो रही हैं, और जिस प्रकार उस प्रदूषण को लोग समय की आवश्यकता के तौर पर उचित ठहराते हैं, उससे यही लगता है कि इस दिवसका लोगों के लिए कोई महत्व नहीं हैं । इस दिन पत्र-पत्रिकाओं में दो-चार लेख अगले दिन भुला दिए जाने के लिए अवश्य लोग देख लेते होंगे, लेकिन अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देने के लिए वे प्रेरित होते होंगे ऐसा मुझे लगता नहीं । अंगरेजी को गले लगाने के लिए जिस तरह भारतीय दौड़ रहे हैं, उससे यही लगता है कि भारतीय भाषाएं मातृभाषा के तौर पर उन्हीं तक सिमट जाएंगी जो दुर्भग्य से अंगरेजी न सीख पा रहे हों ।


प्रस्तुतकर्ता
पंकज 'वेला' दशकंठी
एम.ए. गांधी एवं शांति अध्ययन.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
पं.कुमार
21/02/2019


मातृभाषा हमारा मानव अधिकार....




मूल लेखक ..प्रो.गिरीश्वर मिश्र...


भाषा की सत्ता उसके प्रयोग से बनती है और उससे आदमी इस कदर जुड़ जाता है कि वह उसके अस्तित्व की निशानी बन जाती है.

इसी की याद दिलाने के लिए यूनेस्को ने इक्कीस (21/02/1999) फरवरी को ‘मातृभाषा दिवस’ घोषित किया है. इसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिसे जान लेना जरूरी है. आज का ‘पाकिस्तान’ बनने के पहले ही यह बहस छिड़ गई थी कि वहां की राष्ट्रभाषा क्या होगी? उस बहस की परवाह किए बगैर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1948 में उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया. पूर्वी पाकिस्तान में इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई. वहां बांग्ला को राजभाषा बनाने की मांग को लेकर आंदोलन छिड़ गया. ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘राष्ट्रभाषा संग्राम परिषद’ का गठन कर 11 मार्च 1949 को ‘बांग्ला राष्ट्रभाषा दिवस’ मनाने का ऐलान कर दिया. उस ऐलान के साथ ही विरोध में सड़क पर उतरे आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ और आंसू गैस के गोले छोड़े गए. इससे भाषा आंदोलन दबने के बजाय और तेज हुआ और तीन वर्ष बीतते-बीतते छात्रों का वह संघर्ष वृहद राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया. 21 फरवरी 1952 को ढाका में कानून सभा की बैठक होनी थी. उस सभा में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को ज्ञापन देने का फैसला भाषा आंदोलनकारियों ने किया.
उन्होंने जैसे ही ढाका विश्वविद्यालय से निकलकर राजपथ पर आना शुरू किया, पुलिस ने फायरिंग कर दी जिसमें कई लोग मारे गए. इस घटना के बाद पूर्वी पाकिस्तान के लोग हर वर्ष 21 फरवरी को ‘भाषा शहीद दिवस’ के रूप में मनाने लगे. यह दिन जीवन संग्राम की प्रेरणा का प्रतीक बन गया. भाषा से संस्कृति, संस्कृति से स्वायत्तता और स्वायत्तता से स्वाधीनता की मांग उठी. इस तरह पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आंदोलन ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का रूप लिया और एक नए देश का जन्म हुआ. बांग्लादेश के भाषा शहीद दिवस को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कुछ वर्ष पहले ‘मातृभाषा दिवस’ की मान्यता दी.
मातृभाषा से आदमी की एक खास पहचान बन जाती है. ‘अंग्रेज’, ‘जर्मन’, ‘चीनी’, या फिर ‘बंगाली’, ‘मैथिल’ और ‘पंजाबी’ जैसे शब्द जितना भाषा के साथ जुड़े हैं, उतनी ही शिद्दत से समुदाय-विशेष का भी बोध कराते हैं. भाषा को आदमी गढ़ता जरूर है, पर यह भी उतना ही सही है कि भाषा आदमी को रचती है और उसमें तमाम विशेषताओं, क्षमताओं, मूल्य दृष्टियों को भी स्थापित करती है. ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि जीवन के सारे व्यापार- अपना दुख-दर्द, हास-परिहास, लाभ-हानि, यश-अपयश- सब कुछ हम भाषा के जरिए खुद महसूस करते हैं और दूसरों को भी उसका अहसास दिलाते हैं. भाषा के साथ यह रिश्ता इतना गहरा और अटूट हो जाता है कि वह जीवन का ही पर्याय बन जाता है. स्वाभाविक परिस्थितियों में जन्म के साथ हर बच्चे को एक खास तरह की ध्वनियों और उनसे बनी भाषा का वातावरण पहले से तैयार मिलता है.
उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि भाषा के उपयोग का उपकरण भी बच्चे के शरीर के अन्य अंगों की तुलना में ज्यादा तैयार और सक्रिय रहता है. एक तरह से भाषा के लिए तत्परता या ‘रेडीनेस’ से लैस होकर ही इस दुनिया में बच्चे का पदार्पण होता है. उसकी पहली भाषा मातृभाषा होती है. सोते-जागते बच्चे को हर समय मातृभाषा की गूंज सुनाई पड़ती है. उस भाषा का सीखना सहज ढंग से और एक तरह अनायास होता है. वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि आठ महीने की आयु में ही बच्चा बहुतेरे ध्वनि रूपों को ग्रहण करने में सक्षम हो जाता है. बारह महीने का होते-होते पहला शब्द बोलता है पर उस समय भी लगभग पचास शब्दों को समझता है. अठारह महीने में वह 50-60 शब्द बोलने लगता है पर उसके दुगुने-तिगुने शब्दों को समझता है. इस तरह लिखने-पढ़ने, यहां तक कि बोलने की क्षमता आने के पहले ही बच्चा उस भाषा के अनेकानेक शब्दों के अर्थ समझने लगता है. यह सब स्वाभाविक रूप से होता है.
मातृभाषा में सीखना सरल होता है क्योंकि बच्चा उस भाषा के साथ सांस लेता है और जीता है. वह उसकी अपनी भाषा होती है और उस भाषा को व्यवहार में लाना उसका मानव अधिकार है. परंतु भारत में राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी कारणों से भाषा और मातृभाषा का सवाल उलझता ही चला गया. आज की कटु हकीकत यही है कि भाषाई साम्राज्यवाद के कारण अंग्रेजी प्रभु भाषा के रूप में स्थापित है और आज के प्रतिस्पर्धी और वैीकरण के जमाने में हम उसी का रुतबा स्वीकार बैठे हैं. हम भूल जाते हैं कि भाषा सीखने का बना-बनाया आधार मातृभाषा होती है और उसके माध्यम से विचारों, संप्रत्ययों (कांसेप्ट) आदि को सीखना आसान होता है. ऐसा न कर हम शिशुओं का समय विषय को छोड़ कर एक अन्य (विदेशी!) भाषा को सीखने में लगा देते हैं और उसके माध्यम से विषय को सीखना केवल अनुवाद की मानसिकता को ही बल देता है. साथ ही हर भाषा किसी न किसी संस्कृति और मूल्य व्यवस्था की वाहिका होती है. हम अंग्रेजी को अपना कर अपने आचरण और मूल्य व्यवस्था को भी बदलते हैं और इसी क्रम में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भी विस्मृत करते जा रहे हैं.
आज अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की पौ बारह है क्योंकि उससे जुड़ कर उच्च वर्ग में शामिल हो पाने की संभावना दिखती है. दूसरी ओर हिंदी समेत सभी भारतीय मातृभाषाओं की स्थिति कमजोर होती जा रही है. सम्मान न मिलने के कारण उन्हें उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है. यहां तक कि उनका उपयोग करने पर कई विद्यालयों में बच्चों को दंडित भी किया जाता है. इस स्थिति में न मूल भाषा की प्रवीणता आ पाती है, न ही अंग्रेजी के प्रयोग की क्षमता. बच्चे ही नहीं इस परंपरा में दीक्षित प्रौढ़ लोग भी सोच-विचार और मौलिक चिंतन से कहीं ज्यादा अनुवाद के काम में ही लगे रहते हैं. सृजनात्मकता की दृष्टि से हमारा मानस अधकचरा ही बना रहता  है. इस तरह की भाषिक अपरिपक्वता का खमियाजा जिंदगी भर भुगतना पड़ता है और पीढ़ी की पीढ़ी इससे प्रभावित होती है.
इस प्रसंग में यह जान लेना जरूरी है कि अंग्रेजी का हौवा केवल भ्रम पर टिका है. अनेक देशों में वैज्ञानिक अध्ययन यह स्थापित कर चुके हैं कि मातृभाषा में सीखना प्रभावी तरीके से सीखने का आधार होता है. आज ‘सबके लिए शिक्षा’ का लक्ष्य सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण माना  जा रहा है. इस लक्ष्य की प्राप्ति मातृभाषा के द्वारा ही संभव होगी. यूनेस्को द्वारा और अनेक देशों में हुए शोध से यह प्रमाणित है कि छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि, दूसरी भाषा की उपलब्धि, चिंतन की क्षमता, जानकारी को पचा कर समझ पाने की क्षमता, सृजनशक्ति और कल्पनाशीलता, इनसे उपजने वाला अपनी सामथ्र्य का बोध मातृभाषा के माध्यम से ही उपजता है. कुल मिलाकर मातृभाषा के माध्यम से सीखने का बौद्धिक विकास पर बहुआयामी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. ऐसे में मातृभाषा को आरंभिक शिक्षा का माध्यम न बनाना एक गंभीर सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौती है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती....

प्रस्तुतकर्ता ...
पंकज 'वेला' दशकंठी
एम.ए. गांधी एवं शांति अध्ययन.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
पं.कुमार
21/02/2019


Wednesday, 6 February 2019

अंतरिम बजट, अंतिम बजट या चुनावी वायदे




जट घोषणाओं के जरिए मोदी सरकार ने इस बार मुख्य रूप से किसानों, गरीबों, मज़दूरों और मध्यम वर्ग को साधने की कोशिश की है. साथ ही प्रखर हिंदुत्व के एजेंडे के लिए प्रतिबद्धता भी जताई. उन्होंने आयकर में छूट की सीमा दोगुनी कर उस मध्यम वर्ग और नौकरीपेशा लोगों को ख़ुश कर दिया जो पिछले चार सालों के दौरान छूट की सीमा न बढ़ने से भाजपा से नाराज बैठा था. हालांकि यह सिर्फ एक अप्रैल से 30 जून तक(तीन महीनों) का अंतरिम बजट है, वित्तमंत्री ने इनकम टैक्स से छूट की सीमा ढाई लाख से बढ़ाकर पांच लाख कर दी. बहुप्रतीक्षित यूनिवर्सल बेसिक इनकम(यूबीआई) तो लागू नहीं हुई लेकिन 15,000 रुपए मासिक आय वाले 60 वर्ष से अधिक आयु के 10 करोड़ श्रमिकों के लिए 3000 रुपए की मासिक पेंशन की घोषणा कर दी. निर्बल वर्गों के बुजुर्ग और निर्बलों लिए यह धनराशि किसी बड़े वरदान से कम नहीं है. भाजपा को उम्मीद है कि ये लोग भी चुनाव में आशीर्वाद भी उसी को देंगे.  नौकरीपेशा लोगों की तरह ही किसान भी भाजपा से नाराज बैठे थे. तीन महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव से पहले किसानों के आंदोलन से सरकार को खासी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. वे फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को दोगुना किए जाने की मांग कर रहे थे. सरकार की घोषणाओं से वे संतुष्ट नहीं थे. इसलिए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने उन्हें लुभाने की पूरी तैयारी कर ली है. वित्त मंत्री ने दो हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों के खाते में छह हज़ार रुपये हर साल डालने की घोषणा की. इसके तहत दो हज़ार रुपये प्रति फसल, तीन फ़सलों के लिए दिए जाऐंगे. चूंकि यह फैसला दिसंबर से लागू होगा, इसलिए लग रहा है कि पहली किस्त के 2000 रुपए तो हर किसान के खाते में चुनाव होने से पहले पहुंच जाएंगे. पीयूष गोयल के मुताबिक़, इस योजना का फ़ायदा देश के तक़रीबन 12 करोड़ छोटे और ग़रीब किसान परिवारों को मिलेगा. आम तौर पर एक भारतीय परिवार में औसतन पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से देखा जाए तो इस स्कीम से तक़रीबन 60 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा. 60 करोड़ लोग यानी वोट देने वाली आबादी का लगभग आधा हिस्सा.

गोवंश रक्षा के जरिए हिंदुत्व के एंजेडे पर काम – इसी तरह राष्ट्रीय गोकुल आयोग की स्थापना कर ७५० करोड़ रुपये की धनराशि के जरिए राष्ट्रीय कामधेनु मिशन के तहत गौमाता की रक्षा का प्रण किया. यह भाजपा और संघ परिवार के हिंदुत्व के एजेंडे के एजेंडे को बढाने वाला फैसला है.
वित्त मंत्री ने अगले 10 सालों के विकास का खाका खींच कर न सिर्फ ख़ुद को आत्मविश्वास से भरपूर दिखाया, साथ ही लोगों की उम्मीदों को भी पंख लगा दिए. उन्होंने कहा कि अगले पांच सालों में 5 ट्रिलियन डॉलर(3600 करोड़ रुपए) की और 8 सालों में 10 ट्रिलियन डॉलर (यानी 7200 करोड़ रुपए) की अर्थव्यवस्था बन जाएगी.
अपने तक़रीबन एक घंटे 45 मिनट के बजट भाषण में कार्यकारी वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने बॉलीवुड फ़िल्म ‘उड़ी: द सर्जिकल स्ट्राइक‘ का ज़िक्र किया और बताया कि वो सिनेमा हॉल में दर्शकों का ‘जोश‘ देखकर प्रभावित हुए. ये फ़िल्म कुछ साल पहले भारतीय सेना की ओर से की गई सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि पर आधारित है. फ़िल्म ने काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया. इस फ़िल्म में अंध-राष्ट्रवाद (जिंगोइज़म) दिखाया गया है, जो लोगों को सिनेमा हॉल तक खींच पाने में सफल रहा.

कुल मिलाकर बजट में कृषि, सैन्य, वेतनभोगी और गैर संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों को खुश करने की कोशिश हुई है. सूक्ष्म और मध्यम उद्यम से जुड़ी महिलाओं से अगर कुछ खरीदारी की जाती है तो जीएसटी में कुछ लाभ दिया जाएगा. बजट में नरेंद्र मोदी की सरकार ने हर क्षेत्र को कुछ न कुछ देने की कोशिश की है. अब सवाल यह उठता है कि जिस हिस्से को ध्यान में रख कर बजट में घोषणाएं हुई हैं, वो भाजपा को आगामी चुनावों में फायदा दिला पाएगी? जहां तक किसानी वर्ग की बात है तो कर्जमाफी का असर ऐसी घोषणाओं से कहीं अधिक होता है. सरकार देश के बड़े हिस्से में उपजे कृषि संकट से निबटने की कोशिश कर रही है. एक और दिलचस्प बात ये है कि इसी हफ़्ते देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने सत्ता में आने पर सबके लिए एक न्यूनतम आय गारंटी स्कीम लाने का वादा किया था. दूसरी तरफ़ मोदी सरकार की स्कीम में सबसे ज़्यादा मुश्किल है ये पता लगाना कि किसे स्कीम का फ़ायदा मिलना चाहिए और किसे नहीं. भारत के ज़्यादातर हिस्सों में ज़मीन का लेखा-जोखा बहुत ज़्यादा विश्वसनीय नहीं है. इसके अलावा दूसरा बड़ा सवाल वही है जो हमेशा कायम रहता है- इतने सारे पैसे आएंगे कहां से?
अर्थशास्त्र मानता है कि कोई भी चीज़ मुफ़्त में नहीं मिलती. अगर किसानों को ये पैसे दिए जाएंगे तो किसी न किसी को इसे ज़्यादा टैक्स के रूप में चुकाना ही होगा. ज़ाहिर है ये चुकाने वाला होगा भारत का छोटा मिडिल क्लास. इसके अलावा पीयूष गोयल ने देश के बड़े असंगठित क्षेत्र के लिए एक पेंशन स्कीम की घोषणा भी की. वित्त मंत्री ने अपने भाषण में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की संख्या 42 करोड़ बताई. इस योजना में असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए 60 साल की उम्र के बाद हर महीने तीन हज़ार रुपये पेंशन का प्रस्ताव दिया गया है. ये स्कीम उन्हीं लोगों के लिए होगी, जिनकी मासिक आय 15 हज़ार रुपये या इससे कम है. हालांकि इस स्कीम का फ़ायदा उठाने के लिए लाभार्थी को अपने भी कुछ पैसे लगाने होंगे. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले एक 18 साल के शख्स को हर महीने 55 रुपये जमा करने होंगे. सरकार भी उतनी ही रक़म अपनी तरफ़ से डालेगी, तभी वो 60 साल की उम्र के बाद इस पेंशन का हक़दार होगा. अब एक बार फिर इस स्कीम को लागू करने में कई बड़ी दिक्क़तों का सामना करना पड़ेगा. असंगठित क्षेत्र मे काम करने वाले एक बड़े तबके को कैश में भुगतान किया जाता है. इसके अलावा उन्हें मिलने वाले पैसों में भी बहुत असमानता है. ऐसी स्थिति में सरकार कैसे पता लगाएगी कि किसे इस पेंशन स्कीम के दायरे में रखा जाना चाहिए और किसे नहीं. अब रही बात सैन्य बजट की तो इसमें काफी बढ़ोत्तरी की गई है. जो देश की सुरक्षा और सैनिकों की सुरक्षा दोनों के लिए ही आवश्यक है. देश सर्वोपरि है, यह तो सभी मानेंगे.
फ़िलहाल मोटे तौर पर अगर देखा जाय तो प्रधान मंत्री मोदी ने एक बड़े वर्ग को फायदा पहुँचाने की घोषणा कर विपक्ष को धराशायी कर दिया है. उधर पश्चिम बंगाल में प्रधान मंत्री की सभाओं में अप्रत्याशित और बेकाबू भीड़ भी बहुत कुछ सन्देश देती है. यानी ममता दीदी के गढ़ में सेंध लगाने की कोशिश. अब देखना यह होगा कि असंगठित और नेता विहीन विपक्ष कैसे वर्तमान सरकार को हराने में सक्षम होती है. प्रधान मंत्री अपनी सभी सभाओं में अपनी उपलब्धियों और बजट के प्रावधानों की चर्चा करेंगे ही. जब संसद में मोदी मोदी के नारे लग सकते हैं तो भीड़ का क्या कहना! फिर भी बजट की बारीकियों को भी लोग अध्ययन कर ही रहे हैं. अगर सचमुच फायदा होता है तो जनता तो अपना हित ही सोचेगी न. एक बहुत बड़ी समस्या बेरोजगारी की है, साथ ही किसानों के उसके उपज की सही कीमत मिलने की बात है. कर्ज माफी मोदी सरकार भी यथासंभव कर ही रही है. देखना यह होगा कि हमारे भ्रष्ट सिस्टम में यह लाभ आम जनता तक कितना पहुंचता है. नोट-बंदी के बाद बहुत बड़ा मार रोजगार देने वाले छोटे छोटे उद्योगों पर पड़ा था. हाल के दिनों में बेरोजगारी के जारी आंकड़े भयावह स्थिति दर्शाते हैं. ये बेरोजगार लोग ही रैलियों में कुछ पैसों की लालच में भीड़ बढ़ाते है और असामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ हिंसा पर भी तुरंत उतारू हो जाते हैं. अगर सभी को यथायोग्य रोजगार मिल जाए तो वे अपने ही काम में ब्यस्त रहेंगे. आलम यह है कि जो किसी भी प्राइवेट संस्थान में कार्यरत है वह ओवरलोडेड है क्योंकि मैन-पॉवर कम रखने का दबाव हर क्षेत्र पर है, ताकि लागत खर्च को घटाया जा सके. नयी तकनीक और ऑटोमेशन से भी मैन पॉवर की मांग घटी है. यह सब मूल-भूत समस्याएं हैं, जिसपर ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही जनसँख्या वृद्धि को हर हाल में रोकना होगा क्योंकि जो भी प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं वे कम पड़ते जा रहे हैं. बीच बीच में प्राकृतिक आपदा भी तबाही का कारण बनती है और उससे भी सरकार और आम लोगों को जूझना ही पड़ता है. एक और बहुत बड़ी समस्या जो विकराल रूप धारण करती जा रही है, वह है कचरा निस्तारण की और अशुद्ध और उपयुक्त जल को साफ और शुद्ध कर पुनरुपयोग करने की. इसके लिए सरकारी स्तर पर ही समाधान निकलने की जरूरत है, तभी स्वच्छ भारत और स्वच्छ पर्यावरण का सपना साकार होगा. एक और बात सबको उचित शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध कराने की है. यह हर नागरिक के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के बाद प्राथमिक आवश्यकता है. सभी सरकारें इस दिशा में काम कर रही है, पर शायद अभी पर्याप्त नहीं है. वायदे को धरातल पर उतरना जरूरी है. तभी होगा सबका साथ और सबका विकास!  

  जय हिन्द! जय भारत!.   – जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.


मूल लेखक :- जवाहर लाल सिंह
03/02/2019




प्रस्तुतकर्त्ता:-
पंकज वेला दशकंठी
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन ,सत्र:- 2017-19  
एम.जी.ए.एच.वी. वर्धा ,महाराष्ट
सम्पर्क सूत्र :-9119568237


ये कैसी आजादी ?






आज 26 जनवरी है । हमारा देश 70 वां गणतंत्र दिवस हर्षोल्लाष से मना रहा है । आजादी तो हमें 15 अगस्त 1947 को ही यानी आज से लगभग 72 साल पहले ही मिल चुकी है । आजादी के बाद बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की अगुआई में बैरिस्टरों के एक समूह ने अथक प्रयास करके देश के सभी वर्गों ,जातियों धर्मों व समूहों के साथ न्याय करने के लिए भारतीय संविधान की संरचना की जो आज हमारे देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा ग्रंथ है । संविधान में सभी वर्गों के साथ सही न्याय किये जाने की अवधारणा को अमली जामा पहनाते हुए दस साल के लिए समाज के दबे कुचले व पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की विशेष व्यवस्था की गई । इस व्यवस्था के तहत आरक्षित वर्ग के लोगों को नौकरीयों में आरक्षण का लाभ मिलने लगा । 1954 में अश्पृश्यता कानून लागू किये जाने के बाद सवर्णों की नाराजगी के बावजूद धीरे धीरे समाज के इन दोनों वर्गों के बीच स्थित गहरी खाई समाप्त होने लगी । शिक्षा के प्रचार व प्रसार ने जनमानस के विचारों को पूरी तरह प्रभावित किया । असमानता की इस खाई को पाटने का सभी ने यथाशक्ति प्रयास किया । लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद भी यदि हम अपने आसपास नजर डालें तो बहुत सी ऐसी विसंगतियाँ नजर आती हैं जिन्हें देखकर मन में यह सवाल जरूर उठता है ..क्या यही आजादी के मायने हैं ? ‘ आइये ! कुछ उदाहरणों से आजादी के मायने समझने का प्रयास करें ।
हमारे संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की आजादी दी है । इसी आजादी के तहत हम अपने देश के शीर्ष पद पर आसीन व्यक्ति के बारे में भी अपना स्वतंत्र विचार प्रकट कर सकते हैं । शालीनता के दायरे में टीका टिप्पणी भी कर सकते हैं । लेकिन जब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश विरोधी गतिविधि को आप क्या कहेंगे ? पिछले दिनों जे एन यू प्रकरण खासा चर्चा में रहा । हालाँकि अभी इस में लगाये आरोपों पर विवाद जारी है लेकिन यदि आरोप सत्य साबित हुए तो यह घोर निंदनीय है । अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस तरह की आजादी नहीं दी जा सकती । इसी प्रकरण को लेकर खुद को देशभक्त होने का प्रमाणपत्र देनेवाली सत्ताधारी पार्टी के ग्यारह सदस्य मध्यप्रदेश से देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप में पकड़े गए । यह भी घोर निंदनीय है । नैतिकता राजनीति में बची ही नहीं और यह बहुत ही दुःखद है कि हमारे देश की राजनीति दिनों दिन अनैतिकता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है ।
शिक्षा के प्रचार प्रसार की वजह से लोगों में जागरूकता बढ़ रही है । लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहे हैं । महिला सशक्तिकरण की बयार भी अपने अनोखे अंदाज में आगे बढ़ रही है । इसके सकारात्मक परिणाम भी नजर आ रहे हैं जो स्वागतयोग्य है । आज हमारे देश की महिलाएं हर क्षेत्र में अग्रणी हैं । देश का कोई भी कीर्तिमान उनसे अछूता नहीं है । बहुत बढ़िया लगता है जब हम इन सब पर नजर डालते हैं लेकिन जब आधुनिकता के नाम पर महिलाओं के फूहड़ अंगप्रदर्शन को देखते हैं तो मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ये कैसी आजादी ?

दूरदराज के गांवों में आजादी के 72 वर्षों बाद भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव देखकर बरबस ही मुख से निकल पड़ता है ये कैसी आजादी ?

देश का पेट भरनेवाला किसान भूखे रहता है । गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण करनेवाला मजदूर एक अदद झोंपड़े से आगे की सोच भी नहीं सकता । ये कैसी व्यवस्था बना दी है हमने ?

शादियों , जलसों व उत्सवों में फिजूलखर्ची करने वाले लोग यह देखकर भी संवेदनशून्य ही रहते हैं कि उनके छोड़े गए जूठे भोजन के लिए इंसानों और जानवरों में भी जंग होती है कभी कभी । अनावश्यक दिखावे पर दिल खोलकर खर्च करनेवाले महानुभाव जब किसी जरूरतमंद की मदद करनी हो तो बगलें झाँकने लगते हैं । नतीजा अमीरी और गरीबी के बीच खाई और गहरी होती जा रही है । ऐसी व्यवस्था बना दी गई है कि अमीर और अमीर , गरीब और गरीब होता रहे , असमानता की खाई और बढ़ती रहे । यह सब देखकर क्या यह सवाल नहीं उठता कि ये कैसी आजादी ?

सामाजिक तानेबाने का विस्तृत अध्ययन किये बिना अंग्रेजों द्वारा बनाई गई शासन प्रणाली ज्यों का त्यों अपना लिया गया । सवालिया निशान इस पर भी खड़ा होता है । अंग्रेजों की बाँटो और राज करो की झलक हमारी संसदीय प्रणाली में साफ दिखाई पड़ती है । यही वजह है कि देश पर राज करनेवाली किसी भी पार्टी को 47 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिले अर्थात 53 फीसदी लोगों के विरोध के बावजूद उस दल को शासन करने का अधिकार मिला जिसे मात्र 47 फीसदी लोगों ने पसंद किया था ।  सरकार के कामकाज पर टीका टिप्पणी करने वालों को तुरंत देशद्रोही का तमगा दे देनेवाली पार्टी के समर्थकों का व्यवहार भी यह सवाल खड़े करता है , ये कैसी आजादी ?

किसान जब भूख व कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करता है तब बरबस ही सवाल उठता है ये कैसी आजादी
? अभी पिछले दिनों ही उड़ीसा में एक छोटी सी बच्ची भूख भूख कहकर दम तोड़ देती है और उसकी माँ को सरकारी राशन इसलिए नहीं मिला क्योंकि उसके पास आधार कार्ड नहीं था । इंसानी जिंदगियों पर हावी नियमों को देखकर भी सवाल उठता है , ये कैसी आजादी ?
सरकारी दफ्तरों में मामूली से कार्य के लिए भी अनावश्यक धक्के और मुट्ठी गर्म करने वाकये नजर आते रहते हैं । अभी पिछले दिनों एक महिला का वीडियो काफी चर्चा का विषय बना रहा जिसमें कोई मुहल्ले का छुटभैया नेता राशन कार्ड बनाने के नाम पर उस महिला का यौन शोषण करता दिख रहा है । एक भारतीय महिला को भारतीयता के प्रमाणपत्र के लिए इस हद तक समझौता करना पड़े तो सवाल उठता है कि ये कैसी आजादी ? जिसमें सामान्य प्रमाणपत्र भी सामान्य लोगों के लिए असामान्य बना दिये गए हैं जिसका नतीजा होती हैं ऐसी घटनाएं या फिर दलालों और बिचौलियों के नए साम्राज्य व तंत्र का फलना व फूलना । दूरदराज के गांवों में आज भी स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं का अभाव एक बार फिर यही सवाल खड़े करती है ।सवालों की फेहरिस्त बहुत लंबी है । यदि आपके मन में भी ऐसे कोई सवाल उठते हैं तो प्रतिक्रिया में साझा कीजिये । धन्यवाद !

मूल लेखक :- राजकुमार कांदु
26/01/2019

प्रस्तुतकर्त्ता:-
पंकज वेला दशकंठी
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन ,सत्र:- 2017-19  
एम.जी.ए.एच.वी. वर्धा ,महाराष्ट
सम्पर्क सूत्र :-9119568237



देवनागरी लिपि एक समीक्षात्मक अध्ययन




·         भारत में सर्वाधिक प्रचलित लिपि जिसमें संस्कृतहिन्दी और मराठी भाषाएँ लिखी जाती हैं। इस शब्द का सबसे पहला उल्लेख 453 ई. में जैन ग्रंथों में मिलता है। नागरीनाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग इसका कारण नगरों में प्रयोग को बताते हैं। यह अपने आरंभिक रूप में ब्राह्मी लिपिके नाम से जानी जाती थी। इसका वर्तमान रूप नवी-दसवीं शताब्दी से मिलने लगता है।
·         भाषा विज्ञान की शब्दावली में यह अक्षरात्मकलिपि कहलाती है। यह विश्व में प्रचलित सभी लिपियों की अपेक्षा अधिक पूर्णतर है। इसके लिखित और उच्चरित रूप में कोई अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक ध्वनि संकेत यथावत लिखा जाता है।
·         देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएँ लिखीं जाती हैं। संस्कृतपालिहिन्दीमराठीकोंकणीसिन्धीकश्मीरीनेपालीगढ़वालीबोडो, अंगिका, मगहीभोजपुरीमैथिलीसंथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसे नागरी लिपि भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजरातीपंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमन और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। 

            उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं–9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह नंदिनागरीकहलाती थी। नागरीनाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ललित-विस्तरकी 64 लिपियों में एक नाग लिपिनाम मिलता है। किन्तु ललित-विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की नाग-लिपिके आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता। एक अन्य मत के अनुसारगुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु काशी देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम देवनागरी पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसारनगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगरराजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगरमहाराष्ट्र की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो नंदिकी तरह यहाँ देवशब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में पंजाब और कश्मीर में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं। आज समस्त उत्तर भारत में और नेपाल में भी और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।

          देवनागरी की विशेषता अक्षरों के शीर्ष पर लंबी क्षैतिज रेखा है, जो आधुनिक उपयोग में सामान्य तौर पर जुड़ी हुई होती है, जिससे लेखन के दौरान शब्द के ऊपर अटूट क्षैतिक रेखा का निर्माण होता है। देवनागरी को बाएं से दाहिनी ओर लिखा जाता है। हालांकि यह लिपि मूलत: वर्णाक्षरीय है, लेकिन उपयोग में यह आक्षरिक है, जिसमें प्रत्येक व्यंजन के अंत में एक लघु ध्वनि को मान लिया जाता है, बशर्ते इससे पहले वैकल्पिक स्वर के चिह्न का उपयोग न किया गया हो। देवनागरी को स्वर चिह्नों के बिना भी लिखा जाता रहा है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है।

     देवनागरी का विकास उत्तर भारतीय ऐतिहासिक गुप्त लिपि से हुआ, हालांकि अंतत: इसकी व्युत्पत्ति ब्राह्मी वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। सातवीं शताब्दी से इसका उपयोग हो रहा है, लेकिन इसके परिपक्व स्वरूप का विकास 11वीं शताब्दी में हुआ। उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति भाषाकहलाती है। जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा श्रव्य होती है, जबकि लिपि दृश्य। भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निकली हैं। ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यों ने शुरू किया। ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है। गुप्तकाल के प्रारम्भ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए, उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि / कलिंग लिपि,तेलुगु, एवं कन्नड़ लिपिग्रंथ लिपि तमिलनाडुमलयालम लिपि का विकास हुआ। 

उत्तरी ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास











उत्तरी ब्राह्मी (350ई. तक)
































गुप्त लिपि (4थी-5वीं सदी)
































सिद्धमातृका लिपि (6ठी सदी)
































कुटिल लिपि (8वीं-9वीं सदी)











































नागरी



शारदा
























































गुरुमुखी


कश्मीरी


लहंदा


टाकरी




·         देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाठयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेज़ों की भाषा नीति फ़ारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी। इसीलिए हिन्दी को भी फ़ारसी लिपि में लिखने का षड़यंत्र किया गया।
·         जॉन गिलक्राइस्टहिन्दी भाषा और फ़ारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थींदरबारी या फ़ारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फ़ारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था, किन्तु उसमें अरबीफ़ारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फ़ारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
·         विलियम प्राइस— 1823 ई. में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषासम्बन्धी भ्राँन्ति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
·         अदालत सम्बन्धी विज्ञप्ति (1837 ई.)वर्ष 1830 ई. में अंग्रेज़ कम्पनी के द्वारा अदालतों में फ़ारसी के साथसाथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस विज्ञप्तिका पालन 1837 ई. में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि पचलित हुई। संयुक्त प्रान्त उत्तर प्रदेशबिहार व मध्य प्रान्त मध्य प्रदेश में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ, लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार पर जीजान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
·         1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदभावपूर्ण हो गई। अंग्रेज़ विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्षविपक्ष में अनेक तर्कवितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस साहब हिन्दी का समर्थन करने वालों में प्रमुख थे।
·         नागरी लिपि और हिन्दी तथा फ़ारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न सम्बन्ध हो गया। अतः दोनों के पक्षविपक्ष में काफ़ी विवाद हुआ।
·         राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्दका लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)फ़ारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई. में उनके लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडियासे आरम्भ हुआ।
·         जॉन शोरएक अंग्रेज़ अधिकारी फ्रेडरिक़ जॉन शोर ने फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायलय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।
·         बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई. व 1873 ई.)वर्ष 1870 ई. में गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि फ़ारसी पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए। बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फ़ारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई. में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटनाभागलपुर तथा छोटा नागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायलयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएँ हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में ही की जाएँ।
·         वर्ष 1881 ई. तक आतेआते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रान्तों बिहारमध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।
·         प्रचार की दृष्टि से वर्ष 1874 ई. में मेरठ में नागरी प्रकाशपत्रिका प्रकाशित हुई। वर्ष 1881 ई. में देवनागरी प्रचारकतथा 1888 ई. में देवनागरी गजटपत्र प्रकाशित हुए।
·         भारतेन्दु हरिश्चन्द्र – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्नपत्र का जवाब देते हुए कहा- सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है, जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।
·         प्रताप नारायण मिश्र ‌- पं. प्रताप नारायण मिश्र ने हिन्दीहिन्दूहिन्दूस्तान का नारा लगाना शुरू कर दिया।
·         1893 ई. में अंग्रेज़ सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
·         नागरी प्रचारिणी सभाकाशी (स्थापना–1893 ई.) व मदन मोहन मालवीयनागरी प्रचारिणी सभी की स्थापनावर्ष 1893 में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने नागरी कैरेक्टरनामक एक पुस्तक अंग्रेज़ी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।
                  
         मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई.)मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थवेस्टर्न प्रोविन्सेज’ (1897 ई.) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई. में प्रान्त के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हज़ारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीय जी का ही अथक प्रयास था, जिसके परिणामस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसीलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।

·         गौरी दत्तव्यक्तिगत रूप से मेरठ के गौरी दत्त को नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं।
·         इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई. को गवर्नर साहब ने फ़ारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभीमान के लिए संतोषप्रद नहीं था। इससे हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं दिया गया था। बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबन्ध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि कचहरियों में स्थान दिला सका और यह मज़बूत आधार प्रदान किया, जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी। 

देवनागरी लिपि के गुण:-
1.     एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत।
2.     एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त।
3.     जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम।
4.     मूक वर्ण नहीं।
5.     जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
6.     एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं।
7.     उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता।
8.     वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप।
9.     प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृतहिन्दीमराठीनेपाली की एकमात्र लिपि)।
10. भारत की अनेक लिपियों के निकट।

देवनागरी लिपि के दोष:-
1.     कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुंद्रण में कठिनाई।
2.     शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए।
3.     अनावश्यक वर्ण (ऋ, , लृ, , ङ्, ञ्, ष)आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चारित नहीं कर पाता।
4.     द्विरूप वर्ण (ञ्प्र अ, ज्ञ, क्ष, , त्र, , , रा ण, श)
5.     समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
6.     वर्णों के संयुक्त करने की कोई नश्चित् व्यवस्था नहीं।
7.     अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
8.     त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बारबार उठाना पड़ता है।
9.     वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति।
10. इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद।

देवनागरी लिपि में किए गए सुधार:-
1.     बाल गंगाधर का तिलक फ़ांट’ (1904-26)
2.     सावरकर बंधुओं का अ की बारहखड़ी
3.     श्यामसुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव।
4.     गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ़ अलग रखने का सुझाव।
5.     श्रीनिवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्प्रमाण के नीचे ऽ चिह्न लगाने का सुझाव।
6.     हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफ़ारिशें।
7.     काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्रीनिवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
8.     उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफ़ारिशें।
9.     शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि सम्बन्धी पकाशन—’मानक देवनागरी वर्णमाला’ (1966 ई.), ‘हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ (1967 ई.), ‘देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण’ (1983 ई.) आदि।

प्रतिहारवंशी राजा महेन्द्रपाल के दानपत्र की तीन पंक्तियाँ (शिवराममूर्ति के आधार पर):
शिवराममूर्ति की राय है कि हर्षवर्धन के समकालीन गौड़देश (पश्चिम बंगाल) के राजा शशांक के ताम्रपत्रों में पूर्वी भारत की नागरी लिपि का स्वरूप पहले-पहल देखने को मिलता है। परंतु इन ताम्रपत्रों की लिपि को हम अभी नागरी नहीं कह सकते। अधिक से अधिक इसे हम प्राक-नागरीका नाम दे सकते हैं, क्योंकि इस लिपि के अक्षर न्यूनकोणीय (तिरछे) और ठोस त्रिकोणी सिरोंवाले हैं। उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग पहले-पहल कन्नौज के प्रतिहारवंशीय राजा महेन्द्रपाल (891-907 ई.) के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इनमें की मात्रा पहले की तरह अक्षर की दाईं ओर आड़ी न होकर, खड़ी और पूरी लंबी हो गई है। का नीचे का मुड़ा हुआ वक्र उसके दंड के साथ मिल जाता है। इस लिपि में अक्षरों के नीचे के सिरे सरल है और सिरों पर, पहले की तरह ठोस त्रिकोण न होकर, अब आड़ी लकीरें हैं। इसके बाद तो उत्तर भारत से नागरी लिपि के ढेरों लेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशीचाहमान (चौहान) वंशीराष्ट्रकूटचालुक्य(सोलंकी)परमारचंदेलवंशीहैहय (कलचुरि) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं। दक्षिण के पल्लव शासकों ने भी अपने लेखों के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया था। इसी लिपि से आगे चलकर ग्रंथ लिपिका विकास हुआ। तमिल लिपि की अपूर्णता के कारण उसमें संस्कृत के ग्रन्थ लिखे नहीं जा सकते थे, इसलिए संस्कृत के ग्रंथ जिस नागरी लिपि में लिखे जाने लगे, उसी का बाद में ग्रन्थ लिपिनाम पड़ गया। कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर में नागरी लिपि में लिखे हुए बहुत से विवरण मिलते हैं। इनमें सरल और कलात्मक दोनों ही प्रकार की लिपियों का प्रयोग देखने को मिलता है। यह लिपि हर्षवर्धन की लिपि से काफ़ी मिलती-जुलती दिखाई देती है।

धार नगरी के परमार शासक भोज के बेतमा ताम्रपत्र (1020 ई.) का एक अंश:
सुदूर दक्षिण में भी पाड़य शासकों ने 8वीं शताब्दी में नागरी का इस्तेमाल किया था। महाबलिपुरम के अतिरणचंड़ेश्वर नामक गुफामंदिर में जो लेख मिलता है, वह भी नागरी में है। सबसे नीचे दक्षिण में नागरी का जो लेख मिलता है, वह है पाड़य-राजा वरगुण (9वीं शताब्दी) का पलियम दानपत्र्। इस दानपत्र की लिपि में और अतिरणचंड़ेश्वर के गुफालेख की लिपि में काफ़ी साम्य है। दक्षिण के उत्तम, राजराज और राजेन्द्र जैसे चोल राजाओं ने अपने सिक्कों के लेखों के लिए नागरी का इस्तेमाल किया है। श्रीलंका के पराक्रमबाहु, विजयबाहु जैसे राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी का उपयोग हुआ है। 13वीं शताब्दी के केरल के शासकों के सिक्कों पर वीरकेरलस्यजैसे शब्द नागरी में अंकित मिलते हैं। विजयनगर शासनकाल से तो नागरी (नंदिनागरी) का बहुतायत से उपयोग देखने को मिलता है। इस काल के अधिकांश ताम्रपत्रों पर नागरी लिपि में ही लेख अंकित हैं, हस्ताक्षर ही प्राय: तेलुगु-कन्नड़ लिपि में है। सिक्कों पर भी नागरी का प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिणी शैली की नागरी लिपि (नंदिनागरी लिपि) का प्राचीनतम नमूना हमें राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के समंगड दानपत्रों में, जो 754 ई. के हैं, दिखाई देता है। बाद में बादामी के चालुक्यों के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट शासकों ने तो इस नागरी लिपि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम के नागरी लिपि में लिखे हुए तलेगाँव-दानपत्र प्रसिद्ध हैं। देवगिरि के यादववंशी राजाओं ने भी नागरी लिपि का ही उपयोग किया था। धार नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। बांसवाड़ा तथा वेतमा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र (1020 ई.) उसकी कोंकणविजयके उपलक्ष्य में जारी किए गये थे। ये आरंभिक नागरी लिपि में है।

संदर्भ:-
25नवम्बर,2011 .http://portal.iecit.in/archives/1281


प्रस्तुतकर्त्ता:-
पंकज वेला दशकंठी
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन ,सत्र:- 2017-19   
एम.जी.ए.एच.वी. वर्धा ,महाराष्ट
सम्पर्क सूत्र :-9119568237
KUMARPANKAJ20JAN1988@GMAIL.COM

Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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