फ़रवरी 21, 2014
मूल लेखक....योगेंद्र जोशी
आज (21 फरवरी) मातृभाषा दिवस है । उन सभी जनों को इस दिवस की
बधाई जिन्हें अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव हो, जो उसे सम्मान
की दृष्टि से देखते हैं, और जो उसे यथासंभव व्यवहार में लाते
हैं । उन शेष जनों के प्रति बधाई का कोई अर्थ नहीं हैं जो किसी भारतीय भाषा को अपनी
मातृभाषा घोषित करते हैं, लेकिन उसी से परहेज भी रखते हैं,
उसे पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं ।
अपना भारत ऐसा देश है जहां अनेकों भाषाएं बोली जाती
हैं, और जहां के
लोगों की क्षेत्रीय विविधता के अनुरूप अपनी-अपनी मातृभाषाएं हैं । विडंबना यह है
कि अधिकांश भारतीय अंग्रेजी के सापेक्ष अपनी घोषित मातृभाषा को दोयम दर्जे का
मानते हैं । वे समझते हैं कि उनकी मातृभाषा सामान्य रोजमर्रा की बोलचाल से आगे
किसी काम की नहीं । वे समझते हैं कि किसी गहन अथवा विशेषज्ञता स्तर की अभिव्यक्ति
उनकी मातृभाषा में संभव नहीं । अतः वे अंग्रेजी का ही प्रयोग अधिकाधिक करते हैं ।
अंग्रेजी उनके जबान पर इस कदर चड़ी रहती है कि उनकी बोलचाल में अंग्रेजी के शब्दों
की भरमार रहती है । लेखन में वे अंग्रेजी को वरीयता देते हैं, या यों कहें कि वे अपनी तथाकथित मातृभाषा में लिख तक नहीं सकते हैं ।
अध्ययन-पठन के प्रयोजन हेतु भी वे अंग्रेजी ही इस्तेमाल में लाते हैं । उनके घरों
में आपको अंगरेजी पत्र-पत्रिकाएं एवं पुस्तकें ही देखने को मिलेंगी । उनके बच्चे
जन्म के बाद से ही अंगरेजी की घुट्टी पीने लगते हैं । घर और बाहर वे जो बोलते हैं
वह उनकी तथाकथित मातृभाषा न होती है, बल्कि उस भाषा का
अंगरेजी के साथ मिश्रण रहता है ।
उन लोगों को देखकर मेरे समझ में नहीं आता है कि उनकी
असल मातृभाषा क्या मानी जाए ? मैं यहां पर जो टिप्पणियां करने जा रहा हूं वे दरअसल देश की अन्य भाषाओं
के संदर्भ में भी लागू होती हैं । एक स्पष्ट उदाहरण के तौर पर मैं अपनी बातें
हिंदी को संदर्भ में लेकर कह रहा हूं, जिसे मैं अपनी मातृभाषा मानता हूं । मैं सर्वप्रथम यह सवाल पूछता हूं कि
आप उस भाषा को क्या कहेंगे जिसमें अंगरेजी के शब्दों की बहुलता इतनी हो कि उसे
अंगरेजी का पर्याप्त ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति समझ ही न सके । प्रश्न का उत्तर और
कठिन हो जाता है जब उस भाषा में अंगरेजी शब्दों के अलावा अंगरेजी के पदबंध तथा
वाक्यांश और कभी-कभी पूरे वाक्य भी प्रयुक्त रहते हों । सामान्य हिंदीभाषी उनके
कथनों को कैसे समझ सकेगा यह प्रश्न मेरे मन में प्रायः उठता है । हिंदी को अपनी मातृभाषा
बताने वाले अनेक शहरी आपको मिल जाएंगे जो उक्त प्रकार की भाषा आपसी बोलचाल में
इस्तेमाल करते हैं, घर पर, कार्यस्थल
पर, वस्तुतः सर्वत्र, अपने बच्चों के
साथ भी ।
आज के शहरी, विशेषकर महानगरीय, परिवेश में
लोगों की बोलचाल से हिंदी के वे तमाम शब्द गायब हो चुके हैं जो सदियों से प्रयुक्त
होते रहे हैं । अवश्य ही साहित्यिक रचनाओं में ऐसा देखने को सामान्यतः नहीं मिलेगा
। लेकिन सवाल साहित्यकारों की मातृभाषा का नहीं है । (भारत में ऐसे साहित्यकारों
की संख्या कम नहीं होगी जो अपनी घेषित मातृभाषा में लिखने के बजाय अंगरेजी में
रचना करते हैं और तर्क देते हैं कि वे अंगरेजी में अपने भाव बेहतर व्यक्त कर सकते
हैं ।) बात साहित्यकारों से परे के लोगों की हो रही है जिनके लिए भाषा रोजमर्रा की
अभिव्यक्ति के लिए होती है, व्यवसाय अथवा कार्यालय में
संपर्क के लिए, बाजार में खरीद-फरोख्त के लिए, पारिवारिक सदस्यों, मित्रों, पड़ोसियों
से वार्तालाप के लिए, इत्यादि । इन सभी मौकों पर कौन-सी भाषा
प्रयोग में लेते हैं शहरी लोग ? वही जिसका जिक्र मैं ऊपर कर
चुका हूं । मैं उस भाषा को हिंदी हरगिज नहीं मान सकता । वह न हिंदी है और न ही
अंगरेजी, वह तो दोनों का नियमहीन मिश्रण है, जिसमें स्वेच्छया, नितांत उन्मुक्तता के साथ,
हिंदी एवं अंगरेजी ठूंस दी जाती है । यह आज की भाषा है उन शहरी
लोगों की जो दावा करते हैं कि उनकी मातृभाषा हिंदी है जिसे वे ठीक-से बोल तक नहीं
सकते हैं । तब उनकी मातृभाषा क्या मानी जानी चाहिए ?
मेरा यह सवाल हिंदी को अपनी
मातृभाषा कहने वालों के संदर्भ में था । अब में दूसरी बात पर आता हूं, मातृभाषा
दिवस की अवधारणा के औचित्य पर ?
आज दुनिया में दिवसों को मनाने की परंपरा चल पड़ी है
। दिवस तो सदियों से मनाये जाते रहे हैं त्योहारों के रूप में या उत्सवों के तौर
पर, अथवा किसी
और तरीके से । जन्मदिन या त्योहार रोज-रोज नहीं मनाए जा सकते हैं, अतः उनके लिए तार्किक आधार पर दिन-विशेष चुनना अर्थयुक्त कहा जाएगा ।
किंतु कई अन्य प्रयोजनों के लिए किसी दिन को मुकर्रर करना मेरे समझ से परे है ।
मैं “वैलेंटाइन डे” का उदाहरण लेता हूं
। प्रेमी-प्रमिका अपने प्यार का इजहार एक विशेष दिन ही करें यह विचार क्या बेवकूफी
भरा नहीं है ? (मेरी जानकरी में वैलेंटाइन डे दो प्रेमियों
के मध्य प्रेमाभिव्यक्ति के लिए ही नियत है; पता नहीं कि मैं
सही हूं या गलत ।) क्या वजह है कि प्रेम की अभिव्यक्ति एक ही दिन एक ही शैली में
सभी मनाने बैठ जाएं ? और वह भी सर्वत्र विज्ञापित करते हुए ।
प्रेम की अभिव्यक्ति दुनिया को बताके करने की क्या जरूरत है ? यह तो नितांत निजी मामला माना जाना चाहिए दो जनों के बीच का और वह पूर्णतः
मूक भी हो सकता है । उसमें भौतिक उपहारों की अहमियत उतनी नहीं जितनी भावनाओं की ।
प्रेमाभिव्यक्ति कभी भी कहीं भी की जा सकती है, उसमें
औपचारिकता ठूंसना मेरी समझ से परे है । फिर भी लोग उसे औपचारिक तरीके से मनाते हैं
वैलेंटाइन डे के तौर पर । क्या साल के शेष 364 दिन हम उसे
भूल जाएं । इसी प्रकार की बात मैं “फादर्स डे”, “मदर्स डे”, “फ़्रेंड्स डे” आदि
के बारे में भी सोचता हूं । इन रिश्तों को किसी एक दिन औपचारिक तरीके से मनाने का
औचित्य मेरी समझ से परे है । ये रिश्ते साल के 365 दिन,
चौबीसों घंटे, माने रखते हैं । जब जिस रूप में
आवश्यकता पड़े उन्हें निभाया जाना चाहिए । किसी एक दिन उन्हें याद करने की बात
बेमानी लगती है । फिर भी लोग इन दिवसों को मनाते हैं, जैसे
कि उन्हें निभाने की बात अगले 364 दिनों के बाद ही की जानी
चाहिए ।
और कुछ ऐसा ही मैं मातृभाषा
विदस के बारे में भी सोचता हूं ।
कहा जाता है कि विश्व की सांस्कृतिक विविधता बचाए
रखने के उद्येश्य से राष्ट्रसंघ ने 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस घोषित किया है । किंतु क्या “ग्लोबलाइजेशन” के इस युग में सांस्कृतिक संक्रमण और
तदनुसार भाषाओं का विद्रूपण अथवा विलोपन रुक सकता है ? अपने
देश में अंगरेजी के प्रभाव से जिस प्रकार हिंदी एवं अन्य भाषाएं प्रदूषित हो रही
हैं, और जिस प्रकार उस प्रदूषण को लोग समय की आवश्यकता के
तौर पर उचित ठहराते हैं, उससे यही लगता है कि इस “दिवस” का लोगों के लिए कोई महत्व नहीं हैं । इस दिन
पत्र-पत्रिकाओं में दो-चार लेख अगले दिन भुला दिए जाने के लिए अवश्य लोग देख लेते
होंगे, लेकिन अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देने के लिए वे
प्रेरित होते होंगे ऐसा मुझे लगता नहीं । अंगरेजी को गले लगाने के लिए जिस तरह
भारतीय दौड़ रहे हैं, उससे यही लगता है कि भारतीय भाषाएं
मातृभाषा के तौर पर उन्हीं तक सिमट जाएंगी जो दुर्भग्य से अंगरेजी न सीख पा रहे
हों । –
प्रस्तुतकर्ता
पंकज 'वेला' दशकंठी
एम.ए. गांधी एवं शांति अध्ययन.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
पं.कुमार
21/02/2019
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