पुण्यतिथि के अवसर पर ....
'ईश्वर के कातिल' करार दिए गए चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत हिंदू मान्यताओं से कैसे मिलते
हैं?
‘मैं एक बूढ़ा
और बीमार व्यक्ति हूं जिसके बहुत सारे काम पहले से बाकी हैं । ऐसे में आपके सभी
सवालों का जवाब देकर मैं अपना समय ज़ाया नहीं कर सकता और न ही इनका पूरा जवाब दे
पाना संभव है । विज्ञान का क्राइस्ट (ईसा) के अस्तित्व से कुछ भी लेना-देना नहीं ।
मैं नहीं मानता कि ईश्वर ने किसी दूत के जरिए अपनी प्रकृति और मनुष्य की रचना में
निहित अपने उद्देश्यों को को कभी बताया होगा ।’
ये लाइनें उस खत की हैं जो 1879 में चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने किसी जर्मन
विद्यार्थी के लिए लिखवाया था । उनके बेटे फ्रांसिस डार्विन ने अपनी किताब ‘द लाइफ एंड
लैटर्स ऑफ चार्ल्स डार्विन’ में इस खत का जिक्र किया है । अपने पिता के बारे में बताते हुए फ्रांसिस अपनी किताब में कहते हैं,
‘धर्म से जुड़े मामलों में वे अक्सर चुप ही रहते थे । इस विषय में
उन्होंने जो भी राय रखी वह उनकी अपनी निजी सोच थी जो कभी प्रकाशित करने के
उद्देश्य से नहीं कही गयी थी ।
धर्म के बारे में कुछ खुलकर बोलने से डार्विन
ताउम्र बचते रहे । इसके बावजूद उनके लिखे कई पत्रों और उनकी कई किताबों में ईसाइयत
के प्रति उनके विरोधी विचार साफ नज़र आते हैं । अपनी जीवनी में डार्विन ने लिखा था, ‘जिन चमत्कारों का समर्थन ईसाइयत करती है उन पर यकीन करने के लिए किसी भी
समझदार आदमी को प्रमाणों की आवश्यकता जरूर महसूस होगी । उस समय का इंसान हमारे
मुकाबले कहीं ज्यादा सीधा और अनभिज्ञ था जब इन चमत्कारों के बारे में बताया गया था’ । ईसाइयत से जुड़े शुरुआती साहित्य गॉस्पेल (इसमें ईसा के जीवन, मृत्यु और उनके फिर जी उठने से जुड़ी कहानियां हैं) पर संदेह करते हुए
डार्विन ने कहा था, ‘इस किताब में लिखे वर्णनों और चमत्कारों
की कहानियों में भी मुझे विरोधाभास नज़र आता है । जैसे-जैसे इन विरोधाभासों का
प्रभाव मुझ पर बढ़ता गया ‘रेवेलेशन’ के
रूप में ईसायत पर से मेरा विश्वास भी उठता चला गया ।’
(‘गॉस्पेल’ को ईसा मसीह के बारह शिष्यों में से एक थॉमस ने लिखा था । ये वही थॉमस थे
जो ईसा के बाद 50वीं ईस्वी में उनके संदेशों को लेकर भारत आए
थे और 72वीं ईस्वी में चेन्नई के सेंट थॉमस माउंट पर एक भील
के भाले से मारे गए थे ।)
पहले ईश्वर की राह पर :-
ऐसा नहीं था कि चार्ल्स डार्विन हमेशा से
अनीश्वरवादी थे । एक समय ऐसा भी था जब युवा डार्विन ने पादरी बनने की पूरी तैयारी
कर ली थी । अपनी ऑटोबायोग्राफी में डार्विन इसका जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊं तो बेहतर होगा । मैंने सोचने
के लिए मोहलत मांगी ताकि चर्च ऑफ इंग्लैंड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन
में विश्वास पैदा कर सकूं । इसी क्रम में मैंने ईसाइयों के कई धर्मग्रंथ बेहद
सावधानी के साथ पढ़े । उस समय तो बाइबिल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़ा
और अक्षरश: पालन करने में मुझे कोई संदेह नहीं रह गया था । मैं जल्द ही इस बात को
मानने लगा कि ईसाई मतों के सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन होना चाहिए ।
डार्विन का लिखा
पत्र
उस
दौर में ये धर्मग्रंथ और इनके विचार डार्विन पर कदर हावी थे कि अपनी शुरुआती दोनों
समुद्री यात्राओं पर (समुद्री पोत एचएमएस बीगल पर) वे अपने साथ बाइबिल ले गए थे ।
लेकिन तब डार्विन खुद भी नहीं जानते थे कि इस यात्रा के हर पड़ाव के साथ वे
धीरे-धीरे ‘विज्ञान’ के पास और ‘धर्म’ से दूर होते चले जाएंगे ।
इस
बारे में डार्विन लिखते हैं, ‘इन दो सालों (अक्टूबर 1836
से जनवरी 1839) के दौरान मुझे धर्म के बारे
में ढंग से सोचने का मौका मिला । जब मैंने बीगल पर अपनी यात्रा की शुरूआत की थी
मैं धर्म को लेकर घोर कट्टरवादी था । मुझे याद है कि जब मैं नैतिकता से जुड़े कई
मुद्दों पर बाइबिल को किसी अकाट्य संदर्भ की तरह पेश करता था तो किस तरह जहाज के
कई अधिकारी मुझ पर हंसा करते थे ।’
वक्त
के साथ डार्विन जैसे-जैसे अपना शोध आगे बढ़ाते गए, धर्म
से उनका भरोसा कम होता चला गया । बताया जाता है कि डार्विन ने अपनी बेटी ‘ऐनी’ की मौत के बाद पूरी तरह से खुद को अपने शोध
कार्यों में झोंक दिया था । इसी दौरान धीरे-धीरे बाइबिल और जीसस क्राइस्ट पर से
उनका विश्वास उठता चला गया । इस
बात का जिक्र उन्होंने 24 नवंबर,1880 को लिखे एक ऐतिहासिक खत
में किया था । डार्विन ने फ्रांसिस एमसी डेर्मोट के एक पत्र का जवाब देते हुए अपने
खत में साफ-साफ लिखा था, ‘मुझे आपको यह बताने में खेद है कि
मैं बाइबिल पर पवित्र रेवेलेशन के तौर पर भरोसा नहीं करता । यही कारण है कि मुझे
जीसस क्राइस्ट के ईश्वर की संतान होने पर भी विश्वास नहीं है ।’ (2015 में न्यूयॉर्क में नीलामी के दौरान इस पत्र की बोली 197,000 यूएस डॉलर लगाई गई थी)
चर्च के साथ जंग:-ऐसा
नहीं था कि सिर्फ डार्विन ही धर्म के खिलाफ थे । जंग दोनों तरफ से बराबर छिड़ी हुई
थी । लेकिन चर्च और ईसाई धर्मगुरूओं का डार्विन के प्रति विरोध उनके विरोध से कहीं
ज्यादा प्रबल और व्यापक था । चर्च और उनके अनुयायियों को डार्विन के मानव विकास के
सिद्धांत बिल्कुल मान्य नहीं थे । उन्हें लगता था कि डार्विन की थ्योरी मनुष्य और
जानवरों के बीच के अंतर को ही खत्म कर देगी । लेकिन इससे कहीं ज्यादा संगीन आरोप
जो डार्विन पर लगा, वह यह था कि उनके सिद्धांतों
ने परमेश्वर, उनके पुत्र यीशू और ईसाइयों के प्रमुख
धर्मग्रंथ बाइबिल के ही अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े कर दिए थे
जेम्स
उश़ेर समेत तमाम ईसाई धर्मगुरूओं का (बाइबिल के हवाले से) मानना था कि पृथ्वी की
रचना क्राइस्ट के जन्म से 4004 साल पहले हुई थी । लेकिन
डार्विन के विकासवाद की थ्योरी पृथ्वी की उत्पत्ति को लाखों-करोड़ों वर्ष पहले का
बताती थी । डार्विन के तर्कों से धर्मगुरूओं को दूसरी बड़ी आपत्ति इस बात से थी कि
बाइबिल के मुताबिक ईश्वर ने एक ही सप्ताह में सृष्टि की रचना कर दी थी जिसमें उसने
पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पहाड़-नदियां और
मनुष्य को अलग-अलग छह दिन में बनाया था । (बाइबिल के मुताबिक परमेश्वर ने पहले दिन
सूरज और पानी बनाए । दूसरे दिन आसमान । तीसरे दिन पानी को एक जगह इकठ्ठा कर ईश्वर
ने धरती और समुद्र बनाए और धरती पर पेड़-पौधे लगाए । चौथे दिन परमेश्वर ने तारों
का निर्माण किया । पांचवें दिन परमेश्वर ने समुद्र में रहने वाले जीव-जंतुओं के
साथ उड़ने वाले पक्षियों को बनाया और छठे दिन परमेश्वर ने धरती और जानवरों पर
अधिकार के लिए अपनी छवि में इंसान की रचना की और उसे गिनती में बढ़ने का आशीर्वाद
दिया ।)
लेकिन
डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत इस पूरी प्रक्रिया से उलट एक अलग ही कहानी कहता
था । डार्विन ने विकासवाद पर आधारित अपनी किताब, ‘द
ऑरिजिन ऑफ द स्पीशीज़’ में लिखा था, ‘मैं
नहीं मानता कि पौधे और जीवित प्राणियों को ईश्वर ने अलग-अलग बनाया था ।’ डार्विन कहते थे कि ये सारे जीव कुछ चुनिंदा जीवों के वंशज हैं जिनमें
वक्त के साथ परिवर्तन आते गए और धरती पर लाखों प्रजातियों का जन्म हुआ । उनके
मुताबिक पीढ़ी दर पीढ़ी सूक्ष्म बदलावों के कारण बड़े बदलाव घटित हुए, जैसे मछलियां जल-थल जंतुओं में तब्दील हो गईं और बंदर इंसान में । इन्ही
बदलावों को ‘महाविकास’ कहा जाता है ।’
इन्हीं
ईश्वर विरोधी सिद्धांतों को देखते हुए डार्विन पर ईश्वर के अस्तित्व को ही मिटाने
की कोशिशों के आरोप लग रहे थे । उनके जीवन पर बनी फिल्म क्रिएशन (2009)
में ऑरिजिन ऑफ द स्पीशीज़ के प्रकाशन से जुड़ी बातचीत के दौरान थॉमस
हेनरी हक्सले डार्विन से कहते हैं, ‘इसके बाद ईश्वर एक
सप्ताह में सारे सजीवों के निर्माण का दावा नहीं कर सकता, आपने
ईश्वर का कत्ल कर दिया है श्रीमान ।’
डार्विन से पहले:-
लेकिन चार्ल्स डार्विन अकेले ऐसे वैज्ञानिक
नहीं थे जिनके सिद्धांत ईसाइयत के विरुद्ध थे । उनसे पहले कॉपरनिकस, जियोर्डानो ब्रूनो और गैलिलियो गैलिली
जैसे विचारक और विज्ञानी अपने-अपने दौर में चर्च की मुखालफत कर चुके थे जिसका
उन्हें खामियाजा भी उठाना पड़ा था । कॉपरनिकस ने अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन
अपने आखिरी समय में किया था । इस कारण वे तो धर्मगुरुओं की नाराजगी का शिकार होने
से बच गए थे लेकिन ब्रूनो और गैलिलियो को ईश्वरीय मान्यताओं का खंडन करने के आरोप
में चर्च ने कड़े दंड दिए थे । धर्मगुरूओं ने गैलिलियो को आजीवन कारावास की सजा
सुनाई थी और ब्रूनो को तो सरेआम जिंदा जलवा दिया था
शायद
यही कारण था कि डार्विन ने अपनी समुद्री यात्राओं के अनुभवों पर आधारित किताब ‘द वॉयेज ऑफ बीगल’ का प्रकाशन तो
1839 में कर दिया था लेकिन, शोध के
लगभग 20 साल बाद तक भी वे प्राणियों के विकासवाद से जुड़ी
किताब के प्रकाशन की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे । उनके इस किताब को न छापने के पीछे
की एक प्रमुख वजह उनकी पत्नी एमा डार्विन को भी बताया जाता है । कहते हैं कि सरल
स्वभाव की एमा को चर्च में अटूट विश्वास था और डार्विन अपनी पत्नी को धर्म पर
कुठाराघात करती कोई भी किताब छापकर उन्हें दुख नहीं पहुंचाना चाहते थे ।
लेकिन
26
जून 1859 को डार्विन को मिले एक पत्र ने
उन्हें एक बार फिर इस किताब को लेकर सोचने पर मजबूर कर दिया । यह पत्र अल्फ्रेड
रसेल वॉलेस नाम के एक व्यक्ति का था जो डार्विन का प्रशंसक था और उन्हीं की तरह
विकासवाद की थ्योरी पर काम कर रहा था । डार्विन को लिखे खत में वॉलेस ने उनसे अपने
शोध के प्रकाशन को लेकर सलाह मांगी । इस बात से डार्विन के मन में यह आशंका पैदा
हो गई कि यदि वे अपने शोध को जल्द ही लोगों के सामने लेकर नहीं गए तो वॉलेस उनका
पूरा श्रेय ले जाएंगे । जल्द ही डार्विन ने वॉलेस का नाम अपने शोध में जोड़ते हुए
इसके प्रकाशन की घोषणा कर दी । इसके बाद नवबंर 1859 में
ऐतिहासिक किताब ‘ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ : बाय मीन्स ऑफ
नैचुरल सलेक्शन’ छप कर तैयार हुई जिसने मानव जीवन के रहस्यों
से पर्दा हटाने का अभूतपूर्व काम किया । इस किताब को जैव विकास से जुड़े विज्ञान
की बुनियाद कहा जाता है ।
किताब
छप तो गई थी लेकिन चारों तरफ डार्विन का जमकर विरोध शुरू हो गया था । खुद के खिलाफ
हो रहे विरोध से डार्विन इतने आहत थे कि इसका जिक्र करते हुए उन्होंने एक बार कहा
था,
‘यह नर्क जैसा है ।’ चर्च के साथ मीडिया ने भी
इस किताब के लिए डार्विन को आड़े हाथों लिया था । बताया जाता है कि यह जानकर कि
इंसान वानर का वंशज हैं अमेरिका औऱ यूरोप के कई लोग बुरी तरह से हिल गए थे । उसी
का परिणाम था कि किताब के प्रकाशन के बाद अमेरिका और पूरे यूरोप के स्कूल-कॉलेजों
में डार्विन की थ्योरी पढ़ाने पर पाबंदी लगा दी गई थी । डार्विन के सिद्धांत
पढ़ाने पर जीव विज्ञान के एक अध्यापक पर अमेरिका की एक अदालत में आधुनिक दुनिया के
सबसे चर्चित केसों में से एक चलाया गया था जिसे मंकी ट्रायल के नाम से जाना जाता है ।
हिंदू मान्यताओं से जुड़ते तार:-लेकिन जहां एक तरफ पाशाचत्य संस्कृति और सभ्यता डार्विन के
सिद्धांतों को सिरे से खारिज़ कर रही थीं वहीं दूसरी तरफ पूरब की गोद में फल रहा
हिंदू धर्म अपने जहन में ऐसी कई कहानियों को संजोए हुए था जो डार्विन के विकासवाद
को पुष्ट करने का काम करती थीं । हिंदू पौराणिक मान्यताओं में भगवान विष्णु के दस
अवतारों का जिक्र मिलता है । मत्स्य पुराण में लिखा है-
मत्स्य: कुर्मो वराहश्च नरसिंहोSथ वामन:
रामो रमश्च कृष्णश्च बुद्ध: कल्कि च ते दश।।
देखा
जाए तो ये अवतार डार्विन के विकासवाद के कई चरणों से हूबहू मिलते थे । अगर क्रमवार
समझने की कोशिश की जाए तो-
मत्स्य - इन मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु ने पहला अवतार मत्स्य यानी मछली के
रूप में लिया था । डार्विन का भी यही मानना था कि सर्वप्रथम जलचर अस्तित्व में आए
।
कूर्म - भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कुर्म यानी कछुआ जो कि उभयचर जीव था ।
विकासवाद के सिद्धांत में डार्विन ने भी यही तर्क दिया था कि जीवन जल से धरती की
ओर गया था ।
वराह - तीसरे अवतार में भगवान विष्णु वराह के रूप में अवतरित हुए । डार्विन भी
मानते थे कि उभयचरों के बाद धरती पर दौड़ने वालों जीवों का विकास हुआ ।
नरसिंह - भगवान विष्णु का यह अवतार डार्विन के उस चरण को पुष्ट करता है जिसके
मुताबिक इंसानों की उत्पत्ति जानवरों से हुई थी और इसके पहले चरण में अर्द्धमानव
पैदा हुए थे
वामन - मान्यता है कि इस अवतार में भगवान विष्णु अपने बौने रूप में प्रकट हुए थे
। डार्विन का मानना था कि इंसानों से पहले अविकसित मानव अस्तित्व में आए थे । ऐसे
मानवों को पश्चिम में हॉबिट नाम से जाना जाता है ।
परशुराम- इस अवतार में भगवान विष्णु फरसाधारी परशुराम के रूप में जन्म लेते हैं ।
विकासवाद के मुताबिक यह वह दौर था जब मानव हथियारों और औजारों का उपयोग करने लगा
था
राम- भगवान
विष्णु के इस अवतार के रूप में विकासवाद का वह क्रम आता है जब मनुष्य सामाजिक
बंधनों में बंधने लग गया था ।
कृष्ण- इस अवतार में भगवान विष्णु वह रूप धरते हैं जिसने समाज को राजनीति और
प्रबंधन के गुर सिखाए ।
बुद्ध- भगवान विष्णु का वह रूप जिसमें उन्होंने ज्ञान द्वारा अंतिम सत्य की खोज
की ।
कल्कि- कहा जाता है कि इस अंतिम अवतार में भगवान विष्णु आनुवंशिक रूप से
अति-विकसित मानव के रूप में जन्म लेंगे
हिंदू संस्कृति और डार्विन के विकासवाद की आपसी समानता का जिक्र स्वामी विवेकानंद से लेकर देश के पहले
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तक कई चर्चित हस्तियों ने भी किया है । बताते हैं कि
स्वामी विवेकानंद ने अपने अनुयायियों से कई बार बातचीत के दौरान ‘अस्तित्व को लेकर संघर्ष, प्रकृति
द्वारा चयन तथा सर्वोत्तम के वजूद’ जैसे सिद्धांतों को सही
माना था । डार्विन के विकासवाद को सांख्ययोग और पतंजलि के योग दर्शन से जोड़ते हुए
उन्होंने कहा था कि पश्चिमी विद्वानों द्वारा किए जारहे शोध हमारे यहां सदियों
पहले से अस्तित्व में थे ।
विवेकानंद
के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी इस बारे का जिक्र अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में किया था । उनके शब्दों में, ‘हमारे पुराण हजारों-लाखों वर्षों की बात करते
हैं । हमें आधुनिक भूगर्भ शास्त्र में बताए लंबे कालचक्र या तारों की दूरी से कोई
आश्चर्य नहीं होता है । यही कारण है कि डार्विन या उस तरह के दूसरे सिद्धांतों का
हमारे यहां कोई विरोध नहीं हुआ जैसा कि यूरोप में हुआ था । यूरोप के लोगों के
दिमाग जिस समयचक्र पर आधारित थे वे कुछ हजार साल से ज्यादा सोच ही नहीं सकते थे ।’
निष्कर्ष:-
इसका मतलब यह कतई नहीं था कि डार्विन
हिंदूवादी हो गए थे लेकिन हिंदू मान्यताओं से डार्विन की थ्योरी की इतनी गहरी
समानता महज एक इत्तेफाक़ भी तो नहीं हो सकता था । डार्विन की ऑटोबायोग्राफी में एक
जगह जिक्र आता है कि वे बीगल पर अपनी यात्रा की शुरूआत में (या उससे पहले) ही वे
हिंदू धर्म से जुड़े साहित्य का गहराई से अध्य्यन कर चुके थे । यह तब की बात है जब
वे सिर्फ वनस्पति और पक्षियों से जुड़े शोध और अपने शौक के लिए समुद्री यात्राओं
पर जाया करते थे । और शायद तब तक उन्होंने विकासवाद के सिद्धांतों पर काम करने के
बारे में सोचा भी नहीं था । तो क्या यह समझा जाए कि हिंदू पुराणों के अध्ययन के
बाद ही डार्विन के दिमाग में विकासवाद की अवधारणा ने जन्म लिया था? इस सवाल का जवाब हां भी हो सकता है और न भी । खुद डार्विन ने अपनी जीवनी
में लिखा था, ‘ बीगल पर यात्रा (1836 से
1839) के दौरान मेरी समझ में आने लगा था कि ओल्ड
टेस्टामेंट्स (इसमें यहूदी धर्म के पुराने सिद्धांतों, नियमों
और पौराणिक कहानियों का जिक्र है) पर हिंदुओं की धार्मिक किताबों से ज्यादा भरोसा
नहीं किया जा सकता ।
पंकज वेला ,
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन,
MGAHV,wardha
kumarpankaj20jan1988@gmail.com
पं.कुमार. 19 अप्रैल,2019
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