Friday, 19 April 2019

अपने जीवन के 14 साल एक साहित्यकार की जीवनी लिखने में ???




आवारा मसीहाने शरतचंद्र को पुनर्जीवन दिया था तो विष्णु प्रभाकर को एक बड़े साहित्यकार का कद
आखिर वह क्या आकर्षण था जिसके वश में विष्णु प्रभाकर ने अपने जीवन के 14 साल एक साहित्यकार की जीवनी लिखने में लगा दिए

कई बार हमें अपने स्वभाव से बिलकुल विपरीत चीजें भली लगती हैं । वे हमें अपनी तरफ चुम्बकीय आकर्षण के साथ खींचती हैं, जैसे कोई जादू हो उनके होने में । विष्णु प्रभाकर (21 जून, 1912 - 11 अप्रैल, 2009) द्वारा लिखा गया शरतचंद्र का जीवनीपरक उपन्यास आवारा मसीहाभी ठीक इन्हीं विपरीत ध्रुवों के आकर्षण का परिणाम-सा जान पड़ता है । कहां पक्के गांधीवादी, पूरे खद्दरधारी, बहुत हद तक आर्यसमाजी और नियमों से बंधकर जीनेवाले विष्णु प्रभाकर, कहां अपनी मनमर्जी चलनेवाले मनमौजी लेखक शरतचंद्र । शरतचंद्र का तो सारा लेखन उनकी इन्हीं मनमौज के वृतांतों से बुना और उसी पर खड़ा है
शरत के स्त्री पात्र इतने मजबूत और विशाल से लगते हैं कि आम पाठकों से साथ विशेषकर महिला पाठकों के मन में शरत के लिए अगाध लगाव को समझा जा सकता है । वहीं विष्णु प्रभाकर खुद साहित्यकार और साहित्यानुरागी थे तो इस लिहाज से उनका झुकाव शरदचंद्र की तरफ हो सकता है फिर भी दोनों के निजी जीवन में इतना अंतराल है कि उनका इस बंगाली लेखक के लिए इस तरह का लगाव पहली नजर में बेहद हैरान करता है
लोगों को यह अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना कष्ट उठा रहा है । जबकि स्वयं बांग्ला-भाषा में अभी तक उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं है
यह लगाव दुनियावी नजरिए से अव्यवहारिक भी लग सकता है । इस संबंध में अचरज की सबसे बड़ी बात तो यही थी कि एक मसीजीवी मतलब लेखन के पैसों पर ही निर्भर रहने वाला कोई शख्स अपने जिंदगी के अनमोल 14 बरस बस इन्हीं खोजबीन और उधेड़बुन को कैसे दे सकता है, कि ज्ञात-अज्ञात इस कथा के सभी सूत्र उसके हाथ में हों, कोई भी गिरह अनसुलझी न रह जाए या फिर पाठक को इस कथासूत्र में कोई भी अपूर्णता और विरोधाभास नजर न आए । यदि हम आवारा मसीहा की रचना प्रक्रिया और खुद विष्णु प्रभाकर के व्यक्तित्व पर नजर डालें तो यह गुत्थी कुछ हद तक खुलती है कि वे तकरीबन डेढ़ दशक तक इस साहित्यिक अभियानमें कैसे जुटे रहे ।
शरतचंद्र में यह गजब-सी बात थी कि वे जन-जन के प्रिय लेखक थे लेकिन सामाजिकतौर पर उनके साथ हमेशा बहिष्कृत सरीखा बर्ताव किया गया । ऐसे में विष्णु प्रभाकर के लिए आम लोगों से शरतचंद्र के बारे में कुछ विश्वसनीय बातें पता लगा पाना मुश्किल था । वहीं दूसरी तरफ जो लोग उनसे प्यार करते थे, वे या तो मुखर नहीं थे या फिर कोई सूत्र था ही नहीं उनके पास कि वे कुछ बताएं या जताएं । शरत का बहिष्कार करनेवाले लोगों का विष्णु प्रभाकर से कहना था - छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जिसे पाठकों को बताए बिना आपको चैन नहीं, नितांत स्वच्छंद व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है?’ ऐसी और भी टिप्पणियां थीं - उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे ही बीच रहे तो अच्छा । लोग इसे जानकर भी क्या करेंगे । किताबों से उनके मन में बसी वह कल्पना ही भ्रष्ट होगी बस ।विष्णु प्रभाकर जी से यह भी कहा गया, ‘दो चार गुंडों-बदमाशों का जीवन देख लो करीब से, शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी ।
लोगों को यह भी अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना कष्ट उठा रहा है । जबकि स्वयं बांग्ला-भाषा में अभी तक उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं है । गजब बात यह भी कि उनकी इस प्रामाणिक जीवनी लिखने के लिए प्रामाणिक स्त्रोतों की खोज में भटकने से पहले ही विष्णु जी ने बांग्ला भाषा सीखी थी । ऊपर हमने जिन बातों और दलीलों का जिक्र किया उन्हें सुनकर जाहिर है कि वे बहुत निराश होते थे, पर वे यह भी समझते थे की इस सबके पीछे कहीं-न-कहीं कुछ लोगों खासकर समकालीनों की ईर्ष्या भी थी कि उनका कद शरत के साहित्यिक कद के आगे दबा या कुचला जा रहा है
शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों और  अफवाहों से घिरे रहने का शौक था । वे परले दर्जे के अड्डाबाज थे और इस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं
इन लोकोपवादों को फैलाने में शरतचंद्र का हाथ भी कुछ कम नहीं था । शरतचंद्र की यह आदत थी कि वे अपने बारे में कहीं भी कुछ भी बोल सकते थे । कई बार ये बातें सच होतीं तो कई बार निरी कहानी । वैसे भी कहानियां बनाने में उन्हें मजा तो आता ही था भले ही वे उन्हीं को छवि को खंडित क्यों न कर रही हों । शरत को इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता था । उनकी प्रवृति बहुत जटिल थी । साधारण बातचीत में वे अमूमन अपने मन के भावों को ऊपर नहीं आने देते थे पर कपोल कल्पनाएं गढ़ने में उनका कोई सानी नहीं था
शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों, अफवाहों और अपवादों से घिरे रहने का शौक था । वे परले दर्जे के अड्डाबाज थे और इस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं । वहीं अगर किसी ने इनकी सत्यता जानने के लिए उनसे ही पड़ताल की तो वे हंसकर कह देते थे, ‘न रे गल्प (कहानी) कहता हूं, सब गल्प मिथ्या, एकदम सत्य नहीं ।वह कोई फिक्रमंद ही होता होगा जो इन कहानियों की तस्दीक उनसे करने जाए । अमूमन तो लोग सुनते और उसमें दो चार बातें और मिलाकर परोसते-उड़ाते । यूं भी उनके नशा करने और एक अनजान स्त्री के साथ यूं ही रहने को समाज में बुरी नजर से न देखने वाले लोग दुर्लभ ही थे । इस अनजान महिला के बारे में भी तरह-तरह के अनुमान आसपास के लोगों में थे । इनपर कभी उतनी स्पष्टता न आ पाती यदि विष्णु प्रभाकर इस घटनाक्रम को आवारा मसीहाशामिल न करते । इस किताब के मुताबिक उस अनजानस्त्री को शरतचन्द्र ने अपनी वसीयत में पत्नी कहा था और अपनी चल-अचल संपत्ति पर उनका ही हक माना था ।
आवारा मसीहा के लिए सामग्री इकट्ठा करने के क्रम में विष्णु प्रभाकर सिर्फ शरत के जीवन प्रसंगों या फिर उनसे जुड़े लोगों की तलाश ही नहीं करते रहे बल्कि वे शरतचंद्र के किरदारों की तलाश में भी इधर-उधर खूब भटके । वे बिहार, बंगाल, बांग्लादेश, बर्मा और देश-विदेश के हर उस कोने में गए जहां से शरत का कभी कोई ताल्लुक या वास्ता रहा हो । तलाश के इसी क्रम में उन्होंने जाना कि भागलपुर न सिर्फ उनका बल्कि उनके कई पात्रों की कर्मस्थली है । उन्हें पता चला कि देवदास की चंद्रमुखी भी भागलपुर की ही थी । वह मंसूरगंज की प्रसिद्ध तवायफ कालिदासी थी जिसको शरतचंद्र ने देवदास में चंद्रमुखी नाम दिया । वह सचमुच चांद की तरह ही खूबसूरत दिखती थी

विष्णु प्रभाकर शरतचंद्र के किरदारों की तलाश में भी यहां-वहां खूब भटके । इसी दौरान उन्हें पता चला कि देवदास की चंद्रमुखीभागलपुर की रहने वाली थी
विष्णु प्रभाकर के पुत्र अतुल प्रभाकर बताते हैं, ‘उन दिनों बर्मा आना-जाना उतना आसान नहीं था । जाने के लिए इजाजत मिलना भी बहुत कठिन था । कोई सीधी हवाई सेवा नहीं थी । साथ में विमान सेवा महंगी भी बहुत हुआ करती थी । वे स्टीमर भी अब नहीं थे, जिनका वर्णन शरत साहित्य खासकर पाथेरदाबीमें आता है । फिर भी बगैर किसी आर्थिक सहयोग के उन्होंने यह सब किसी मिशन की तरह पूरा किया क्योंकि इसके बिना शरत की यह कहानी अधूरी ही होती ।
किसी ने विष्णु प्रभाकर से जब यह पूछा- एक लेखक होकर आप अपनी स्वतंत्र कृति रचने के बजाय अपने जीवन के अनमोल 14 बरस किसी ऐसी कृति में क्यों खर्च करते रहे जो ठीक तरह से आपकी भी नहीं होनेवाली थी । आपकी धरती अब भी घूम रही हैकी तुलना जब उसने कहा थासे की जाती है और उसे उसके बाद हिंदी साहित्य की दूसरी सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा जाता है, इसके बावजूद आपको इसे (आवारा मसीहा) लिखने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी ।इसपर विष्णु प्रभाकर ने एक निश्छल हंसी हंसते हुए जो जवाब दिया, वह बहुत सिर्फ विष्णु जी ही नहीं बल्कि हर लेखक और पाठक के लिए महत्वपूर्ण है । उनका कहना था, ‘तीन लेखक हुए जिन्हें जनता दिलो जान से प्यार करती है । तुलसीदास, प्रेमचंद और शरतचंद्र । अमृत लाल नागर ने मानस का हंसलिखकर तुलसी की छवि को निखार दिया । अमृत राय ने कलम का सिपाही लिखा, प्रेमचंद को हम नजदीक से देख सके । पर शरत के साथ तो कोई न्याय न हुआ । उनके ऊपर लिखनेवाला कोई न हुआ, न कुल-परिवार में और न कोई साहित्यप्रेमी ही । यह बात मुझे 24 घंटे बेचैन किए रहती थी इसीलिए मुझे लगा कि मुझे ही यह काम करना होगा ।
आवारा मसीहाकी अभूतपूर्व ख्याति की वजह विष्णु प्रभाकर का शरत से वह अद्भुत लगाव तो रहा ही लेकिन इस काम में उनकी गांधीवादी निष्काम भावना की भी अहम भूमिका रही । आवारा मसीहाजैसी किताबों बिना इस भाव के नहीं लिखी जा सकतीं ।

यह उपन्यास जब साप्ताहिक हिन्दुस्तानमें धारवाहिक रूप से आ रहा था, लोगों की इसके प्रति ललक तब भी देखी जा सकती थी । छपने के साथ ही यह ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए नामित हो गया था । यह अलग बात है कि उस साल वह पुरस्कार तमसके लिए भीष्म साहनी को दिया गया । और विष्णु प्रभाकर को फिर साहित्य अकादमी उसके 20 साल बाद अर्द्धनारीश्वरके लिए मिला । यह अलग बात है कि न अर्धनारीश्वरआवारा मसीहा से अच्छी किताब थी और न तमसही इससे कहीं से श्रेष्ठतर । यह एक भूल थी जिसकी भरपाई अकादमी ने सालों बाद की । लेकिन यह विष्णु जी के चरित्र का यह बड़प्पन ही रहा कि उन्होंने इस पुरस्कार विवाद को लेकर न कभी मन छोटा किया, न भीष्म साहनी के प्रति उनके मन में कभी मलिनता आई.


प्रस्तुकर्ता....
पंकज वेला
पं.कुमार.
10अप्रैल,2019
एम.ए.गाँधी एवं शांति अध्ययन

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा



गांधी को पता ही नहीं था कि अंबेडकर खुद ‘अछूत’ हैं ... ???





बाबासाहेब और महात्मा : एक लंबे अरसे तक गांधी को पता ही नहीं था कि अंबेडकर खुद अछूतहैं!


कल यानी 14 अप्रैल को डॉ भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन है । अंबेडकर और गांधी पर जब भी चर्चा होती है, तो प्रायः यही दिखाया जाता है जैसे इनके संबंध बड़े कटु थे । पिछले आठ दशकों की लगभग चार पीढ़ियों को यही बताया गया है कि इनके बीच कोई आत्मीय संबंध तो नहीं ही थे, और जो थोड़े-बहुत शिष्टाचार वाले संबंध थे भी, वे एकदम नीरस और शुष्क थे । ऐसा दिखाया जाता है मानो हर मुद्दे पर दोनों में तीखा विरोध था । जबकि एक तटस्थ पड़ताल करने पर सच्चाई कुछ और ही दिखाई देती है ।
जब गांधी की हत्या हुई थी तो घटनास्थल पर पहुंचने वालों में सबसे पहले व्यक्ति भीमराव अंबेडकर ही थे और प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक वे बहुत देर तक वहां रुके थे । हममें से बहुत से लोग इसे शिष्टाचार ही मानेंगे । लेकिन गांधी और अंबेडकर के बीच लगभग 20 वर्षों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों की बुनियाद में एक अद्भुत आत्मीयता और आपसी सहानुभूति मौजूद थी, जिसपर शायद ही कभी चर्चा होती है
कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि लंबे समय तक महात्मा गांधी को यह मालूम नहीं था कि अंबेडकर स्वयं एक कथित अस्पृश्यहैं । वह उन्हें अपनी ही तरह का एक समाज-सुधारक सवर्णनेता समझते नेता थे । अंबेडकर जिस विद्वता, बेबाकी और आत्मविश्वास से अपनी बात रखते थे, उसे देखते हुए तत्कालीन समाज में यह गलतफहमी कोई बहुत बड़ी नहीं थी । एक अप्रैल, 1932 को यर्वदा जेल में जब महादेव देसाई के साथ अंबेडकर के बारे में चर्चा चली तो गांधी जी का कहना था, ‘मैं इंग्लैंड गया, तब तक मुझे यह जानकारी नहीं थी कि अंबेडकर स्वयं अछूतहैं । मैं यह समझता था कि वे ब्राह्मण हैं और इसलिए अस्पृश्यों के बारे में इतने अतिरेक से बोलते हैं ।
गांधी जी को संभवतः यही बताया गया था कि अंबेडकर ने विदेश में पढ़ाई कर ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं और वे पीएचडी हैं । दलितों की स्थिति में सुधार को लेकर उतावले हैं और हमेशा गांधी की आलोचना करते रहते हैं । प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अंबेडकर की दलीलों के बारे में जानकर भी उन्हें विश्वास हो चला था कि यह पश्चिमी शिक्षा और चिंतन में पूरी तरह ढल चुका कोई आधुनिकतावादी युवक है, जो भारतीय समाज को भी यूरोपीय नजरिए से देख रहा है । अंबेडकर ने साइमन कमीशन का सहयोग करके भी सबको नाराज कर दिया था । आमतौर पर किसी के भी बारे में पूर्वग्रह नहीं पालने वाले गांधी निश्चित तौर पर इस युवक के बारे में जाने-अनजाने थोड़े-बहुत पूर्वग्रह के शिकार हो चले थे ।
इसलिए जब 14 अगस्त, 1931 को दोनों की पहली मुलाकात बंबई के मणि भवन में हुई, तो गांधी की स्वाभाविक सहजता और मिठास पर उनका पूर्वग्रह हावी हो चुका था । तीव्र विनोदी स्वभाव के गांधी आम तौर पर अपने विरोधियों से भी हास-परिहास के साथ ही मिलते थे । उनकी बातें इतनी आत्मीयता भरी होती थीं कि विरोधी भी उनके कायल हो जाते थे । लेकिन उस दिन गांधी की भाषा थोड़ी रूखी थी । उनके मुंह से पहला ही वाक्य निकला- तो डॉक्टर, आपको इस बारे में क्या कहना है?’ जैसा कि उम्मीद कर सकते हैं कि जब महात्मा गांधी जैसा एक बूढ़ा व्यक्ति इस रुखाई पर उतरा हो, तो अंबेडकर जैसे सुतीक्ष्ण युवा का जवाब कैसा होता । उन्होंने भी थोड़े तंज के साथ ही जवाब दिया- आपने यहां मुझे आपकी अपनी बात सुनने के लिए बुलाया था । कृपा करके वह कहिए जो आपको कहना है । या आप चाहें तो मुझसे कोई सवाल पूछें और फिर मैं उसका जवाब दूं ।
आमतौर पर किसी के भी बारे में पूर्वग्रह नहीं पालने वाले महात्मा गांधी शुरुआत में युवा अंबेडकर के बारे में जाने-अनजाने थोड़े-बहुत पूर्वग्रह के शिकार हो चुके थे
 जवाब में गांधी का स्वर अप्रत्याशित रूप से और भी तल्ख हो चुका था । उन्होंने कहा- मैं समझता हूं कि आपको मेरे और कांग्रेस के खिलाफ कुछ शिकायते हैं । लेकिन मैं आपको बताऊं कि अपने स्कूल के दिनों से ही मैं अस्पृश्यों की समस्या बारे में सोचता रहा हूं । तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था । आपको शायद यह भी मालूम होगा कि इसे कांग्रेस के कार्यक्रम में शामिल कराने के लिए मुझे कितनी कोशिश करनी पड़ी ।  । । ।और यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि आप जैसे लोग मेरा और कांग्रेस का विरोध करते हैं । यदि आपको अपने रुख का औचित्य साबित करने के लिए कुछ कहना है तो खुलकर कहिए ।
जवाब में डॉ अंबेडकर की बातों में भी तल्खी और व्यंग्य साफ देखा जा सकता था । उन्होंने कहा- महात्माजी, यह सच है कि जब आपने अछूतों की समस्या के बारे में सोचना शुरू किया तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था । सभी बूढ़े और बुजुर्ग लोग हमेशा अपनी उम्र की दुहाई देते हैं । यह भी सत्य है कि आपके कारण ही कांग्रेस ने इस समस्या को मान्यता दी । लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि कांग्रेस ने इस समस्या को औपचारिक मान्यता देने के अलावा कुछ भी नहीं किया । आप कहते हैं कि कांग्रेस ने अछूतों के उत्थान पर बीस लाख रुपये खर्च किए । मैं कहता हूं कि ये सब बेकार गए । इतने सबसे तो मैं अपने लोगों के दृष्टिकोण में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकता था । लेकिन इसके लिए आपको मुझसे बहुत पहले मिलना चाहिए था ।
इसके बाद और भी बातें हुईं और कहा जाता है कि इस दौरान माहौल तनावपूर्ण बना रहा । इस पूरी बातचीत में दोनों की तरफ से केवल एक बार ही मधुर बातें कहीं गईं । जब अंबेडकर ने भावावेश में कहा कि गांधी जी सच में मेरी अपनी कोई मातृभूमि नहीं है’, तो जवाब में गांधी जी ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, ‘आपकी मातृभूमि है । गोलमेज परिषद् में आपके कार्य की रिपोर्ट मिली है । उससे मैं जानता हूं कि आप बेहतरीन देशभक्त हैं ।वहीं बातचीत के अंत में जाते-जाते अंबेडकर ने गांधीजी को उनकी साफगोई के लिए धन्यवाद दिया ।
जब तक गांधीजी को स्वयं अंबेडकर के अस्पृश्यहोने वाली बात मालूम नहीं थी । इसलिए इस पहली मुलाकात के बाद जब गांधी जी को यह पता चला कि अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली युवक स्वयं अस्पृश्यसमुदाय से आते हैं और उन्हें अपने जीवन में कई बार इस अछूतपने का सामना करना पड़ा है, तो उनके प्रति गांधीजी का पूरा नजरिया ही बदल गया । और इसके बाद तो कई अवसरों पर उन्होंने खुलकर अंबेडकर का पक्ष लिया, उनकी सराहना की । कभी रुखाई से किया गया डॉक्टरका संबोधन उन्होंने जारी रखा । बुलाते अब भी वे उन्हें डॉक्टरकहकर ही थे, लेकिन अब वह एक आत्मीयतापूर्ण संबोधन में बदल गया था ।
जब गांधी जी को यह पता चला कि अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली युवक स्वयं अस्पृश्यसमुदाय से आते हैं तो उनके प्रति गांधीजी का पूरा नजरिया ही बदल गया यह गांधी की साफगोई और सच्चाई थी जो अंबेडकर को बहुत प्रिय लगती थी और उन्होंने एकाधिक अवसर पर इसका जिक्र भी किया । जाति, वर्णाश्रम और धर्मांतरण जैसे प्रश्नों पर गांधी के विचार सुधारवादी थे जरूर, लेकिन वे भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूंढ़ने का प्रयास करते थे । इसका कारण था कि वे समझते थे यदि भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूढ़ ली जाएगी, तो घोर दकियानूसी मानसिकता वाले हिन्दू भी ऐसे परिवर्तनों को सहज ही स्वीकार कर लेंगे । इससे भारतीय समाज आपसी कलह, संघर्ष और टूटन से बच जाएगा ।
मगर अंबेडकर पूरी तरह से आधुनिक राजनीतिक संस्कृति को लागू करने की जल्दी में थे, जिसमें कुछ भी बुरा नहीं था । समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे से भला किसे ऐतराज हो सकता था? लेकिन दलितों और सवर्णों की जड़ता को वे कम करके आंक रहे थे, जबकि गांधी को उस जड़ता की ठीक-ठीक पहचान थी और सामाजिक हृदय-परिवर्तन के सहारे सांस्कृतिक स्तर पर ही उस जड़ता को हमेशा के लिए दूर करना चाहते थे । हम आज भी देख सकते हैं कि अत्यधिक आधुनिक मानवतावादी मूल्यों से भरे संविधान को व्यावहारिक रूप से सामाजिक स्तर पर अपना पाने में हमारा समाज कितना विफल रहा है । क्योंकि केवल कानूनी और राजनीतिक साधनों से सामाजिक जड़ता को दूर करना आसान नहीं होता है । तमाम कानूनों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के रहते और तमाम राजनीतिक लामबंदी के बावजूद जातीय हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा और अंधविश्वास थमने का नाम नहीं ले रहा है, बल्कि बढ़ ही रहा है ।
लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर जैसे ही गांधी को पता चला कि अंबेडकर ने स्वयं अस्पृश्यता का दंश झेला है, उन्होंने अंबेडकर के हर आक्रोश को जायज ठहराया । 1935-36 में जब अंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ने और सामूहिक धर्मांतरण करने की धमकी दी, तो चार मार्च, 1936 को गुजरात के सावली गांव के एक कार्यक्रम में जमनालाल बजाज ने इस पर गांधी की राय पूछी । गांधी ने कहा- डॉ अंबेडकर की जगह अगर मैं होता, तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता । उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता । डॉ अंबेडकर जो कुछ करें हमें नम्रता से सहना चाहिए । इतना ही नहीं, बल्कि हरिजनों की सेवा इसी में है । अगर वे सचमुच हमें जूतों से मारें, तो भी हमें सहन करना चाहिए । पर उनसे डरना नहीं चाहिए । डॉक्टर अंबेडकर की कदमबोसी करके उन्हें समझाने की भी जरूरत नहीं है । इससे कुसेवा होगी । वे या अन्य हरिजन जो हिन्दू धर्म में विश्वास न रखते हों, वह यदि धर्मांतर करें तो वह भी हमारी शुद्धि का ही कारण होगा । हम इसी योग्य हैं कि हमारे साथ ऐसा व्यवहार हो ।
इसी तरह 21 मार्च, 1936 के हरिजनमें गांधी लिखते हैं, ‘जबसे डॉक्टर अंबेडकर ने धर्म-परिवर्तन की धमकी का बमगोला हिन्दू समाज में फेंका है, उन्हें अपने निश्चय से डिगाने की हरचन्द कोशिशें की जा रही हैं ।यहीं गांधी जी आगे एक जगह लिखते हैं, ‘हां ऐसे समय में (सवर्ण) सुधारकों को अपना हृदय टटोलना जरूरी है । उसे सोचना चाहिए कि कहीं मेरे या मेरे पड़ोसियों के व्यवहार से दुखी होकर तो ऐसा नहीं किया जा रहा हैं । यह तो एक मानी हुई बात है कि अपने को सनातनी कहने वाले हिन्दुओं की एक बड़ी संख्या का व्यवहार ऐसा है जिससे देशभर के हरिजनों को अत्यधिक असुविधा और खीज होती है । आश्चर्य यही है कि इतने ही हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा, और दूसरों ने भी क्यों नहीं छोड़ दिया? यह तो उनकी प्रशंसनीय वफादारी या हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता ही है जो उसी धर्म के नाम पर इतनी निर्दयता होते हुए भी लाखों हरिजन उसमें बने हुए हैं ।
गांधी की यही सच्चाई और साफगोई अंबेडकर को छूती थी । राजनीतिक विरोध और प्रतिक्रिया के बावजूद डॉक्टर अंबेडकर के हृदय में एक ऐसा कोना हमेशा कायम रहा जिसमें गांधी के प्रति अपार प्रेम और सहानुभूति थी 
गांधीजी डॉक्टर अंबेडकर की नाराजगी को पूरी तरह उचित मानते थे । लेकिन बार-बार कहते थे कि हिन्दुओं के व्यवहार के आधार पर हिन्दू धर्म का मूल्यांकन करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि हिन्दू कहलानेवाले लोग वास्तविक हिन्दू धर्म से विमुख हो चुके हैं । 22 मार्च, 1936 को एमसी राजा को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा- डॉक्टर अंबेडकर के मन में कटुता पैदा होना बिल्कुल वाजिब है । जितना अपमान और तिरस्कार उनको सहना पड़ा है । उतने के बाद तो हममें से कोई भी क्यों न होता, उसके मन में कटुता और नाराजगी आ ही जाती । जब कटु होने और अपनी नाराजगी जाहिर करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, तो फिर वह भी ऐसा क्यों न करें । मेरी राय में बस एक चीज जिसे वह समझ नहीं रहे हैं वह यह है कि इसके लिए जिम्मेदार हिन्दू लोग है, हिन्दू धर्म नहीं ।
उन्होंने आगे कहा, ‘सच्चे वर्ण की मेरी जो संकल्पना है उसका अब अस्तित्व नहीं रह गया है । विशुद्धतम हिन्दू धर्म की दृष्टि में (गीता के अनुसार) तो ब्राह्मण, चींटी, हाथी और श्वपच (कुत्ते का मांस खानेवाला) सभी का एक ही दर्जा है । और चूंकि हमारा दर्शन इतने उच्च धरातल का है, और चूंकि हम उस पर अमल नहीं कर पाए हैं, इसलिए वही दर्शन आज हमारे बीच सड़ांध पैदा करने में लगा है ।
गांधी की यही सच्चाई और साफगोई अंबेडकर को छूती थी । राजनीतिक विरोध और प्रतिक्रिया के बावजूद डॉक्टर अंबेडकर के हृदय में एक ऐसा कोना हमेशा कायम रहा जिसमें गांधी के प्रति अपार प्रेम और सहानुभूति थी । अंबेडकर को लगता था कि गांधी उनकी अपेक्षा और भी कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि वे अपने ही सनातनी जड़तावादियों से उलझ रहे हैं और इस वजह से गांधी पर जानलेवा हमले तक हो रहे हैं ।
डॉक्टर अंबेडकर और गांधी के इस आत्मीय संबंध के साक्षी रहे थे उद्योगपति वालचंद हीराचंद और सरदार पटेल । इन दोनों की जानकारी में गांधी और अंबेडकर के बीच संभवतः कुछ अनौपचारिक मुलाकातें भी हुई थीं । सेगांव (जो बाद में सेवाग्राम कहलाया) में गांधी और अंबेडकर की ऐसी ही एक मुलाकात का पता हमें महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई दो चिट्ठियों से चलता है । एक चिट्ठी उन्होंने 28 अप्रैल, 1936 को मीराबहन को वर्धा से लिखी थी । इसमें लिखा था- मुझे यहां रविवार को रहना ही पड़ेगा और अगर डॉक्टर अंबेडकर आएं तो एक और दो मई को भी रहना होगा ।इसके बारे में मीराबहन ने लिखा है- डॉक्टर अंबेडकर आए अवश्य, लेकिन वह बापू से सेगांव में पेड़ों की छांव में मिले ।इस बात की तसदीक एक मई । 1936 को गांधीजी द्वारा सरदार पटेल को लिखी गई चिट्ठी से भी होती है, जिसमें वे लिखते हैं, ‘डॉक्टर (यानी अंबेडकर) और वालचंद सेगांव में मिले थे । वे फिर आएंगे ।
सात जुलाई, 1946 के हरिजनमें गांधी लिखते हैं, ‘यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं
लगातार अपने अनुभवों के आधार पर अपने जीवन और विचारों का शोधन करते जानेवाले गांधी ने अंबेडकर से मिलकर भी बहुत कुछ सीखा था । अपने शुरुआती दिनों में अंतर्जातीय विवाह का विरोध करनेवाले गांधी ने बाद में इतना तक प्रण कर लिया था कि वे ऐसी किसी शादी में शरीक नहीं होंगे जिनमें लड़का या लड़की में से कोई एक दलित न हो । वे ऐसी शादियों का आयोजन अपने आश्रम तक में करवाते थे । सात जुलाई, 1946 के हरिजनमें वे लिखते हैं, ‘यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं ।
गांधी जी के निधन के दो महीने बाद जब स्वयं डॉ अंबेडकर ने जाति से ब्राह्मण डॉ शारदा कबीर से विवाह किया, तो सरदार पटेल ने उन्हें पत्र में लिखा, ‘मुझे यकीन है कि यदि बापू आज जीवित होते, तो अवश्य ही उन्होंने आपको आशीर्वाद दिया होता ।अंबेडकर ने जवाब में लिखा, ‘मैं आपकी बात से सहमत हूं कि यदि बापू जीवित होते, तो इसे अपना आशीष दिया होता ।
इस श्रृंखला की अगली प्रस्तुतियों में हम गांधी और अंबेडकर के जीवन के ऐसे ही कई और भी साझे पहलुओं को मानवीय और उदार नजरिए से देखेंगे । अब अंत में एक ऐसे संयोग का जिक्र जिससे गांधी और अंबेडकर के संबंधों का स्वरूप ही बदल सकता था । 14 अगस्त, 1931 को मणि भवन में गांधी और अंबेडकर की जिस तल्ख और तनावपूर्ण पहली मुलाकात की चर्चा हमने की है, उसके अगले ही दिन अंबेडकर और अन्य प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए एस ।एस । मुलताननामक जहाज से लंदन रवाना हो गए थे । गांधी भी उसी जहाज से जानेवाले थे । लेकिन गांधी-इर्विन समझौतेसे जुड़े किसी स्पष्टीकरण के संबंध में गांधी को वायसराय से एक जरूरी मुलाकात करनी पड़ी । इस वजह से वे एस ।एस । मुलतानसे नहीं जा सके ।
बहुत से लोग मानते हैं कि यदि अंबेडकर और गांधी उस दिन एक ही जहाज से लंदन चले होते, तो एक-दूसरे को जानने के लिए और अपने बीच की गलतफहमियां दूर करने के लिए रास्ते में दोनों ही को भरपूर समय मिला होता । संभव है कि इससे द्वितीय गोलमेज सम्मेलन और पूना पैक्ट जैसे बाद के हंगामेदार इतिहास का फिर स्वरूप ही बदल गया होता । लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि ऐतिहासिक घटनाओं में यूं होता तो क्या होतावाली कल्पनाओं का कोई स्थान नहीं होता ।

फिर भी बाबासाहेब और महात्मा के आपसी संबंधों में आत्मीयता और सहृदयता की उष्मा इतनी अधिक मात्रा में मौजूद है कि इस कठिन समय में नई पीढ़ियों को भरपूर ऊर्जा और दिशा मिल सके 


प्रस्तुकर्ता.
पंकज वेला
पं.कुमार.
12अप्रैल, 2019
एम.ए.गाँधी एवं शांति अध्ययन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा



'ईश्वर के कातिल'...चार्ल्स डार्विन ???




पुण्यतिथि के अवसर पर ....
'ईश्वर के कातिल' करार दिए गए चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत हिंदू मान्यताओं से कैसे मिलते हैं?

कभी पादरी बनने की तैयारी कर चुके चार्ल्स डार्विन नहीं जानते थे कि एक समुद्री यात्रा उनका जीवन बदलने वाली



मैं एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति हूं जिसके बहुत सारे काम पहले से बाकी हैं । ऐसे में आपके सभी सवालों का जवाब देकर मैं अपना समय ज़ाया नहीं कर सकता और न ही इनका पूरा जवाब दे पाना संभव है । विज्ञान का क्राइस्ट (ईसा) के अस्तित्व से कुछ भी लेना-देना नहीं । मैं नहीं मानता कि ईश्वर ने किसी दूत के जरिए अपनी प्रकृति और मनुष्य की रचना में निहित अपने उद्देश्यों को को कभी बताया होगा ।’
ये लाइनें उस खत की हैं जो 1879 में चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने किसी जर्मन विद्यार्थी के लिए लिखवाया था । उनके बेटे फ्रांसिस डार्विन ने अपनी किताब द लाइफ एंड लैटर्स ऑफ चार्ल्स डार्विनमें इस खत का जिक्र किया है । अपने पिता के बारे में बताते हुए फ्रांसिस अपनी किताब में कहते हैं, ‘धर्म से जुड़े मामलों में वे अक्सर चुप ही रहते थे । इस विषय में उन्होंने जो भी राय रखी वह उनकी अपनी निजी सोच थी जो कभी प्रकाशित करने के उद्देश्य से नहीं कही गयी थी ।
धर्म के बारे में कुछ खुलकर बोलने से डार्विन ताउम्र बचते रहे । इसके बावजूद उनके लिखे कई पत्रों और उनकी कई किताबों में ईसाइयत के प्रति उनके विरोधी विचार साफ नज़र आते हैं । अपनी जीवनी में डार्विन ने लिखा था, ‘जिन चमत्कारों का समर्थन ईसाइयत करती है उन पर यकीन करने के लिए किसी भी समझदार आदमी को प्रमाणों की आवश्यकता जरूर महसूस होगी । उस समय का इंसान हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा सीधा और अनभिज्ञ था जब इन चमत्कारों के बारे में बताया गया था । ईसाइयत से जुड़े शुरुआती साहित्य गॉस्पेल (इसमें ईसा के जीवन, मृत्यु और उनके फिर जी उठने से जुड़ी कहानियां हैं) पर संदेह करते हुए डार्विन ने कहा था, ‘इस किताब में लिखे वर्णनों और चमत्कारों की कहानियों में भी मुझे विरोधाभास नज़र आता है । जैसे-जैसे इन विरोधाभासों का प्रभाव मुझ पर बढ़ता गया रेवेलेशनके रूप में ईसायत पर से मेरा विश्वास भी उठता चला गया ।
(‘गॉस्पेलको ईसा मसीह के बारह शिष्यों में से एक थॉमस ने लिखा था । ये वही थॉमस थे जो ईसा के बाद 50वीं ईस्वी में उनके संदेशों को लेकर भारत आए थे और 72वीं ईस्वी में चेन्नई के सेंट थॉमस माउंट पर एक भील के भाले से मारे गए थे ।)
पहले ईश्वर की राह पर :- ऐसा नहीं था कि चार्ल्स डार्विन हमेशा से अनीश्वरवादी थे । एक समय ऐसा भी था जब युवा डार्विन ने पादरी बनने की पूरी तैयारी कर ली थी । अपनी ऑटोबायोग्राफी में डार्विन इसका जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊं तो बेहतर होगा । मैंने सोचने के लिए मोहलत मांगी ताकि चर्च ऑफ इंग्लैंड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन में विश्वास पैदा कर सकूं । इसी क्रम में मैंने ईसाइयों के कई धर्मग्रंथ बेहद सावधानी के साथ पढ़े । उस समय तो बाइबिल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़ा और अक्षरश: पालन करने में मुझे कोई संदेह नहीं रह गया था । मैं जल्द ही इस बात को मानने लगा कि ईसाई मतों के सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन होना चाहिए ।


डार्विन का लिखा पत्र

उस दौर में ये धर्मग्रंथ और इनके विचार डार्विन पर कदर हावी थे कि अपनी शुरुआती दोनों समुद्री यात्राओं पर (समुद्री पोत एचएमएस बीगल पर) वे अपने साथ बाइबिल ले गए थे । लेकिन तब डार्विन खुद भी नहीं जानते थे कि इस यात्रा के हर पड़ाव के साथ वे धीरे-धीरे विज्ञानके पास और धर्मसे दूर होते चले जाएंगे ।

इस बारे में डार्विन लिखते हैं, ‘इन दो सालों (अक्टूबर 1836 से जनवरी 1839) के दौरान मुझे धर्म के बारे में ढंग से सोचने का मौका मिला । जब मैंने बीगल पर अपनी यात्रा की शुरूआत की थी मैं धर्म को लेकर घोर कट्टरवादी था । मुझे याद है कि जब मैं नैतिकता से जुड़े कई मुद्दों पर बाइबिल को किसी अकाट्य संदर्भ की तरह पेश करता था तो किस तरह जहाज के कई अधिकारी मुझ पर हंसा करते थे ।
वक्त के साथ डार्विन जैसे-जैसे अपना शोध आगे बढ़ाते गए, धर्म से उनका भरोसा कम होता चला गया । बताया जाता है कि डार्विन ने अपनी बेटी ऐनीकी मौत के बाद पूरी तरह से खुद को अपने शोध कार्यों में झोंक दिया था । इसी दौरान धीरे-धीरे बाइबिल और जीसस क्राइस्ट पर से उनका विश्वास उठता चला गया । इस बात का जिक्र उन्होंने 24 नवंबर,1880 को लिखे एक ऐतिहासिक खत में किया था । डार्विन ने फ्रांसिस एमसी डेर्मोट के एक पत्र का जवाब देते हुए अपने खत में साफ-साफ लिखा था, ‘मुझे आपको यह बताने में खेद है कि मैं बाइबिल पर पवित्र रेवेलेशन के तौर पर भरोसा नहीं करता । यही कारण है कि मुझे जीसस क्राइस्ट के ईश्वर की संतान होने पर भी विश्वास नहीं है ।’ (2015 में न्यूयॉर्क में नीलामी के दौरान इस पत्र की बोली 197,000 यूएस डॉलर लगाई गई थी)
चर्च के साथ जंग:-ऐसा नहीं था कि सिर्फ डार्विन ही धर्म के खिलाफ थे । जंग दोनों तरफ से बराबर छिड़ी हुई थी । लेकिन चर्च और ईसाई धर्मगुरूओं का डार्विन के प्रति विरोध उनके विरोध से कहीं ज्यादा प्रबल और व्यापक था । चर्च और उनके अनुयायियों को डार्विन के मानव विकास के सिद्धांत बिल्कुल मान्य नहीं थे । उन्हें लगता था कि डार्विन की थ्योरी मनुष्य और जानवरों के बीच के अंतर को ही खत्म कर देगी । लेकिन इससे कहीं ज्यादा संगीन आरोप जो डार्विन पर लगा, वह यह था कि उनके सिद्धांतों ने परमेश्वर, उनके पुत्र यीशू और ईसाइयों के प्रमुख धर्मग्रंथ बाइबिल के ही अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े कर दिए थे

जेम्स उश़ेर समेत तमाम ईसाई धर्मगुरूओं का (बाइबिल के हवाले से) मानना था कि पृथ्वी की रचना क्राइस्ट के जन्म से 4004 साल पहले हुई थी । लेकिन डार्विन के विकासवाद की थ्योरी पृथ्वी की उत्पत्ति को लाखों-करोड़ों वर्ष पहले का बताती थी । डार्विन के तर्कों से धर्मगुरूओं को दूसरी बड़ी आपत्ति इस बात से थी कि बाइबिल के मुताबिक ईश्वर ने एक ही सप्ताह में सृष्टि की रचना कर दी थी जिसमें उसने पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पहाड़-नदियां और मनुष्य को अलग-अलग छह दिन में बनाया था । (बाइबिल के मुताबिक परमेश्वर ने पहले दिन सूरज और पानी बनाए । दूसरे दिन आसमान । तीसरे दिन पानी को एक जगह इकठ्ठा कर ईश्वर ने धरती और समुद्र बनाए और धरती पर पेड़-पौधे लगाए । चौथे दिन परमेश्वर ने तारों का निर्माण किया । पांचवें दिन परमेश्वर ने समुद्र में रहने वाले जीव-जंतुओं के साथ उड़ने वाले पक्षियों को बनाया और छठे दिन परमेश्वर ने धरती और जानवरों पर अधिकार के लिए अपनी छवि में इंसान की रचना की और उसे गिनती में बढ़ने का आशीर्वाद दिया ।)
लेकिन डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत इस पूरी प्रक्रिया से उलट एक अलग ही कहानी कहता था । डार्विन ने विकासवाद पर आधारित अपनी किताब, ‘द ऑरिजिन ऑफ द स्पीशीज़में लिखा था, ‘मैं नहीं मानता कि पौधे और जीवित प्राणियों को ईश्वर ने अलग-अलग बनाया था ।डार्विन कहते थे कि ये सारे जीव कुछ चुनिंदा जीवों के वंशज हैं जिनमें वक्त के साथ परिवर्तन आते गए और धरती पर लाखों प्रजातियों का जन्म हुआ । उनके मुताबिक पीढ़ी दर पीढ़ी सूक्ष्म बदलावों के कारण बड़े बदलाव घटित हुए, जैसे मछलियां जल-थल जंतुओं में तब्दील हो गईं और बंदर इंसान में । इन्ही बदलावों को महाविकासकहा जाता है ।
इन्हीं ईश्वर विरोधी सिद्धांतों को देखते हुए डार्विन पर ईश्वर के अस्तित्व को ही मिटाने की कोशिशों के आरोप लग रहे थे । उनके जीवन पर बनी फिल्म क्रिएशन (2009) में ऑरिजिन ऑफ द स्पीशीज़ के प्रकाशन से जुड़ी बातचीत के दौरान थॉमस हेनरी हक्सले डार्विन से कहते हैं, ‘इसके बाद ईश्वर एक सप्ताह में सारे सजीवों के निर्माण का दावा नहीं कर सकता, आपने ईश्वर का कत्ल कर दिया है श्रीमान ।
डार्विन से पहले:- लेकिन चार्ल्स डार्विन अकेले ऐसे वैज्ञानिक नहीं थे जिनके सिद्धांत ईसाइयत के विरुद्ध थे । उनसे पहले कॉपरनिकस, जियोर्डानो ब्रूनो और गैलिलियो गैलिली जैसे विचारक और विज्ञानी अपने-अपने दौर में चर्च की मुखालफत कर चुके थे जिसका उन्हें खामियाजा भी उठाना पड़ा था । कॉपरनिकस ने अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन अपने आखिरी समय में किया था । इस कारण वे तो धर्मगुरुओं की नाराजगी का शिकार होने से बच गए थे लेकिन ब्रूनो और गैलिलियो को ईश्वरीय मान्यताओं का खंडन करने के आरोप में चर्च ने कड़े दंड दिए थे । धर्मगुरूओं ने गैलिलियो को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी और ब्रूनो को तो सरेआम जिंदा जलवा दिया था
शायद यही कारण था कि डार्विन ने अपनी समुद्री यात्राओं के अनुभवों पर आधारित किताब द वॉयेज ऑफ बीगल का प्रकाशन तो 1839 में कर दिया था लेकिन, शोध के लगभग 20 साल बाद तक भी वे प्राणियों के विकासवाद से जुड़ी किताब के प्रकाशन की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे । उनके इस किताब को न छापने के पीछे की एक प्रमुख वजह उनकी पत्नी एमा डार्विन को भी बताया जाता है । कहते हैं कि सरल स्वभाव की एमा को चर्च में अटूट विश्वास था और डार्विन अपनी पत्नी को धर्म पर कुठाराघात करती कोई भी किताब छापकर उन्हें दुख नहीं पहुंचाना चाहते थे ।
लेकिन 26 जून 1859 को डार्विन को मिले एक पत्र ने उन्हें एक बार फिर इस किताब को लेकर सोचने पर मजबूर कर दिया । यह पत्र अल्फ्रेड रसेल वॉलेस नाम के एक व्यक्ति का था जो डार्विन का प्रशंसक था और उन्हीं की तरह विकासवाद की थ्योरी पर काम कर रहा था । डार्विन को लिखे खत में वॉलेस ने उनसे अपने शोध के प्रकाशन को लेकर सलाह मांगी । इस बात से डार्विन के मन में यह आशंका पैदा हो गई कि यदि वे अपने शोध को जल्द ही लोगों के सामने लेकर नहीं गए तो वॉलेस उनका पूरा श्रेय ले जाएंगे । जल्द ही डार्विन ने वॉलेस का नाम अपने शोध में जोड़ते हुए इसके प्रकाशन की घोषणा कर दी । इसके बाद नवबंर 1859 में ऐतिहासिक किताब ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ : बाय मीन्स ऑफ नैचुरल सलेक्शनछप कर तैयार हुई जिसने मानव जीवन के रहस्यों से पर्दा हटाने का अभूतपूर्व काम किया । इस किताब को जैव विकास से जुड़े विज्ञान की बुनियाद कहा जाता है ।
किताब छप तो गई थी लेकिन चारों तरफ डार्विन का जमकर विरोध शुरू हो गया था । खुद के खिलाफ हो रहे विरोध से डार्विन इतने आहत थे कि इसका जिक्र करते हुए उन्होंने एक बार कहा था, ‘यह नर्क जैसा है ।चर्च के साथ मीडिया ने भी इस किताब के लिए डार्विन को आड़े हाथों लिया था । बताया जाता है कि यह जानकर कि इंसान वानर का वंशज हैं अमेरिका औऱ यूरोप के कई लोग बुरी तरह से हिल गए थे । उसी का परिणाम था कि किताब के प्रकाशन के बाद अमेरिका और पूरे यूरोप के स्कूल-कॉलेजों में डार्विन की थ्योरी पढ़ाने पर पाबंदी लगा दी गई थी । डार्विन के सिद्धांत पढ़ाने पर जीव विज्ञान के एक अध्यापक पर अमेरिका की एक अदालत में आधुनिक दुनिया के सबसे चर्चित केसों में से एक चलाया गया था जिसे मंकी ट्रायल के नाम से जाना जाता है ।
हिंदू मान्यताओं से जुड़ते तार:-लेकिन जहां एक तरफ पाशाचत्य संस्कृति और सभ्यता डार्विन के सिद्धांतों को सिरे से खारिज़ कर रही थीं वहीं दूसरी तरफ पूरब की गोद में फल रहा हिंदू धर्म अपने जहन में ऐसी कई कहानियों को संजोए हुए था जो डार्विन के विकासवाद को पुष्ट करने का काम करती थीं । हिंदू पौराणिक मान्यताओं में भगवान विष्णु के दस अवतारों का जिक्र मिलता है । मत्स्य पुराण में लिखा है-
मत्स्यकुर्मो वराहश्च नरसिंहोSथ वामन:
रामो रमश्च कृष्णश्च बुद्धकल्कि च ते दश।।
देखा जाए तो ये अवतार डार्विन के विकासवाद के कई चरणों से हूबहू मिलते थे । अगर क्रमवार समझने की कोशिश की जाए तो-
मत्स्य - इन मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु ने पहला अवतार मत्स्य यानी मछली के रूप में लिया था । डार्विन का भी यही मानना था कि सर्वप्रथम जलचर अस्तित्व में आए ।
कूर्म - भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कुर्म यानी कछुआ जो कि उभयचर जीव था । विकासवाद के सिद्धांत में डार्विन ने भी यही तर्क दिया था कि जीवन जल से धरती की ओर गया था ।
वराह - तीसरे अवतार में भगवान विष्णु वराह के रूप में अवतरित हुए । डार्विन भी मानते थे कि उभयचरों के बाद धरती पर दौड़ने वालों जीवों का विकास हुआ ।
नरसिंह - भगवान विष्णु का यह अवतार डार्विन के उस चरण को पुष्ट करता है जिसके मुताबिक इंसानों की उत्पत्ति जानवरों से हुई थी और इसके पहले चरण में अर्द्धमानव पैदा हुए थे
वामन - मान्यता है कि इस अवतार में भगवान विष्णु अपने बौने रूप में प्रकट हुए थे । डार्विन का मानना था कि इंसानों से पहले अविकसित मानव अस्तित्व में आए थे । ऐसे मानवों को पश्चिम में हॉबिट नाम से जाना जाता है ।
परशुराम- इस अवतार में भगवान विष्णु फरसाधारी परशुराम के रूप में जन्म लेते हैं । विकासवाद के मुताबिक यह वह दौर था जब मानव हथियारों और औजारों का उपयोग करने लगा था
राम- भगवान विष्णु के इस अवतार के रूप में विकासवाद का वह क्रम आता है जब मनुष्य सामाजिक बंधनों में बंधने लग गया था ।
कृष्ण- इस अवतार में भगवान विष्णु वह रूप धरते हैं जिसने समाज को राजनीति और प्रबंधन के गुर सिखाए ।
बुद्ध- भगवान विष्णु का वह रूप जिसमें उन्होंने ज्ञान द्वारा अंतिम सत्य की खोज की ।
कल्कि- कहा जाता है कि इस अंतिम अवतार में भगवान विष्णु आनुवंशिक रूप से अति-विकसित मानव के रूप में जन्म लेंगे

हिंदू संस्कृति और डार्विन के विकासवाद की आपसी समानता का जिक्र स्वामी विवेकानंद से लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तक कई चर्चित हस्तियों ने भी किया है । बताते हैं कि स्वामी विवेकानंद ने अपने अनुयायियों से कई बार बातचीत के दौरान अस्तित्व को लेकर संघर्ष, प्रकृति द्वारा चयन तथा सर्वोत्तम के वजूदजैसे सिद्धांतों को सही माना था । डार्विन के विकासवाद को सांख्ययोग और पतंजलि के योग दर्शन से जोड़ते हुए उन्होंने कहा था कि पश्चिमी विद्वानों द्वारा किए जारहे शोध हमारे यहां सदियों पहले से अस्तित्व में थे ।
विवेकानंद के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी इस बारे का जिक्र अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में किया था । उनके शब्दों में, हमारे पुराण हजारों-लाखों वर्षों की बात करते हैं । हमें आधुनिक भूगर्भ शास्त्र में बताए लंबे कालचक्र या तारों की दूरी से कोई आश्चर्य नहीं होता है । यही कारण है कि डार्विन या उस तरह के दूसरे सिद्धांतों का हमारे यहां कोई विरोध नहीं हुआ जैसा कि यूरोप में हुआ था । यूरोप के लोगों के दिमाग जिस समयचक्र पर आधारित थे वे कुछ हजार साल से ज्यादा सोच ही नहीं सकते थे ।

निष्कर्ष:-
इसका मतलब यह कतई नहीं था कि डार्विन हिंदूवादी हो गए थे लेकिन हिंदू मान्यताओं से डार्विन की थ्योरी की इतनी गहरी समानता महज एक इत्तेफाक़ भी तो नहीं हो सकता था । डार्विन की ऑटोबायोग्राफी में एक जगह जिक्र आता है कि वे बीगल पर अपनी यात्रा की शुरूआत में (या उससे पहले) ही वे हिंदू धर्म से जुड़े साहित्य का गहराई से अध्य्यन कर चुके थे । यह तब की बात है जब वे सिर्फ वनस्पति और पक्षियों से जुड़े शोध और अपने शौक के लिए समुद्री यात्राओं पर जाया करते थे । और शायद तब तक उन्होंने विकासवाद के सिद्धांतों पर काम करने के बारे में सोचा भी नहीं था । तो क्या यह समझा जाए कि हिंदू पुराणों के अध्ययन के बाद ही डार्विन के दिमाग में विकासवाद की अवधारणा ने जन्म लिया था? इस सवाल का जवाब हां भी हो सकता है और न भी । खुद डार्विन ने अपनी जीवनी में लिखा था, ‘ बीगल पर यात्रा (1836 से 1839) के दौरान मेरी समझ में आने लगा था कि ओल्ड टेस्टामेंट्स (इसमें यहूदी धर्म के पुराने सिद्धांतों, नियमों और पौराणिक कहानियों का जिक्र है) पर हिंदुओं की धार्मिक किताबों से ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता ।
प्रस्तुतकर्ता
पंकज वेला ,

एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन,
MGAHV,wardha
kumarpankaj20jan1988@gmail.com
पं.कुमार. 19 अप्रैल,2019
  

Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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