Tuesday, 20 October 2020

थाईलैंड के सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर की दीवारों पर रामायण के चित्रों की कहानी क्या है?

 

थाईलैंड के सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर की दीवारों पर रामायण के चित्रों की कहानी क्या है?

मंदिर के चारों ओर बनी दीवार पर चित्रों के माध्यम से कही गई रामायण इस देश के सांस्कृतिक पुनर्गठन की कथा है





वाट फ्रा काएव या ‘हरित बुद्ध मंदिर’ थाईलैंड में बौद्ध धर्मावलंबियों का सबसे प्रतिष्ठित तीर्थ स्थान है. राजधानी बैंकाक के केंद्र में बने इस मंदिर के पास ही शाही महल है. मंदिर के परिसर में सौ से ज्यादा इमारतें हैं. गौतम बुद्ध की हरे पत्थर से बनी मूर्ति के कारण ही यह मंदिर हरित बुद्ध मंदिर के नाम से पूरी दुनिया में लोकप्रिय है. थाईलैंडवासियों के लिए ये हरित बुद्ध उनके देश के रक्षक हैं.

इस मंदिर परिसर को तकरीबन दो किमी लंबी दीवार से घेरा गया है. हमारे समाज में ईश्वर अवतार के रूप में बुद्ध की प्रतिष्ठा है, हम में से कइयों के लिए यह मंदिर आस्था का विषय हो सकता है. लेकिन परिसर को घेरने वाली बाहर की दीवार आस्था के साथ-साथ किसी भी भारतीय के लिए हैरानी का विषय बन सकती है. इस पूरी दीवार पर रामायण का चित्रांकन है.

थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन (रामायण) के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है  

यह चित्रांकन कला और रंगों की गुणवत्ता के लिहाज से बहुत ऊंचे दर्जे का है. इसके माध्यम से थाईलैंड में प्रचलित रामायण – रामाकीन के नायक फ्रा राम की कहानी दिखाई गई है. ये चित्र दीवार के कुल 178 हिस्सों (पैनलों) पर बने हैं और कुछ दशकों के अंतराल पर इनका ‘रेस्टोरेशन’ किया जाता रहता है. पिछली बार 2004 में ऐसा हुआ था.

थाई भाषा में रामाकीन का अर्थ है राम की गौरव गाथा. यह कहानी भी तकरीबन वाल्मीकि रामायण जैसी है, बस कुछ जगहों के विवरण और चरित्र थोड़े अलग हैं. भारत में रामायण एक धर्मग्रंथ है वहीं थाईलैंड के लिए यह उसकी संस्कृति का प्रतिनिधि महाग्रंथ है जिसकी कहानी उसी देश के किरदारों को आधार बनाकर बुनी गई है.

अब सवाल पैदा होता है कि हिंदुओं के इस धर्मग्रंथ को बौद्ध धार्मिक स्थल की दीवारों पर जगह क्यों दी गई है?



इस सवाल का जवाब भारतीय और दक्षिणपूर्व एशियायी देशों की संस्कृतियों के बीच मेल में खोजा जा सकता है. माना जाता है दक्षिण भारतीय व्यापारी आज से तकरीबन तेरह सौ साल पहले इन क्षेत्रों में पहुंचे थे. इनके साथ दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण भी पहुंची और हिंदू धर्म की कई परंपराएं भी. ये इलाके कुछ समय तक हिंदू राजाओं के अधीन भी रहे और इससे हिंदू धर्म की जड़ें यहां और गहरी हो गईं. लेकिन जब ये राजवंश खत्म हुए तो धीरे-धीरे हिंदू धर्म भी हाशिये पर चला गया.


इन क्षेत्रों की संस्कृति में हिंदू धर्म के घुले-मिले अंश आज भी देखे जा सकते हैं. कंबोडिया का ही उदाहरण लें तो ब्राह्मण यहां नए राजा के राज्याभिषेक की परंपरा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. 12 साल पहले जब यहां नए राजा को सिंहासन सौंपा गया था तो भारतीय मीडिया में इस बात की काफी चर्चा हुई थी.

थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है  

इंडोनेशिया दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है लेकिन यहां छाया कठपुतली विधा में रामायण का मंचन काफी लोकप्रिय है. थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है.

थाईलैंड में एक समय रामायण के कई संस्करण प्रचलित थे लेकिन अब इनमें से गिने-चुने संस्करण ही बचे हैं. 18वीं शताब्दी के मध्य में सियाम (आज का थाईलैंड) के शहर अयुत्थया (अयोध्या का अपभ्रंश), जो तब देश की राजधानी था, को बर्मा की सेना ने तबाह कर दिया था. फिर बाद में जब चीनी सेना बर्मा में घुस आई तो उन्हें सियाम छोड़कर जाना पड़ा और यहां एक नए राजवंश व देश का उदय हुआ.

चक्री वंश के पहले राजा की उपाधि ही राम प्रथम थी. थाईलैंड में आज भी यही राजवंश है. जब बर्मी सेना यहां से चली गई तो देश में अपनी सांस्कृतिक जड़ों को खोजने की एक पूरी मुहिम चली और इसी दौरान रामायण को यहां दोबारा प्रतिष्ठा मिलनी शुरू हुई. रामायण का जो संस्करण आज यहां प्रचलित है वो राम प्रथम के संरक्षण में रामलीला के रूप में 1797 से 1807 के बीच विकसित हुआ था. राम प्रथम ने इसके कुछ अंशों को दोबारा लिखा भी है. इन्हीं वर्षों में थाईलैंड के इस सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर के चारों ओर बनी दीवार पर रामायण को चित्रित किया गया था.

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लेख का स्रोत:-https://satyagrah.scroll.in/article/22037/ramayan-murals-thailand-buddhist-temple





Monday, 19 October 2020

कैसे पंचवर्षीय योजनाओं ने हिंदुस्तान की आर्थिक बुनियाद को टेढ़ा कर दिया

 

कैसे पंचवर्षीय योजनाओं ने हिंदुस्तान की आर्थिक बुनियाद को टेढ़ा कर दिया

1951 की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक


अब तक हमने जाना कि कैसे आजादी के बाद 1948 में राज्यों का एकीकरण हुआ - हैदराबाद, जूनागढ़ की ना-नुकर और कश्मीर का एक लड़ाई और कुछ शर्तों के साथ हिंदुस्तान में विलय. 1949 में आरबीआई का राष्ट्रीयकरण हुआ और 1950 में देश अपने नये संविधान के साथ गणतंत्र बना. देखा जाए तो इसके साथ देश का भौगोलिक और संवैधानिक ढांचा बनकर तैयार हो गया था. अब बारी थी आर्थिक नीतियों के बनने और उनके क्रियान्वयन की. इसकी ज़िम्मेदारी थी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की.

नेहरु स्वप्नदृष्टा और फेबियन यानी ऐसे समाजवाद के हामी थे जो धीरे-धीरे लोकतांत्रिक तरीकों से समाज में समानता लाने की बात करता है. गांधी के स्वराज और विकास के मॉडल से उनका भावनात्मक जुडाव तो था, पर शायद उनमें यकीन उतना नहीं था. अंग्रेजों द्वारा खोखले कर दिए गये देश के आर्थिक पहिये को घुमाने के लिए उन्हें कुछ अलग और बड़ा करना था.


नेहरु रूस के तानाशाह जोसफ स्तालिन को तो नापसंद करते थे पर उनके आर्थिक मॉडल की कुछ चीजें उन्हें समझ में आती थीं. स्तालिन के आर्थिक मॉडल में सरकार उत्पादन से लेकर विपणन तक हर कदम पर ज़िम्मेदार थी. आर्थिक विकास निजी लोगों के हाथों में नहीं दिया जा सकता था. स्तालिन ने रूस में पंचवर्षीय योजनाएं लागू कीं. नेहरु ने भी यही मॉडल हिंदुस्तान के लिए इख़्तियार किया.

साल 1951 में हिंदुस्तान में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गयी. इसे लागू करने में काफी मशक्कत की गयी थी जो कुछ-कुछ ‘सब दिन चले अढ़ाई कोस’ जैसी साबित हुई. आइये देखते हैं कैसे! इसे और पंचवर्षीय योजानाओं को समझने के लिए हम शुरुआत की दो योजनाओं को देखेंगे - 1951-1956 और 1956-1961.

नेशनल प्लानिंग कमेटी का गठन और बॉम्बे प्लान

1938 में कांग्रेस पार्टी ने नेशनल प्लानिंग कमेटी(एनपीसी) का गठन किया था जिसे आज़ाद हिंदुस्तान की आर्थिक प्लानिंग का ढांचा तैयार करने का ज़िम्मा दिया गया था इसके पहले अध्यक्ष एम विस्वेसरैया थे और दूसरे खुद जवाहरलाल नेहरू. यह कमेटी पूरी तरह से तो कोई रिपोर्ट नहीं बना सकी लेकिन आजादी के तुरंत बाद इसके कुछ विचार जरूर देश के सामने आये.

भारत की आर्थिक नीति को लेकर एनपीसी की सोच यह थी कि देश में रूस जैसे देशों का मॉडल लागू किया जाए. वहां औद्योगीकरण देर से शुरू हुआ था और सरकार की भागीदारी इंजन बनकर विकास की रेलगाड़ी खींच रही है. साफ सी बात है कि कमेटी का अध्यक्ष होने के नाते कमोबेश यही सोच नेहरू की भी थी.

ये बड़े ताज्जुब की बात है कि देश के जाने-माने उद्योगपति जैसे घनश्याम दास बिरला, जेआरडी टाटा, लाला श्रीराम सरीखे लोग भी नेहरु के इस केंद्रीय प्लानिंग के विचार से सहमत थे. इन सबने मिलकर भी 1944 में एक ‘बॉम्बे प्लान’ नेहरु को पेश किया. इसके तहत 15 सालों में देश की आय को तिगुना और इसकी प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करने का लक्ष्य था.

पहली पंचवर्षीय योजना का मंज़ूर होना

15 मार्च 1950 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में देश में योजना आयोग का गठन हुआ और 1951 की गर्मियों में इसने देश को पहली पंचवर्षीय योजना सौंपी. इसमें कृषि को सबसे ज़्यादा महत्व दिया गया. रामचन्द्र गुहा, ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि चूंकि विभाजन से उपजे हालातों की वजह से कृषि उत्पादन पर सबसे ज़्यादा असर हुआ था, इसलिए पहली योजना में इस पर सबसे ज़्यादा ध्यान देने की बात कही गयी. इसके अलावा इसमें ट्रांसपोर्ट व्यवस्था, संचार और सामाजिक सेवाओं के विस्तार की बात भी थी.


नेहरु ने इसे लागू करते वक़्त बड़ा ही भावनात्मक भाषण दिया. उन्होंने कहा कि ये हिंदुस्तान के हर पहलू को एक ढांचे के तहत देश के सामने रखेगी. उनका कहना था, ‘प्लानिंग कमीशन ने पूरे देश को प्लानिंग के प्रति जागरूक बना दिया है.’

कुल 2378 करोड़ रूपए इस प्लान में कुछ इस तरह आवंटित किये गए थे - सिंचाई और ऊर्जा(27.2 फीसदी), कृषि (17.4 फीसदी), संचार और ट्रांसपोर्ट (24 फीसदी), उद्योग(8.4 फीसदी), सामाजिक सेवाएं (16.4 फीसदी), ज़मीन विस्थापन(4.1 फीसदी) और अन्य सेवाओं के लिए(2.5 फीसदी).

इस दौरान मानसून मेहरबान रहा और कुल मिलाकर पहली योजना औसतन सफल रही. चूंकि नेहरु के मुताबिक बड़ी फैक्ट्रियां और बांध देश के नए मंदिर होने वाले थे, लिहाज़ा उन्होंने उसी प्लान के तहत काम करना शुरू कर दिया.

महलानोबिस की एंट्री और समाजवादी पूंजीनिवेश

नेहरु देश के विकास के मॉडल में तर्क, विज्ञान और समाज का समावेश चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को चिन्हित किया. इनमें से एक थे प्रसंता चंद्र महलानोबिस. वे वैज्ञानिक होने के साथ-साथ सांख्यिकी के विद्वान भी थे. नेहरु उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्हें योजना आयोग में ले आये. कुछ समय की ट्रेनिंग के बाद महलानोबिस योजना आयोग के साथ-साथ पचास के दशक के हिंदुस्तान के सबसे अहम व्यक्तियों में से एक बन गए. उन्होंने ही 1959 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की.

महलानोबिस ने ही देश की दूसरी पंचवर्षीय योजना के ड्राफ्ट को तैयार किया था. वे अर्थ के बड़े जानकार नहीं थे पर अपनी इस कमी को उन्होंने विकसित देशों के अर्थशास्त्रियों और अन्य लोगों से मिलकर पूरा किया. उन्होंने अमेरिका, चीन, रूस आदि देशों में जाकर उनके आर्थिक मॉडल समझे थे जिनमें से रूस के मॉडल ने उन्हें सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था.

दूसरी पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया था. यहीं से हिंदुस्तान की बुनियाद में टेढ़ापन आ गया. इसमें दूसरा जोर भारी उद्योगों के विकास पर था. जहां पहले प्लान में कृषि क्षेत्र में कोई ख़ास काम नहीं हुआ था, वहीँ दूसरे प्लान में कृषि को लगभग नकार दिया गया था.

बावजूद इसके दुनिया भर के अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक महलानोबिस के प्लान से अभिभूत थे. ब्रिटेन के जीव विज्ञानी जेबीएस हैलदेन तो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा, ‘अगर कोई निराशावादी सोच भी रखता हो, और ये मान ले कि इस प्लान के असफल होने में 15 फीसदी भागीदारी पाकिस्तान और अमेरिका की है, 10 फीसदी रूस और चीन का हस्तक्षेप है, 20 फीसदी राजनीति और ब्यूरोक्रेसी है, और 5 फीसदी हिंदू सोच है, तो भी इसके सफल होने के 50 फीसदी आसार ही हैं. और ये इतने हैं कि दुनिया का इतिहास ही बदल जाएगा.’

मशहूर अंग्रेजी लेखक गुरचरण दास अपनी किताब ‘इंडिया अनबाउंड’ में लिखते हैं कि दूसरी पंचवर्षीय योजना को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज मान लिया गया था.

मोम जैसे नेहरु का स्टील-प्रेम

जवाहरलाल नेहरु और प्रसंता चंद्र महलानोबिस को यकीन था कि स्टील का उत्पादन देश की तकदीर बदल देगा. इससे गृह निर्माण और अन्य उद्योग पनपेंगे और देश का आर्थिक पहिया घूमने लग जाएगा. महलानोबिस ने स्टील प्लांट्स लगाने के लिए निजी विदेशी निवेश को नकार दिया और हिंदुस्तान के उद्योगपतिओं को नेहरु कमतर आंकते थे. घनश्याम दास बिरला सरीखे लोगों तक को स्टील प्लांट लगाने की मंजूरी नहीं दी गयी. लिहाज़ा. अब एक ही रास्ता बचता था - अन्य देश की सरकारों की मदद.

नेहरु ने रूस से भिलाई में, इंग्लैंड से दुर्गापुर में, पश्चिम जर्मनी से राउरकेला में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए मदद ली. उन्होंने अमेरिका से बोकारो स्टील संयंत्र लगाने में सहयोग मांगा, जिसे उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि हिंदुस्तान को अभी कृषि और छोटे घेरलू उद्योगों में निवेश करना चाहिए. नेहरु को यह बात नहीं जंची. लिहाज़ा, बोकारो के लिए देश ने फिर से रूस की ही तरफ देखा.

उस वक्त निजी फैक्ट्रियां बेहद कम मात्रा में स्टील का उत्पादन किया करती थीं. सरकार द्वारा इतने इस्पात संयंत्र खोलने के बाद इस क्षेत्र में निजी और सरकारी संस्थाओं के बीच प्रतिस्पर्धा लगभग ख़त्म हो गयी. रामचंद्र गुहा ने एख जगह लिखा भी है कि नेहरू कंपटीशन के ख़िलाफ़ थे. उनकी नज़र में यह पैसे और संसाधनों की बर्बादी थी.

इस सब का नतीजा यह हुआ कि गुणवत्ता तो पीछे रह गई और काम करने वाले में भ्रष्टाचार फैलने लगा. रही-सही कसर, ट्रेड यूनियनों ने पूरी कर दी. कुल मिलाकर स्टील तो ठीक से बना नहीं और कृषि को हमने त्याग ही दिया था. दस साल यानी, पूरा पचास का दशक बर्बाद हो गया. साठ का दशक, यानी अगले दस साल चीन और पाकिस्तान से लडाइयों में और इंदिरा गांधी की घोर समाजवादिता की भेंट चढ़ जाने थे.

क्या दूसरा विकल्प था?

महलानोबिस के प्लान के अलावा देश के पास एक और विकल्प था. गुरचरण दास लिखते हैं कि ये महलानोबिस के प्लान जैसा तड़क-भड़क भरा और पेंचीदा न होकर भारतीय हालातों के अनुकूल था. तो क्या थी यह योजना और किसने दी थी?

आज के मुंबई, तब के बॉम्बे, के दो अर्थशास्त्री- सीएन वकील और पीआर ब्रह्मानंद ने सुझाया था कि देश के पास पूंजी कम है और मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं. और इनमें से ज़्यादातर बेरोजगार हैं. इस पूंजी को ‘वेज गुड्स’ बनाने में खपाया जाए. ‘वेज गुड्स’ यानी कपडे, खिलौने, स्नैक्स, साइकिल, रेडियो जैसे उत्पाद जिनमें कम पूंजी लगती है और जोख़िम भी नहीं होता. लोग इन्हें बनाते और अर्जित किये गये धन से इन्हें ख़रीदते.

दोनों अर्थशास्त्रियों का मानना था कि इससे कृषि में निवेश बढेगा, ग्रामीण आधारभूत ढांचा खड़ा होगा, कृषि सम्बंधित उद्योग और निर्यात बढेगा. ठीक वैसे ही जैसे विश्वयुद्ध के बाद जापान और 60 के दशक में चीन में हुआ था. और यह कुछ-कुछ मनरेगा जैसा ही था. निर्यात से अर्जित पूंजी से भारी उद्योग लगाये जा सकते थे.

सरल बातें बड़े-बड़े फॉर्मूलों और लफ़्ज़ों की चाशनी में सनी नहीं होतीं. इसलिए अक्सर ठुकरा दी जाती हैं. कुछ ऐसा ही हाल सीएन वकील और पीआर ब्रह्मानंद के प्लान के साथ हुआ. नेहरु और महलानोबिस को रूस की फैक्ट्रियां लुभा रही थीं. जापान जैसे छोटे देश का प्लान हिंदुस्तान जैसे इतने बड़े देश के काम कैसे आ सकता था? इस बात ने सारा खेल ही पलट दिया.

जावेद अख्तर के शेर की पंक्तियां याद आती हैं - ‘मेरी बुनियादों में ही कोई टेढ़ थी, अपनी दीवारों को क्या इल्ज़ाम दूं.’

प्लानिंग कमीशन बनाम नीति आयोग

प्लानिंग कमीशन संविधान द्वारा निर्मित नहीं था बल्कि सरकार द्वारा बनाई गयी संस्था थी, इसलिए यह अब इतिहास हो गयी है. उसकी जगह नीति आयोग ने ले ली है. अक्सर कहा जाता है कि नीति आयोग सिर्फ नयी बोतल में पुरानी शराब ही है. पर दोनों में कुछ बुनियादी अंतर हैं.

जहां प्लानिंग कमीशन केंद्र में बैठकर राज्यों की अर्थव्यवस्था की प्लानिंग करता था, नीति आयोग राज्य केंद्रित है. वह हर राज्य को अपने हिसाब से प्लानिंग करने में मदद करता है. जहां प्लानिंग कमीशन राज्य की प्रत्येक योजना के लिए धन आवंटित करता है. नीति आयोग ये फ़ैसला राज्यों के विवेक पर छोडता है. कुल मिलाकर पहला वाला, ऊपर से नीचे आने वाला कार्यक्रम था. नीति आयोग, नीचे से ऊपर जाने वाला प्लान है. नीति आयोग सिर्फ नीतिगत सलाह देने का काम करता है.

इन्ही सब बातों को देखते हुए अब पंचवर्षीय योजनाएं भी बंद कर दी गयी हैं. देश की आखिरी - बारहवीं - पंचवर्षीय योजना इसी साल खत्म हुई है. खैर, आज बड़े आराम से हम यहां इन योजनाओं की आलोचना कर सकते हैं. पर तब वह दौर था, जब समाजवाद हर समस्या का हल माना जा रहा था. पूंजीवाद एक नकारात्मक व्यवस्था मानी जाती थी. दोनों ही न तो पूर्णतया सफल हुई हैं और न ही असफल.

अयोध्या प्रसाद गोयलीय की क़िताब ‘शायरी के नए मोड़’ में किसी शायर का कलाम है:

‘शख्सी हुकूमत जागीरदारी,

ये भी शिकारी, वो भी शिकारी.

अक्वाम-ए-दुनिया लड़ती रहेगी

बाकी है जब तक सरमायेदारी’

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इस लेख का स्रोत:-
https://satyagrah.scroll.in/article/110415/five-years-plan-history






आख़िर क्यों बंद है विश्वविद्यालय ? धार्मिक संस्थान यदि खोले जा सकते है तो...

Monday, 12 October 2020

बाबासाहेब भीम डॉ. अंबेडकर, सम्पूर्ण वङ्ग्मय,खंड-30

बाबासाहेब भीम डॉ. अंबेडकर, सम्पूर्ण वङ्ग्मय,खंड-004

बाबासाहेब भीम डॉ. अंबेडकर, सम्पूर्ण वङ्ग्मय,खंड-003

बाबासाहेब भीम डॉ. अंबेडकर, सम्पूर्ण वङ्ग्मय,खंड-27

बाबासाहेब भीम डॉ. अंबेडकर, सम्पूर्ण वङ्ग्मय,खंड-23

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लिंग,कामुकता और सिनेमा :- करेन गेब्रियल

शिक्षा में एक नये विकल्प का प्रारूप:- अतुल कोठारी

शिक्षा में हम कहाँ हैं ? और 'अब एक और विश्वविधालय क्यो ?' :- प्रो.वृषभ प्रसाद जैन

प्रारूप 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति:2019' इन हिन्दी

प्रारूप 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति:2019' इन हिन्दी

Tuesday, 6 October 2020

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2, 2013

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2, 2017

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2, 2016

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2, 2015

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2, 2014

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2,2018

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2015

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2014

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2014

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2013

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-2,2019

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2018

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2017

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ,प्रारम्भिक परीक्षा ,GS,PEPAR-1,2016

Thursday, 13 August 2020

नई शिक्षा नीति, भाग-3 ,विश्व विद्यालय-उच्च शिक्षा-अनुसंधान-BOG-MERU-NHER...







#नईशिक्षानीति, भाग-3 ,विश्व विद्यालय, उच्च शिक्षा, अनुसंधान ।
बहु विषयक संस्थान ।
BOG ?
MERU ?
NRF ?
NHERA ?
RSA ?
ABC ?
6% OF GDP ?
FINSHED FOR UGC BUT WHY ?
IPC ACT. 351(A)
1984 EDUCATIONAL ?

Saturday, 27 June 2020

महात्मा गाँधी का 4 फ़रवरी 1916 का भाषण








(पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी प्रारम्भ करने के अवसर पर गाँधी जी को आमंत्रित किया था। यूनिवर्सिटी की आधारशिला रखने के लिए वासरॉय लॉर्ड हार्डिंग्ज विशेष रूप से आए थे। उनके जीवन की सुरक्षा के लिए पुलिस ने विशेष रूप से इंतज़ाम कर रखा था। चप्पेचप्पे पर पुलिस तैनात थी और रास्ते के सारे मकानों पर सुरक्षा की दृष्टि से नज़र रखी जा रही थी। कह सकते हैं कि बनारस एक तरह से बंधक बना लिया गया था।)


भारत भर से विशिष्ट व्यक्ति आए हुए थे। उनमें से कई लोगों ने अपना भाषण दिया। चार फ़रवरी 1916 को गाँधी जी के भाषण की बारी थीश्रोताओं में मुख्यतअतिसंवेदनशील नौजवान थे। मंच पर सजे-सँवरे और गहनों से लदे राजाओं का तारामंडल विराजमान था। 


महाराज दरभंगा अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान थे। गाँधी जीजो कि एक छोटी और मोटी धोतीकाठियाबाड़ी पहनावा और पगड़ी पहने हुए थेबोलने के लिए उठे। वो अपने चारों ओर पुलिस की चौकसी और तामझाम से बहुत दुखी थे। श्रोताओं की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा कि वह बिना किसी झिझक के विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे;मैं यहाँ आने में हुई बहुत देरी के लिए सविनय क्षमा चाहता हूँ। और आप क्षमा के लिए मेरी प्रार्थना सहज ही स्वीकार कर लेंगे जब मैं कहूँ कि इस देरी के लिए मैं और कोई अन्य इंसानी एजेसी उत्तरदायी नहीं है।

सही बात तो यह है कि इस तमाशे में मैं एक जानवर सरीखा हूँऔर मुझे ‘पालने वाले’ अपनी दयालुता की वजह से जीवन के एक आवश्यक अध्यायछोटी-सी भी दुर्घटना(हो जाने देने),की अवहेलना करते हैं। आज मेरे पालकों ने और मेरे वाहकों ने छोटी
छोटी दुर्घटनाएँ जो हमारे आपके साथ होती रहती हैंहोने नहीं दिया। जिसकी वजह से यह देरी हुई।

दोस्तोमिसेज़ बेसेंट जो कि अभीअभी बैठी हैं की अद्वितीय वक्तृत्व से प्रभावित होकरप्रार्थना पूर्वककहता हूँ आप भ्रम में  आएँ कि हमारी यूनिवर्सिटी अभी तैयार माल बन चुकी हैऔर यह कि इस यूनिवर्सिटी जिसका अभी उदय होना है और अस्तित्व में आना बाक़ी हैमें आनेवाले छात्र भी यहाँ  कर महान साम्राज्य के तैयार नागरिक की तरह जा चुके हैं।

इस प्रकार के किसी मुग़ालते में  रहेंऔर यदि आपछात्र समुदाय जिसको आज शाम का सम्बोधन मुख़ातिब होगाएक क्षण सोचें कि आध्यात्मिक जीवन जिसके लिए यह देश जाना जाता है और जिस मामले में इस देश का कोई शानी नहीं हैबस ज़ुबानी जमा-ख़र्च से प्रदान किया जाएगाआप विश्वास करेंआप ग़लत  हैं। आप कभी भी सिर्फ़ ज़बानी जमाख़र्च से पूरी दुनिया को भारत का संदेश नहीं दे पाएँगे। मैं ख़ुद वक्तव्य भाषणों और लेक्चरों से ऊब गया हूँ। मैं पिछले दो दिनों से जो लेक्चर यहाँ दिए गए हैं उनको अलहदा मानता हूँक्योंकि वो ज़रूरी हैं।

 लेकिन मैं आप को सलाह देने का साहस कर रहा हूँ कि हम लोग भाषण देने के अपने ख़ज़ाने के आख़िर में पहुँच चुके हैंयह पर्याप्त नहीं है कि हमारे कान तृप्त हो गए हैंया कि हमारी आँखें तृप्त हुई हैंलेकिन यह ज़रूरी है कि यह (भाषणहमारे दिलों तक पहुँचे और हमारे हाथ और पैर भी चलायमान हो।

पिछले दो दिनों में हमको बताया गया है कि यह कितना महत्वपूर्ण है यदि हमें अपने भारतीय चरित्र की सरलता पर पकड़ बनाए रखनी है तो हमारे हाथ-पैर दिल से तालमेल बिठाकर चलायमान हों। लेकिन यह मात्र ऊपरी बातें हैं।

 मैं कहना चाहता हूँ कि यह हमारे लिए घोर अपमान और शर्म की बात है कि आज की शाम इस महान विद्यालय की छाया मेंइस पवित्र शहर मेंअपने देश वासियों को मुझे एक ऐसी भाषा में सम्बोधन करने के लिए मजबूर किया गया है जो मेरे लिए विदेशी है।

मैं जानता हूँ कि जो लोग पिछले दो दिनों से दिए जा रहे भाषणों को सुन रहे हैं भाषणों के आधार पर उनकी जाँच की जाए और यदि मुझे परीक्षक नियुक्त किया जाए तो ज़्यादातर फ़ेल हो जाएंगे। और क्योंक्योंकि (ये संदेशउनके दिल तक नहीं पहुँच सके। 

मैं महान कांग्रेस के दिसम्बर माह के अधिवेशनों में उपस्थित था। वह इसके मुक़ाबले कहीं बड़ी सभा थीऔर आप यक़ीन करेंगे जब मैं कहूँ कि मात्र वो भाषण ही बम्बई (अब मुम्बईकी विशाल जनसभा में लोगों के दिल को छू सके जो हिन्दुस्तानी में दिए गए थे। वो भी बम्बई (अब मुम्बईमें जहाँबनारस की तरह नहीं कि हर एक हिंदी बोलता है। लेकिन एक तरफ़ बॉम्बे प्रेसिडेंसी की भाषाएँ हैं और दूसरी तरफ़ हिन्दी हैउन भाषाओं के बीच में वैसी भेदकारी रेखा नहीं है जैसी कि अंग्रेज़ी और भारत की भाषाबहनों के बीच हैऔर कांग्रेस के श्रोतागण हिंदी के वक्ताओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पा रहे थे। मैं आशा करता हूँ कि नौजवान जो यहाँ आएँ वह अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर पाएँगे ऐसा यह यूनिवर्सिटी सुनिश्चित करेगी। हमारी भाषाएँ हमारा अक्स हैं और यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषाएँ सर्वोत्तम विचार को व्यक्त करने में सक्षम नहीं हैं तो मान लीजिए कि जितना जल्दी हमारे अस्तित्व का सफ़ाया हो जाए उतना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति है जो सपना देखता है कि अंग्रेजी कभी भारत की राष्ट्रभाषा बन पाएगीदेश पर यह विकलांगता क्यों थोपी जाएज़रा उस क्षण के बारे में सोचिए जब हमारे लड़कों को अंग्रेज़ लड़कों के साथ बराबर की दौड़ लगानी पड़े!

मुझे पूना (अब पुणेके कुछ प्रोफ़ेसरों के अंतरंग वार्ता करने का अवसर मिला। उन्होंने ने दृढ़ता से बताया कि भारतीय नौजवान अंग्रेज़ी में ज्ञान प्राप्त करने के कारण अपनी क़ीमती ज़िन्दगी के साल बरबाद कर देते हैं। हमारे स्कूल और कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की संख्या में अगर इससे गुणा कर दें तो आप जान जाएंगे कि कितने हज़ार वर्षों का देश को नुक़सान हुआ है। हमारे ख़िलाफ़ अभियोग है कि हम कोई पहल नहीं करते। हम कैसे कोई नई पहल कर सकते हैं जब हमें अपनी ज़िन्दगी के क़ीमती साल एक विदेशी ज़बान में प्रवीणभाई प्राप्त करने में लगानी पड़ती हैहम इस प्रयास में भी असफल होते हैं।

क्या कल और आज के वक्ताओं के लिए श्रोतागण पर हिगिनबॉथम जैसा ही प्रभाव छोड़ना सम्भव थायह पहले के वक्ताओं की ग़लती नहीं है कि वो श्रोताओं को बाँध कर रख नहीं सके। उनके सम्बोधनों में हमारे लिए पर्याप्त से ज्यादा सारतत्व थे। लेकिन उनके सम्बोधन हमारे दिलों तक पहुँच नहीं सके। मैंने यह कहते हुए सुना है कि आख़िरकार यह अंग्रेज़ीशिक्षित भारत ही तो है जो नेतृत्व में है और भारत के लिए सबकुछ वही कर रहे हैं। यह बड़ा ही भयानक होगा यदि ऐसा  हो तो। जो एकमात्र शिक्षा हमें मिलती है वह अंग्रेज़ी शिक्षा है। अवश्य हमें इसके लिए कुछ कर दिखाना चहिए। लेकिन ज़रा सोचिए पिछले पचास साल से हम अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा पा रहे होते तो आज हाथ में क्या होता?  आज स्वतंत्र भारत हमारे पास होताहमारे पास अपने ही देश में विदेशियों की तरह नहीं बल्कि अपने शिक्षित लोग होतेअपनी भाषा में देश के दिल से बात करते हुएवे लोग ग़रीबों में भी ग़रीब लोगों के बीच काम करते होतेऔर पिछले पचास साल में उनको जो हासिल होता वह देश के लिए गौरव की बात होती। आज हमारी पत्नियाँ भी हमारे सर्वोत्तम विचारों की भागीदार नहीं होतीं हैं। प्रोफ़ेसर बोस और प्रोफ़ेसर रे को देखिए और उनके अनमोल शोधों को देखिए। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि उनके शोध आमजन की सम्पदा नहीं हैं?

अब मुझे दूसरे विषय पर आने दीजिए।

कांग्रेस ने स्वशासन के लिए संकल्प ले रखा है और मुझे कोई शुबहा नहीं है कि ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी और मुस्लिम लीग अपने दायित्वों को निभाते हुए कुछ ठोस सलाह के साथ आगे आएँगे। लेकिन एक बात जो मैं साफ़ साफ़ स्वीकार करना चाहता हूँ कि मेरी ज्यादा रुचि इस बात में नहीं है कि वो क्या प्रस्तुत करेंगेमैं उत्सुक हूँ कि छात्र जगत क्या सृजन करते हैं या आमजनता क्या सृजन करती है। कोई भी काग़ज़ी योगदान हमें कभी स्वशासन नहीं देगी। कितना भी भाषण हो जाए वो हमें स्वशासन के लिए योग्य  नहीं बनाएंगे। सिर्फ हमारा व्यवहार ही हमें इसके लिए योग्य बनाएँगे।और हम किस तरह अपने को संचालित करने का प्रयास कर रहे हैं?

मैं आज की शाम स्पष्टता के साथ सोचना चाहता हूँ। मै कोई भाषण नहीं देना चाहता और यदि आज मुझे बेधड़क बोलते हुए पाएँ तो प्रार्थना करिएऔर मान लीजिए कि आप एक स्पष्ट रूप से सोचना वाले व्यक्ति से विचारों को साझा कर रहे हैंऔर यदि आप सोचते हैं कि मैं अपने ऊपर थोपी गई शिष्टाचार की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा हूँ तो आप इस बेतकल्लुफ़ी के लिए मुझे माफ़ करेंगे।

कल शाम मैं विश्वनाथ मंदिर गया था और जब मैं उन गलियों से गुज़र रहा थाये वही विचार हैं जो मुझे महसूस हुआ। अगर कोई अजनबी ऊपर से इस महान मंदिर में टपक पड़ेहम हिंदू कैसे होते हैं वह मान ले तो क्या हमारी निंदा करना उसके लिए उचित नहीं हैक्या यह महान मंदिर हमारे चरित्र का अक्स नहीं हैमैं एक हिंदू की तरह स्वतंत्र हो बोलता हूँ। क्या हमारे मंदिर की गलियाँ ऐसी ही गंदी होनी चाहिएआसपास के मकान बस किसी तरह बना दिए गए हैं। गलियाँ टेढ़ीमेढ़ी और सँकरी हैं। अगर हमारे मंदिर भी खुलेपन और साफ़-सफ़ाई के उदाहरण नहीं हैं तो हमारा स्वशासन कैसा हो सकता हैक्या अंग्रेज़ अपनी मर्ज़ी से या विवश कर दिए जाने पर पने साज-सामान के साथ भारत छोड़ देंगे तब हमारे मंदिर पवित्रतास्वच्छता और शांति का घर बनेंगे?

मैं कांग्रेस अध्यक्ष से पूरी तरह सहमत हूँ कि इसके पहले हम स्वशासन की बात सोचेंहमें बहुत मेहनत करनी होगी। हर शहर के दो हिस्से होते हैएक कैंटूनमेंट और शहर ख़ास। शहर ज़्यादातर बजबजाते विवर हैं। लेकिन हम लोग शहरी जीवन के आदी नहीं हैं। यदि हम शहरी जीवन चाहते हैं तो (वहाँगाँव की बेपरवाह ज़िन्दगी खड़ी नहीं कर सकते। यह सोच कर धैर्य जवाब दे जाता है कि लोग मुम्बई गलियों में ऊँची ऊँची इमारतों में रहने वाले लोगों के थूके जाने के भय के साथ चलते हैं। मैं बहुत रेल यात्रा करता हूँ। मैं तीसरे दर्जे के यात्रियों की तकलीफ़ों को देखता हूँ।लेकिन चाहे जो भी हो सारी कमियों के बावजूद रेलवे प्रशासन की इसके लिए निन्दा नहीं की जा सकती। हमें स्वच्छता का प्रारंभिक नियम-कानून ही नहीं मालूम है।

हम डिब्बे में फ़र्श पर कहीं भी थूक देते हैंबिना यह विचार किए कि इसका इस्तेमाल अक्सर सोने के लिए किया जाता हैं। हम इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं सोचने की ज़हमत नहीं उठातेनतीजा यह होता है कि कम्पार्टमेंट में इतनी गन्दगी होती है कि बयान नहीं किया जा सकता। तथाकथित उच्च वर्ग के यात्री अपने कम भाग्यशाली सहयात्रियों पर रोब गाँठते हैं। उनमें मैं छात्र समुदाय को भी देखा हैकभी कभी उनका व्यवहार अच्छा नहीं होता। वो अंग्रेज़ी बोल सकते हैंवो नॉरफ़ॉक जैकेट पहन रहते हैंऔरइसलिए वो घुसने और बैठने का स्थान बनाने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती करना अपना हक़ समझते हैं। 

मैं अपने विषय को पूरी तरह से बदल देता हूँऔर चूँकि आप ने मुझे अपने समक्ष बोलने का सौभाग्य प्रदान किया हैमैं अपने हृदय को पूरी तरह से खोलकर रख देता हूँ। निश्चित तौर पर स्वशासन की ओर अग्रसर होने के लिए इन चीज़ों को दुरुस्त करना पड़ेगा। मैं आप के समक्ष दूसरा दृश्य प्रस्तुत करता हूँ। महामहिम महाराजाजो कल हमारे सम्बोधनों की अध्यक्षता कर रहे थेने भारत की ग़रीबी के बारे में बोला था। अन्य वक्ताओं ने इसको बहुत महत्व दिया। लेकिन जहाँ वायसरॉय द्वारा आधारशिला रखने का कार्यक्रम चल रहा था उस पंडाल में हमने क्या देखाएक भव्य तमाशागहनों की प्रदर्शनीजो कि पेरिस से आए हुए महान ज़ौहरी की आँखों के लिए एक शानदार दावत सरीखा था। मैं शानदार रूप से अलंकृत अभिजात्यों की तुलना लाखों ग़रीबों से करता हूँ। और मैं अपने को इन अभिजात्यों से कहते हुए पाता हूँ,“भारत का उद्धार तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि आप अपने गहनों को उतार  डालें और भारतवासियों की भलाई के लिए एक ट्रस्ट में रख दें मुझे पूरा विश्वास है कि यह राजा या लॉर्ड हारडिंग्ज की इच्छा नहीं है कि उनके प्रति अपनी स्वामिभक्ति दिखाने के लिये हम अपने गहनों की पेटी छान डालें और सिर से पाँव के अँगूठे तक लद कर आएँ। मैं अपनी ज़िन्दगी के ख़तरे को उठाते हुए प्रतिज्ञा करता हूँ कि किंग जॉर्ज से मैं ऐसा एक संदेश लाऊँ जिसमें वो ख़ुद क़ुबूल करेंगे कि वो ऐसा कुछ नहीं चाहते।

सरमैं जब भी भारत के किसी भी शहर मेंचाहे वे ब्रिटिश इंडिया हो या हमारे महान राजाओं द्वारा शासित होकिसी महल बनने की बात सुनता हूँतो मुझे तुरंत ईर्ष्या होती है और तत्काल मैं कह उठता हूँ,“ओहयह वह धन है जो किसानों से आया है जनसंख्या का पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा भाग किसान हैं और मिस्टर हिगिन्बॉथम ने कल रात अपनी मनोहर भाषा में कहा कि वो लोग ऐसे आदमी हैं जो एक घास उगाने की जगह में दो घास उगाते हैं। लेकिन हममें स्वशासन की आत्मा ही नहीं बचेगी यदि उनसे उनके श्रम का पूरा फल छीन लें या छीन लेने दें। हमारा उद्धार सिर्फ किसान ही कर सकते हैं।  तो वक़ील तो डॉक्टर ही धनी ज़मीनदार यह कर सकते हैं। 

अब अंत में लेकिन यह कोई छोटी बात भी नहीं हैयह मेरा महति कर्तव्य भी है कि मैं उसका संदर्भ दूँ जिसके कारण हमारे मन पिछले दो तीन दिनों से उद्वेलित हैं।  जब वायसरॉय बनारस की सड़कों से गुजर रहे थे तो यह हमारे लिए चिंताजनक समय था। कई जगहों पर जासूस तैनात थे। हम लोग भयभीत थे। “यह अविश्वास क्यों”? क्या यह अच्छा नहीं होता कि लॉर्ड हेडिंग्ज मरे जीवन के बजाए मर ही जातेलेकिन एक सम्प्रभु राष्ट्र के प्रतिनिधि नहीं (मर सकते) (शायदहमारे ऊपर जासूस लादना उन्हें आवश्यक लगता होहम उफन सकते हैहम चिढ़ सकते हैंहम रोष व्यक्त कर सकते हैंलेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि आज भारत ने अपनी अधीरता से अराजक लोगों की सेना खड़ी कर ली है। मैं ख़ुद अराजक हूँलेकिन दूसरी तरह का। लेकिन हम लोगों के बीच एक अराजक वर्ग हैऔर अगर मैं उन तक पहुँच सकता तो कहता कि भारत में उनकी अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं हैअगर भारत को जीतना है। यह भय का चिह्न है। यदि हम ईश्वर में विश्वास रखते हैं और उससे डरते हैं तो हमें किसी से नहीं डरना चाहिएमहाराजाओं से भी नहींवायसरायों से भी नहींजासूसों से भी नहीं तो किंग जॉर्ज से भी।

मैं उन अराजक लोगों का सम्मान करता हूँ कि वे अपने देश को प्यार करते हैं। अपने देश के लिए बहादुरी से मर जाने की तत्परता के लिए मैं उनका सम्मान करता हूँलेकिन मैं पूछता हूँक्या हत्या करना सम्माननीय हैक्या हत्यारे का ख़ंजर सम्मान जनक मृत्यु का उपयुक्त शगुन हैमैं इससे इनकार करता हूँ। किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसे तरीक़ों के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि मैं पाता हूँ कि भारत के उद्धार के लिए अंग्रेज़ों को चले जाना जाना चाहिए तो इनको बाहर भगा देना चाहिएमैं यह घोषणा करते हुए हिचकूँगा नहीं कि उनको जाना पड़ेगाऔर मैं आशा करता हूँ कि अपने इस विश्वास की रक्षा में मैं मृत्यु के लिए तत्पर रहूँगा। मेरे विचार से वह मेरे लिए एक सम्माननीय मौत होगी। बम फेंकने वाला गुप्त योजना तैयार करता हैवह सामने आने में डरता हैऔर जब पकड़ा जाता है तो वह दिग्भ्रमित व्यक्ति अपने उत्साह के लिए हर्ज़ाना भरता है।

मुझे बताया गया है,“अगर हमने ऐसा नहीं किया होतायदि कुछ लोगों ने बम नहीं फेंका होताआज़ादी के आन्दोलन के सिलसिले में हमको जो मिला वह नहीं मिला होता (मिबेसेंट कहती हैंकृपया रोक देंयही बात मैंने बंगाल में कही थी जब मिलॉयन सभा की अध्यक्षता कर रहे थे। मेरा विचार है मैं जो कह रहा हूँ वह ज़रूरी है। यदि मुझे रोक देने के लिए कहा जाता है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा। (अध्यक्ष की ओर मुड़ते हुएमैं आप के आदेशों का इंतज़ार कर रहा हूँ। यदि आप सोचते हैं मैं जो कह रहा हूँ उससे मैं देश और साम्राज्य की सेवा नहीं कर रहा हूँ तो मैं निश्चित तौर पर रोक दूँगा। (जारी रखें का शोर) ( चेयरमैन कहते हैंआप कृपया अपना अभिप्राय स्पष्ट करेंमैं तो बस.....(एक और रुकावट) मेरे दोस्तोंकृपया रुकावट पर रोष  व्यक्त करें। यदि मिबेसेंट आज इस शाम को सलाह देती हैं कि मुझे बात रोक देनी चाहिए तो वह ऐसा इसलिए कह रही हैं क्योंकि वो भारत को बहुत अच्छी तरह प्यार करती हैंवो समझती हैं कि आप नौजवानों के समक्ष स्पष्ट बात करके मैं ग़लती कर रहा हूँ। फिर भी मैं बस इतना कहता हूँमैं भारत में दोनों पक्षों के बीच अविश्वास के वातावरण के साफ़ कर देना चाहता हूँयदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना हैहमें ऐसा साम्राज्य चाहिए जो आपसी प्यार और विश्वास पर आधारित हो। क्या यह बेहतर नहीं है कि हम इस कॉलेज की छाया में बात करें कि हम अपने घरों में ग़ैर ज़िम्मेदारी से बात करेंमैं समझता हूँ यह ज़्यादा बेहतर है कि ये बातें खुल कर करें। मैं ऐसा पहले भी कर चुका हूँ जिसके परिणाम बहुत अच्छे थे। मैं जानता हूँ कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो छात्र नहीं जानते। मैंइसलिएअब विचार अपने लोगों की तरफ़ मोड़ता हूँ। मेरे लिए मेरा देश इतना प्यारा है कि मैं अपने विचार आप से बाँट लेता हूँ और आप को स्पष्ट करता हूँ कि भारत में अराजकता के लिए कोई जगह नहीं है। आइए हम अपने शासकों से स्पष्ट रूप से और खुलकर जो कहना चाहते हैं कहेंऔर उसके परिणाम का सामना करें यदि जो हमको कहना है उनको पसन्द नहीं है। लेकिन हमें अपमान नहीं करना चाहिए।

मैं एक दिन सिविल सर्विस जिसको बहुत ज्यादा बुरा-भला हैके सदस्य से बात कर रहा था। उस सर्विस के सदस्यों से मेरा कुछ लेना-देना नहीं हैलेकिन जिस तरह से वह सदस्य मुझसे बात कर रहा था मैं प्रशंसा किए बिना  रह सका। उसने कहा:“मिगाँधीक्या आप एक क्षण के लिए सोच सकते हैं कि हम सबसिविल सर्वेंट्स बहुत बुरे लोग हैं इस लिहाज़ से कि जिन पर हम शासन करने आए हैं उन लोगों को दबा कर रखते हैंमैंने कहा “नहीं अगर आपको मौक़ा मिले तो इस सबसे ज्यादा अपमानित सेवा की प्रशंसा में भी कुछ शब्द कहें और मैं यहाँ वह बात करता हूँ। हाँ भारतीय सिविल सर्विसेज़ के सदस्य निश्चित तौर पर मनमानी करने वाले हैंवो अन्यायी हैंअक्सर विचारशून्य। कई और विशेषणों का प्रयोग किया जा सकता है। मैं इन सब बातों को स्वीकार करता हूँमैं इस बात को भी स्वीकार करता हूँ कि भारत में कुछ साल रहने के बाद उनमें से कुछ बदनाम भी हो चुके हैं। लेकिन यह क्या प्रकट करता हैयहाँ आने के पूर्व वो सज्जन थेअगर वो नैतिकता का कुछ अंश खो दिए हैं तो यह हमारी निन्दा है। 

बस अपने से सोचिएएक आदमी जो कल अच्छा था आज मेरे सम्पर्क में आने से बुरा बन गया है तो उसकी अवनति के लिए वो ज़िम्मेदार है या मैं हूँउनके भारत आने पर चाटुकारिता और झूठ का जो वातावरण उनको घेर लेता हैउनको भ्रष्ट बनाता हैयही हमको भी (भ्रष्ट बना देता है) कभी कभी आरोप अपने ऊपर ले लेना अच्छा होता है। अगर हमें स्वशासन प्राप्त करना हैं तो हमें इसे (छीनलेना पड़ेगा। हमें वो कभी स्वशासन नहीं देंगे। ब्रिटिश साम्राज्य और ब्रिटिश राष्ट्र के इतिहास पर नज़र डाल लेंस्वतंत्रता से प्यार भले हो लेकिन ये उनको स्वतंत्रता नहीं देंगे जो इसे स्वयम् नहीं लेंगे। अगर आप सबक़ लेना चाहते हैं तो बोअर युद्ध से ले सकते हैं। जो लोग कुछ ही साल पहले कभी उस साम्राज्य के दुश्मन थे अब दोस्त बन गए हैं........

(इस बिंदु पर क्रम-भंग हुआ और मंच छोड़ने की हरकत हुई। भाषण यहीं एकाएक ख़त्म हो गया।)




Mahatma, pp. 179-84, Edn. 1960 
Source:
This speech is taken from selected works of Mahatma Gandhi Volume-Six
The Voice of Truth Part-I Some famous speeches page 3 – 13
यह भाषण http://www.mkgandhi.org/speeches/bhu.htm पर दिया गया है 


प्रस्तुतकर्ता....
पंकज 'वेला'
एम.फिल.गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग,
MGAHV ,वर्धा
kumarpankaj20jan1988@gmail.com
dashkanthhi13aug2016@gmail.com


Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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