Tuesday, 20 October 2020

थाईलैंड के सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर की दीवारों पर रामायण के चित्रों की कहानी क्या है?

 

थाईलैंड के सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर की दीवारों पर रामायण के चित्रों की कहानी क्या है?

मंदिर के चारों ओर बनी दीवार पर चित्रों के माध्यम से कही गई रामायण इस देश के सांस्कृतिक पुनर्गठन की कथा है





वाट फ्रा काएव या ‘हरित बुद्ध मंदिर’ थाईलैंड में बौद्ध धर्मावलंबियों का सबसे प्रतिष्ठित तीर्थ स्थान है. राजधानी बैंकाक के केंद्र में बने इस मंदिर के पास ही शाही महल है. मंदिर के परिसर में सौ से ज्यादा इमारतें हैं. गौतम बुद्ध की हरे पत्थर से बनी मूर्ति के कारण ही यह मंदिर हरित बुद्ध मंदिर के नाम से पूरी दुनिया में लोकप्रिय है. थाईलैंडवासियों के लिए ये हरित बुद्ध उनके देश के रक्षक हैं.

इस मंदिर परिसर को तकरीबन दो किमी लंबी दीवार से घेरा गया है. हमारे समाज में ईश्वर अवतार के रूप में बुद्ध की प्रतिष्ठा है, हम में से कइयों के लिए यह मंदिर आस्था का विषय हो सकता है. लेकिन परिसर को घेरने वाली बाहर की दीवार आस्था के साथ-साथ किसी भी भारतीय के लिए हैरानी का विषय बन सकती है. इस पूरी दीवार पर रामायण का चित्रांकन है.

थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन (रामायण) के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है  

यह चित्रांकन कला और रंगों की गुणवत्ता के लिहाज से बहुत ऊंचे दर्जे का है. इसके माध्यम से थाईलैंड में प्रचलित रामायण – रामाकीन के नायक फ्रा राम की कहानी दिखाई गई है. ये चित्र दीवार के कुल 178 हिस्सों (पैनलों) पर बने हैं और कुछ दशकों के अंतराल पर इनका ‘रेस्टोरेशन’ किया जाता रहता है. पिछली बार 2004 में ऐसा हुआ था.

थाई भाषा में रामाकीन का अर्थ है राम की गौरव गाथा. यह कहानी भी तकरीबन वाल्मीकि रामायण जैसी है, बस कुछ जगहों के विवरण और चरित्र थोड़े अलग हैं. भारत में रामायण एक धर्मग्रंथ है वहीं थाईलैंड के लिए यह उसकी संस्कृति का प्रतिनिधि महाग्रंथ है जिसकी कहानी उसी देश के किरदारों को आधार बनाकर बुनी गई है.

अब सवाल पैदा होता है कि हिंदुओं के इस धर्मग्रंथ को बौद्ध धार्मिक स्थल की दीवारों पर जगह क्यों दी गई है?



इस सवाल का जवाब भारतीय और दक्षिणपूर्व एशियायी देशों की संस्कृतियों के बीच मेल में खोजा जा सकता है. माना जाता है दक्षिण भारतीय व्यापारी आज से तकरीबन तेरह सौ साल पहले इन क्षेत्रों में पहुंचे थे. इनके साथ दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण भी पहुंची और हिंदू धर्म की कई परंपराएं भी. ये इलाके कुछ समय तक हिंदू राजाओं के अधीन भी रहे और इससे हिंदू धर्म की जड़ें यहां और गहरी हो गईं. लेकिन जब ये राजवंश खत्म हुए तो धीरे-धीरे हिंदू धर्म भी हाशिये पर चला गया.


इन क्षेत्रों की संस्कृति में हिंदू धर्म के घुले-मिले अंश आज भी देखे जा सकते हैं. कंबोडिया का ही उदाहरण लें तो ब्राह्मण यहां नए राजा के राज्याभिषेक की परंपरा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. 12 साल पहले जब यहां नए राजा को सिंहासन सौंपा गया था तो भारतीय मीडिया में इस बात की काफी चर्चा हुई थी.

थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है  

इंडोनेशिया दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है लेकिन यहां छाया कठपुतली विधा में रामायण का मंचन काफी लोकप्रिय है. थाईलैंड बौद्ध बहुल देश है जहां राजा सहित तकरीबन पूरी आबादी रामाकीन के अठाहरवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए संस्करण को राष्ट्रीय ग्रंथ की तरह मानती है.

थाईलैंड में एक समय रामायण के कई संस्करण प्रचलित थे लेकिन अब इनमें से गिने-चुने संस्करण ही बचे हैं. 18वीं शताब्दी के मध्य में सियाम (आज का थाईलैंड) के शहर अयुत्थया (अयोध्या का अपभ्रंश), जो तब देश की राजधानी था, को बर्मा की सेना ने तबाह कर दिया था. फिर बाद में जब चीनी सेना बर्मा में घुस आई तो उन्हें सियाम छोड़कर जाना पड़ा और यहां एक नए राजवंश व देश का उदय हुआ.

चक्री वंश के पहले राजा की उपाधि ही राम प्रथम थी. थाईलैंड में आज भी यही राजवंश है. जब बर्मी सेना यहां से चली गई तो देश में अपनी सांस्कृतिक जड़ों को खोजने की एक पूरी मुहिम चली और इसी दौरान रामायण को यहां दोबारा प्रतिष्ठा मिलनी शुरू हुई. रामायण का जो संस्करण आज यहां प्रचलित है वो राम प्रथम के संरक्षण में रामलीला के रूप में 1797 से 1807 के बीच विकसित हुआ था. राम प्रथम ने इसके कुछ अंशों को दोबारा लिखा भी है. इन्हीं वर्षों में थाईलैंड के इस सबसे प्रतिष्ठित बौद्ध मंदिर के चारों ओर बनी दीवार पर रामायण को चित्रित किया गया था.

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लेख का स्रोत:-https://satyagrah.scroll.in/article/22037/ramayan-murals-thailand-buddhist-temple





Monday, 19 October 2020

कैसे पंचवर्षीय योजनाओं ने हिंदुस्तान की आर्थिक बुनियाद को टेढ़ा कर दिया

 

कैसे पंचवर्षीय योजनाओं ने हिंदुस्तान की आर्थिक बुनियाद को टेढ़ा कर दिया

1951 की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक


अब तक हमने जाना कि कैसे आजादी के बाद 1948 में राज्यों का एकीकरण हुआ - हैदराबाद, जूनागढ़ की ना-नुकर और कश्मीर का एक लड़ाई और कुछ शर्तों के साथ हिंदुस्तान में विलय. 1949 में आरबीआई का राष्ट्रीयकरण हुआ और 1950 में देश अपने नये संविधान के साथ गणतंत्र बना. देखा जाए तो इसके साथ देश का भौगोलिक और संवैधानिक ढांचा बनकर तैयार हो गया था. अब बारी थी आर्थिक नीतियों के बनने और उनके क्रियान्वयन की. इसकी ज़िम्मेदारी थी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की.

नेहरु स्वप्नदृष्टा और फेबियन यानी ऐसे समाजवाद के हामी थे जो धीरे-धीरे लोकतांत्रिक तरीकों से समाज में समानता लाने की बात करता है. गांधी के स्वराज और विकास के मॉडल से उनका भावनात्मक जुडाव तो था, पर शायद उनमें यकीन उतना नहीं था. अंग्रेजों द्वारा खोखले कर दिए गये देश के आर्थिक पहिये को घुमाने के लिए उन्हें कुछ अलग और बड़ा करना था.


नेहरु रूस के तानाशाह जोसफ स्तालिन को तो नापसंद करते थे पर उनके आर्थिक मॉडल की कुछ चीजें उन्हें समझ में आती थीं. स्तालिन के आर्थिक मॉडल में सरकार उत्पादन से लेकर विपणन तक हर कदम पर ज़िम्मेदार थी. आर्थिक विकास निजी लोगों के हाथों में नहीं दिया जा सकता था. स्तालिन ने रूस में पंचवर्षीय योजनाएं लागू कीं. नेहरु ने भी यही मॉडल हिंदुस्तान के लिए इख़्तियार किया.

साल 1951 में हिंदुस्तान में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गयी. इसे लागू करने में काफी मशक्कत की गयी थी जो कुछ-कुछ ‘सब दिन चले अढ़ाई कोस’ जैसी साबित हुई. आइये देखते हैं कैसे! इसे और पंचवर्षीय योजानाओं को समझने के लिए हम शुरुआत की दो योजनाओं को देखेंगे - 1951-1956 और 1956-1961.

नेशनल प्लानिंग कमेटी का गठन और बॉम्बे प्लान

1938 में कांग्रेस पार्टी ने नेशनल प्लानिंग कमेटी(एनपीसी) का गठन किया था जिसे आज़ाद हिंदुस्तान की आर्थिक प्लानिंग का ढांचा तैयार करने का ज़िम्मा दिया गया था इसके पहले अध्यक्ष एम विस्वेसरैया थे और दूसरे खुद जवाहरलाल नेहरू. यह कमेटी पूरी तरह से तो कोई रिपोर्ट नहीं बना सकी लेकिन आजादी के तुरंत बाद इसके कुछ विचार जरूर देश के सामने आये.

भारत की आर्थिक नीति को लेकर एनपीसी की सोच यह थी कि देश में रूस जैसे देशों का मॉडल लागू किया जाए. वहां औद्योगीकरण देर से शुरू हुआ था और सरकार की भागीदारी इंजन बनकर विकास की रेलगाड़ी खींच रही है. साफ सी बात है कि कमेटी का अध्यक्ष होने के नाते कमोबेश यही सोच नेहरू की भी थी.

ये बड़े ताज्जुब की बात है कि देश के जाने-माने उद्योगपति जैसे घनश्याम दास बिरला, जेआरडी टाटा, लाला श्रीराम सरीखे लोग भी नेहरु के इस केंद्रीय प्लानिंग के विचार से सहमत थे. इन सबने मिलकर भी 1944 में एक ‘बॉम्बे प्लान’ नेहरु को पेश किया. इसके तहत 15 सालों में देश की आय को तिगुना और इसकी प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करने का लक्ष्य था.

पहली पंचवर्षीय योजना का मंज़ूर होना

15 मार्च 1950 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में देश में योजना आयोग का गठन हुआ और 1951 की गर्मियों में इसने देश को पहली पंचवर्षीय योजना सौंपी. इसमें कृषि को सबसे ज़्यादा महत्व दिया गया. रामचन्द्र गुहा, ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि चूंकि विभाजन से उपजे हालातों की वजह से कृषि उत्पादन पर सबसे ज़्यादा असर हुआ था, इसलिए पहली योजना में इस पर सबसे ज़्यादा ध्यान देने की बात कही गयी. इसके अलावा इसमें ट्रांसपोर्ट व्यवस्था, संचार और सामाजिक सेवाओं के विस्तार की बात भी थी.


नेहरु ने इसे लागू करते वक़्त बड़ा ही भावनात्मक भाषण दिया. उन्होंने कहा कि ये हिंदुस्तान के हर पहलू को एक ढांचे के तहत देश के सामने रखेगी. उनका कहना था, ‘प्लानिंग कमीशन ने पूरे देश को प्लानिंग के प्रति जागरूक बना दिया है.’

कुल 2378 करोड़ रूपए इस प्लान में कुछ इस तरह आवंटित किये गए थे - सिंचाई और ऊर्जा(27.2 फीसदी), कृषि (17.4 फीसदी), संचार और ट्रांसपोर्ट (24 फीसदी), उद्योग(8.4 फीसदी), सामाजिक सेवाएं (16.4 फीसदी), ज़मीन विस्थापन(4.1 फीसदी) और अन्य सेवाओं के लिए(2.5 फीसदी).

इस दौरान मानसून मेहरबान रहा और कुल मिलाकर पहली योजना औसतन सफल रही. चूंकि नेहरु के मुताबिक बड़ी फैक्ट्रियां और बांध देश के नए मंदिर होने वाले थे, लिहाज़ा उन्होंने उसी प्लान के तहत काम करना शुरू कर दिया.

महलानोबिस की एंट्री और समाजवादी पूंजीनिवेश

नेहरु देश के विकास के मॉडल में तर्क, विज्ञान और समाज का समावेश चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को चिन्हित किया. इनमें से एक थे प्रसंता चंद्र महलानोबिस. वे वैज्ञानिक होने के साथ-साथ सांख्यिकी के विद्वान भी थे. नेहरु उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्हें योजना आयोग में ले आये. कुछ समय की ट्रेनिंग के बाद महलानोबिस योजना आयोग के साथ-साथ पचास के दशक के हिंदुस्तान के सबसे अहम व्यक्तियों में से एक बन गए. उन्होंने ही 1959 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की.

महलानोबिस ने ही देश की दूसरी पंचवर्षीय योजना के ड्राफ्ट को तैयार किया था. वे अर्थ के बड़े जानकार नहीं थे पर अपनी इस कमी को उन्होंने विकसित देशों के अर्थशास्त्रियों और अन्य लोगों से मिलकर पूरा किया. उन्होंने अमेरिका, चीन, रूस आदि देशों में जाकर उनके आर्थिक मॉडल समझे थे जिनमें से रूस के मॉडल ने उन्हें सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था.

दूसरी पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया था. यहीं से हिंदुस्तान की बुनियाद में टेढ़ापन आ गया. इसमें दूसरा जोर भारी उद्योगों के विकास पर था. जहां पहले प्लान में कृषि क्षेत्र में कोई ख़ास काम नहीं हुआ था, वहीँ दूसरे प्लान में कृषि को लगभग नकार दिया गया था.

बावजूद इसके दुनिया भर के अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक महलानोबिस के प्लान से अभिभूत थे. ब्रिटेन के जीव विज्ञानी जेबीएस हैलदेन तो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा, ‘अगर कोई निराशावादी सोच भी रखता हो, और ये मान ले कि इस प्लान के असफल होने में 15 फीसदी भागीदारी पाकिस्तान और अमेरिका की है, 10 फीसदी रूस और चीन का हस्तक्षेप है, 20 फीसदी राजनीति और ब्यूरोक्रेसी है, और 5 फीसदी हिंदू सोच है, तो भी इसके सफल होने के 50 फीसदी आसार ही हैं. और ये इतने हैं कि दुनिया का इतिहास ही बदल जाएगा.’

मशहूर अंग्रेजी लेखक गुरचरण दास अपनी किताब ‘इंडिया अनबाउंड’ में लिखते हैं कि दूसरी पंचवर्षीय योजना को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज मान लिया गया था.

मोम जैसे नेहरु का स्टील-प्रेम

जवाहरलाल नेहरु और प्रसंता चंद्र महलानोबिस को यकीन था कि स्टील का उत्पादन देश की तकदीर बदल देगा. इससे गृह निर्माण और अन्य उद्योग पनपेंगे और देश का आर्थिक पहिया घूमने लग जाएगा. महलानोबिस ने स्टील प्लांट्स लगाने के लिए निजी विदेशी निवेश को नकार दिया और हिंदुस्तान के उद्योगपतिओं को नेहरु कमतर आंकते थे. घनश्याम दास बिरला सरीखे लोगों तक को स्टील प्लांट लगाने की मंजूरी नहीं दी गयी. लिहाज़ा. अब एक ही रास्ता बचता था - अन्य देश की सरकारों की मदद.

नेहरु ने रूस से भिलाई में, इंग्लैंड से दुर्गापुर में, पश्चिम जर्मनी से राउरकेला में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए मदद ली. उन्होंने अमेरिका से बोकारो स्टील संयंत्र लगाने में सहयोग मांगा, जिसे उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि हिंदुस्तान को अभी कृषि और छोटे घेरलू उद्योगों में निवेश करना चाहिए. नेहरु को यह बात नहीं जंची. लिहाज़ा, बोकारो के लिए देश ने फिर से रूस की ही तरफ देखा.

उस वक्त निजी फैक्ट्रियां बेहद कम मात्रा में स्टील का उत्पादन किया करती थीं. सरकार द्वारा इतने इस्पात संयंत्र खोलने के बाद इस क्षेत्र में निजी और सरकारी संस्थाओं के बीच प्रतिस्पर्धा लगभग ख़त्म हो गयी. रामचंद्र गुहा ने एख जगह लिखा भी है कि नेहरू कंपटीशन के ख़िलाफ़ थे. उनकी नज़र में यह पैसे और संसाधनों की बर्बादी थी.

इस सब का नतीजा यह हुआ कि गुणवत्ता तो पीछे रह गई और काम करने वाले में भ्रष्टाचार फैलने लगा. रही-सही कसर, ट्रेड यूनियनों ने पूरी कर दी. कुल मिलाकर स्टील तो ठीक से बना नहीं और कृषि को हमने त्याग ही दिया था. दस साल यानी, पूरा पचास का दशक बर्बाद हो गया. साठ का दशक, यानी अगले दस साल चीन और पाकिस्तान से लडाइयों में और इंदिरा गांधी की घोर समाजवादिता की भेंट चढ़ जाने थे.

क्या दूसरा विकल्प था?

महलानोबिस के प्लान के अलावा देश के पास एक और विकल्प था. गुरचरण दास लिखते हैं कि ये महलानोबिस के प्लान जैसा तड़क-भड़क भरा और पेंचीदा न होकर भारतीय हालातों के अनुकूल था. तो क्या थी यह योजना और किसने दी थी?

आज के मुंबई, तब के बॉम्बे, के दो अर्थशास्त्री- सीएन वकील और पीआर ब्रह्मानंद ने सुझाया था कि देश के पास पूंजी कम है और मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं. और इनमें से ज़्यादातर बेरोजगार हैं. इस पूंजी को ‘वेज गुड्स’ बनाने में खपाया जाए. ‘वेज गुड्स’ यानी कपडे, खिलौने, स्नैक्स, साइकिल, रेडियो जैसे उत्पाद जिनमें कम पूंजी लगती है और जोख़िम भी नहीं होता. लोग इन्हें बनाते और अर्जित किये गये धन से इन्हें ख़रीदते.

दोनों अर्थशास्त्रियों का मानना था कि इससे कृषि में निवेश बढेगा, ग्रामीण आधारभूत ढांचा खड़ा होगा, कृषि सम्बंधित उद्योग और निर्यात बढेगा. ठीक वैसे ही जैसे विश्वयुद्ध के बाद जापान और 60 के दशक में चीन में हुआ था. और यह कुछ-कुछ मनरेगा जैसा ही था. निर्यात से अर्जित पूंजी से भारी उद्योग लगाये जा सकते थे.

सरल बातें बड़े-बड़े फॉर्मूलों और लफ़्ज़ों की चाशनी में सनी नहीं होतीं. इसलिए अक्सर ठुकरा दी जाती हैं. कुछ ऐसा ही हाल सीएन वकील और पीआर ब्रह्मानंद के प्लान के साथ हुआ. नेहरु और महलानोबिस को रूस की फैक्ट्रियां लुभा रही थीं. जापान जैसे छोटे देश का प्लान हिंदुस्तान जैसे इतने बड़े देश के काम कैसे आ सकता था? इस बात ने सारा खेल ही पलट दिया.

जावेद अख्तर के शेर की पंक्तियां याद आती हैं - ‘मेरी बुनियादों में ही कोई टेढ़ थी, अपनी दीवारों को क्या इल्ज़ाम दूं.’

प्लानिंग कमीशन बनाम नीति आयोग

प्लानिंग कमीशन संविधान द्वारा निर्मित नहीं था बल्कि सरकार द्वारा बनाई गयी संस्था थी, इसलिए यह अब इतिहास हो गयी है. उसकी जगह नीति आयोग ने ले ली है. अक्सर कहा जाता है कि नीति आयोग सिर्फ नयी बोतल में पुरानी शराब ही है. पर दोनों में कुछ बुनियादी अंतर हैं.

जहां प्लानिंग कमीशन केंद्र में बैठकर राज्यों की अर्थव्यवस्था की प्लानिंग करता था, नीति आयोग राज्य केंद्रित है. वह हर राज्य को अपने हिसाब से प्लानिंग करने में मदद करता है. जहां प्लानिंग कमीशन राज्य की प्रत्येक योजना के लिए धन आवंटित करता है. नीति आयोग ये फ़ैसला राज्यों के विवेक पर छोडता है. कुल मिलाकर पहला वाला, ऊपर से नीचे आने वाला कार्यक्रम था. नीति आयोग, नीचे से ऊपर जाने वाला प्लान है. नीति आयोग सिर्फ नीतिगत सलाह देने का काम करता है.

इन्ही सब बातों को देखते हुए अब पंचवर्षीय योजनाएं भी बंद कर दी गयी हैं. देश की आखिरी - बारहवीं - पंचवर्षीय योजना इसी साल खत्म हुई है. खैर, आज बड़े आराम से हम यहां इन योजनाओं की आलोचना कर सकते हैं. पर तब वह दौर था, जब समाजवाद हर समस्या का हल माना जा रहा था. पूंजीवाद एक नकारात्मक व्यवस्था मानी जाती थी. दोनों ही न तो पूर्णतया सफल हुई हैं और न ही असफल.

अयोध्या प्रसाद गोयलीय की क़िताब ‘शायरी के नए मोड़’ में किसी शायर का कलाम है:

‘शख्सी हुकूमत जागीरदारी,

ये भी शिकारी, वो भी शिकारी.

अक्वाम-ए-दुनिया लड़ती रहेगी

बाकी है जब तक सरमायेदारी’

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इस लेख का स्रोत:-
https://satyagrah.scroll.in/article/110415/five-years-plan-history






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Monday, 12 October 2020

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लिंग,कामुकता और सिनेमा :- करेन गेब्रियल

शिक्षा में एक नये विकल्प का प्रारूप:- अतुल कोठारी

शिक्षा में हम कहाँ हैं ? और 'अब एक और विश्वविधालय क्यो ?' :- प्रो.वृषभ प्रसाद जैन

प्रारूप 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति:2019' इन हिन्दी

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Tuesday, 6 October 2020

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Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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