Friday, 23 March 2018

बौद्ध धर्म के प्रमुख दर्शन


बौद्ध धर्म के प्रमुख दर्शन

  • अनीश्वरवादी धर्म- बौद्ध धर्म ईश्वर की सत्ता नहीं मानता।
  • नास्तिक दर्शन/ धर्म – वेदों की प्रमाणिकता का खंडन करता है,अर्थात् वेदों में आस्था नहीं रखता।
  • वर्ण व्यवस्था का विरोध
  • यज्ञ, कर्मकांड, पशुबलि का विरोध
  • क्षणिकवाद / क्षणभंगुरवाद –
    • जीवन और जगत की प्रत्येक घटना का अस्तित्व क्षणमात्र है।
    • जीवन और जगत की प्रत्येक घटना प्रतिक्षण परिवर्तनशील है।
    • स्थिर कुछ भी नहीं है।
  • अनात्मवाद / नैरात्मवाद – यह बौद्ध धर्म का आत्मा संबंधी सिद्धांत है। इसके अनुसार आत्मा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है तथा यह पंच स्कंधों का संघात(योग, जोङ) है।
    • अनात्मवाद का शाब्दिक अर्थ है(आत्मा का अस्तित्व न होना)। चूँकि बौद्ध धर्म में आत्मा को परिवर्तनशील माना गया है,अतः अन्य धर्मों में आत्मा के माने गये गुण (शाश्वत, नित्य, स्थाई, अजर, अमर आदि) समाप्त होते हैं । इस रूप में बौद्ध दर्शन में आत्मा संबंधी सिद्धांत को अनात्मवाद कहा गया है।
    • पंच स्कंद(रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार)। इनमें से 4 को (वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार) नाम कहा गया है।
  • बौद्ध धर्म कर्म एवं पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। तथा पुनर्जन्म के लिये कर्मों को उत्तरदायी मानता है।
  • प्रतीत्यसमुत्पाद एवं द्वादश निदान (12 उपचार)-

यह बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धांत है।
यह बौद्ध दर्शन का कारणता / कार्य – कारण सिद्धांत है। इसके अनुसार जीवन और जगत की प्रत्येक घटना एवं कार्य- कारण पर निर्भर रहते हैं।







एकता जैन,शोधार्थी ,दिल्ली विश्वविद्यालय 

डॉ बाबासाहब और ओबीसी का रिश्ता ?




”डॉ बाबासाहब और ओबीसी का रिश्ता ?”


इस देश में ओबीसी का ‘संवैधानिक जन्मदाता’ और ‘संवैधानिक रखवाला’ कोई और नहीं बल्कि ”डॉ बाबासाहब आंबेडकर” ही है !
सबूत =
1928 में बोम्बे प्रान्त के गवर्नर ने ‘स्टार्ट’ नाम के एक अधिकारी की अध्यक्षता में पिछड़ी जातियों के लिए एक कमिटी नियुक्त की थी. इस कमिटी में डो. बाबा साहेब आम्बेडकर ने ही शुद्र वर्ण से जुडी जातियों के लिए ” OTHER BACKWARD CAST ” शब्द का उपयोग सब से प्रथम किया था, इसी शब्द का शोर्टफॉर्म ओबीसी है, जिसको सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी हुई जाति के रूप में आज हम पहेचानते है और उनको पिछड़ी जाति या ओबीसी कहते है.
स्टार्ट कमिटी के समक्ष अपनी बात रखते हुवे डो. बाबा साहेब आम्बेडकर ने देश की जनसंख्या को तीन भाग में बांटा था.
– – – -(1) अपरकास्ट(Upercast) जिसमे ब्राह्मण, क्षत्रिय-राजपूत और वैश्य जैसी उच्च वर्ण जातियां आती थी.
– – – -(2) बेकवर्ड र्कास्ट(Backward cast) जिसमे सबसे पिछड़ी और अछूत बनायीं गई जातियां और आदिवासी समुदाय की जातियां को समाविष्ट की गई थी.
– – – -(३) जो जातियां बेकवर्ड कास्ट और अपर कास्ट के बिच में आती थी ऐसी शुद्र वर्ण की मानी गई जातियो के लिए Other backward cast शब्द का प्रयोग किया गया था, जिसको शोर्टफॉर्म में हम ओबीसी कहते है.
बाबासाहब ने ही संविधान की ३४० धारा में ओबीसी को पहचान उनकी गिनती कर उनको उनकी संख्या के अनुपात में जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया ,क्यों की उस समय तक ओबीसी की जातियों की लिस्ट ही नहीं बनी थी
बाबासाहब ने ही ओबीसी के संवैधानिक ३४० कलम को लागू करवाने का दबाव ,ब्राह्मणी कांग्रेस पर डाला ,पर ब्राह्मणी कांग्रेस का ब्राह्मण प्रधानमन्त्री नेहरू तैयार नहीं हुआ इसीलिए बाबासाहब ने अपने कैबिनेट मंत्री पद और ब्राह्मणी कांग्रेस दोनों से इस्तीफा दे डाला
ओबीसी के लिए कैबिनेट स्टार का मंत्रिपद को लात मारनेवाला भारत का एक मात्र नेता ”बाबासाहब आंबेडकर” ही है ,पर यह बात आजतक ओबीसी से ब्राह्मणों ने छुपायी
बाबासाहब के दबाव के कारन ही बाद में ब्राह्मण नेहरू ने ब्राह्मण जात काका कालेलकर को ओबीसी की जातियों को पहचाननने के लिए कमिशन बनाया
-संविधान की कलम 340 के अनुसार राष्ट्रपति एक कमीशन नियुक्त करेंगे और कमीशन ओबीसी जातियों की पहेचान करके उनके विकास के लिए जो शिफारिशों करेगा उनको अमल में लायेंगे. संविधान की कलम 15-(4), 16(4) के अनुसार ओबीसी जातियों के सरकारी तन्त्र में पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए सरकार उचित कदम उठाएगी.
-शासन और प्रशासन में प्रभुत्व जमाये बैठे ब्राह्मणी जातिवादियो ने ”ओबीसी” के लिए नियुक्त काका कालेलकर (ब्राह्मण जात का ) कमीशन रिपोर्ट 1953-1955 के रिपोर्ट को संसद की समक्ष भी नहीं रखा और कालेलकर कमीशन रिपोर्ट को कभी भी मान्यता नहीं दी या लागु भी नहीं किया.
-1978 में केन्द्र सरकार ने ओबीसी के लिए दूसरा कमीशन बीपी मंडल की अध्यक्षता में नियुक्त किया. मंडल कमीशन रिपोर्ट-1980 को भी सत्ता मे प्रभुत्व जमाये बैठे जातिवादियो ने लागु करने की जरुरत न समजी और 1989 तक मंडल रिपोर्ट सचिवालय की अलमारी में धुल खाते रहा.
-7 अगस्त 1990 के दिन केन्द्र सरकार ने देश के 52 % ओबीसी समुदाय के लिए मंडल कमीशन की सिफ़ारीश अनुसार केन्द्रीय नौकरियों में 27 % ओबीसी आरक्षण लागु करने की घोषणा की, जिसके विरोध में ब्राह्मणों ने देशभर में मंडल विरोधी आंदोलन प्रारंभ किया.
—— -मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश शिक्षा मे 27 % आरक्षण देरी से 2006-7 मे लागु किया गया.

नारी सशक्तिकरण (हिन्दु कोड बिल)

बाबासाहेब ने सविंधान के द्वारा महिलाओं को सारे अधिकार दिए है जो मनुस्मृति ने नकारे थे। नारी सशक्तिकरण (हिन्दु कोड बिल) और डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर।


नारी सशक्तिकरण (हिन्दु कोड बिल) और डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर।hindu code billambedkar women
बाबासाहेब ने सविंधान के द्वारा महिलाओं को सारे अधिकार दिए है जो मनुस्मृति ने नकारे थे। हिन्दू धर्मशास्त्रों में महिलाओं का स्थान और नियम-कानून महिलाओं के हक में नहीं हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार स्त्री धन , विद्या और शक्ति की देवी हैं। मनु संहिता के तीसरे अध्याय के छप्पनवें श्लोक में जहां लिखा है:- ‘‘जहाॅं नारी की पूजा होती है वहां देवता रमण करते हैं।’’ वहीं दूसरी ओर पांचवे अध्याय के 155 वें श्लोक में लिखा है:-‘‘स्त्री का न तो अलग यज्ञ होता है न व्रत होता है , न उपवास। ऋग्वेद में पुत्री के जन्म को दुःख का खान और पुत्र को आकाश का ज्योति माना गया है। ऋग्वेद में ही नारी को मनोरंजनकारी भोग्या रूप का वर्णन है तथा नियोग प्रथा को पवित्र कर्म माना गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि दुनियां की सब महिलाएं शूद्र है। हिन्दु धर्म शास्त्रों में नारी की स्थिति को लेकर काफी विराधाभास है। इस्लाम में भी महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कुरानशरीफ के आयत ( 1-4-11 ) में संपति से संदर्भित मामले में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘ एक मर्द के हिस्सा बराबर है दो औरत का हिस्सा ।’’ भारत मे महिलाओ कि बहोत दयनिय अवस्था थी। मनुस्मृती महिलाओ को किसी भी तरह की आज़ादी नहीं देती थी। इसलिए डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर ने महिला सशक्तिकरण के लिए कई कदम उठाए। महिलाओं को और अधिक अधिकार देने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिए सन 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया। डा. अंबेडकर का मानना था कि सही मायने में प्रजातंत्र तब आयेगा जब महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा और उन्हें पुरूषों के समान अधिकार दिए जाएंगे. डा. अंबेडकर का दृढ. विश्वास था कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर परिवार और समाज में सामाजिक बराबरी का दर्जा मिलेगा. शिक्षा और आर्थिक उन्नति उन्हें सामाजिक बराबरी दिलाने में मदद करेगी. बबाबासाहब ने संविधान मे महिलाओं को सारे अधिकार दिये लेकिन अकेला संविधान या कानून लोगों की मानसिकता को नहीं बदल सकता, पर सच है कि यह परिवर्तन की राह तो सुगम बनाता ही है। हिंदू समाज में क्रांतिकारी सुधार लाने के लिए देश के पहले कानून मंत्री के रूप में आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल लोकसभा में पेश किया।

दरअसल, हिंदू कोड बिल पास कराने के पीछे आंबेडकर की हार्दिक इच्छा कुछ ऐसे बुनियादी सिद्धांत स्थापित करने की थी, जिनका उल्लंघन दंडनीय अपराध बन जाए। मसलन, स्त्रियों के लिए विवाह विच्छेद (तलाक) का अधिकार, हिंदू कानून के अनुसार विवाहित व्यक्ति के लिए एकाधिक पत्नी रखने पर प्रतिबंध और विधवाओं तथा अविवाहित कन्याओं को बिना शर्त पिता या पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनने का हक। उनका आग्रह था कि हिंदू कानून में अंतरजातीय विवाह को भी मान्यता दी जाए। इस बिल में अंतर्निहित ये न्यूनतम सिद्धांत धार्मिक रीति से विवाहित स्त्रियों को इन अधिकारों का इस्तेमाल करने और लाभ प्राप्त करने के अवसर प्रदान करते हैं।
पर देखना यह भी होगा कि आखिर आंबेडकर इस बिल को पास कराने पर इतना जोर क्यों दे रहे थे। उनकी मान्यता थी कि जातिप्रथा को बनाए रखने में महिलाओं की भूमिका निर्विवाद रूप से अहम है। इसलिए हिंदू समाज उन्हें किसी तरह की स्वतंत्रता देने का पक्षधर नहीं है। अगर वह ऐसा करने देता है तो हिंदू समाज की जाति-व्यवस्था तहस-नहस हो सकती है। उनका दृढ़ मत था कि स्त्रियां जातिवाद का प्रवेश द्वार हैं। इसीलिए ब्राह्मणवाद उन पर कब्जा जमाए रखने के लिए जी-जान लगा कर भी उद्यत रहा है। वह जानता है कि उन्हें अधीन बनाए रख कर ही ऊंच-नीच पर आधारित जाति-व्यवस्था कायम रह सकती है। इस तरह हिंदू कोड बिल महिलाओं को पारंपरिक बंधनों से मुक्ति दिलाने की ओर उठाया गया एक ऐसा कदम था जो अंत में हिंदू समाज को जाति और लिंग के कारण पैदा हुई असमानता से मुक्त करा सकता था।

आंबेडकर द्वारा अंतरजातीय विवाहों को हिंदू कानूनों के तहत मान्यता दिलाने की कोशिश भी समाज को जाति मुक्त बनाने की योजना का ही एक अंग थी। अगर इसे मान लिया जाता तो, आज हमारी राजनीति जातिवाद से जैसे संकुचित और छिछली होती जा रही है वैसी न होती। आंबेडकर हिंदू कोड बिल के जरिए धार्मिक आचरण के क्षेत्र में प्रगतिशील मूल्यों को रख कर निजी क्षेत्र को फिर से विधिवत परिभाषित करना और उन सामाजिक आचरणों को बदलने के लिए आधार निर्मित कर देना चाहते थे, जो हिंदुओं के जीवन को विकृत कर रहे थे। उनका यह उद्देश्य अस्पृश्यता रोकने या सबको मंदिरों में जाने देने के लुंजपुंज कानूनों से पूरा नहीं हो सकता था। इस प्रकार हिंदू कोड बिल निजी को राजनीतिक बनाने का एक जोरदार उपक्रम था।
सवर्णों की संस्कृति में परिवारों की पवित्रता और उन्हें बनाए रखने पर जोर इसलिए दिया जाता है, क्योंकि ये पितृसत्ता को पुष्ट कर उन्हें अभय प्रदान करते हैं। असल में स्त्रियों को पुरुषों के अधीन बनाने की प्रक्रिया पहले परिवार से ही शुरू होती है। यही प्रक्रिया फिर समाज तक पहुंचती है। सोपानात्मक समाज संरचना इसे आसान बनाती है। इसीलिए आंबेडकर के हिंदू कोड बिल को परिवार तोड़क और समाज के लिए घातक बताया गया था। जबकि वे इस बिल के जरिए पितृसत्ता के दुष्चक्र को भेद कर जाति-व्यवस्था को तहस-नहस करने की कोशिश कर रहे थे।
हिंदू कोड बिल में स्त्रियों को तलाक का अधिकार देकर आंबेडकर एक ओर विवाह की अविच्छेद्यता को चुनौती देते तो दूसरी ओर स्त्री को पुरुष के हर अन्याय को सहन करने की बाध्यता से छुटकारा दिलाते हैं। पुरुष के एक विवाहित पत्नी के रहते दूसरा विवाह करने की छूट पर प्रतिबंध लगा कर उसकी मनमानी पर अंकुश लगाते और पत्नी की स्वाधीनता और आत्मसम्मान को संरक्षित करते हैं। इसी तरह स्त्री को पुरुष की संपत्ति का उत्तराधिकार दिला कर वे उसकी आर्थिक परनिर्भरता को खत्म कर देना चाहते हैं। बिल के ये तीनों प्रावधान निश्चय ही स्त्री-पुरुष को समान धरातल पर खड़ा कर परिवार के आधार को अधिक मजबूत और पुख्ता करने और सामाजिक समरसता को बढ़ाने वाले हैं।

बाबासाहेब आंबेडकर जी ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया. 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया. लेकिन 1951 को डाॅ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने जैसे ही हिन्दू कोड बिल को संसद में पेश किया। संसद के अंदर और बाहर विद्रोह मच गया। सनातनी धर्मावलम्बी से लेकर आर्य समाजी तक अंबेडकर के विरोधी हो गए। संसद के अंदर भी काफी विरोध हुआ। अंबेडकर हिन्दू कोड बिल पारित करवाने को लेकर काफी चिंतित थे। वहीं सदन में इस बिल को सदस्यों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। वह अक्सर कहा करते थे कि:- ‘‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड बिल पास कराने में है।’’ सच तो यह है कि हिन्दू कोड बिल के जैसा महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। धर्म भ्रष्ट होने की दुहाई देने वाले विद्वानों की विशेष बैठक अंबेडकर ने बुलाई। विद्वानों को तर्क की कसौटी पर कसते समझाया कि हिन्दू कोड बिल पास हो जाने से धर्म नष्ट नहीं होने वाला है। कानून शास्त्र के नजरिये से रामायण का विश्लेषण करते हुए कहा कि ‘‘ अगर राम और सीता का मामला मेरे कोर्ट में होता तो मैं राम को आजीवन कारावास की सजा देता।’’ संसद में हिन्दू कोड पर बोलते हुए डा . आम्बेडकर ने कहा कि ‘‘ भारतीय स्त्रियों की अवनति के कारण बुद्ध नहीं मनु है।’’ काफी वाद विवाद के बाद चार अनुच्छेद पास हुआ। अंततः राजेन्द्र प्रसाद ने इस्तीफे की धमकी दे दी। पंडित नेहरू इस बिल के पक्ष में थे, लेकिन वे बिल पास नहीं करा सके. अंततः डा. आम्बेडकर ने 27 सितंबर को हिन्दू कोड बिल सहित कई अन्य मुद्दों को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।


हालाँकि बाद में यह 4 बार में पास हुआ जो निम्न प्रकार है :-

1) 18 मई 1955 – हिन्दू विवाह बिल पास
2) 17 जून 1956 – दलितों के उत्तराधिकार बताये गए l
3) 25 अगस्त 1956 – अल्प्सख्यकों के अधिकार मिले l
4) 14 दिसम्बर 1956 – हिन्दू अछूत मिलन बिल पास हुआ l (यह बिल बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद पास हुआ जिसको वे अपने सामने पास होते देखना चाहते थे)

भारत को संविधान देने वाले इस महान नेता ने 06 दिसंबर, 1956 को देह-त्याग दिया. आज हमें अगर कहीं भी खड़े होकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने की आजादी है तो यह इसी शख्स के कार्यों से मुमकिन हो सका है. भारत सदैव बाबा भीमराव अंबेडकर का कृतज्ञ रहेगा.

इंडिया जो कि भारत है...



भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक के अनुसार हमारे देश का नाम भारत रखा गया और यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि ‘इंडिया दैट इज भारत शैल बी यूनियन ऑफ स्टेट्स’ यानि इंडिया जो कि भारत है वह राज्यों का संघ होगा. इससे यह प्रमाणित होता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने जिसमें बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर की निस्संदेह अग्रणी भूमिका थी का साफ-साफ यह मत था कि किसी भी धार्मिक आधार पर देश की अस्मिता का सृजन न किया जाए. अतः भारतीयों की अस्मिता के लिए हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग असंवैधानिक है…. प्रो. विवेक कुमार



भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक के अनुसार हमारे देश का नाम भारत रखा गया और यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि ‘इंडिया दैट इज भारत शैल बी यूनियन ऑफ स्टेट्स’ यानि इंडिया जो कि भारत है वह राज्यों का संघ होगा. इससे यह प्रमाणित होता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने जिसमें बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर की निस्संदेह अग्रणी भूमिका थी का साफ-साफ यह मत था कि किसी भी धार्मिक आधार पर देश की अस्मिता का सृजन न किया जाए. अतः भारतीयों की अस्मिता के लिए हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग असंवैधानिक है. और ऐसी किसी भी प्रकार की अस्मिता का सृजन संविधान की आत्मा के खिलाफ है. ये सभी जानते हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा कार्यकारी लोकतंत्र है जिसके अंदर विश्व के आठ धर्म पाए जाते हैं. यथा हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, बुद्ध, जैन, पारसी एवं बहायी धर्म को मानने वाले एक साथ इस देश में बसते हैं. और यह केवल इनकी धार्मिक अस्मिता मात्र है. मंडल कमीशन के एक आंकलन के अनुसार भारतवर्ष में पिछड़ी जातियों की 3747 जातियां, अनुसूचित जाति की 1031 जातियां तथा अनुसूचित जनजाति की लगभग 400 से अधिक मूलनिवासी जातियां यहां रहती हैं. और अगर हजारों जातियों में बंटे सवर्ण समाज को भी जोड़ दिया जाए तो इन सभी जातियों की संख्या लगभग छह हजार से अधिक हो जाती है. इन सब धर्मों को मानने वाले तथा मूलनिवासियों को आप एक अस्मिता ‘हिन्दू’ कह कर कैसे संबोधित कर सकते हैं? इसमें कहीं न कहीं एकांगी अस्मिता में वर्चस्वता की बू आती है.
इसमें धर्म और जातियों की अस्मिताओं से अलग भारतवर्ष में भाषाओं और भौगोलिक प्रांतों की अपनी अलग अस्मिताएं/पहचान है. बहुत से लोगों की अस्मिताएं इन भौगोलिक अस्मिताओं के आधार पर सृजित होते हैं उदाहाराणार्थ, आजमगढ़ में रहने वाला आजमी, कोल्हापुर में रहने वाला कोल्हापुरी, सुल्तानपुरी में रहने वाला सुल्तानपुरी, लुधियाना में रहने वाला लुधियानवी, और इसी के साथ पंजाब में रहने वाला पंजाबी, तमिल, कन्नड़, मलयाली अनेक प्रांतीय अस्मिता को लिए हुए लोग बिना किसी धर्म और जाति के आधार पर एक दूसरे से संबंध या रिश्ता रखते हैं. और इन सब भिन्नताओं के बाद भी एक भारतीयता लिए हुए एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. भारतीय संविधान ने अब तक करीब 22 भाषाओं को संवैधानिक दर्जा दे रखा है. और अनेक भाषाएं संवैधानिक दर्जा प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. इनमें कोई भी अपने आप को हिन्दू या हिन्दुस्तानी अस्मिता से जोड़ कर नहीं देखता है. इसलिए भारतीय अस्मिता का सृजन राष्ट्र को मजबूत बनाता है, न कि हिन्दुस्तानी अस्मिता  का. इसका सबसे बड़ा प्रमाण अप्रवासी भारतीयों के उदाहरण से लिया जा सकता है. भारत का पासपोर्ट लिए हुए जब भारतीय नागरिक किसी दूसरे राष्ट्र में जाता है तो वह पहचान के लिए अपने आप को हिन्दू, मुसलमान या सिक्ख की अस्मिता से नहीं जोड़ता बल्कि उसके पासपोर्ट पर भारतीय राष्ट्र का राष्ट्रचिन्ह बना हुआ होता है और विदेशों में उसकी अस्मिता आज भी भारतीय है. और इसीलिए जब विदेश में रहने वाला कोई भारतीय मूल का व्यक्ति अपने क्षेत्र में असमान्य कार्य करता है तो उसको भारतीय मूल का कह कर हम सभी भारतीय गर्व करते हैं. चाहे वो कल्पना चावला हों, सुनीता विलियम्स हो, बाबी जिंदल हो,  त्रिनिदाद और टोबैगो या मॉरिशस या फिजी के राष्ट्रपति हो, सभी भारतीय मूल के अप्रवासी भारतीयों पर हम गर्व करते हैं.
और वैसे भी हमारे राष्ट्र भारत का सृजन धर्म, भाषा एवं भौगोलिक आधार पर नहीं हुआ. हमारे यहां राष्ट्र का सृजन भावनात्मक सिद्धांत के आधार पर हुआ है जिसमें सभी धर्म के मानने वालों, सभी भाषा को बोलने वालों तथा सभी जातियों में बंटे हुए लोगों का योगदान रहा है. हां, ये बात जरूर है कि कुछ लोगों के योगदान को ज्यादा तरजीह दी गई और कुछ लोगों के योगदान को अभी तक चिन्हित भी नहीं किया गया है. इसलिए भारत की आजादी के 68वें साल में भारतीयता को किस तरह और प्रगाढ़ किया जाए, गहरा किया जाए, विस्तृत किया जाए और ज्यादा समावेशी बनाया जाए इसके उपाय सोचने होंगे.
वैसे भी हिन्दुस्तानी अस्मिता लोगों को धर्म के आधार पर कुछ वर्णों की वर्चस्वता का बोध कराती है. सांस्कृतिक एवं संरचना के आधार पर हिन्दूवाद की अस्मिता समाज को उर्ध्वाधर (गैर बराबरी) में बांटती है औऱ इस अस्मिता में कुछ समाजों का स्वतः वर्चस्व स्थापित हो जाता है. उनकी संस्कृति, उनकी भाषा, उनके तीज और त्यौहार, उनके भगवान, मंदिर और संपूर्ण संस्कृति स्वतः उनका वर्चस्व स्थापित कर देती है. ऐसे में दूसरे समाज यथा दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यक, महिलाएं, हाशिये पर ढ़केल दिए जाते हैं. दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के नायक-नायिकाएं एवं उनका श्रम दोयम दर्जे का दिखाई देते हैं, जिनका कोई आदर नहीं करता. और कहीं न कहीं प्रजातंत्र भी समावेशी नहीं लगता है. इसलिए अगर भारतीय राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो हमें वर्चस्वता वाली अस्मिताओं को भुलाना पड़ेगा. और अगर वह अस्मिताएं संविधान में उल्लिखित नहीं हैं तो और भी आवश्यक हो जाता है कि ऐसी अस्मिताओं को पब्लिक डिसकोर्स (जनमानस की भाषा शैली) से बाहर कर दिया जाए ताकि इस राष्ट्र में भारतीय अस्मिता का सृजन और भी प्रगाढ़ हो सके और यह राष्ट्र अपने प्रजातांत्रिक मूल्यों के आधार पर मजबूत बन सके. क्योंकि यह देश वेद-पुराणों-संहिताओं पर नहीं संविधान के आधार पर चलेगा, जिसमें एक सौ पच्चीस करोड़ भारतीयों का कल्याण छिपा है. आइए भारतीय स्वतंत्रता दिवस पर यह प्रण करें कि हम भारतीय अस्मिता को भारतीय संविधान में निहित शब्द एवं भावना के आधार पर और शक्तिशाली बनाऐंगे.
 
prof vivek kumar
लेखक प्रो. विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। जेएनयू के समाजिक विज्ञान संकाय में प्रोफेसर हैं। कोलंबिया विवि के विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं।

बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड़यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्राब्दी




बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड़यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्राब्दी…डा0 तुलसी राम



बौद्ध दर्शन के विकास व विनाश के षड़यंत्रों की साक्षी रही पहली सहस्राब्दी…डा0 तुलसी राम
विगत् कुछ वर्षों में यूरोप तथा अमरीका के हजारों रोमन कैथोलिकों ने बौद्ध धर्म अपनाया है, जिनमें इटली के विश्व प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी राबर्टो बज्जियो तथा हालीबुड के सुपर स्टार रिचार्ड गेरे भी शामिल हैं। पिछले दिनों रोम के एक अखबार को दिये गये साक्षात्कार में सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति गोर्वाचोव ने ठीक ही कहा ‘इक्कीसवीं सदी बुद्ध की सदी होगी।`
“मैंने तुझे नौका दी थी नदी पार करने के लिए न कि पार होने के बाद सिर पर ढोने के लिए।” बुद्ध की इस उक्ति से उनके तर्क-संगत दर्शन की साफ झलक मिल जाती है। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा यह थी कि सत्य को पहले तर्क की कसौटी पर परखो, फिर उसमें विश्वास करो। इसे उन्होंने अपनी शिक्षाओं पर भी लागू किया। उन्होंने साफ कहा कि मेरी बात इसलिए नहीं मानो कि मैं स्वयं (बुद्ध) कह रहा हूं, बल्कि ‘सत्य हो` तभी मानो। अब तक इस धरती पर किसी दार्शनिक या ईश्वर ने अपने बारे में ऐसा नहीं कहा।
ढाई हजार वर्ष पूर्व जब बुद्ध के विचार विकसित हुए उस समय भारत में कुल ६२ विचारधाराओं के मत केन्द्र प्रचलित थे, जिनमें ऊंच-नीच पर आधारित वैदिक विचारधारा सर्वोपरि थी। इस तथ्य की ज्वलंत पुष्टि संघ परिवार द्वारा शासित गुजरात के नवीं कक्षा के ‘सामाजिक अध्ययन` नाम पाठ्यक्रम से होती है, जिसमें कहा गया है : ‘वर्ण-व्यवस्था आर्यों द्वारा मानव जाति को दिया गया एक अमूल्य उपहार है।` यदि सही मायनों में देखा जाए तो इसी ऊंची-नीच पर आधारित वर्ण व्यवस्था के विरोध में तथागत् बुद्ध का दर्शन विकसित हुआ। यही कारण था कि आर्य संस्कृति की रक्षा करने का नारा देने वाले तत्वों ने हर सदी में बौद्ध धर्म को नष्ट करने का षड्यंत्र जारी रखा। इसी षड्यंत्र के तहत आज का ‘संघ परिवार` स्कूली पाठ्यक्रमों में आर्य संस्कृति का गुणगान करते हुए एक तरफ वर्ण व्यवस्था को न्यायोचित ठहरा रहा है, तो दूसरी ओर बौद्ध धर्म को रोकने का प्रयास कर रहा है।
यदि विश्व स्तर पर देखा जाय तो बुद्ध के समय में चीन में कनफ्यूसियस विचार तथा ईरान में जोरोस्टर या जर्तुस्ती विचारधारा का बोलबाला था। बाकी दुनिया ग्रीस को छोड़कर लगभग विचार शून्य ही थी। उस समय भारत सैकड़ों रियासतों में बंटा हुआ था तथा हर एक दूसरे के खून के प्यासे थे। स्वयं बुद्ध के पिता शक्यवंशीय शुद्दोधन की राजधानी कपिलवस्तु हमेशा से पासवर्ती राज्य कोसल के निशाने पर थी। अंततोगत्वा कोसल के राजा विदुदाभ ने शाक्यों को बर्बाद कर दिया तथा बुद्ध की प्रिय स्थली श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित् को अपने ही बेटे ने पदच्युत कर दिया। प्रसेनजित बुद्ध के प्रशंसक मगध सम्राट अजातशत्रु से सहायता के लिए भागा, किन्तु रास्ते में ही मर गया। एक तरफ ऐसा अशांत वातावरण तो दूसरी ओर जिसे आर्य संस्कृति कहा जाता है, उसके तहत वर्ण व्यवस्था-जन्य ऊंच-नीच का भेदभाव, वैदिक कर्मकाण्डों के चलते हजारों पशुओं, जिनमें गाय भी शामिल थी, की बलि, नरबलि, घातक हथियारधारी भगवानों का भय, पुनर्जन्म का मिथकीय आविष्कार, आत्मा का अमरत्व, अंधविश्वास तथा युद्धोन्माद आदि का बोलबाला था। तथागत् बुद्ध के दर्शन ने इन्हीं मान्यताओं के विरूद्ध शीघ्र ही एक विश्वव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। हैरत सिर्फ इस बात पर होती है कि बुद्ध का यह महान दर्शन चीन, जापान, श्रीलंका, वर्मा, थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया, लाओस, मध्य एशिया, साइबेरिया समेत लगभग समस्त एशिया, तथा दुनिया के अन्य लाखों लोगों के बीच आज भी विकासमान है, किन्तु सदियों पहले अपनी जन्मभूमि भारत में क्यों विलुप्त हो गया? हकीकत यह है कि आर्य संस्कृति के पालकों ने भारत में बौद्ध धर्म की हत्या कर दी। आज बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से पीड़ित होकर आर्य-पूजक लोग उसे हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग सिद्ध करने का विश्वव्यापी अभियान चला रहे हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म एक हैं, तो फिर विश्व भर के लोगों ने बौद्ध धर्म के बदले हिन्दू धर्म को क्‍यों नहीं अपनाया? जाहिर है, वर्ण व्यवस्था तथा ऊंच-नीच के कारण हिन्दू धर्म कहीं और नहीं फैला। विदेशों में यह सिर्फ प्रवासी भारतीयों तक सीमित है। एक समय था जब दुनिया की एक-तिहाई आबादी बौद्ध थी। अनेक हिन्दू इतिहासकार यह दावा पेश करते हैं कि अफ्रीकी देश मारीशस हिन्दू देश है किन्तु वहां वर्ण व्यवस्था नहीं है। इस संदर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि करीब १७० वर्ष पहले अंग्रेजों ने भारत से हजारों दलितों तथा अति पिछड़ी जातियों के लोगों को मारीशस में मजदूरी कराने के लिए जबरन भेजा था, जो वहीं बस गये तथा बाद में वे स्वयं वहां के शासक बन बैठे। असलियत यह है कि वहां आर्य संस्कृति के पोषक, विशेष रूप से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नहीं पहुंच सके, इसलिए मारीशस में वर्ण व्यवस्था उस रूप में नहीं जा सकी, जिस रूप में वह अभी भी भारत में है।
buddhist massacre
जहां तक बौद्ध धर्म का सवाल है, यह अन्य धर्मों की तरह नहीं है। बुद्ध ने इसे हमेशा ‘धम्म` कहा। पाली में ‘धम्म` का अर्थ सिद्धांत होता है, किन्तु संस्कृत में गलत अनुवाद करके इसे ‘धर्म` बना दिया गया। बुद्ध के दार्शनिक विचार मूल रूप से आर्य-सांस्कृतिक मान्यताओं के विरूद्ध ईश्वर को न मानने, आत्मा के अमरत्व को इनकार करने, किसी ग्रंथ को स्वत: प्रमाण न मानने तथा जीवन को सिर्फ इसी शरीर तक सीमित मानने से संबद्ध थे। एक बार आत्मा तथा पुनर्जन्म पर दो भिक्षुओं के बीच चल रही गहन बहस में हस्तक्षेप करते हुए बुद्ध ने कहा कि जिस किसी भी वस्तु का जन्म होता है, उसका विनाश अवश्यंभावी है, किन्तु उस रूप में नहीं, उसका रूप बदल जाता है, जिसे बुद्ध ने ‘प्रतीत्य-समुत्पाद` कहा तथा जिसमें आत्मा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसे और भी साफ करते हुए बुद्ध ने कहा कि किसी भी जीवधारी की मृत्यु के साथ ही उसका हमेशा के लिए व्यक्तिगत विलोप हो जाता है, जिसे निर्वाण कहते हैं, अर्थात् पुनर्जन्म से संपूर्ण मुक्ति। यही प्रतीत्य-समुत्पाद बुद्ध के दर्शन की एकमात्र कुंजी है, जिसके कारण दुनिया के अनेक वैज्ञानिक दार्शनिकों ने उन्हें विश्व का पहला वैज्ञानिक बताया।
बुद्ध इस दुनिया को ईश्वर की कृति नहीं मानते थे। उनका तर्क यह था कि घड़ा मिट्टी का रूपान्तर है अर्थात् मिट्टी का गुण घड़े में चला गया। इसी तरह यदि शिशु पैदा होता है, तो वह अपने मां-बाप का रूपान्तर हो जाता है, न कि किसी ईश्वर की कृति का। मनुष्य अत्याचारी तथा दु:खदायी होता है, इसलिए मानव समाज का प्रचण्ड बहुमत दु:खी रहता है। यदि मनुष्य ईश्वर का रूपान्तर है तो ईश्वर स्वयं अत्याचारी एवं दु:खदायी है। यदि ईश्वर वैसा नहीं है तो मनुष्य उसका रूपान्तर या कृति भी नहीं है। इसी दार्शनिक पृष्ठभूमि में बुद्ध ने बौद्धगया में महाज्ञान प्राप्त करके दु:ख है, दु:ख का कारण है, दु:ख का निवारण है तथा दु:ख से मुक्ति है, का रहस्य ढूंढ निकाला। उनके दार्शनिक विचार शीघ्र ही अन्य विचारों पर हावी होकर उनके जीवनकाल में ही सारी दुनिया में फैल गये। बुद्ध के समकालीन राजा बिम्बसार, अजातशत्रु तथा प्रसेनजित ने बौद्ध धर्म के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया, किन्तु ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने इसे विश्वव्यापी बनाने का चमत्कारिक काम किया। अशोक के प्रयासों से श्रीलंका से लेकर यूनान तक बौद्ध धर्म की गूंज सुनायी देने लगी।
इस तरह हम देखते हैं कि ईसा पूर्व की अर्द्ध सहस्राब्दी बौद्ध धर्म के उत्तरोत्तर विकास की अवधि थी। इस बीच पुष्यमित्र तथा मिहिरकुल दो ऐसे शासक हुए, जिन्होंने बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने की कोशिश की। पुष्यमित्र ने अंतिम मोर्य बौद्ध सम्राट बृहद्रथ को ई.पू. १८७ में मार कर शुंगवंश की स्थापना की थी। पुष्यमित्र बृहद्रथ का सेनापति था। सोलवहीं सदी के महान तिब्बती बौद्ध भिक्षु तथा इतिहासकार तारानाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घनघोर दुश्मन था तथा उसने मध्य प्रदेश से लेकर पंजाब के जालंधर तक सैकड़ों बौद्ध मठों को ध्वस्त करने के साथ-साथ अनेक विद्वान भिक्षुओं की हत्या कर दी थी। पुष्यमित्र ने पाटलीपुत्र के विख्यात मठ कुक्कुटराम को भी ध्वस्त करने की कोशिश की थी, किन्तु अंदर से सिंह के दहाड़ने जैसी आवाज सुनकर वह भाग गया। पुष्यमित्र ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा ब्राह्मणों के वर्चस्व को पुनर्जीवित करने का अथक प्रयास किया था। इसी तरह हूण शासक मिहिरकुल ने छठी ईसवी में कश्मीर से लेकर गान्धार तक बौद्ध मठों की भयंकर तोड़फोड़ की। प्रख्यात् चीनी बौद्ध यात्री, ह्उावेन सांग के अनुसार मिहिरकुल ने १६०० मठों को ध्वस्त कर दिया था। वह भारत आकर शिवपूजक बन गया था।
ईसा मसीह के जन्म के पूर्व बौद्ध धर्म की गूंज येरुशलम तक पहुंच चुकी थी। यही कारण है कि बुद्ध की करुणा तथा शांति की झलक बाइबिल में साफ दिखायी देती है। अनेक यूरोपी विद्वानों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि बुद्ध का ईसा मसीह पर गहरा प्रभाव पड़ा था, विशेष रूप से उनका चर्च-सिस्टम बौद्ध मठों का प्रतिरूप है। ईसा की प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म का दार्शनिक विकास बड़ी तेजी से हुआ। इसे बौद्ध दार्शनिकों की सहस्राब्दी कहा जाए, तो अनुचित न होगा। पहली सदी से लेकर हजारहवीं सदी के बीच अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, मैत्रेय, असंग, वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मपाल, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, देवेन्द्रबोधि, शाक्यबोधि, शान्त रक्षित, कमलशील, कल्याणरक्षित, धर्मोत्तराचार्य, मुक्तकुंभ, रत्नकीर्ति, शंकरानंद, शुभकार गुप्त तथा मोक्षकार गुप्त आदि अनेक बौद्ध दार्शनिक पैदा हुए। अश्वघोष ने प्रथम सदी में वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध ‘वज्रसूची` (हीरे की सुई) नामक संस्कृत काव्य लिख कर ब्राह्मणवाद की नींव हिला दी थी। उक्त बौद्ध दार्शनिकों में नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, दिग्नाग तथा धर्मकीर्ति ने बौद्ध तर्कशा (लॉजिक) को वैज्ञानिक ऊंचाईयों तक पहुंचाते हुए हिन्दू तर्कशास्त्रियों को मूक बना दिया था। ‘माध्यमक` लिख कर नागार्जुन ‘शून्यवाद` के प्रवर्तक बने। वे बुद्ध के अनात्मवाद को शून्यवाद कहते थे। वे पूंजीवाद के भी प्रबल विरोधी थे। उन्होंने अपने समकालीन सत्वाहन राजा यज्ञश्री को एक पत्र लिखकर सारे धन को भिक्षुओं, गरीबों, मित्रों तथा ब्राह्मणों को दान में बांट देने का आग्रह किया था। नागार्जुन दूसरी सदी के दार्शनिक थे। चौथी सदी के पेशावर निवासी असंग अद्वैत विज्ञानवाद के प्रवर्तक थे। उनके छोटे भाई वसुबन्धु थे, जिन्होंने अयोध्या में रहकर बौद्ध त्रिपिटक के सार के रूप में ‘अभिधम्म कोश` की रचना की थी। दिग्नाग पांचवीं सदी के दार्शनिक थे। वे बौद्ध तर्कशा तथा ज्ञान मीमांसा के सबसे महान प्रवर्तक थे। रूस तथा विश्व के अति विशिष्ट बौद्ध दार्शनिक श्चेर्वात्सकी ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया है कि यदि दिग्नाग जैसे दार्शनिकों ने बौद्ध लॉजिक को विकसति नहीं किया होता, तो तथाकथित ‘हिन्दू लॉजिक` कभी पैदा ही नहीं होता, क्योंकि हिन्दू दार्शनिकों ने बौद्धों की तर्कसंगत तर्कणा के विरोध में अपनी लॉजिक विकसित की थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि सातवीं-आठवीं सदी के दो अति महत्वपूर्ण हिन्दू दार्शनिक कुमारिल भट्ट तथा आदि शंकराचार्य का सारा दर्शन बौद्धों के खण्डन-मण्डन पर आधारित है। बौद्धों की दार्शनिक परंपरा में सातवीं सदी के सबसे महान दार्शनिक धर्मकीर्ति थे, जिन्होंने दिग्नाग के प्रमाण शा को आगे विकसित करते हुए अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रमाणवार्तिकम्` की रचना की। श्चेर्वात्स्की ने धर्मकीर्ति की तुलना जर्मन दार्शनिक कान्ट से की है। धर्मकीर्ति को तत्कालीन नालन्दा बौद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति तथा उद्भट विद्वान भिक्षु धर्मपाल ने भिक्षु बनाया था। धर्मकीर्ति ने ‘न्याय बिन्दु` लिखकर न्याय दर्शन को सर्वाधिक संपन्न बताया तथा उन्होंने अपने समय के तमाम ब्राह्मणों को शाा़र्थ के लिए ललकारा था और जिसने भी उनके साथ शाा़र्थ किया, हार गया। इन हारे हुए वैदिक विद्वानों में कुमारिल भट्ट भी शामिल थे, जो शर्त के अनुसार नालंदा में बौद्ध भिक्षु बन कर धर्मपाल के शिष्य बन गये थे। किन्तु बाद में कुमारिल भट्ट की विजय को वैदिक कर्मकांडों की विजय समझा गया। अत: उन्होंने बौद्ध धर्म को नष्ट करने का हिंसक अभियान चलाया। कुमारिल भट्ट ने बौद्ध धर्म को ‘फटा दूध` कहकर उस पर यह आरोप लगाया कि उसके चक्कर में आकर विभिन्न राजाओं ने वैदिक कर्मकांडों को नष्ट कर दिया था। हकीकत यह है कि बौद्ध धर्म ने हिंसा के बल पर कभी कोई परिवर्तन नहीं किया, बल्कि तर्कसंगत मस्तिष्क परिवर्तन के मध्यम से वैदिक कुरीतियों को बदला था, जबकि कुमारिल भट्ट ने स्वयं विभिन्न राजाओं को उकसा कर बौद्ध धर्म को समूल नष्ट करने का अभियान चलाया था, जिसमें आदि शंकराचार्य भी शामिल हो गये थे। शंकराचार्य दर्शन के प्रचारक स्वामी अपूर्नानन्द जी द्वारा मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित तथा रामकृष्ण मठ द्वारा अधिकारिक रूप से प्रकाशित शंकराचार्य की आत्मकथा ‘अचार्य शंकर` में प्रस्तुत यह तथ्य विचारणीय है, जिसमें कहा गया है : ‘कुमारिल की इस विजय ने समस्त भारत के लोगों में वैदिक धर्म के नवजागरण की सृष्टि की। उस समय के मगध राज आदित्य सेन ने उस विजय को गौरवान्वित करने के लिए विशेष ठाट-बाट से कुमारिल भट्ट को प्रधान पुरोहित रख कर एक विराट अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। गौड़ देश (बंगाल) के हिन्दू राजा शशांक नरेन्द्र वर्धन वैदिक धर्म के अनुरागी थे। उन्होंने मौका पाकर हिन्दू धर्म के विजय अभियान के यज्ञ में बोध गया के जिस बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर तथागत् ने सिद्धि प्राप्त की थी, उस बोधिद्रुम को काट डाला और बौद्ध मंदिर पर अधिकार स्थापित कर बुद्धदेव की मूर्ति को दिवाल उठा कर बंद कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने तीन बार उस वृक्ष के मूल को खोद कर उसे समूल नष्ट कर दिया। कुमारिल भट्ट ने उत्तर भारत में सर्वत्र विजयी होकर बुद्ध और जैन धर्मों के प्राधान्य को नष्ट किया।`
कुमारिल भट्ट ने ‘श्लोक वार्तिका`, ‘तंत्र वार्तिका` तथा ‘तुप्तिका` नामक ग्रंथों को लिखकर वैदिक कर्मकाण्डों को चमत्कारित किया। उनके बौद्ध विनाश के अधूरे कार्य को शंकराचार्य ने पूरा किया। शंकराचार्य ने बौद्ध दर्शन को खण्डित करने के लिए अपनी प्रसिद्ध रचना ‘ब्रह्मसूत्र भाष्य` को दिग्नाग के विज्ञानवाद, धर्मकीर्ति के बौद्ध न्याय तथा नागार्जुन के माध्ययक (शून्यवाद) के विरुद्ध खड़ा किया। शंकराचार्य ने बड़ी चालाकी से बौद्ध धर्म के विरूद्ध अभियान चलाया था, यहां तक कि जनता में भ्रम पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दसावतान स्न्नानेत` में बुद्ध वन्दना में एक श्लोक भी लिखा, जिसमें बुद्ध को सबसे बड़े योगी के रूप में प्रस्तुत करते हुए ध्यानमग्न अवस्था में उनके नेत्रों के नासिका पर उतरने का उन्होंने जिक्र किया है। शंकराचार्य ने बुद्ध को अपने मस्तिष्क का परिचालक भी बताया है, किन्तु दूसरी तरफ उन्होंने बौद्ध स्थलियों को नेस्तोनाबूद करने का अभियान भी चलाया। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी तथा इतिहासकार विश्वंभर नाथ पाण्डे ने लिखा है कि बौद्ध विरोधी राजा ‘सुधन्वा की सेना के आगे-आगे शंरकाचार्य चलते थे। स्मरण रहे कि उज्जैन के राजा सुधन्वा ने अनगिनत मठों को धवस्त कराया था। जिन चार पीठों की स्थापना शंकराचार्य ने की, वहां पुराने बौद्ध मठ हुआ करते थे, आचार्य शंकर का तथाकथित ‘विश्व विजय` अभियान कुछ और न होकर वास्तव में बौद्धों के ऊपर हिंसक विजय का अभियान था। शंकर ने इसे ‘विश्व विजय` इस लिए कहा था, क्योंकि उनके समय (आठवीं सदी) तक बौद्ध धर्म विश्व के दर्जनों देशों में फैल चुका था। इस तरह हम देखते हैं कि पहली सहस्राब्दी जहां एक ओर बौद्ध दर्शन के विकास के रूप में उमड़ कर सामने आयी, वहीं दूसरी ओर कुमारिल भट्ट तथा शंकराचार्य ने उसके विनाश की ठोस नींव भी डाली। इस तरह पांचवीं सदी से दसवीं सदी के बीच वर्ण व्यवस्था पर आधारित ब्राह्मणवाद या आधुनिक हिन्दूत्व की नींव पड़ी। यह वही समय था जब वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय ठहराने वाले अनेक हिन्दू ग्रंथों की रचना की गयी, जिनमें याज्ञवल्क्य स्मृति, मनुस्मृति, गीता, महाभारत, कौटिल्य का अर्थशा, वाल्मीकि रामायण तथा सारे पुराण आदि शामिल थे। इन सारे ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय ठहराते हुए बौद्ध दर्शन पर हमला किया गया है, किन्तु अक्सर बुद्ध का जिक्र किए बिना। एक भी हिन्दू ग्रंथ ऐसा नहीं है, जिसमें वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय न कहा गया हो। हिन्दू लोग इन ग्रंथों को ईश्वर के मुख से निकला अनन्तकालीन कहकर रहस्यमयी सिद्ध करने का सतत् प्रयत्न करते रहते हैं, किन्तु एक अकाट्य सत्य यह है कि चूंकि बौद्ध दर्शनिकों ने हमेशा वर्ण व्यवस्था का विरोध किया, इसलिए उसे पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने नये ग्रंथों की रचना करके उन्हें ‘इश्वरीय` बना दिया, जबकि ये सारे ग्रंथ बुद्ध के बाद के हैं। वर्ण व्यवस्था को दैवी ठहराने वाले इन तमाम हिन्दू ग्रंथों के रचनाकाल को निर्धारित करने की यह सबसे बड़ी कुंजी है। अन्यथा, इन ग्रंथों में बौद्धों का जिक्र कैसे आता? गीता का अठारहवां अध्याय सिर्फ वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय बताने के लिए लिखा गया। कौटिल्य के ‘अर्थशा` में शूद्र विरोधी कानून हंै। याज्ञवल्क्य स्मृति में बौद्धों के दर्शन को अपशकुन बताया गया है। वाल्मीकि रामायण में बौद्धों को चोरों की तरह दण्ड देने की बात है। मनुस्मृति की तो बात ही कुछ और है।
इस काल की एक खास बात यह है कि जहां एक तरफ ब्राह्मणों ने लाखों बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम कराया तथा बौद्ध मठों को ध्वस्त करने के बाद बचे-खुचे को मंदिरों में बदल दिया था, वहीं इस कुत्सित उद्देश्य के साथ बड़ी चालाकी से बुद्ध के प्रति तथाकथित ‘आत्म सात्करण` के सिद्धान्त को अपनाते हुए ‘अग्निपुराण` में उन्हें विष्णु का अवतार घोषित कर दिया था। साथ ही, बुद्ध की नैतिक शिक्षाओं को अपना बनाकर ब्राह्मणों ने लोगों के समक्ष पेश करना शुरू कर दिया। उन्होंने पाली भाषा को प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि बौद्ध धर्म के वर्चस्व के स्थापित होते ही वर्ण व्यवस्था का मिथकीय रूप बड़ी तेजी से लागू होने लगा। कालिदास जैसे संस्कृत कवियों ने बौद्धों के खिलाफ टिप्पणी की। उन्होंने ‘मेघदूत` में ‘दिग्नागिनाम् पथि परिहरन्` अर्थात् दिग्नागों के बताये गये रास्ते पर चलने से लोगों को मना कर दिया। स्मरण रहे कि महान बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग का आम जनता में बहुत असर था, इसलिए कालिदास को उक्त टिप्पणी करनी पड़ी। संस्कृत साहित्य में बौद्धों के खिलाफ अनगिनत टिप्पणियां मिलती हैं। आत्मसात्करण के संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि आज हिन्दू लोग गाय को ‘गोमाता` कहकर गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए धार्मिक दंगा फैलाने का सतत् प्रयत्न करते रहते हैं, किन्तु सदियों पहले ये हिन्दू वैदिक यज्ञों में हजारों गायों की न सिर्फ बलि चढ़ाते थे, बल्कि उसका मांस भी खाया करते थे। सर्वप्रथम तथागत बुद्ध ने ही इन बलियों के विरूद्ध संघर्ष चलाकर गोहत्या बंद करायी थी तथा उन्होंने स्वयं गाय को माता कहकर पुकारा था। ‘दीर्घ निकाय` समेत अनेक बौद्ध ग्रंथों में इसके उदाहरण मिलते हैं। गोमाता तथा गोहत्या से संबंधित बुद्ध की शिक्षा को अपहृत करके ब्राह्मणों ने उल्टा आरोप बौद्धों पर लगा दिया कि वे गोमांस भक्षण करते हैं। बौद्धों के खिलाफ इस आरोप को ब्राह्मणों ने इतने बड़े पैमाने पर प्रचारित किया कि देश भर में बौद्ध बदनाम हो गये। वास्तविकता यह थी कि बुद्ध की शिक्षा के अनुसार भिक्षा में मिली किसी भी वस्तु को खाने का प्रावधान था, भले ही वह गोमांस क्यों न हो, किन्तु बुद्ध ने किसी जीव को मार कर खाने को कड़ाई से प्रतिबंधित किया था। इसके अनुसार बौद्ध भिक्षु भिक्षा में मिले किसी भी पशु मांस को खा लेते थे। स्वयं तथागत् बुद्ध ने कुशीनारा में चुन्दक नामक लोहार द्वारा भोजदान में दिये गये सूअर के मांस को खाकर निर्वाण प्राप्त किया था। इस तरह बुद्ध की नैतिक शिक्षाओं को ब्राह्मणों ने उल्टा करके बौद्धों को हमेशा बदनाम किया।
ईसा की दूसरी सहस्राब्दी भारत में बौद्ध धर्म के लिए समापन की अवधि थी। इसके पहले ही भारत में इस्लाम पहुंच चुका था तथा सल्तनत स्थापित हो चुकी थी। मध्य एशिया से आने वाले मुस्लिम हमलावरों ने बौद्ध स्थलियों को तोड़ऩे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसके पीछे स्वार्थी ब्राह्मणों की भूमिका पथ प्रदर्शक की थी। बारहवीं-तेरहवीं सदी में बख्तियार खिलजी नाम एक हमलावर उत्तर भारत की उन समस्त बौद्ध स्थलियों पर गया, जिनका सीधा संबंध बुद्ध से था। उसने कुशी नगर की विश्व प्रसिद्ध सात मीटर लंबी सुनहरी मूर्ति को तीन टुकड़ों में तोड़कर फेंक दिया था। उसने ही नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर हमेशा के लिए राख कर दिया था। इसके पहले हिन्दू राजा शशांक ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया था। बख्तियार ने उदान्तपुरी (बिहार शरीफ) के प्रख्यात बौद्ध मठ के विशाल टावर को किला समझ कर ध्वस्त कर दिया, जिसमें सैकड़ों बौद्ध भिक्षु मारे गये तथा हजारों बौद्ध ग्रंथ खून से लथ-पथ होकर नष्ट हो गये। बचे-खुचे बहुमूल्य बौद्ध ग्रंथों को जीवित बचे कुछ भिक्षु अपने रक्त रंजित चीवरों में छिपाकर बर्मा, नेपाल तथा तिब्बत ले गये। स्मरण रहे कि हजरत मोहम्मद के समय बौद्ध पश्चिम एशिया में फैल चुका था, इसलिए वहां के अरबी भाषी लोगों ने ‘बुद्ध पूजा` को गलत उच्चारण के कारण ‘बुत पूजा` कहकर विरोध किया, जिसके चलते मुस्लिम हमलावार जहां भी गये, उन्होंने बुद्ध मूर्तियों को तोड़ डाला। मुस्लिम विजेताओं ने अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक फैले बौद्ध धर्म को समूल नष्ट कर दिया।
बौद्धों की कीमत पर भारत में ईसाई तथा इस्लाम धर्म जरूर पनपा, जिसके कारण ए.एल. बाशम जैसे नामी इतिहासकारों ने हिन्दू धर्म को उदार कहकर अपनी श्रद्धांजली पेश की, जो सही नहीं है। हकीकत यह है कि इन दोनों धर्मों का विकास हिन्दू धर्म की उदारता के कारण नहीं, बल्कि उसके वर्ण व्यवस्थावादी कट्टरता के कारण हुआ। यदि हिन्दू धर्म उदार होता, तो इस धरती से उत्पन्न विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन बौद्ध धर्म को क्रूरता के साथ नष्ट नहीं करता। प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने बौद्ध धर्म को भारतीय इतिहास का करिश्मा कहा है। अत: यह करिश्मा आज भी जारी है। हाल ही में एक अमरीकी मीडिया सर्वेक्षण में बौद्ध धर्म को सर्वाधिक तीव्र गति से पनपने वाला धर्म बताया गया। विगत् कुछ वर्षों में यूरोप तथा अमरीका के हजारों रोमन कैथोलिकों ने बौद्ध धर्म को अपनाया है, जिनमें इटली के विश्व प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी राबर्टो बज्जियो तथा हालीबुड के सुपर स्टार रिचार्ड गेरे भी शामिल हंै। विगत् दिनों रोम के एक अखबार को दिये गये एक साक्षात्कार में सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति गोर्वाचोव ने ठीक ही कहा : ‘इक्कीसवीं सदी बुद्ध की सदी होगी।`
डा0 तुलसी राम

Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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