Sunday, 28 March 2021

बुनियादी शिक्षा का सर्वोदय दर्शन

 

 

शिक्षा का काम केवल तरकीब या पद्धति तक सीमित नहीं है। सच्ची शिक्षा के पीछे कुछ मान्यताश्रद्धाविश्वासउद्देश्य,आदर्श अथवा दर्शन भी अवश्य रहता है। शिक्षा केवल इसी में ही सीमित नहीं है कि ज्ञान-विज्ञान का प्राचीन संचय नई पीढ़ी को हस्तांतरित कर दिया जाए। शिक्षा विकास की दिशा और विकास की गति है। अतः शिक्षा एक शाश्वत पुनर्दिग्वर्तन (या री-ओरियंटेशन)है। मनुष्य भूतकाल को कायम रखने के लिए ही नहीं जीता और न वह वर्तमान से ही संतुष्ट रहता है। बल्कि मनुष्य-जाति हमेशा भविष्य के स्वप्न में जीती है।

       भूत तो ऐसा हुआपर भविष्य ऐसा बनाएंगेइस मानव-अभिलाषा में ही मनुष्य-समाज में शिक्षा या तालीम का आविर्भाव होता है। तालीम की सारी प्रेरणा इस तथ्य में निहित है कि मनुष्य-जाति अपने भविष्य को संवारना चाहती है। अतः जो तालीम किसी श्रद्धाआदर्श एवं दर्शन को मानकर नहीं चलतीउस तालीम में से प्रेरणा व निष्ठा का अभाव हो जाता है। तालीम केवल शिक्षकों की आजीविका का प्रश्न नहीं है। तालीम का काम केवल इतने में ही समाप्त नहीं होता कि वर्तमान समाज के जो गुण-दोष हैंउनकी उपेक्षा करके विद्यार्थियों को जैसे-तैसे उसी समाज के साथ अपना मेल बैठाना आ जाएताकि वे उस समाज में सुविधा से अपना गुजारा कर सकें। समाज के साथ हमारी भावी पीढ़ी का मेल बैठानायह तो शिक्षा का आधा काम ही है। शिक्षा का शेष आधा काम यह है कि विद्यार्थियों में समाज की वर्तमान बुराइयों के प्रति असंतोष जगाया जाए और उन्हें नवीन आदर्शों के लिए काम करने के लिए तैयार किया जाए। समाज में कोई स्थिर और अचल वस्तु नहीं हैबल्कि उसमें एक गति और स्पंदन है। समाज की यह नदी किसी लक्ष्य-सिंधु की ओर निरंतर बढ़ती रहती है। समाज का यह आगे बढ़ना उसकी शिक्षा व्यवस्था द्वारा संपन्न होता है।

अपने को बदलने के लिए समाज पहले अपनी शिक्षा को बदलता है। कारण यह है कि मनुष्य एक अस्तित्व मात्र से संतुष्ट नहीं होताउसके जीवन के लिए एक आदर्श भी आवश्यक है। मनुष्य का स्वभाव यह है कि जो कुछ वह आज हैउसी से उसका समाधान नहीं होताबल्कि आज की परिस्थिति में से निकलकर कल वह कुछ और बनना चाहता है और उसमें भी एक विशेषता यह है कि जो कुछ मनुष्य आज नहीं कर पाया हैउसे भावी पीढ़ी के माध्यम से पूर्ण करना चाहता है और इसी में से शिक्षा का जन्म होता है। इस दृष्टि से सामाजिक उत्क्रांति या मानव-विकास का नाम ही शिक्षा है।



शिक्षा का दर्शन से घनिष्ठ संबंध है और किसी भी शिक्षा-योजना को समझने के लिए उसके पीछे जो जीवन-दर्शन हैउसे समझना बहुत ही आवश्यक है। स्पष्ट है कि जो शिक्षा-योजना गाँधीजी के मस्तिष्क में से निकलीउसका जीवन-दर्शन वही हो सकता हैजो गाँधीजी का जीवन-दर्शन था। अतः यदि हम बुनियादी शिक्षा को भली प्रकार समझना चाहते हैंतो हमें गाँधीजी के जीवन-दर्शन को समझना होगा और यह भी देखना होगा कि गाँधीजी ने इस दर्शन को बुनियादी शिक्षा योजना में किस प्रकार चरितार्थ किया है। बुनियादी शिक्षा को इस प्रकार जब हम उसके दर्शन के संदर्भ में समझेंगेतभी हम उसे यथार्थ रूप में समझ सकेंगे।

यह बात सर्वविदित है कि गाँधीजी का सारा दर्शन सत्य और अहिंसा में से ही निकला था। सर्वोदयसत्य और अहिंसा से निकलने वाले इस दर्शन का ही नाम सर्वोदय है। गाँधीजी ने या उनके अनुयायियों ने कभी यह पसंद नहीं किया कि गाँधीवाद के नाम से कोई वाद चलाया जाए। इसका कारण यह है कि गाँधीजी ने सत्य और अहिंसा पर जो बल दिया और उसका जो प्रयोग कियातो वे ऐसा नहीं मानते थे कि सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का कुछ उन्होंने ही नया आविष्कार किया हो। सत्य और अहिंसा के दोनों सिद्धांत बहुत ही प्राचीन हैं। इसी प्रकार सर्वोदय नाम चाहे नया होपर विचार नया नहीं है। स्वयं गाँधीजी को यह नाम श्री रस्किन की एक किताब अन टू दिस लास्ट से सूझा था और रस्किन ने भी जो विचार प्रस्तुत किया थावह बाइबिल की एक कहानी पर से आया थाजिसमें एक बगीचे का मालिक अपने उस मजदूर को भीजो कि शाम होते-होते ही काम पर लगाया गया थाउतनी ही मजदूरी चुकाता है,जितनी कि वह उस मजदूर को देता हैजिसे उसने उस दिन सुबह से काम पर लगाया था। इस पर दूसरे मजदूर आपत्ति अवश्य करते हैं,पर वह मालिक उनकी आपत्ति पर कोई ध्यान नहीं देता और ऐसा महसूस करता है कि इस अंतिम मजदूर को भी भरपेट भोजन पाने का हक हैऔर कम समय तक काम प्राप्त होने के कारण यदि किसी को कम भोजन मिलता हैतो यह समाज कीमनुष्यता की कमी है।

दर्शन वास्तव में चीज ही ऐसी है कि यदि वह सच्चा हैतो वह नया या पुराना नहीं हो सकता। सच्चा दर्शन वह है,जो कि सनातन है। उस सनातन दर्शन की व्याख्या और प्रयोग देश-कालानुसार नया-नया हो सकता हैपर जो मूल सिद्धांत हैवह नया या पुराना नहीं हो सकता है। अतः सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को हम गाँधीजी की विचारधारा के अनुसार अपनी आज की समस्याओं के साथ समझ तो अवश्य सकते हैंपर सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को नया नहीं कह सकते और न यह कह सकते हैं कि ये सिद्धांत गाँधीजी के नए आविष्कार थे। यह स्थान उसके लिए उपयुक्त नहीं है कि हम सत्य और अहिंसा की विशद व्याख्या करते हुए सर्वोदयी दर्शन को विस्तार से समझने का प्रयत्न करेंक्योंकि इस विषय पर तो किसी उपयुक्त और अधिकारी विद्वान द्वारा अलग से ग्रंथ ही लिखा जाना उचित हो सकता है। फिर भी यहां हम संक्षेप में सत्यअहिंसा और सर्वोदय पर कुछ प्रकाश डालेंगे,ताकि हम यह देख सकें कि बुनियादी शिक्षा की योजना में गाँधीजी ने उन सिद्धांतों को किस प्रकार चरितार्थ करने की कोशिश की है।

गाँधीजी के अनुसार सत्य वह मूल अगोचर धातुद्रव्य या तत्त्व हैजिससे यह समस्त ब्रह्मांडजो विविध और विभिन्न प्रतीत होता हैबना हुआ है। जो कुछ हमें विभक्त रूप से इस सृष्टि में दिखाई देता हैउस सबकी तह या जड़ में एक ही अविभक्त और सर्वव्यापी तत्त्व हैजिसे सत्य (अर्थात् टिकने वाला) या परमात्मा कहा गया है। इस ज्ञानरूपी प्रकाश की प्राप्ति ही जीवन का मूल प्रयोजन है और इसी में जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थसबसे बड़ा आनंदसबसे बड़ा लाभ और सबसे बड़ी सिद्धि है। इस सत्यरूपी परमेश्वर को प्राप्त करने का प्रत्यक्ष और रामबाण उपाय अहिंसा हैक्योंकि हिंसा तभी बरती जा सकती हैजबकि हम यह मानें कि हम दूसरों से भिन्न हैं। जो अपने साथी या दुश्मन में भी अपने को ही देखेगावह अवसर पड़ने पर अपने साथी या दुश्मन को सताने के बदले स्वयं ही कष्ट झेलना सुविधा की बात समझेगा। सत्य का मतलब यदि यह है कि मैं,तूऔर वहये तीनों तत्वतः एक ही हैंतो उसका व्यावहारिक अनुभव और प्रयोग अहिंसा से ही हो सकता है। जो सत्य को जानता हैवह दूसरे के सुख में अपना सुखदूसरे के दुःख में अपना दुःखदूसरे से प्रेम करने में अपने प्रति प्रेमदूसरे के लाभ में अपना लाभ और दूसरे की सेवा में अपनी सेवा समझेगा और यही अहिंसा या प्रेम है। सृष्टि की मौलिक एकता एक सूक्ष्म और अगोचर तथ्य हैपरंतु अहिंसा द्वारा हम उसे प्रत्यक्ष अनुभव की वस्तु बना सकते हैं।

वास्तव में सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैंऔर सत्य को जो मानता हैवह अहिंसा को मानने से इनकार नहीं कर सकता। तमाम धर्मों में अहिंसा को ही सार बताया गया है। जहाँ ईसा का उपदेश यह है कि दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करो,जैसा कि तुम अपने लिए चाहते होवहां भारतीय शास्त्रों में भी यह कहा गया है कि जिसे अपने प्रतिकूल मानो वैसा आचरण दूसरों के प्रति मत करोयही धर्म का सार है। अहिंसा और प्रेम के इस सिद्धांत से यह दुनिया पहले भी अपरिचित तो नहीं थीपर अभी तक प्रेम का व्यवहार केवल अपनों के प्रति ही होता आया था। गाँधीजी ने प्रेम या अहिंसा को दुश्मनों से युद्ध करने में काम में लेकर एक नया चमत्कार कर दिखाया। यह उनकी एक महान् देन रही है। गाँधीजी का कहना था कि दुश्मन में भी यही एक सत्य रम रहा है और इसलिए मित्र या शत्रुकोई भी प्राणी ऐसा नहीं हैजिसके प्रति अहिंसा या प्रेम का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। अतः उनका मत था कि समाज में हिंसा और भय के बजाय प्रेम का शासन होना चाहिए और यह प्रेम किसी जाति या राष्ट्र के घेरे में सीमित नहीं होना चाहिए,बल्कि प्रत्येक अदना से अदना और कमजोर से कमजोर तक और जो दुश्मन हैउस तक भी पहुँचना चाहिए। प्रेम और एकता के इस घेरे में कोई भी बाहर न रहे और सबमें सत्य का अंश स्वीकार किया जाए। कुछ ही लोगों का सुख अभीष्ट न हो। न बहुतायत का सुख ही अभीष्ट हो। बल्कि सभी लोगों का सुख अभीष्ट हो। कुछ ही लोगों की उन्नति अभीष्ट न होन बहुमतवालों की उन्नति तक ही सीमित रहा जाएबल्कि सबकी उन्नति अभीष्ट हो और सबके उदय का प्रयत्न किया जाएसबको प्रेम और ममता प्राप्त हो। इसी को चाहे सत्य और अहिंसा का नाम दीजिएचाहे सर्वोदय का नाम दीजिएबात एक ही है।

सर्वोदय के मूल में महज सब व्यक्तियों की समानता का ही सिद्धांत नहीं हैजो कि जनतंत्र का वर्तमान सिद्धांत है। जब सब मनुष्यों को केवल समानता का दर्जा देकर बात समाप्त कर दी जाती हैतब ही तो जनतंत्र का वर्तमान बहुमतीय शासन कायम होता हैजिसमें 51 की राय को 49 की राय के मुकाबले में विजय प्राप्त हो जाती है। जब सब लोग समान हैंतो गणित के अनुसार 49 की तुलना में 51 को अवश्य ही विजय होना चाहिए। पर सर्वोदय समानता के सिद्धांत से एक कदम आगे बढ़कर यह कहता है कि सब व्यक्ति केवल समान ही नहीं हैंसभी व्यक्ति एक भी हैं। मैं;तूऔर वहये तीनों निःसंदेह समान हैंपर वे समान ही नहीं हैंबल्कि तत्वतः ये तीनों एक भी हैं। अतः सर्वोदय 49 की तुलना में 51 को महत्त्व देकर ही संतुष्ट नहीं हो जाताजो कि जनतंत्र और बहुमत का सिद्धांत है। कहा गया है कि बहुमत तो प्रायः मूर्खों का होता है और दानाई तो कई बार बहुत अल्पमत में पायी जाती है। इसलिए बहुमत को हम हमेशा सही नहीं मान सकते। अतः सर्वोदय का सिद्धांत जहां तक मैं समझता हूंयह है कि एकनिन्यानबे और सौ ये तीनों ही समान हैं। (1=99=100)। सर्वोदय वह मंजिल हैजहां व्यष्टि और समष्टि की समस्या समाप्त हो जाती है। मैं समझता हूं कि सर्वोदय के लिए उपनिषदों में बहुत प्राचीन काल में ही आधार बन चुका था। उपनिषद् में लिखा है:

ओउम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

( ईशोपनिषद् )

अर्थात् वह (ईश्वर) पूर्ण है और यह (जगत्) पूर्ण है तथा पूर्ण से ही पूर्ण प्रकट होता है। पूर्ण में से जब पूर्ण निकाल लिया जाता है, तो जो शेष रहता या बचता है, वह भी पूर्ण ही है। उपनिषद् के इस प्राचीन और प्रामाणिक वचन के अनुसार तत्वतः एक, निन्यानबे और सौ में कोई भेद नहीं है। यही सर्वोदय का दर्शन है। वास्तव में सर्वोदय को जनतंत्र की आगे की मंजिल या जनतंत्र का संशोधित रूप माना जाना चाहिए।

हम देखते हैं कि जिस जनतंत्र का हमने बड़ी अभिलाषा से स्वागत किया था, आज जनता उससे असंतुष्ट है। चाहे अपने देश के बाहर, हम शेष दुनिया को भी क्यों न देखें, हम यह पाएंगे कि जनतंत्र ने दुनिया की बहुत-सी समस्याएं हल करके भी बहुत-सी समस्याओं को अभी अनसुलझी ही छोड़ रखा है और हम यह कह सकते हैं कि बहुमत की प्रणाली से मानव समस्याओं के हल के मार्ग पर, हम बहुत दूर तक नहीं जा पाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सबको समान मात्र माना जाए या चाहे न माना जाए, पर सबको एक मानना उससे भी अधिक आवश्यक है। आज की समस्याएं इस तरह हल होंगी कि जब दो व्यक्ति या दो समूह मिलें, तो वे आपस में यह कह सकें कि मुझमें तू है और तुझमें मैं हूं। पृथकता की भावना को समाप्त करने की आवश्यकता है, क्योंकि पृथकता केवल ऊपरी है और सत्य यह है कि भीतर से हम सब एक ही हैं।

आज जनतंत्र तो आवश्यक है, पर पृथकता की भावना के कायम रहने से आम ढर्रा यह चल रहा है कि पहले अधिक-से-अधिक स्वयं खाओ और तब दूसरे को भी इतना खिलाओ कि वह जीवित रह सके और हमारे लाभ के लिए काम करता रहे सके। आज अमीर लोग ही ऐसा नहीं सोचते, गरीब लोगों का भी विचार तो ऐसा ही है, चाहे वे मजबूरी के कारण ऐसा कर सकने का मौका न पाते हों। यही कारण है कि आज समाज में भयंकर होड़ और शोषण है। इस होड़ और शोषण के कारण वर्तमान युग में महान् और आश्चर्यजनक वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद दुःख, चिंता, अभाव, द्वेष, हिंसा और शत्रुता आदि बुराइयां पूर्ववत् विद्यमान हैं, जिनसे जागतिक युद्धों की आशंका बनी रहती है; बल्कि कहना चाहिए कि कुछ सीमा तक वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करके ये बुराइयां पहले से भी अधिक समर्थ बन गई हैं।

जीवन-यापन के लिए मनुष्य को भी सामग्री चाहिए, आज के विज्ञान के कारण यह इतनी अधिक हो सकती है कि अभाव और गरीबी का नाम ही इस दुनिया से लुप्त हो जाए। परंतु पहले मैं और पीछे तुम, वाली उपर्युक्त रूढ़ मनोवृत्ति के कारण अभाव की पूर्ति कभी नहीं हो पाती और संसार में गरीबी बढ़ती चली जाती है। आज गरीब तो अपने आपको अभावग्रस्त और दुःखी अनुभव करता ही है, पर स्थिति यह है कि अमीर भी अपने आपको संतुष्ट अनुभव नहीं करता। यह आज के संसार की मुख्य समस्या है, जिसको हल किए बिना न तो अमीर सुखी हो सकते हैं और न ही गरीब संतुष्ट हो सकते हैं।



यदि विज्ञान की सहायता से संसार की समृद्धि आज से हजारगुनी बढ़ जाए और आबादी आज की तुलना में हजारगुनी कम भी हो जाए, तब भी जब तक एक इंसान दूसरे इंसान से अपने आपको समान मनाते हुए भी पृथक मानता है और पृथक मानकर पहले मैं और पीछे तुम, वाला सिद्धांत अपनाता है, तब तक दुनिया में सुख, समृद्धि एवं संतोष का साम्राज्य नहीं हो सकता। परन्तु यदि मनुष्य यह समझ ले कि तत्वतः हम सब एक हैं और सुख-शांति का रहस्य भौतिक समृद्धि एवं उसके साधनों में उतना नहीं है, जितना उपलब्ध भौतिक समृद्धि और उसके साधनों को सब लोगों के बीच भली प्रकार बांट देने में हैं, तो मनुष्य जाति प्रत्येक अवस्था में सुखी रह सकती है। यह बंटवारा जोर और जुल्म या हिंसा से संभव नहीं है, क्योंकि यदि एक बार जोर और हिंसा से यदि ऐसा बंटवारा हो भी गया, तो जब तक प्रकृति एक मनुष्य को दूसरे की तुलना में शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से असमान शक्ति देकर पैदा करती रहती है, तब तक वह  जबर्दस्ती की समानता निभ नहीं सकती। अतः समानता, सुख और समृद्धि तो अहिंसा, प्रेम और आंतरिक स्वेच्छा से ही उत्पन्न हो सकती है।

निःसंदेह मनुष्य के आज तक के इतिहास में हिंसा बहुत रही है और मनुष्य के मन में अपने इस इतिहास के कारण यह बात रूढ़ हो गई है कि डंडे के जोर के आगे तो गलत बात भी मान लेना और डंडे का जोर जहां न हो, वहां सही बात भी न मानना। परंतु यदि मनुष्य को अहिंसक तरीके से बरता जाए, तो धीरे-धीरे दीर्घकाल में उस पर ऐसा संस्कार डाला जा सकता है कि वह हिंसा के आगे गलत बात को न माने और अहिंसा के आगे सही बात को मान ले। इस परिवर्तन में निःसंदेह देर लगेगी, पर सच्चा और स्थायी परिवर्तन यदि होगा, तो इसी प्रकार होगा, दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

मनुष्य-जाति यदि आज थोड़ी-बहुत भी सभ्य मानी जा सकती है, तो उसके पीछे वास्तविक कारण यह नहीं कि मनुष्य को डंडे के जोर से सभ्य बनाया गया है, बल्कि उसका मुख्य कारण यह है कि अनगनित प्रेमभरे हृदयों ने समय-समय पर प्रेम का साम्राज्य स्थापित करने के लिए अपनी क़ुरबानी दी है। सर्वोदय के तीन व्यावहारिक रूप सर्वोदय की उपर्युक्त भूमिका को यदि हम स्वीकार करें, तो सत्य और अहिंसा का व्यावहारिक प्रश्न यह बन जाता है कि समाज में आज जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक समूह द्वारा दूसरे समूह का शोषण चल रहा है, उसका निराकरण कैसे हो, किस प्रकार उपलब्ध भौतिक समृद्धि के साधनों का सब लोगों में बिना किसी हिंसा और जोर-जुल्म के बंटवारा हो।

इसका उत्तर यह होता है कि प्रथम तो जिन उद्योगों से मनुष्य की मूल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, उनका ऐसा विकेंद्रीकरण होना चाहिए कि किसी मनुष्य या किसी गाँव के इनके विषय में किसी के आगे मजबूर या लाचार न होना पड़े और लगभग सभी मनुष्यों को रचनात्मक काम से प्राप्त होने वाला आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक लाभ प्राप्त हो। इसका दूसरा उत्तर यह होता है कि समाज में किसी भी काम को करने के लिए जो साधन काम में लिया जाए, वह शुद्ध और नैतिक होना चाहिए। अच्छे और नैतिक उद्देश्य के लिए भी साधन अशुद्ध या अनैतिक नहीं होना चाहिए। इसका तीसरा उत्तर यह है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच जो असमानता है, उसे मिटाने और समानता उत्पन्न करने के लिए सम्पन्न लोगों को सताया नहीं जाना चाहिए, बल्कि उनकी मानवता को जगाया जाना चाहिए और उनको स्वेच्छा से दान देने और दूसरों को अपने बराबर लाने के लिए प्रेम के द्वारा समझाया जाना चाहिए। इस प्रकार समाज में एक ऐसी हवा बन सकती है, जो सर्वोदय के लिए बहुत अनुकूल हो।

यहां कुछ लोग यह कहेंगे कि यह सब मनुष्य की प्रकृति के विपरीत और असंभाव्य है। यहां यह भी कहा जाएगा कि आज जबकि विज्ञान की इतनी उन्नति हो गई है तो विकेंद्रित उद्योगों की सिफारिश करना बड़ी नादानी की बात है। ये प्रश्न गाँधीजी को कई बार पूछे गए थे और कई बार गाँधीजी तथा उनके अनुयायियों ने इनका यथेष्ट उत्तर भी दिया। यहां संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि प्रेम और बलिदान के साथ जब कोई संत या महापुरुष मनुष्यों को त्याग और दान की शिक्षा देता है, तो जनता कभी उस संत या महापुरुष को निराश नहीं करती। पर जब डंडे के बल पर सबल लोगों को या धनाढ्यों को यह कहा जाता है कि तुम्हें निर्बलों और निर्धनों के लिए त्याग करना ही पड़ेगा, वरना तुम सजा पाओगे, तो इससे उन लोगों के मानस में सहज ही एक प्रतिरोध की भावना घर कर लेती है, जिससे प्रथम तो वे चोरी-छिपे उस कानून और जबर्दस्ती से बचने का प्रयत्न करते हैं और यदि नहीं बच पाते हैं, तो भी निर्बलों और निर्धनों के लिए उनका हृदय-परिवर्तन नहीं हो पाता और इसलिए अवसर पाते ही धनी और सबल लोग निर्धनों और निर्बलों पर फिर हावी हो जाते हैं।

अस्तु यह कहना गलत है कि मानव प्रकृति अहिंसक साधनों से अथवा प्रेम और बलिदान के उपायों से प्रभावित नहीं होती। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य अपने इतिहास में डंडे के जोर से इतना अधिक हांका गया है कि उसे यह सूझता ही नहीं कि उसे प्रेमपूर्ण व्यवहार से भी प्रभावित होना चाहिए। अब तो दूसरा प्रश्न है कि आज की वैज्ञानिक प्रगति के युग में ये विकेंद्रित उद्योग (चरखे और तकली) कहां तक काम देंगे और कहां तक ठहर सकेंगे। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हमें विज्ञान की दिशा बदलनी होगी।

आज तक विज्ञान का प्रयत्न यह रहा है कि केंद्रित और भीमकाय उद्योगों के लिए यंत्रों का आविष्कार किया जाए। विज्ञान की सहायता से ऐसे उत्पादक यंत्रों का आविष्कार करना होगा और उन यंत्रों में परफेक्शन लाना होगा जिनकी मदद से व्यक्ति अथवा छोटे समुदाय स्वावलंबन के आधार पर अपनी मूल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। विज्ञान का कोई अंत नहीं है कि हम यह मान लें कि जो कुछ विज्ञान ने आज कर दिखाया है, उससे अधिक विज्ञान कुछ भी नहीं कर सकता। भविष्य का विज्ञान इस बात पर ध्यान देगा कि ऐसे यंत्रों का आविष्कार किया जाए, जो व्यक्ति और छोटे समुदाय या गाँव को सशक्त और स्वाधीन बना सके। इसलिए सर्वोदय के विषय में निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

बुनियादी शिक्षा का सर्वोदय दर्शन

16 Dec 2013

हिंदी प्रभाग (Hindi Section)

 

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श्री दयाल चंद्र सोनी की पुस्तकबुनियादी शिक्षा क्या और कैसे?”से यह आलेख लिया गया है।

http://www.shikshanjali.org/2013/12/%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%8B/

 

 

इस मंच पर इस लेख के प्रस्तुतकर्ता

पंकज ‘वेला’

 


गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा पर डॉ. कृष्ण कुमार के कुछ विचार : एक

 

ज की तारीख में, बुनियादी शिक्षा के बारे में बात करने में कई समस्याएँ हैं। सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि इसके साथ गाँधी का नाम जुड़ा हुआ है। गाँधीजी से जुड़ी हुई कई लोकप्रिय छवियाँ आज के समाज में फैली हुई हैं; इन छवियों की फिर से पड़ताल नहीं की जाती, और सिर्फ प्रतिष्ठित स्तर पर दिखने वाली छवियों को ही देखते रहना, गाँधी की महानता के गीत गाते रहना, उन्हें भगवान का दर्जा देना या देवता तुल्य मानना, इन सब बातों में एक प्रकार की जिद दिखाई देती है। दूसरी तरफ, यह स्थिति उनकी राह से हमारे अलग हट जाने से भी जुड़ी हुई है, क्योंकि उस राह को तो बहुत पहले ही छोड़ दिया गया था।

यह चर्चा कभी अन्य रूप भी लेती रही है, जिनमें से एक यह भी है कि आधुनिक भारत ऐसा है क्योंकि उसने नेहरू का मार्ग अपनाया है, और गाँधीजी का मार्ग बिलकुल अलग होता। या कि, नेहरू को चुनना गाँधीजी की भूल थी। जब भी गाँधीजी से जुड़े किसी विचार पर चर्चा शुरू होती है, तो फिर यही सवाल शुरू हो जाते हैं, कि 50-60 साल पहले की परिस्थितियों में यह विचार जिस रूप में उभरा था हमें उस रूप की पवित्रता के बारे में लोगों को समझाना होगा, और यहीं से एक लम्बा-चौड़ा व्याख्यान शुरू हो जाता है। अगर आप गाँधीवादी हैं, या इस तरह की चर्चाओं में आपकी रुचि है तो ही आप इस तरह के व्याख्यान को सह सकते हैं, अन्यथा नहीं। आज की परिस्थितियों में, इस विचार को समझना बहुत आसान नहीं है।

मैं खुद भी बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्तों पर चलने वाले स्कूल से पढ़ा हूँ। आज मैं उन वर्षों के बारे में बहुत वस्तुपरक होकर तो नहीं सोच सकता क्योंकि आप जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, और बचपन पीछे छूटता जाता है, तो आप बचपन की बातों को बहुत वैज्ञानिक ढंग से तो नहीं देख सकते। वह सब यादों में बस जाता है। तो मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मैं अपने अनुभव से यहाँ कुछ कह रहा हूँ। पर मेरे लिए यह बताना बहुत जरूरी है कि मैंने न सिर्फ ऐसे स्कूल देखे हैं, बल्कि मैं खुद भी ऐसे ही एक स्कूल से पढ़ा हूँ। और देश भर में ऐसे सैकड़ों, हजारों स्कूल रहे हैं, और इनमें से कई किसी न किसी रूप में अभी भी मौजूद हैं। कुछ तो सिर्फ नाममात्र के लिए चल रहे हैं, पर कुछ में, हमें आज भी कुछ विस्तृत रूप में बुनियादी शिक्षा देखने को मिल जाती है। यदि हम सब इसमें कुछ रुचि दिखाएँ, तो ऐसे संगठनों के समग्र रूप को समझने का छोटा-सा प्रयास करना सम्भव हो सकेगा। मैं आपको कुछ बताऊँ, उसके बजाय ऐसा करने से आपके मन में गाँधीजी के इस विचार के बारे में बेहतर तस्वीर बन पाएगी। मैं आज यहाँ बहुत छोटी-सी छवि बनाने आया हूँ, और उसकी अन्तर्निहित सुन्दरता को आपके सामने रखना चाहता हूँ। और अब मैं यह काम शुरू करना चाहूँगा।

 

पिछले 50-60 सालों में, शिक्षा के दर्शन में, और शिक्षा के दर्शन को इस्तेमाल करने के तरीकों में बुनियादी शिक्षा का प्रस्ताव कई प्रकार से अपनी परछाईं देखता रहा है। ऐसा नहीं है कि बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव में वास्तव में ऐसी बातें कही गई हों। लेकिन शिक्षा के दर्शन में, और खासतौर पर, इस पूरे दौर में इस विषय पर जिस तरह के लेख लिखे गए हैं, उनमें, किसी न किसी रूप में बुनियादी शिक्षा की मौजूदगी रही है - न सिर्फ भारत में बल्कि दूसरे देशों में भी। वैसे बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव में ऐसा कुछ अनोखा नहीं था जिसे गाँधीजी कहीं से तोड़कर ले आए हों। उन्होंने जो कुछ भी कहा था वह सामान्य जीवन के लिए प्रासंगिक था।

प्रारम्भ से ही बुनियादी शिक्षा के विचार के साथ तीन बड़ी बातें जुड़ी रही हैं। इन तीन विचारों से हम इतने परिचित हो चुके हैं, कि हम यह सोच सकते हैं कि, “अरे, यह सब तो हमें पहले से ही पता है, इसमें नया क्या है?” और यही बात खतरनाक है। और यह कहा जा सकता है कि हमने बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव की प्रतिध्वनियों को इतने स्वरूपों में सुना है, कि उन्हें अलग करना, या उनकी खूबियों के बारे में अलग-अलग बात कर पाना, गैर-जरूरी है, और सम्भवतः व्यर्थ भी है....। इसीलिए मैंने आपको इतनी सारी चेतावनियाँ दी हैं। दर्शनशास्त्र के जगत में, कोई भी विचार पुराना नहीं पड़ता, न ही वह उसी स्थिति में बना रहता है, जहाँ शुरू में था - इन दोनों बातों को दिमाग में रखना बहुत जरूरी है। भले ही कोई 2500 वर्ष पुराना विचार हो, भले ही गौतम बुद्ध का कोई विचार हो, भले ही अरस्तु का कोई विचार हो, या कोई ऐसा विचार हो जो हमारे समाज में अभी-अभी आया हो - वह विचार कभी पुराना नहीं पड़ता, भले ही एक नहीं, हजारों पीढ़ियाँ उसे आजमा चुकी हों। और भले ही उन्होंने यह राय दी हो कि हम आजमाकर देख चुके और इसमें कुछ भी सार नहीं है! इसके बाद भी, उस विचार में एक चमक बनी रहती है। दूसरी तरफ, कोई भी विचार वह नहीं रह जाता जो वह पहली बार प्रस्तावित किए जाते वक्त था, क्योंकि बीच के समय में वह विचार अन्य कई विचारों में जीता है। किसी विचार की, उसकी उत्पत्ति से आगे जाने की क्षमता का अनुभव उस विचार को निरन्तर पूरे परिदृश्य में फिर से स्थापित कर देता है।

 तीन बिन्दु हैं - पहला, स्कूल में हाथों से काम करना सिखाया जाना चाहिए। दूसरा, स्कूल की शिक्षा बच्चे के परिवेश से जुड़ी होना चाहिए। बहुत सरल बातें हैं ये। और तीसरी बात - स्कूल में जो भी सिखाया जाए, जो भी कौशल सिखाए जाएँ, बच्चों को ज्ञान के जिन भी पहलुओं से परिचित कराया जाए - वे एक-दूसरे से पृथक नहीं होना चाहिए, बल्कि एकीकृत/ समग्र होना चाहिए। वे आपस में जुड़े होना चाहिए। इन तीन बातों (काम, स्थानीय परिवेश का महत्‍व और पाठ्यक्रम को समग्र बनाने का प्रयास) को कहीं न कहीं, किसी न किसी परिस्थिति में, देश के अन्य भागों में, या राज्य स्तर पर करके देखा जा चुका है। यहाँ शायद एक ही बात जोड़ी जाने लायक है, वह यह कि गाँधीजी के बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव में तीसरा बिन्दु हस्तकौशल के सन्दर्भ में उठाया गया था। उन्होंने इस समग्र रूप की परिकल्पना किसी विचारधारा के सन्दर्भ में नहीं उठाई थी, न ही किसी मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में उठाई थी, बल्कि उन्होंने इसे हस्तकला/ हाथ के कौशलों के रूप में उठाई थी।

चूँकि स्कूल में हाथों से काम करने के उनके पहले बिन्दु का अर्थ यह नहीं था कि, आपको स्कूल में हाथों से काम भी करना चाहिए, बल्कि हाथ से किया जाने वाला काम स्कूल का केन्द्रीय विषय होना चाहिए। इसे इतना महत्‍व पूर्ण होना चाहिए कि स्कूल की अन्य सभी तरह की पारम्परिक गतिविधियाँ, जिसमें विभिन्न प्रकार की शिक्षा और कौशल शामिल रहते हैं, सबको हाशिए पर जाना होगा, गौण होना पड़ेगा, और स्कूल की शिक्षा का मुख्य ध्यान हस्तकौशलों पर होगा - जरूरी नहीं कि किसी एक ही हस्तकौशल पर हो, लेकिन कम से कम किसी एक पारम्परिक हस्तकौशल पर हो। अच्छा होगा कि वह हस्तकौशल ऐसा हो जो स्कूल के परिवेश में उपलब्ध हो। वह हस्तकौशल स्कूल का केन्द्रीय उद्यम होना चाहिए, और उसके इर्दगिर्द ज्ञान के पाठ्यक्रम के विभिन्न क्षेत्रों को आपस में बुना जा सकता है, और इस बुनाई को ही हम बुनियादी शिक्षा के सन्दर्भ में समग्र शिक्षा का नाम दे सकते हैं। यह बुनावट बच्चे के व्यक्तित्व की किसी सार्वभौमिक मनोविज्ञान की अवधारणा नहीं है, न ही यह कोई राष्ट्रीय विचारधारा है, बल्कि यह बुनावट उस कौशल से निकलना चाहिए, जिसे स्कूल के केन्द्रीय उद्यम के रूप में चुना गया हो। बुनियादी शिक्षा के अन्तर्गत और भी जरूरी पहलू थे, लेकिन उन सबका यहाँ जिक्र करना जरूरी नहीं है।

पर जिस एक पहलू का खासतौर से जिक्र किया जा सकता है, वह उत्पादकता है - यदि आप इतिहास पर नजर दौड़ाएँ, तो पाएँगे कि शिक्षा के अन्य पहलुओं को तो महत्‍व दिया गया लेकिन इस केन्द्रीय मुद्दे पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया गया। आपने स्कूलों में काम के अनुभवके बारे में सुना होगा, या कुछ अन्य ऐसी बातों के बारे में सुना होगा जिन्हें सामाजिक रूप से उपयोगी उत्पादक कार्य” - जिसके हर शब्द को आप सन्देह के साथ देख सकते हैं - के अन्तर्गत रखा जाता है। ये सभी चीजें बुनियादी शिक्षा के विचार को इस्तेमाल किए जाने के बाद अस्तित्व में आईं, और उसकी स्मृति में इन्हें फिर पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, और वे अभी भी चल रही हैं। इसलिए उन सभी पहलुओं की चर्चा करना जरूरी नहीं है क्योंकि वे सभी बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव के आधार पर किसी न किसी रूप में बने ही हुए हैं।

 

इसी प्रकार से मातृभाषा के महत्‍व को भी इसमें स्वीकारा और शामिल किया गया था। जब आप स्थानीय परिवेश की बात करते हैं, तो मातृभाषा उसमें तर्कसंगत रूप से आ ही जाती है, और उसका अलग से जिक्र करना आवश्यक नहीं है। लेकिन, फिर भी गाँधीजी ने उसे महत्‍व दिया और फिर से उसका उल्लेख किया। मूल प्रस्ताव में, उसे निश्चित तौर पर महत्‍व दिया गया था, और वहाँ उसका सन्दर्भ यह था कि यदि शिक्षा को आसपास के परिवेश में बोया जाना है, तो हमारे सामने उसका स्वाभाविक साधन केवल मातृभाषा ही हो सकती थी।

ये तीन बिन्दु जो बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव का हिस्सा थे जिन्हें मैंने आपके सामने सिर्फ दर्ज करने की खातिर प्रस्तुत किया है। बीते हुए वक्त पर बार-बार ऐतिहासिक किस्म की नजर डाले बगैर, हमें सरल विश्लेषण की भावना से इस प्रस्ताव की पड़ताल करना होगी, बल्कि पड़ताल करने के बजाय उसका मूल्यांकन करना होगा, कि यदि आज शिक्षा के मुख्य सन्दर्भों में बुनियादी शिक्षा को सजा, सँवारकर, चमकाकर प्रदर्शित किया जाए तो वह कैसी दिखाई देगी? यदि उसके वृक्ष को यहाँ दिगन्तर में रोपा जाए तो उसमें से कैसी पत्तियाँ निकलेंगी? किस प्रकार के फूलों का उसमें से खिलना सम्भव होगा? उसे सुरक्षित रखने के, पालने के, उस पर फूल खिलाने और उसे फलीभूत करने के उपाय क्या होंगे? ये सारी बहसें उसमें से निकल सकती हैं।

 

डाॅक्टर कृष्ण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर हैं। सन 2004 से 2010 तक उन्‍होंने एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक के रूप में कार्य किया। उनके नेतृत्व में ही राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 तैयार की गई जो कि भारत में प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित सबसे महत्‍व पूर्ण दस्तावेजों में से एक है। वे स्वयं भी मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ स्थित एक नई तालीम के स्कूल के विद्यार्थी थे। उन्होंने गाँधीजी की सामाजिक रूपान्तरण की कल्पना के अंग के रूप में उनकी शिक्षा प्रणाली के बारे में कुछ अत्यन्त स्पष्ट और अन्तर्दृष्टीपूर्ण निबन्ध लिखे हैं।


यह लेख, मूलतः, मई 1998 में, ‘बुनियादी शिक्षा की प्रासंगिकताशीर्षक से शिक्षा विमर्शपत्रिका में प्रकाशित हुआ था। दिगन्तर,जयपुर में आयोजित हुई व्याख्यान माला में यह तीसरा व्याख्यान था। यह व्याख्यान 10 जनवरी, 1998 को दिया गया था। और हाल ही में यह अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन की अँग्रेजी पत्रिका लर्निंग कर्वके Productive Work As Pedagogy  Issue XXIV, March 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है। यह उसका हिन्‍दी अनुवाद है। इसे हम गाँधी जयंती पर दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। यह पहला भाग है। 


अनुवाद : भरत त्रिपाठी   

रेखांकन : आर. के.लक्ष्‍मण (गूगल इमेज)

http://teachersofindia.org/hi/article/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%A1%E0%A5%89-%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%8F%E0%A4%95


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