Sunday, 28 March 2021

गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा पर डॉ. कृष्ण कुमार के कुछ विचार : एक

 

ज की तारीख में, बुनियादी शिक्षा के बारे में बात करने में कई समस्याएँ हैं। सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि इसके साथ गाँधी का नाम जुड़ा हुआ है। गाँधीजी से जुड़ी हुई कई लोकप्रिय छवियाँ आज के समाज में फैली हुई हैं; इन छवियों की फिर से पड़ताल नहीं की जाती, और सिर्फ प्रतिष्ठित स्तर पर दिखने वाली छवियों को ही देखते रहना, गाँधी की महानता के गीत गाते रहना, उन्हें भगवान का दर्जा देना या देवता तुल्य मानना, इन सब बातों में एक प्रकार की जिद दिखाई देती है। दूसरी तरफ, यह स्थिति उनकी राह से हमारे अलग हट जाने से भी जुड़ी हुई है, क्योंकि उस राह को तो बहुत पहले ही छोड़ दिया गया था।

यह चर्चा कभी अन्य रूप भी लेती रही है, जिनमें से एक यह भी है कि आधुनिक भारत ऐसा है क्योंकि उसने नेहरू का मार्ग अपनाया है, और गाँधीजी का मार्ग बिलकुल अलग होता। या कि, नेहरू को चुनना गाँधीजी की भूल थी। जब भी गाँधीजी से जुड़े किसी विचार पर चर्चा शुरू होती है, तो फिर यही सवाल शुरू हो जाते हैं, कि 50-60 साल पहले की परिस्थितियों में यह विचार जिस रूप में उभरा था हमें उस रूप की पवित्रता के बारे में लोगों को समझाना होगा, और यहीं से एक लम्बा-चौड़ा व्याख्यान शुरू हो जाता है। अगर आप गाँधीवादी हैं, या इस तरह की चर्चाओं में आपकी रुचि है तो ही आप इस तरह के व्याख्यान को सह सकते हैं, अन्यथा नहीं। आज की परिस्थितियों में, इस विचार को समझना बहुत आसान नहीं है।

मैं खुद भी बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्तों पर चलने वाले स्कूल से पढ़ा हूँ। आज मैं उन वर्षों के बारे में बहुत वस्तुपरक होकर तो नहीं सोच सकता क्योंकि आप जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, और बचपन पीछे छूटता जाता है, तो आप बचपन की बातों को बहुत वैज्ञानिक ढंग से तो नहीं देख सकते। वह सब यादों में बस जाता है। तो मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मैं अपने अनुभव से यहाँ कुछ कह रहा हूँ। पर मेरे लिए यह बताना बहुत जरूरी है कि मैंने न सिर्फ ऐसे स्कूल देखे हैं, बल्कि मैं खुद भी ऐसे ही एक स्कूल से पढ़ा हूँ। और देश भर में ऐसे सैकड़ों, हजारों स्कूल रहे हैं, और इनमें से कई किसी न किसी रूप में अभी भी मौजूद हैं। कुछ तो सिर्फ नाममात्र के लिए चल रहे हैं, पर कुछ में, हमें आज भी कुछ विस्तृत रूप में बुनियादी शिक्षा देखने को मिल जाती है। यदि हम सब इसमें कुछ रुचि दिखाएँ, तो ऐसे संगठनों के समग्र रूप को समझने का छोटा-सा प्रयास करना सम्भव हो सकेगा। मैं आपको कुछ बताऊँ, उसके बजाय ऐसा करने से आपके मन में गाँधीजी के इस विचार के बारे में बेहतर तस्वीर बन पाएगी। मैं आज यहाँ बहुत छोटी-सी छवि बनाने आया हूँ, और उसकी अन्तर्निहित सुन्दरता को आपके सामने रखना चाहता हूँ। और अब मैं यह काम शुरू करना चाहूँगा।

 

पिछले 50-60 सालों में, शिक्षा के दर्शन में, और शिक्षा के दर्शन को इस्तेमाल करने के तरीकों में बुनियादी शिक्षा का प्रस्ताव कई प्रकार से अपनी परछाईं देखता रहा है। ऐसा नहीं है कि बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव में वास्तव में ऐसी बातें कही गई हों। लेकिन शिक्षा के दर्शन में, और खासतौर पर, इस पूरे दौर में इस विषय पर जिस तरह के लेख लिखे गए हैं, उनमें, किसी न किसी रूप में बुनियादी शिक्षा की मौजूदगी रही है - न सिर्फ भारत में बल्कि दूसरे देशों में भी। वैसे बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव में ऐसा कुछ अनोखा नहीं था जिसे गाँधीजी कहीं से तोड़कर ले आए हों। उन्होंने जो कुछ भी कहा था वह सामान्य जीवन के लिए प्रासंगिक था।

प्रारम्भ से ही बुनियादी शिक्षा के विचार के साथ तीन बड़ी बातें जुड़ी रही हैं। इन तीन विचारों से हम इतने परिचित हो चुके हैं, कि हम यह सोच सकते हैं कि, “अरे, यह सब तो हमें पहले से ही पता है, इसमें नया क्या है?” और यही बात खतरनाक है। और यह कहा जा सकता है कि हमने बुनियादी शिक्षा के प्रस्ताव की प्रतिध्वनियों को इतने स्वरूपों में सुना है, कि उन्हें अलग करना, या उनकी खूबियों के बारे में अलग-अलग बात कर पाना, गैर-जरूरी है, और सम्भवतः व्यर्थ भी है....। इसीलिए मैंने आपको इतनी सारी चेतावनियाँ दी हैं। दर्शनशास्त्र के जगत में, कोई भी विचार पुराना नहीं पड़ता, न ही वह उसी स्थिति में बना रहता है, जहाँ शुरू में था - इन दोनों बातों को दिमाग में रखना बहुत जरूरी है। भले ही कोई 2500 वर्ष पुराना विचार हो, भले ही गौतम बुद्ध का कोई विचार हो, भले ही अरस्तु का कोई विचार हो, या कोई ऐसा विचार हो जो हमारे समाज में अभी-अभी आया हो - वह विचार कभी पुराना नहीं पड़ता, भले ही एक नहीं, हजारों पीढ़ियाँ उसे आजमा चुकी हों। और भले ही उन्होंने यह राय दी हो कि हम आजमाकर देख चुके और इसमें कुछ भी सार नहीं है! इसके बाद भी, उस विचार में एक चमक बनी रहती है। दूसरी तरफ, कोई भी विचार वह नहीं रह जाता जो वह पहली बार प्रस्तावित किए जाते वक्त था, क्योंकि बीच के समय में वह विचार अन्य कई विचारों में जीता है। किसी विचार की, उसकी उत्पत्ति से आगे जाने की क्षमता का अनुभव उस विचार को निरन्तर पूरे परिदृश्य में फिर से स्थापित कर देता है।

 तीन बिन्दु हैं - पहला, स्कूल में हाथों से काम करना सिखाया जाना चाहिए। दूसरा, स्कूल की शिक्षा बच्चे के परिवेश से जुड़ी होना चाहिए। बहुत सरल बातें हैं ये। और तीसरी बात - स्कूल में जो भी सिखाया जाए, जो भी कौशल सिखाए जाएँ, बच्चों को ज्ञान के जिन भी पहलुओं से परिचित कराया जाए - वे एक-दूसरे से पृथक नहीं होना चाहिए, बल्कि एकीकृत/ समग्र होना चाहिए। वे आपस में जुड़े होना चाहिए। इन तीन बातों (काम, स्थानीय परिवेश का महत्‍व और पाठ्यक्रम को समग्र बनाने का प्रयास) को कहीं न कहीं, किसी न किसी परिस्थिति में, देश के अन्य भागों में, या राज्य स्तर पर करके देखा जा चुका है। यहाँ शायद एक ही बात जोड़ी जाने लायक है, वह यह कि गाँधीजी के बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव में तीसरा बिन्दु हस्तकौशल के सन्दर्भ में उठाया गया था। उन्होंने इस समग्र रूप की परिकल्पना किसी विचारधारा के सन्दर्भ में नहीं उठाई थी, न ही किसी मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में उठाई थी, बल्कि उन्होंने इसे हस्तकला/ हाथ के कौशलों के रूप में उठाई थी।

चूँकि स्कूल में हाथों से काम करने के उनके पहले बिन्दु का अर्थ यह नहीं था कि, आपको स्कूल में हाथों से काम भी करना चाहिए, बल्कि हाथ से किया जाने वाला काम स्कूल का केन्द्रीय विषय होना चाहिए। इसे इतना महत्‍व पूर्ण होना चाहिए कि स्कूल की अन्य सभी तरह की पारम्परिक गतिविधियाँ, जिसमें विभिन्न प्रकार की शिक्षा और कौशल शामिल रहते हैं, सबको हाशिए पर जाना होगा, गौण होना पड़ेगा, और स्कूल की शिक्षा का मुख्य ध्यान हस्तकौशलों पर होगा - जरूरी नहीं कि किसी एक ही हस्तकौशल पर हो, लेकिन कम से कम किसी एक पारम्परिक हस्तकौशल पर हो। अच्छा होगा कि वह हस्तकौशल ऐसा हो जो स्कूल के परिवेश में उपलब्ध हो। वह हस्तकौशल स्कूल का केन्द्रीय उद्यम होना चाहिए, और उसके इर्दगिर्द ज्ञान के पाठ्यक्रम के विभिन्न क्षेत्रों को आपस में बुना जा सकता है, और इस बुनाई को ही हम बुनियादी शिक्षा के सन्दर्भ में समग्र शिक्षा का नाम दे सकते हैं। यह बुनावट बच्चे के व्यक्तित्व की किसी सार्वभौमिक मनोविज्ञान की अवधारणा नहीं है, न ही यह कोई राष्ट्रीय विचारधारा है, बल्कि यह बुनावट उस कौशल से निकलना चाहिए, जिसे स्कूल के केन्द्रीय उद्यम के रूप में चुना गया हो। बुनियादी शिक्षा के अन्तर्गत और भी जरूरी पहलू थे, लेकिन उन सबका यहाँ जिक्र करना जरूरी नहीं है।

पर जिस एक पहलू का खासतौर से जिक्र किया जा सकता है, वह उत्पादकता है - यदि आप इतिहास पर नजर दौड़ाएँ, तो पाएँगे कि शिक्षा के अन्य पहलुओं को तो महत्‍व दिया गया लेकिन इस केन्द्रीय मुद्दे पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया गया। आपने स्कूलों में काम के अनुभवके बारे में सुना होगा, या कुछ अन्य ऐसी बातों के बारे में सुना होगा जिन्हें सामाजिक रूप से उपयोगी उत्पादक कार्य” - जिसके हर शब्द को आप सन्देह के साथ देख सकते हैं - के अन्तर्गत रखा जाता है। ये सभी चीजें बुनियादी शिक्षा के विचार को इस्तेमाल किए जाने के बाद अस्तित्व में आईं, और उसकी स्मृति में इन्हें फिर पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, और वे अभी भी चल रही हैं। इसलिए उन सभी पहलुओं की चर्चा करना जरूरी नहीं है क्योंकि वे सभी बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव के आधार पर किसी न किसी रूप में बने ही हुए हैं।

 

इसी प्रकार से मातृभाषा के महत्‍व को भी इसमें स्वीकारा और शामिल किया गया था। जब आप स्थानीय परिवेश की बात करते हैं, तो मातृभाषा उसमें तर्कसंगत रूप से आ ही जाती है, और उसका अलग से जिक्र करना आवश्यक नहीं है। लेकिन, फिर भी गाँधीजी ने उसे महत्‍व दिया और फिर से उसका उल्लेख किया। मूल प्रस्ताव में, उसे निश्चित तौर पर महत्‍व दिया गया था, और वहाँ उसका सन्दर्भ यह था कि यदि शिक्षा को आसपास के परिवेश में बोया जाना है, तो हमारे सामने उसका स्वाभाविक साधन केवल मातृभाषा ही हो सकती थी।

ये तीन बिन्दु जो बुनियादी शिक्षा के मूल प्रस्ताव का हिस्सा थे जिन्हें मैंने आपके सामने सिर्फ दर्ज करने की खातिर प्रस्तुत किया है। बीते हुए वक्त पर बार-बार ऐतिहासिक किस्म की नजर डाले बगैर, हमें सरल विश्लेषण की भावना से इस प्रस्ताव की पड़ताल करना होगी, बल्कि पड़ताल करने के बजाय उसका मूल्यांकन करना होगा, कि यदि आज शिक्षा के मुख्य सन्दर्भों में बुनियादी शिक्षा को सजा, सँवारकर, चमकाकर प्रदर्शित किया जाए तो वह कैसी दिखाई देगी? यदि उसके वृक्ष को यहाँ दिगन्तर में रोपा जाए तो उसमें से कैसी पत्तियाँ निकलेंगी? किस प्रकार के फूलों का उसमें से खिलना सम्भव होगा? उसे सुरक्षित रखने के, पालने के, उस पर फूल खिलाने और उसे फलीभूत करने के उपाय क्या होंगे? ये सारी बहसें उसमें से निकल सकती हैं।

 

डाॅक्टर कृष्ण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर हैं। सन 2004 से 2010 तक उन्‍होंने एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक के रूप में कार्य किया। उनके नेतृत्व में ही राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा - 2005 तैयार की गई जो कि भारत में प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित सबसे महत्‍व पूर्ण दस्तावेजों में से एक है। वे स्वयं भी मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ स्थित एक नई तालीम के स्कूल के विद्यार्थी थे। उन्होंने गाँधीजी की सामाजिक रूपान्तरण की कल्पना के अंग के रूप में उनकी शिक्षा प्रणाली के बारे में कुछ अत्यन्त स्पष्ट और अन्तर्दृष्टीपूर्ण निबन्ध लिखे हैं।


यह लेख, मूलतः, मई 1998 में, ‘बुनियादी शिक्षा की प्रासंगिकताशीर्षक से शिक्षा विमर्शपत्रिका में प्रकाशित हुआ था। दिगन्तर,जयपुर में आयोजित हुई व्याख्यान माला में यह तीसरा व्याख्यान था। यह व्याख्यान 10 जनवरी, 1998 को दिया गया था। और हाल ही में यह अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन की अँग्रेजी पत्रिका लर्निंग कर्वके Productive Work As Pedagogy  Issue XXIV, March 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है। यह उसका हिन्‍दी अनुवाद है। इसे हम गाँधी जयंती पर दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। यह पहला भाग है। 


अनुवाद : भरत त्रिपाठी   

रेखांकन : आर. के.लक्ष्‍मण (गूगल इमेज)

http://teachersofindia.org/hi/article/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%A1%E0%A5%89-%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%8F%E0%A4%95


इस मंच पर इस आलेख के प्रस्तुत करता ..

पंकज 'वेला'

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