डाॅ. श्रीभगवान सिंह
भारतीय
स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास इस बात का साक्षी है कि 1920 से 1946 तक इसकी
निर्णायक लड़ाई महात्मा गाँधी के नेतृत्व में लड़ी गई और राष्ट्र ने उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में समादृत कर अपनी कृतज्ञता
प्रकट की। यह राष्ट्रपिता ‘दे दी हमें आजादी बिना खड़्ग, बिन ढाल’ के प्रतीक पुरूष के रूप में जरूर याद रखे गये, किन्तु वे जिन मूल्यों के सहारे
उपनिवेशवादी शिकंजों में जर्जर हो गये भारत का कायाकल्प करना चाहते थे, उसे आजाद भारत के शासक बन बैठे उनके
राजनीतिक उत्तराधिकारी निरंतर विस्मृत करते गये। वस्तुतः गाँधी जी का सपना देश की
राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति तक सीमित नहीं था, बल्कि वे आर्थिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक, नैतिक, ग्रामोत्थान आदि सभी क्षेत्रों में भारत कीदेशज परम्पराओं
का नवीनीकरण करते हुए नये भारत का निर्माण करना चाहते थे।लेकिन उनके इस सोच से
स्वाधीन भारत का शासक-वर्ग लगातार छत्तीस का रिश्ता बनाता गया। इस लघु लेख में यह
देखने का प्रयास करेंगे कि भारत में अॅग्रेजों द्वारा चलाई गई शिक्षा-पद्धति के
प्रति गाँधी जी ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए जिस वैकल्पिक शिक्षा-पद्धति के ‘माॅडल’ का सपना देखा था, वह आजाद भारत में किस हद तक मूर्त्त हो
सका है।
दरअसल, किसी भी देश एवं समाज के लोगों के सोच, चेतना के निर्माण में शिक्षा की नियामक
भूमिका होती है। अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर अपने देश-समाज की परम्पराओं, जीवन-बोध, जीवन-मूल्यों का अभिज्ञान कराते हुए
उसके अनुरूप राष्ट्रोत्थान एवं समाजोत्थान की दिशा में लोगों को जागरूक एवं सक्रिय
करने के अमोघ अस्त्र का दूसरा नाम ही शिक्षा है। लेकिन अंग्रेजों ने अपने
शासन-तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यहाँ पर ऐसी शिक्षा पद्धति का चलन किया
जो शिक्षित वर्ग को यहाँ के जन-जीवन से विमुख करने वाली एवं उनकी चाकरी करने के
लिए प्रेरित करने वाली हो। दुर्भाग्यवश राजा राम मोहन राय जैसे राष्ट्रप्रेमी
अॅग्रेजी शिक्षा के इस कृश्णपक्ष को देख नहीं सके और भारत के नवोत्थान के लिए इसे
वांछनीय समझ बैठे। उसके बाद के कतिपय भारतीय बुद्धिजीवी भी इस अॅग्रेजी शिक्षा की
हिमायत में खड़े होते गये। लेकिन इस अॅग्रेजी शिक्षा के जन विरोधी के चरित्र को
पहचानने का कार्य भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू होने लगा। मसलन, ‘बंग-दर्शन’ नाम की पत्रिका में 1878 में बंकिमचंद का
‘लोक शिक्षा’ नाम से जो लेख छपा था, उसमें उन्होंने अॅग्रेजी भाषा एवं
शिक्षण के नाम पर दी जाने वाली वैज्ञानिक एवं आधुनिक शिक्षा को अपर्याप्त बताते
हुए इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया था कि ‘‘हमारा विश्वास है कि व्याकरण और रेखागणित का ज्ञान मानसिक
उन्नत्ति के लिए जरूरी होते हुए भी व्यावहारिक जीवन के मसलों से जूझने में
सम्पूर्ण रूप से सहायक नहीं है। हमें लगता है कि इन तथ्यों और मसलों से राममोहन
राय से लेकर श्री मान् फटिकचंद तक पाश्चात्य रंग में रंगे हुए सभी प्रतिश्ठ लोग
अवगत नहीं हैं या इसकी उपेक्षा करते आये हैं। …… अॅग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और
अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभति, कोई संवाद नहीं है। शिक्षित समुदाय अशिक्षित समुदाय के दिल
की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है। यही नहीं शिक्षित अशिक्षित की तरफ नजर उठाकर
भी नहीं देखते। कृषक राम की अगर खेत जोतते-जोतते थककर मौत भी हो जाती है, तो हमें क्या? कृषक राम कैसे जीवन-यापन करता है, उसकी रूचि क्या है, अंग्रेजीयत के रंग में रंगे बंगाली
युवकों को इन सवालों से कोई मतलब नहीं। कृषकराम भाड़ में जाए, हमें इससे क्या मतलब ?’’
अॅग्रेजी शिक्षा किस तरह यहाँ के शिक्षित और
अशिक्षित के बीच खाई, विषमता पैदा कर रही थी, इसकी गहरी पीड़ा बंकिम बाबू के उपरोक्त कथन
में दिखाई पड़तीहै। अंग्रेजी शिक्षा के इस जनविरोधी चरित्र को लेकर ऐसी ही गहरी
पीड़ा लेकर महात्मा गाँधी हमारे सामने प्रकट हुए ‘हिन्द स्वराज’ जैसी पुस्तक के लेखक रूप में। 1909 में छपी इस
पुस्तक में गाँधी जी ने जहाँ यूरोप की मशीनी सभ्यता की कठोर आलोचना की, वहीं उन्होंने भारत में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति का तीव्र प्रतिवाद किया। अॅग्रेजी शिक्षा पद्धति से क्षुब्ध, असंतुष्ट गाँधी ने दो टूक शब्दों में
यह कहने का साहस किया, ‘‘करोड़ों लोगों को अॅग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में
डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। उसने इसी इरादे
से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता। किन्तु उसके कार्य का परिणाम
यही हुआ है। हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है। …. अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने
जनता को गुलाम बनाया है। अॅग्रेजी शिक्षण से दम्भ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने
जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो
हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’
ध्यातव्य है कि अॅग्रेजी शिक्षा को बंकिमचंद
ने जनता से,
कृषक वर्ग
से विच्छिन्न करने वाले मारक हथियार के रूप में देखा, तो इस धारणा को आगे बढ़ाते हुए गाँधी ने
उसे भारत को गुलाम बनाये रखने वाली घातक वस्तु के रूप में देखा। इसलिए उनकी दृष्टि
में इस गुलाम बनाने वाली शिक्षण पद्धति से मुक्त होना अति आवश्यक मसला प्रतीत होने
लगा और इस दिशा में वे चिंतन एवं कार्य के स्तर पर लगातार प्रयास करते रहे। भारत
की स्वदेशी परम्पराओं, सांस्कृतिक मूल्यों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप वे जिस
शिक्षण-पद्धति की निरंतर हिमायत करते रहे, उसकी कुछ खास बातों पर दृष्टिपात करना यहाँ प्रासंगिक
प्रतीत होता है।
गाँधीजी ने अपनी शिक्षा योजना में सबसे पहले
माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण मानते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों
में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं में यानी वहाँ की मातृभषाओं में किया जाना चाहिए।
अॅग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा के बरक्स मातृभाषा के माध्यम से
दी जाने वाली शिक्षा ही उन्हें अत्यधिक सहज-स्वाभाविक लगी। प्रमाण स्वरूप ‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रिका के 19-8-1910 के अंक में
गाँधी जी के छपे लेख ‘शिक्षा का माध्यम क्या हो’ का यह कथन प्रस्तुत है – ‘‘हम लोगों में
बच्चों को अॅग्रेज बनाने की प्रवृति पाई जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और
साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल
है कि समझदार से समझदार अॅग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता, अर्थात परम्परागत प्राप्त शिक्षा और
संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। इसलिए जो अपनी मातृभाषा के
प्रति चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धान्त
को भूल जाने का खतरा मोल ले रहे हैं।’’
मातृभाषा के महत्व को लेकर गाँधी जी ने
उपरोक्त विचार दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए व्यक्त किये थे और 1915 में भारत आने के
बाद भी वे अपने इस विचार से देशवासियों को मातृभाषा के महत्व के प्रति जागृत करते
रहे। मसलन फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भी
उन्होंने देश के उपस्थित गणमान्य लोगों के बीच बगैर किसी संकोच के यह बात कही – ‘‘इस महान विद्यापीठ
के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अॅग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात
है। ….. मुझे आशा है कि
इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का
प्रबंध किया जाएगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिम्ब है और इसलिए यदि आप मुझ से यह
कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा
संसार से उठ जाना ही अच्छा है। …… यदि पिछले पचास वर्षों में हमें देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा
दी गई होती,
तो आज हम
किस स्थिति में होते! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही
भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’
देश के विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण करने के
दौरान भी गाँधी जी हर अवसर पर शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को उजागर करने का
अभियान चलाते रहे। 15 अक्टूबर 1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में
भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा – ‘‘मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है।
जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते
सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊँचे विचार
प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना
हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अॅग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी।
अॅग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अॅग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की।
यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अॅग्रेजी के
जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के
लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की
शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल
सकेगा।’’ यही नहीं, एक अवसर पर गाँधी जी ने विदेशी भाषा
द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा – ‘‘माँ के दूध के
साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा
देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य
हानियाँ भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम
जनसाधरण को नहीं पहचानते। जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और
हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप
सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
स्पश्टतः गाँधी जी मातृभाषा के माध्यम से
शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर रहे ताकि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जनसाधारण का
प्रतिनिधि हो सके। वैसे वे वैकल्पिक विषयों के रूप में उच्च शिक्षा के स्तर पर
विदेशी भाषाओं को जानने-पढ़ने के विरूद्ध नहीं रहें, लेकिन प्रारम्भिक अवस्था में बच्चों को
मातृभाषा द्वारा शिक्षा दी जाए, इसके पक्ष में वे मजबूती से खड़े रहे। प्रसंगवश यह तथ्य भी
ध्यान में रखने लायक है कि गाँधी जी विभिन्न प्रांतों में वहाँ कि सम्बद्ध भाषाओं
के माध्यम से शिक्षा देने के पक्षधर जरूर थे, किन्तु इसके साथ ही वे सभी प्रांतों में राष्ट्रभाषा के रूप
में यानि राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी की शिक्षा देना भी आवश्यक
मानते रहे और राष्ट्रभाषा के रूप में वे हिन्दी के प्रचार कार्य में जीवनपर्यन्त
लगे रहे। इसके अतिरिक्त उन्होंने शिक्षा में अक्षर ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हुए
भी उससे अधिक महत्व दिया शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा को। इस संबंध में उनके कुछ
महत्वपूर्ण मंतव्य ध्यान में रखने लायक है। 1-9-1921 के ‘यंग इंडिया’ में तालीम की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा – “अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो-जहाँ अस्सी फीसदी
आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देने तथा
लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है। मेरी
तो राय है कि चूँकि हमारा अधिकांश समय रोजी कमाने में लगता है, इसलिए हमारे बच्चों को बचपन से ही इस
प्रकार के परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए। हमारे बालकों की पढ़ाई ऐसी नहीं होनी
चाहिए जिससे वे मेहनत का तिरस्कार करने लगे। कोई कारण नहीं कि क्यों एक किसान का बेटा
किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में आजकल की तरह निकम्मा बन जाय।
यह अफसोस की बात है कि हमारी पठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि
से चाहे न देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।’’
अक्षर-ज्ञान की तुलना में हाथ की शिक्षा को
प्राथमिकता देते हुए उन्होंने कहा – ‘‘मेरी राय में तो इस देश में, जहाँ लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही
सच्ची प्राथमिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा है। …. अक्षर-ज्ञान हाथ की शिक्षा के बाद आना चाहिए। हाथ से काम
करने की क्षमता –
हस्त-कौशल
ही तो वह चीज है,
जो मनुष्य
को पशु से अलग करती है। लिखना-पढ़ना जाने बिना मनुष्य का सम्पूर्ण विकास नहीं हो
सकता, ऐसा मानना एक
वहम ही है। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर-ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना
मनुष्य का नैतिक,
शारीरिक
और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता (हरिजन-सेवक 15-03-1935)।
स्पश्टतः गाँधी जी शिक्षा का उद्देश्य केवल
बुद्धि या मस्तिष्क के विकास तक सीमित नही मानते थे, बल्कि उसे एक सम्पूर्ण साधना-पद्धति के रूप
में चलाना चाहते थे, जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक विकास के साथ-साथ उसके आध्यात्मिक उत्कर्ष में भी
सहायक हो। उनकी दृष्टि में शरीर के साथ-साथ आत्मा का विकास भी शिक्षण का अविभाज्य
अंग होना चाहिए। इसलिए अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर उन्होंने शिक्षा के लिए यह आवश्यक
माना – ‘‘शिक्षा से मेरा
अभिप्राय यह है कि बालक की या प्रौढ़ की शरीर, मन तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाए और
बाहर प्रकाश में लाया जाय। अक्षर-ज्ञान न तो शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य है और न उसका
आरम्भ। वह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से केवल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान
अपने आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मैं बच्चे की शिक्षा का श्री गणेश उसे कोई
उपयोगी दस्तकारी कर सिखा कर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरम्भ करे उसी क्षण
से उसे उत्पादन के योग्य बना कर करूँगा। मेरा मत है कि इस प्रकार की
शिक्षा-प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है।’’ (हरिजन, 31-07-1937) इसी क्रम में
उन्होंने बुनियादी शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए इस बात पर बल दिया – ‘‘बुनियादी शिक्षा
का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। मैं
मानता हूँ कि कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलायी जाय, आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध
होगी।’’
उपरोक्त मंतव्यों के आलोक में साफ है कि
गाँधी जी बच्चों के लिए दी जाने वाली प्रारम्भिक शिक्षा में मातृभाषा का ज्ञान, दस्तकारी, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के शिक्षण
को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने उच्च
शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। वस्तुतः इस प्रकार की प्रारम्भिक शिक्षा की बुनियादी
पर ही वे उच्च शिक्षा का भव्य भवन खड़ा करना चाहते थे, जो देश की आवश्यकताओं के अनुकुल हो। इस
संबंध में उनका यह मंतव्य देखने लायक है – ‘‘मैं काॅलेज की शिक्षा में कायापलट करके उसे राष्ट्रीय
आवश्यकताओं के अनुकुल बनाऊँगा। यंत्र-विद्या के तथा अन्य इंजीनियरों के लिए
डिग्रियाँ होंगी। वे भिन्न-भिन्न उद्योगों के साथ जोड़ दिये जायेंगे और उन उद्योगों
को जिन स्नातकों की जरूरत होंगी उनके प्रशिक्षण का खर्च वे उद्योग ही देंगे। ….. वाणिज्य-व्यवसाय
वालों का अपना काॅलेज होगा।’’ (हरिजन, 31-07-1937)
प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि गाँधी
परिकल्पित इस शिक्षण में लड़के-लड़कियाँ समान रूप से शामिल हैं। 16 वर्ष की उम्र तक उन्होंने दोनों की
सहशिक्षा का समर्थन किया। कुछेक विषयों में लड़कियों को अलग से शिक्षा देना जरूर
आवश्यक बताया। यहाँ यह भी स्मरण में रखने योग्य है कि गाँधी जी ने शिक्षा को लेकर
जो विचार किये,
उन पर
उन्होंने अमल भी किया। दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम, टाॅल्सटाॅय आश्रम हों या अहमदाबाद का
साबरमती आश्रम,
उन सब में
उन्होंने बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था अपने उपरोक्त विचरों के अनुरूप ही की थी। 1920 में असहयोग
आंदोलन चलाने के बाद उन्होंने जिन विद्यापीठों की स्थापना कराई, उनमें शिक्षा का उन्होंने अपना सोचा
हुआ ही माॅडल चलाया। आज भी अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में जिसकी स्थापना 1920 में उन्होंने की
थी, सभी
छात्र-छात्राएँ एवं शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मी सामूहिक रूप से प्रार्थना करने के बाद
एक घंटा तक पेटी चरखा से सूत कातने का काम करते हैं।
वैसे प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर
ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा तक के संबंध में गाँधी जी के जितने विचार एवं कार्य
हैं उन सबको इक्ट्ठा किया जाए तो एक भारी भरकम ग्रंथ तैयार हो जाए।अतएव इस छोटे से
लेख में उन सबका समावेश गागर में सागर भरने जैसा असंभाव्य कार्य होगा। फिर भी इतना
जरूर है कि शिक्षा के संबंध में उनके समस्त विचारों में एक सूत्रता, एकरूपता विद्यमान है। यहाँ पर
अतिसंक्षेप में जिन विचारों को रखा गया है, उनसे इतना तो पता चल ही जाता है कि वे भारत को राजनीतिक रूप
से स्वतंत्र कराने के साथ-साथ उसे अपनी भाषा, संस्कृति, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से विछिन्न करने वाली आर्थिक
रूप से पराश्रयी बना कर गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक शिक्षण-प्रणाली के जुए से भी
मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने भारत के संदर्भ में जिस तरह की शिक्षण पद्धति पर
बल दिया वह सदियों से यहाँ पर प्रचलित रही शिक्षण पद्धति, जिसमें शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा थी, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास
एवं चरित्र निर्माण का महत्व था, की संगति में थी। जिस तरह उन्होंने स्वराज्य का आदर्श ‘राम राज्य’ के रूप में परिभाषित किया, उसी तरह भारतीय शिक्षा-परम्परा को ‘रमणीय वृक्ष’ मानते हुए वे उसे ही अपने ‘रामराज्य’ के लिए उपयुक्त मानते रहे। स्मरणीय है, 1931 में जब वे दूसरे
गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गये, तो वहाँ पर उन्होंने एक सभा में बोलते हुए बहुत क्षोभ के
साथ कहा था कि भारत में शिक्षा का जो ‘रमणीय वृक्ष’ था, उसकी जड़ों से अॅग्रेजों ने मिट्टी हटा दी और उसे खुला छोड़
दिया जिससे वह ‘रमणीय वृक्ष सूख
गया। इस ‘रमणीय वृक्ष’ के सत्य के संबंध में जिन पश्चिमी
अनुरागियों को संदेह हो, उन्हें प्रसिद्ध गाँधीवादी चिंतक धर्मपाल जी की पुस्तक ‘द ब्यूटीफूल ट्री’ (इसका हिन्दी अनुवाद ‘रमणीय वृक्ष’ नाम से छपा हुआ है) पढ़ लेनी चाहिए
जिसमें उन्होंने प्राचीन काल से लेकर अॅग्रेजों के आगमन के पूर्व तक की भारतीय
शिक्षण-पद्धति का विस्तृत रूप से तथ्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
गाँधी जी के उपरोक्त विचारों के परिप्रेक्ष्य
में जब हम स्वतंत्र भारत में चल रही शिक्षा-प्रणाली पर दृष्टिपात करते हैं, तो साफ-साफ मालूम होता है कि भले ही
गाँधी जी को हमने ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा दे दिया हो भारतीय नोटों पर उनकी तस्वीर छाप दी हो, 2 अक्टूबर को
राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर दिया हो, लेकिन भारत को भारत जैसा बनाये रखने की उनकी जो
शिक्षा-योजना थी,
उससे हम
निरंतर कोसों दूर होते गये हैं। हमारे देश में चल रही शिक्षा प्रणाली में न
मातृभाषा का महत्व है, न राष्ट्रभाषा हिन्दी का, न शारीरिक श्रम, न दस्तकारी का, न शील एवं चरित्र-निर्माण का। कितनी
बड़ी विडम्बना है कि आजाद हिन्दुस्तान में अॅग्रेजी माध्यम से चलने वाले स्कूलों की
तादाद कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती जा रही है जहाँ मातृभाषाओं या राष्ट्रभाषा हिन्दी
में बात करने को जूर्म मानते हुए विद्यार्थियों को लांछित एवं दण्डित किया जाता
है। आये दिन अॅग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व उसे प्रौद्योगिक एवं प्रबंधकीय ज्ञान के नाम
पर शिक्षा को नैतिक-अनैतिक ढंग से पैसा कमाने का कौशल बनाता जा रहा है। यही नहीं, भारत के राजनेताओं, नौकरशाहों एवं बुद्धिजीवियों की टकटकी
विदेशों की तरफ लगी रहती है। जो यूरोप जाते हैं, वे भारत को यूरोप जैसा, जो अमेरिका जाते हैं वे अमेरिका जैसा, जो चीन या जापान जाते हैं, वे चीन या जापान जैसा बनाने को मचलने
लगते हैं। दूसरे शब्दों में विकास के नाम पर हमारे तमाम विकास-पुरूष भारत को यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान का ‘काॅकटेल’ बना देना चाहते हैं – भारत की पहचन भारत के रूप में रहे, यह चाहत उनके सोच से पूरी तरह गायब है।
वस्तुतः गाँधी भारत के लिए ऐसी उद्योग नीति के साथ ऐसी शिक्षा-नीति चाहते थे जिससे
भारत की पहचान भारत के रूप में बनी रही। उन्होंने दुनिया की तमाम सभ्यताओं के साथ
आवाजाही का महत्व स्वीकार करते हुए भी ‘अपनी जमीन पर पैर टिकाये’ रहने की टेक कभी नहीं छोड़ी। अगर हम भारत
प्रेमी भारत की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक पहचान को कायम रखना चाहते हैं, तो गाँधी की अन्य बातों के अतिरिक्त
शिक्षा संबंधी विचारों पर भी अमल करने की पहल करनी होगी।
आलेख को इस मंच पर प्रस्तुत करने वाले..
पंकज 'वेला'
29मार्च 2021
आलेख के लेखक
श्रीभगवान सिंह
102, अम्बुज
टाॅवर
तिलकामाँझी
भागलपुर – 8
http://sssprakashan.com/vaichariki/?p=47
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