Tuesday, 20 November 2018

कॉपीराइट एक्ट की विशेषताएँ


किसी भी सृजनात्मक कार्य का कर्ता यानि कलाकार का सृजन का मुख्य उदेश्य मूलतः तीन ही होते हैं : स्वांतः सुखाय अर्थात आनंद, यशोपार्जन या फिर अर्थोपार्जन। कलाकार को आनंद तो सृजन के क्षणों मे मिल जाता है लेकिन अगर बाद में उसकी कृति चोरी हो जाए या अन्य व्यक्ति दावा करने लगे तो उसका यश लाभ और अर्थोपार्जन बाधित हो जाता है। कोई भी कृति कलाकार के मानस की उपज होती है। उसे भौतिक रूपकार प्रदान करने में लंबे समय तक शारीरिक और मानसिक श्रम की आवश्यकता होती है। इस प्रकार कृति कलाकार द्वारा अर्जित सम्पदा होती है। वास्तव में कृति का मूलाधार कलाकार की बौद्धतिकता होती है इसलिए उसे बौद्धिक संपदा कहा जाता है। बौद्धिक सम्पदा पर अधिकार और संगत लाभ से अगर रचनाकार वंचित हो जाए तो उसके के मौलिक अधिकारों का हनन होता है और यह स्थिति मानहानिकारक भी होती है। अगर कोई किसी के अधिकारों का हनन करे या फिर मानहानि करे तो यह कृत्य अपराध होता है।
पुराने समय में बौद्धिक सम्पदा से जुड़े अपराध जटिल नहीं होते थे। प्रिंटिग प्रेस के आविष्कार नें पुस्तकों की हजारों लाखों प्रतियाँ छपना संभव बना दिया। इसलिए एक ऐसे कानून की आवश्यकता महसूस की गई जो प्रतिलिपि का अधिकार सुनिश्चित करता हो। फलतः कॉपीराइट एक्ट बना।
कॉपीराइट एक्ट या प्रतिलिपि अधिकार अधिनियम, 1847 भारत का इस विषय पर पहला कानून था जो 1911 तक बना रहा। इसके बाद इंगलिश कॉपीराइट एक्ट 1911 भारत में 31 अक्तूबर, 1912 से लागू किया गया। 1914 में भारतीय विधानमंडल ने इंग्लिश कॉपीराइट एक्ट, 1911 के प्रावधानों को सम्मिलित करके भारतीय कॉपीराइट अधिनियम, 1914 लागू किया। जब इंग्लिश एक्ट, 1911 को इंग्लिश कॉपीराइट एक्ट, 1956 द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया तो भारतीय अधिनियम को बदलना आवश्यक हो गया। इसलिए आज का कॉपीराइट एक्ट, 1957 में बना जो पूरी तरह से भारतीय है।
कॉपीराइट एक्ट, 1957 में अब तक पाँच बार (1983,1984,1992,1994और 1999 ) संशोधन किया गया है। वर्तमान कॉपीराइट एक्ट, 1999 में संशोधित होकर 15 जनवरी 2000 से लागू है।
वर्तमान कॉपीराइट एक्ट एक व्यापक कानून है। इस अधिनियम के अनुसारशब्‍द 'कॉपीराइटका अर्थ है कोई कार्य को करने या उसका पर्याप्‍त भाग करने या प्राधिकृत करने का एकमात्र अधिकार। इसके अंतर्गत,
  • ·        साहित्यिक रचना
  • ·        नाट्य रचना
  • ·        संगीत रचना
  • ·        कलात्मक रचना
  • ·        चलचित्र रचना
  • ·        ध्वनि रिकार्डिंग
  • ·        कम्प्युटर से जुड़ी रचनाएँ जैसे सारणी, डाटाबेस आदि

के स्त्वाधिकार, संबन्धित अपराध और दंड के लिए नियम निर्धारित किए गए हैं। मोटे तौर पर यह इस अधिनियम की विशेषता मानी जा सकती है। लेकिन इस अधिनियम की विशेषताओं को थोड़े गहराई से समझने के लिए इसके प्रावधानों की जानकारी आवश्यक है।
कॉपीराइट एक्ट के प्रावधानों के अध्ययन के बाद जो विशेषताएँ परिलक्षित होती है वे निम्नलिखित हैं :
·        प्रतिलिपि अधिकार रजिस्ट्रार के अधीन एक प्रतिलिपि अधिकार कार्यालय खोला जाएगा जो केंद्र सरकार के निरीक्षण में उसके निर्देशानुसार कार्य करेगा। इस कार्यालय का मुख्य कार्य एक प्रतिलिपि अधिकार रजिस्टर को बनाए रखना होगा जिसमें लेखकों की इच्छा पर उनके नाम, पते, उनके प्रतिलिपि अधिकार तथा अन्य जानकारियाँ लिखी होंगी। यह रजिस्टर आम जनता की जानकारी की लिए उपलब्ध रहेगा। प्रतिलिपि अधिकार के रजिस्ट्रेशन को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक बनाया गया है।
·        यदि किसी को प्रतिलिपि अधिकार के उलंघन का मुकदमा या कोई कानूनी प्रक्रिया करनी हो तो यह तब तक नहीं होगा जबतक उसकी कृति प्रतिलिपि अधिकार कार्यालय में रजिस्टर्ड नहीं होगी।  
·        प्रतिलिपि रजिस्ट्रार का यह कर्तव्य होगा कि वह आवश्यक लाइसेन्स के आवेदनों को सुने एवं उसका निबटारा करे तथा ऐसी शिकायतों कि जांच-पड़ताल करे जो प्रतिलिपि अधिकार के उलंघन  से संबन्धित हो। इस अधिनियम में प्रतिलिपि अधिकार रजिस्ट्रार के विरूद्ध प्रतिलिपि अधिकार बोर्ड में अपील का भी प्रावधान है।
·        यह अधिनियम प्रतिलिपि अधिकार बोर्ड को यह अधिकार देता है कि वह किसी प्रदर्शन करनेवाले कलाकार या सोसाइटी की फीस की दर, खर्चे या रायल्टी तय करेगा, किसी कीर्ति को आम लोगों में प्रदर्शित करने के लाइसेंसों के आवेदन पर गौर करेगा और कुछ खास परिस्थितियों में मुआवजे तय करेगा। प्रतिलिपि अधिकार बोर्ड के आदेश के खिलाफ अपील उच्चन्यायालय में की जा सकेगी।
·        प्रतिलिपि अधिकार शब्द की व्याख्या का विस्तार करते हुए इस अधिनियम में रेडियो डिफ़्यूजन द्वारा संचार करने का एकाधिकार भी शामिल किया गया है।
·        एक सिनेमैटोग्राफ फिल्म का उसकी कहानी, संगीत आदि के प्रतिलिपि अधिकार से स्वतंत्र अपना अलग प्रतिलिपि अधिकार होगा।
·        यदि कोई लेखक अपनी रचना का प्रतिलिपि अधिकार किसी को दे देता है तो इस अधिनियम के तहत उसे पुनः वापस पा सकता है बशर्ते प्रतिलिपि अधिकार कि तारीख से सात वर्ष बीत चुके हों लेकिन यह दस वर्ष से पहले हो और उसे करारनामे के समय ली गई राशि को सूद सहित वापस करना होगा।
·        सामान्य स्थिति में प्रतिलिपि अधिकार कि स्थिति लेखक के जीवनपर्यंत और मरने के बाद पचास वर्ष बाद तक है जबकि अंजान और दूसरे नाम से प्रकाशित लेखकों के लिए यह अवधि कम है।
·        वर्तमान अधिनियम में, भारत छपी कृति अगर दस वर्ष से पहले अनूदित हो गई हो तो उसके अनुवाद का अधिकार दस वर्ष बाद खत्म हो जाता है।
·        किसी भी एलेक्ट्रोनिकल या मेकेनिकल माध्यम से किसी कृति के जनमंचन के लिए आम या खास लाइसेन्स का प्रावधान है।
·        पुस्तकालयों को यह अधिकार दिया गया है कि अगर प्रतिलिपि अधिकार प्राप्त पुस्तक की अन्य प्रति उपलब्ध नहीं हो तो वह उसकी एक कॉपी करावा सकता है।
·        जनमंचन करनेवाली संस्थाओं की गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए, उनके द्वारा फीस , खर्चे एवं रायल्टी लेने पर प्रावधान बनाए गए हैं।
·        प्रतिलिपि अधिकार से मिलते-जुलते कुछ अधिकार ब्रॉडकास्टिंग अधिकारियों को भी दिया गया है।
·        किसी कृति का रेडियो या न्यायिक प्रक्रिया द्वारा उचित प्रयोग प्रतिलिपि अधिकार का उलंघन नहीं है।
·        अंतरराष्ट्रीय कॉपीराइट संबंध जो अंतरराष्ट्रीय संधियों पर आधारित है उनको केंद्र सरकार द्वारा इन विषयों पर प्रदत आदेशों के अनुसार नियंत्रित किया जाएगा।



संदर्भ :
1.  कक्षा व्याख्यान – सतीश उपाध्याय।
2.  कॉपीराइट – कमलेश जैन।
3.  इंटरनेट (ब्लॉग, कानूनी पहल)।

अंतर अनुशासनिक अध्ययन का तात्पर्य और अवधारणा


अंतर अनुशासनिक अध्ययन का तात्पर्य वैसे अध्ययन से है जिसमें विद्या के एक से अधिक शाखाओं का पारस्परिक प्रभाव और सम्बद्ध विद्या शाखा के नियमों एवं सिद्धान्त के आधार पर इस प्रभाव की पहचान की जाती है।  इसे समझने के लिए साहित्य और प्रदर्शनकारी कला ज्यादा उपयुक्त होते हैं जिसमें सभी विषयों और कलाओं का समाहार हो जाता है। इसलिए स्वाभाविक है की इन विषयों का अध्ययन इनके मूल सिद्धांतों के अतिरिक्त अन्य विषयों के कोणों से करना अपेक्षित हो जाता है।
अंतर अनुशासनिक अध्ययन अंग्रेजी भाषा के इंटरडिसिप्लिनरी स्टडि का हिन्दी पर्याय है। विद्वानों ने डिसिप्लिन शब्द का सटीक हिन्दी पर्याय विद्या शब्द होने के चलते इंटरडिसिप्लिनरी स्टडि का हिन्दी पर्याय अंतरविद्यावर्ती अध्ययन माना है। डॉ॰ फादर कामिल बुल्के ने  भी अपने अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश में डिसिप्लिन के लिए विद्या शब्द ही दिया है।[1] लेकिन अंतर अनुशासनिक अध्ययन हीइंटरडिसिप्लिनरी स्टडि का हिन्दी पर्याय रूप में चल पड़ा।
अंतर अनुशासनिक अध्ययन के संदर्भ में क्लीन और नेवेल नामक विद्वान का कहना है, “अंतर अनुशासनिक अध्ययन प्रश्नो के उत्तर देने की प्रक्रिया है, समस्या समाधान की एक प्रणाली या बहुत विस्तृत या जटिल विषय को संबोधित करने की शैली है जो एक अनुशासन के द्वारा पूर्ण रूप में संबोधित नहीं हो पाते तथा साथ ही यह अनुशासनों से प्राप्त परिप्रेक्ष्यों और अंतर्दृष्टियों को समन्वित कर व्यापक परिप्रेक्ष्य की रचना करता है ”
विलियम नेवेल का कहना है, अंतर अनुशासनिक अध्ययन दो भागों की वैसी प्रक्रिया है जिसमें पहला, बहुत क्षीण रूप में दूसरे अनुशासनों से अंतर्दृष्टि प्राप्त किया जाता है और दूसरा किसी जटिल प्रघटना की वृहद समझ के लिए उपस्थित अनुशासनों की अंतर्दृष्टियों का समन्वय किया जाता है”।   
वेरोनिका बोइक्स मेनसीला जर्नल में कहा गया है, “अंतर अनुशासनिक अध्ययन ज्ञान को समन्वित करने और सोचने की वैसी पद्धति है जिन्हें दो या दो से अधिक अनुशासनों से प्राप्त किए गए हों, जिनका उद्येश्य होता है संज्ञानात्मक प्रगति को प्राप्त करना। उदाहरण के लिए किसी घटना का वर्णन, समस्या का समाधान, किसी वस्तु का निर्माण या नए प्रश्नो को उठाना जिसे किसी एक विषय के माध्यम से नहीं प्राप्त किया जा सकता है ”।
द नेशनल एकैडमी ऑफ साइन्स, इंजीन्यरिंग एण्ड मेडिसीन से प्रकाशित रिसर्च जर्नल में कहा गया है, “ अंतर अनुशासनिक शोध, किसी शोध दल या व्यक्तिगत स्तर पर किए जानेवाले शोध की वह पद्धति है जिसमें दो या दो से अधिक अनुशासनों या किसी विशेष ज्ञान के भागों या अंशों के आधारभूत समझ को विकसित करने के लिए या समस्याओं के समाधान के लिए जिनका समाधान किसी एक अनुशासन के शोध अभ्यास से परे है, से संबन्धित सूचनाओं, आकड़ों,तकनीकों, उपकरणों, परिप्रेक्ष्यों, अवधारणाओं को समन्वित किया जाता है ”।
टी॰ क्लेविन लिबरल आर्ट इन्स्टीट्यूशन द्वारा प्रकाशित जर्नल के अनुसार, अंतर अनुशासनिक अध्ययन पाठ्यक्रम को तैयार करने और प्रशिक्षण की एक ऐसी विधि है जिसके तहत फैकल्टी व्यक्तिगत या दल के रूप में विद्यार्थियों की क्षमता को विकसित करने, मुद्दों की समझ व्यापक करने, समस्याओं के समाधान हेतु नए उपागमों के निर्माण तथा समस्या समाधान की दिशा में जो एक अनुशासन या प्रशिक्षण क्षेत्र से बाहर हो, के लिए दो या अधिक अनुशासनों की सूचनाओं,आंकड़ों, तकनीकों, उपकरणों, सिद्धांतों की पहचान व मूल्यांकन करती है। 
उपरोक्त परिभाषाओं को समन्वित करके अंतर अनुशासनिक अध्ययन की एक समग्र परिभाषा बन सकती है, “अंतर अनुशासनिक अध्ययन वैसे प्रश्नों के उत्तर देने की प्रक्रिया, जटिल विषयों को समझने की पद्धति, समस्या समाधान की पद्धति है जिसका समाधान एक से अधिक अनुशासन की समझ से संभव होता है तथा एक से अधिक अनुशासनों पर निर्भर रहकर भी उनके अंतर्दृष्टियों का समन्वय इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जाए कि वृहत समझ की प्ररचना हो सके ”।
सामान्य ढंग से अनुशासन और अंतर अनुशासन अध्ययन में विभेद करने पर हम पाते हैं कि एक अनुशासन में किसी निश्चित विषय के ज्ञान का भाग प्राप्त होता है जबकि अंतर अनुशासनिक अध्ययन में विभिन्न विषयों के समन्वय से ज्ञान की निर्मिति होती है।
किसी खास अनुशसन के अध्ययन में ज्ञान प्राप्त करने की निश्चित विधि होती है जो उस अनुशासन के क्षेत्र में ही ज्ञान अवधारणाएँ और सिद्धान्त सृजन की ओर अग्रसर होती है जबकि अंतर अनुशासनिक अध्ययन में ज्ञान प्राप्त करने की कई अनुशासनिक विधियाँ होती है जिससे नए बोधात्मक, संज्ञानात्मक प्रगति और विस्तृत समझ का विकास होता है।
किसी एक अनुशासन में मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम द्वारा उस अनुशासन के विद्वानो का समुदाय ज्ञान के क्षेत्र को नियंत्रित करने की इच्छा रखते हैं जबकि अंतर अनुशासनिक अध्ययन में ज्ञान के नए आयामों के विकास के चलते पाठ्यक्रम में परिवर्तन की संभावना बनी रहती है और खास विद्वत समुदाय का वर्चस्व भी नही होता है।
किसी एक अनुशासन के अध्ययन की अपेक्षा अंतर अनुशासनिक अध्ययन द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के निवारण की संभावना बहुत अधिक होती है।      
अंतर अनुशासनिक अध्ययन आधुनिक युग की आवश्यकता है इसका कारण यह है कि ज्ञान अखंड भले ही हो, लेकिन उसकी प्राप्ति और प्रतीति के मार्ग अलग-अलग होते हैं। ये मार्ग ही विभिन्न विद्याओं के रूप में जाने जाते हैं। प्राचीन काल में ज्ञान को ब्रह्म के समान समग्र एवं अखंड माना जाता था और उसका स्वरूप संश्लिष्ट था। वेद इसका प्रमाण हैं। ज्ञान का विभाजन दर्शन, विज्ञान आदि संकायों में नहीं किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं का ज्ञान एक साथ ही मिलता है। गैलीलियो से पहले दर्शन और विज्ञान को एक ही समझा जाता था। तब दर्शन को मीमांसा दर्शन और विज्ञान को व्यावहारिक दर्शनों के नाम से जाना जाता था। प्लेटो के रिपब्लिक में भी ज्ञान अखंड रूप में ही विद्यमान है। इसके पश्चात विभाजन का युग आया और ज्ञान का रूप विश्लिष्ट यानि अलग-अलग होने लगा। बाद के दिनों में ज्ञान की अनेकों शाखाएँ विकसित हो गई। लेकिन ज्ञान की ये शाखाएँ स्वतंत्र होते हुए भी दूसरे से पूर्णतः निरपेक्ष नही हैं क्योकि विद्या की प्रत्येक शाखा जीवन को समझने का ही मार्ग प्रदान करती हैं इसलिए उनका प्रभाव एक दूसरे पर पड़ता ही है। उत्तर आधुनिक युग में विद्वानों ने महसूस किया की ज्ञान का शुद्ध स्वरूप तभी स्थिर हो सकता है जब उसकी एक से अधिक शाखाओं के बीच के अंतर सम्बन्धों का अध्ययन किया जाये। इसलिए वर्तमान समय में अंतर आधुनिक अध्ययन का जो स्वरूप विकसित हुआ है वह तीन-चार दशक ही पुराना है लेकिन इसकी लोकप्रियता और उपयोगिता इसके नए-नए आयाम विकसित कराते जा रहे हैं। शुद्ध विज्ञान का आधार पूर्णतः बौद्धिक होता है इसलिए उसमें कम लेकिन मानविकी विषयों में अंतर अनुशासनिक अध्ययन की अधिक आवश्यकता होती है। अनुपर्युक्त विज्ञान की शाखाओं में भी अंतर अनुशासनिक अध्ययन की अधिक उपयोगिता होती है।
अंतर आधुनिक अध्ययन के लाभ की स्पष्टता के लिए हम विज्ञान के क्षेत्र से एक उदाहरण चुनते हैं – रेडियो कार्बन का आविष्कार और पुरातत्व अध्ययन ज्ञान की बिलकुल अलग-अलग शाखाओं से संबन्धित हैं लेकिन अंतर अनुशासनिक अध्ययन के आधार पर ही केमिस्ट विलार्ड लिब्बी ने रेडियो कार्बन डेटिंग पद्धति की खोज की जिसकी सहायता से आज किसी भी पुरातत्व अवशेष की उम्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इस कार्य के लिए  विलार्ड लिब्बी को 1960 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अंतर आधुनिक अध्ययन के संदर्भ में विद्वान यंग ब्लड का कहना है कि “अंतर अनुशासनिक तकनीक की नींव भविष्य में खोज और शोध का नेतृत्व करेंगे। वर्तमान समय में अंतर अनुशासनिक अध्ययन की उपलब्धियों को देखकर यह बात सत्य ही प्रतीत होती है। प्रदर्शनकारी कलाओं के संदर्भ में विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि अंतर अनुशासनिक अध्ययन रचना की परिपूर्णता और ओजस्वी होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देता है। ऐसा नहीं है कि इस अध्ययन पद्धति की खामियां नहीं है। सबसे बड़ी खामी है, अंतर अनुशासनिक अध्ययन को बढ़ावा मिलने से किसी भी अनुशासन की मूल सिद्धांतों का विकास बाधित होता है। लेकिन हानि की अपेक्षा लाभ अधिक होने से यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में भविष्य अंतर अनुशासनिक अध्ययन का ही है।

 संदर्भ :
1. वर्मा, (डॉ॰) हरिश्चंद्र, 2006 ई॰, शोध प्रविधि, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला – 134113
2.     सिंघल, बैजनाथ, 2008 ई॰, शोध, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली – 110002
3.     गाणेशन, एस॰एन॰, 2009 ई॰, अनुसंधान प्रविधि सिद्धान्त और प्रक्रिया, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद - 1

शोध में साक्षात्कार का महत्व, साक्षात्कार की तैयारी, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ




शोध के लिए विषय-चयन के बाद सबसे अनिवार्य कार्य होता है सामग्री संकलन। इसके बिना शोध कार्य संभव ही नहीं हो सकता है। सामाग्री संकलन के लिए विभिन्न विधियों का सहारा लिया जाता है। साक्षात्कार भी सामग्री संकलन की एक विधि है। साक्षात्कार की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से दी है। वाइटल्स महोदय साक्षात्कार को आमने-सामने की बातचीत कहते हैं तो विंघम और मूर का कहना है कि यह उदेश्यपूर्ण वार्तालाप होती है। पी॰ वी॰ यंग का कहना है, It seems as an effective, informal verbal and non verbal conversation, initiated for specific purposes and planned content areas. अर्थात साक्षात्कार एक प्रभावकारी शाब्दिक अथवा मौन वार्तालाप है, जो किसी विशेष उद्येश्य से तथा किसी सुनियोजित क्षेत्र पर केन्द्रित होता है। इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षात्कार में दो पक्ष आमने-सामने वार्तालाप करते हैं जिसमें शब्दों का महत्व तो होता ही है मौन और भाव-भंगिमा यानि बॉडी लैड्ग्वेज आदि का भी महत्व होता है क्योंकि ये तत्व साक्षात्कारकर्ता के लिए सामाग्री से संबन्धित विश्लेषण में सहायक होते हैं। किसी भी विषय या व्यवहार के अनेक ऐसे पक्ष होते हैं जिसकी सही जानकारी उस पक्ष से संबन्धित व्यक्ति से पूछे बिना नहीं हो सकता है। व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण, विश्वास, अनुभव, प्रेरणा, गुजरे हुए जीवन आदि ऐसे पक्ष हैं जिसका विवरण वह स्वयं ही दे सकता है। इन पक्षों के विषय में अन्य व्यक्तियों द्वारा प्राप्त जानकारी कभी भी उतनी विश्वसनीय नहीं हो सकती है जितनी की उस व्यक्ति द्वारा स्वंय ही दी गई जानकारी होती है।
अभी जिन पक्षों की चर्चा मैंने की है उनसे संबन्धित जानकारी अन्य विधियों जैसे प्रश्नावली विधि द्वारा भी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन उन विधियों द्वारा प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता में संदेह की गुंजाइश होती है। उदाहरण के तौर पर, हम जब प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हैं तो उत्तरदाता के सामने प्रश्नों का एक सेट होता है और पर्याप्त समय होता है। इसलिए प्रश्नों के उत्तर देने से पहले उसे सोच-विचार करने का अवकाश मिल जाता है। इस स्थिति में यह असंभव नहीं है कि वह अपने उत्तर की सत्यता का आपेक्षिक परिणाम पर सोचे कि उससे वह कितना प्रभावित हो सकता है। बेशक उसकी आशंका निरधार हो लेकिन उत्तर की सत्यता प्रभावित हो सकती है। साक्षात्कार में उत्तरदाता के पास इतना अवकाश नहीं होता है। फिर सामने प्रश्नकर्ता के होने से एक जल्दी की बाध्यता होती है, एक दबाव होता है, जिससे आशंका पर सोच-विचार वह ज्यादा कर नहीं पाता है। इसलिए गलत उत्तर की संभावना बहुत कम होती है।
प्रश्नावली विधि में निश्चित प्रश्नों के बंधे- बँधाये उत्तर मिलते हैं जबकि साक्षात्कार में उत्तरदाता के उत्तर से नए प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं जिनका उत्तर शोधकर्ता या प्रश्नकर्ता के लिए सर्वथा नई जानकारी हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि वैसे उत्तर का पूर्वानुमान हो ही नहीं।
उत्तर के रूप में प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता अन्य विधियों से अधिक होने की संभाव्यता तथा अन्य नई जानकारियों की प्राप्ति की संभावना के चलते साक्षात्कार का शोध के लिए सामाग्री संकलन की विधि के रूप में बहुत अधिक महत्व है। वस्तुतः सामाग्री की विश्वसनीयता ही शोध की गुणवत्ता का नियामक होता है। साक्षात्कार का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी होता है कि इसका प्रयोग अशिक्षित व्यक्तियों पर भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें उत्तरदाता को बस बोलकर उत्तर देना होता है। अतिव्यस्त व्यक्तियों के मामले में भी इसकी अत्यधिक उपयोगिता होती है क्योंकि रास्ते में चलते हुए भी साक्षात्कार दिया जा सकता है। साक्षात्कार को रेकॉर्ड कर लेने से एक बात यह भी होती है कि उत्तरदाता बाद में अपने किसी उत्तर से मुकर कर शोध की गुणवत्ता को विवादास्पद नहीं बना सकता है।
साक्षात्कार की प्रकृति को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि साक्षात्कारकर्ता पहले से उसकी तैयारी करे। इसके लिए कई कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। साक्षात्कारकर्ता को यह सोचना चाहिए कि वह किसलिए साक्षात्कार लेने जा रहा है, किसका साक्षात्कार लेने जा रहा है और उसे किस प्रकार का साक्षात्कार लेना है। इन प्रश्नों का उत्तर पाकर उसे व्यावहारिक योजना बनाना चाहिए। साक्षात्कार कर्ता को चाहिए कि वह जिस विषय पर साक्षात्कार लेने जा रहा है उस विषय से संबन्धित जानकारी प्राप्त कर ले। अगर वह संरचित साक्षात्कार लेने जा रहा है तो वह प्रश्नों के सेट इस तरह से तैयार करे कि उसके उत्तर से किसी भी तरह की आवश्यक जानकारी नहीं छूटे। अगर विसंरचित साक्षात्कार लेने जा रहा हो तो सभी प्रकार के प्रश्नों, उसके उत्तर से संभावित प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों आदि कि संभावना पर पहले से विचार कर लेना अच्छा रहता है। उसे बिन्दूवार नोट भी किया जा सकता है। फिर जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उससे संपर्क करके उसे साक्षात्कार का उद्येश्य बताकर स्वीकृति लेनी चाहिए। उत्तरदाता की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति, स्वभाव, अन्य व्यक्तियों से उसके संबंध आदि पर पहले ही विचार कर लेना चाहिए जिससे साक्षात्कार के दौरान किसी भी प्रकार कि अवांछित स्थिति नहीं उत्तपन्न हो, अगर हो भी जाए तो उससे आसानी से निपटा जा सके। इसके बाद निर्धारित दिन, साक्षात्कारकर्ता को आवश्यक उपकरण जैसे कैमरा, वॉइस रिकॉर्डर, नोटबूक-पेन आदि के साथ, समय से निर्धारित स्थान पर पहुँच जाना चाहिए। साक्षात्कार के दौरान साक्षात्कारकर्ता को किसी भी तरह के उत्तेजनात्मक प्रश्न पूछने से बचना चाहिए। अन्य प्रश्न भी वह इस प्रकार पूछे कि उत्तरदाता सहजता का अनुभव कर सके। अति महत्वपूर्ण और विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए यह अपेक्षित होता है कि साक्षात्कारकर्ता अनुभवी, व्यवहार कुशल और प्रत्युत्तपन्नमतित्व यानि strong presence of mind वाला व्यक्ति हो।
अब हम प्रश्न के अंतिम भाग पर विचार करते हैं, जिसमें कहा गया है, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
अनुसंधान के लिए सामग्री संकलन की विधि या उपकरण के तौर पर जब हम साक्षात्कार का उपयोग करते हैं तो हमें उसका स्वरूप निर्धारण और क्रियान्वयन के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है। इस तैयारी के कारण शोध साक्षात्कार में कुछ विशेषता आ जाती है जो उसे सामान्य साक्षात्कार से अलग करती है। शोध साक्षात्कार की परिभाषा देते हुए एक विद्वान लिंडसे गार्डनर ने कहा है, “साक्षात्कार, साक्षात्कारकर्ता द्वारा अनुसंधान से संबन्धित जानकारी प्राप्त करने के विशेष उद्येश्य के लिए चलाया जानेवाला दो व्यक्तियों का वार्तालाप होता है जो अनुसंधान उद्देश्य के वर्णन और कारकों से संबन्धित विषय-वस्तु पर केन्द्रित रहता है।”
शोध के लिए साक्षात्कार की स्थितियों और इस परिभाषा के विश्लेषण से आदर्श शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ समझी जा सकती है। वे विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
·       शोध साक्षात्कार में शोधार्थी उत्तरदाता से शोध से संबन्धित विशेष प्रश्न ही पूछता है और उत्तरदाता स्वयं को पूछे गए प्रश्नों तक ही सीमित रखकर उत्तर देता है।
·       प्रश्न अधिक लंबे न होकर संक्षिप्त और विषय केन्द्रित होते है।
·       प्रश्नों की भाषा स्पष्ट, सीधी और सुबोध होती है।
·       प्रश्नों को व्यवस्थित क्रम में  रखा जाता है जिससे उत्तर के रूप में प्राप्त सामग्री स्वतः ही व्यवस्थित होती जाती है जिससे बाद में उलझन की संभावना कम जाती है।
·       प्रश्न आपस में जुड़े होते हैं, एक दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं। विषय की अत्यधिक स्पष्टता और सभी प्रकार की जिज्ञासाओं के शमन के लिए प्रश्न से प्रश्न निकलते हैं और उपप्रश्न भी पूछे जाते हैं।
·       उत्तरदाता की भावनाओं और दृष्टिकोण का विशेष महत्व होता क्योंकि वह प्राप्त सामाग्री के सही विश्लेषण करने के लिए आवश्यक होता है।

शोध का अर्थ, उसकी प्रकृति और स्वरूप



मानव के विकास, सुख और समृद्धि के मूल में अंततः एक चीज ही होती है। वह है, ज्ञान और उसका अनुप्रयोग। इसलिए ज्ञान में वृद्धि मनुष्य की जन्मजात प्रवृति होती है। इसके लिए वह हमेशा प्रयत्न करता रहता है, सत्य जानने का प्रयास करता रहता है। इस प्रयास के क्रम में वह नवीन ज्ञान की प्राप्ति के साथ ही पहले से प्राप्त ज्ञान की सत्यता की जांच-परख भी करता है। इस प्रक्रिया से ज्ञान के आयाम में विस्तार होता है। वस्तुतः यह प्रक्रिया ही शोध है। शोध का पर्याय हिन्दी में अनुसंधान होता है। अनुसंधान शब्द 1960 ई॰ तक विशेष रूप से प्रचलित रहा[1]। नगेन्द्र जैसे विद्वान इसके हिमायती थे लेकिन धीरे-धीरे शोध शब्द रूढ़ हो गया। शोध शब्द शुध धातु के साथ घञ प्रत्यय के मेल से बना है जिसका अर्थ होता है, सुधारना, शंकाओं का निराकरण करना, शुद्ध करना आदि। इसे अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। यह re प्रेफिक्स औरsearch शब्द के मेल से बना है जिसका अर्थ होता है क्रमशः पुनः और खोज ।
सामान्य अर्थ से आगे बढ़कर जब हम शोध के आदर्श स्वरूप और शैक्षणिक संदर्भ पर विचार करते हैं तो हमें इसके लिए एक व्यवस्थित परिभाषा की आवश्यकता होती है। वैब्सटर्स डिक्शनरी में रिसर्च की परिभाषा निम्न प्रकार से दी गई है—
“Research is a critical and exhaustive investigation or examination having for its aim the discovery of new facts and their correct interpretation, the revision of accepted conclusions, theories and lows”[2] 
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइन्स में रिसर्च के लिए कहा गया है —
“ Research is the manipulation of things, concepts or symbols for the purpose generalizing to extend, correct or verify knowledge whether that knowledge aids in the practice or an art [3]
विभिन्न विद्वानों ने भी शोध की परिभाषा विभिन्न प्रकार से दी है :
एल॰ वी॰ तथा रेडमैन ने रोमांस ऑफ रिसर्च में कहा है, “ शोध या अनुसंधान नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास है”
पी॰एम॰ कुक के  ने कहा है कि “किसी समस्या के संदर्भ में ईमानदारी, विस्तार तथा बुद्धिमानी से तथ्यों, उनके अर्थ, तथा उपयोगिता की खोज करना ही अनुसंधान है।”
सी॰सी॰ क्रोफोर्ड का कहना है, “ अनुसंधान किसी समस्या के अच्छे समाधान के लिए क्रमबद्ध तथा विशुद्ध चिंतन एवं विशिष्ट उपकरणो के प्रयोग की एक विधि है।”
डब्लू॰ एस॰ मनरो के अनुसार, “अनुसंधान उन समस्याओं के अध्यययन की एक विधि है जिसका अपूर्ण अथवा पूर्ण समाधान तथ्यों के आधार पर ढूँढना है। अनुसंधान के लिए तथ्य,लोगों के मतों के कथन, ऐतिहासिक तथ्य, लेख अथवा अभिलेख, परखों से प्राप्त फल,प्रश्नावली के उत्तर अथवा प्रयोगों से प्राप्त सामग्री हो सकती है”।
डॉ॰ एम॰ वर्मा॰ के अनुसार, “अनुसंधान एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो नए ज्ञान को प्रकाश में लातीहै अथवा पुरानी त्रुटियों एवं भ्रांत धारणाओं का परिमार्जन करती है।”
उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि शोध, नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए या किसी समस्या के समाधान के लिए उपलब्ध जानकारियों और साक्ष्यों को व्यवस्थित करके क्रमबद्ध तरीके से विश्लेषण कर परिणाम प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहा जाता है।
इन परिभाषाओं से ही शोध की प्रकृति का पता चलता है। जिसका बिन्दुवार विवरण निम्नलिखित है:
·       शोध एक अनोखी प्रक्रिया है जो ज्ञान के प्रकाश और प्रसार में सहायक होता है।
·       इसके द्वारा या तो किसी नये तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु की खोज की जाती है या फिर प्राचीन तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।
·       यह सुव्यवस्थित, बौद्धिक, तर्कपूर्ण तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होती है।
·       इसमें विभिन्न श्रोतों (प्राथमिक तथा द्वितीयक) से प्राप्त आंकड़े का विश्लेषण किया जाता है इसलिए चिंतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है और पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों की कतई गुंजाइश नहीं होती है।
·       शोध के लिए वैज्ञानिक अभिकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
·       आंकड़े एकत्रित करने के लिए विश्वसनीय उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
·       अनुसंधान द्वारा प्राप्त ज्ञान को सत्यापित किया जा सकता है।
·       पूरी प्रक्रिया की सफलता के लिए व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध चरणो से गुजरना होता है। इन क्रमबद्ध चरणो की व्यवस्था ही शोध का स्वरूप निर्धारक होता है।
शोध का स्वरूप कई बातों से मिलकर बनता है। वे बाते हैं : शोध का उद्देश्य, शोध का प्रकार,समस्या चयन, समस्या से संबंधित सभी प्रकार की जानकारियाँ एकत्रित करना, प्रविधि का चुनाव, आंकड़े एकत्रित करने के उपकरणो या विधि का चुनाव, प्राकल्पना का निर्माण,आंकड़े का विश्लेषण तथा प्राकल्पना का सत्यापन और अंत में प्रतिवेदन लेखन।
शोध का विचार बनने पर यह सोचना आवश्यक होता है कि आखिर शोध किया क्यों जाएगा। इस बात की सटीक जानकारी सही दिशा और शोध की सफलता के लिए आवश्यक होती है। उदाहरणस्वरूप, अगर शोध किसी उपाधि के लिए किया जाता है तब या फिर किसी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए किया जाता है तब, दोनों के लिए भिन्न प्रकार की दृष्टि अपनानी पड़ती है। व्यावसायिक शोध के लिए समस्या चयन के समय ही यह सोचना होता है कि उसके समाधान का व्यावसायिक महत्व क्या होगा, जबकि उपाधिपरक सोध के लिए यह सोचना उचित होता है कि कौन सी समस्या अछूती रही है और उसपर कार्य व्यावहारिक दृष्टि से संभव होगा कि नहीं। समस्या चयन के बाद उसकी प्रकृति पर विचार करने से यह निर्धारित किया जाता है कि शोध का प्रकार क्या होगा। जैसे - समाजशास्त्रीय शोध, मनोवैज्ञानिक शोध,सौंदर्यशास्त्रीय शोध आदि। इसके बाद प्रविधि का चुनाव किया जाता है, जैसे गुणात्मक,मात्रात्मक, विवरणात्मक आदि। परिणाम की उत्कृष्टता के लिए एक शोध में एक से अधिक प्रविधि का उपयोग किया जा सकता है। अब प्राकल्पना का निर्माण किया जाता है और फिर विश्वसनीय तरीके से प्राथमिक और द्वितीयक आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। चयनित प्रविधि का आधार लेकर आंकड़ों का विश्लेषण और प्राकल्पना का परीक्षण किया जाता है। प्राकल्पना परीक्षण के परिणाम मिलते ही थीसिस का निर्माण हो जाता है। उस थीसिस के संरक्षण और विश्वसनीयता निर्धारण के लिए शोध-प्रतिवेदन लिखा जाता है। शोध-प्रतिवेदन लेखन की भी विशिष्ट और मानक विधि होती है। इस तरह शोध कार्य पूर्णता को प्राप्त करता है। 

संदर्भ:
1.     शोध प्रविधि : डॉ॰ हरिश्चंद्र वर्मा; हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला (2011)।
2.     सामाजिक अनुसंधान : राम आहूजा; रावत पब्लिकेशन, जयपुर (2010)।
3.    शोध, स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि : बैजनाथ सिंघल; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (2008)।
4.अनुसंधान परिचय : पारसनाथ राय, सी॰पी॰ राय; लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, प्र॰सं॰(1973)
5.सामाजिक अनुसंधान पद्धतियाँ : मु॰ सं॰ राम गणेश यादव; ओरियंट ब्लैकस्वान नई दिल्ली(2014)।
6.शैक्षिक अनुसंधान एवं सांख्यिकी : विपिन अस्थाना, विजया श्रीवास्तव, निधिअस्थाना;अग्रवाल पब्लिकेशन, आगरा (2013)।
7.     सामाजिक सर्वेक्षण तथा अनुसंधान : मानसी शर्मा; वाईकिंग बुक्स, जयपुर (2012)

Wednesday, 7 November 2018

संप्रेषण की अवधारणा एवं संप्रेषण और भाषा




15 जनवरी 2011 (लेखन की तिथि), TTDS VENKY CLG,दिल्ली
12:40 PM. 08/11/2018 (प्रकशन या पोस्ट की तिथि),वर्धा

संप्रेषण की अवधारणा
एवं
संप्रेषण और भाषा


यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्य की सक्रियता के मुख्य प्ररूप और उनके विकास के अंतर्गत सक्रियता के प्रमुख रूप श्रम पर विचार किया था, इस बार हम संप्रेषण की अवधारणा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।

संप्रेषण का जटिल स्वरूप-
परिवेशी विश्व के साथ लोगों की अन्योन्यक्रिया उन वस्तुपरक संबंधों के दायरे में विकसित होती है, जो लोगों के बीच उनके सामाजिक जीवन में और मुख्यतः उनकी उत्पादन-सक्रियता के दौरान बनते हैं। लोगों के किसी भी यथार्थ समूह में वस्तुपरक संबंधों, जैसे निर्भरता, अधीनता, सहकार, परस्पर साहायता आदि के संबंधों का पैदा होना अनिवार्य है। समूह के सदस्यों के अंतर्वैयक्तिक संबंधों व सहकार के अध्ययन का मुख्य उपाय विभिन्न सामाजिक कारकों और दत्त समूह के सदस्यों की अन्योन्यक्रिया का गहराई में विश्लेषण करना है। लोगों के वास्तविक इरादों और भावनाओं का अनुमान उनके कार्यों से ही लगाया जा सकता है।

किसी भी तरह के उत्पादन के लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता होती है। उत्पादन करने के लिए लोगों का एकजुट होना आवश्यक है। फिर भी कोई भी समुदाय तब तक सफल संयुक्त कार्य नहीं कर सकता, जब तक इस कार्य में भाग लेने वालों के बीच संपर्क न हो, जब तक उनके बीच पर्याप्त समझ न हो। संयुक्त सक्रियता के लिए आपस में संप्रेषण के संबंध क़ायम करना आवश्यक है। संप्रेषण को यों परिभाषित किया जा सकता है : संप्रेषण लोगों के बीच संपर्क स्थापित व विकसित करने की एक जटिल प्रक्रिया है, जिसकी जड़ें संयुक्त रूप से काम करने की आवश्यकता में होती हैं।

संप्रेषण में सयुक्त सक्रियता में भाग लेनेवालों के बीच जानकारी का आदान-प्रदान शामिल रहता है ( प्रक्रिया का संसूचनात्मक पहलू )। अपने परस्पर संपर्क में लोग संप्रेषण के एक प्रमुख साधन के तौर पर भाषा का सहारा लेते हैं। संप्रेषण का दूसरा पहलू संयुक्त कार्यकलाप में भाग लेनेवालों की अन्योन्यक्रिया, यानि शब्दों ही नही, अपितु क्रियाओं का भी आदान-प्रदान है। जब आदमी कोई चीज़ खरीदता है तो वह ( ग्राहक ) औए विक्रेता, दोनों आपस में कोई शब्द कहे बिना भी संप्रेषण करते हैं : ग्राहक पैसे देता है और विक्रेता उसे माल थमाता है और यदि कुछ पैसे वापस करने हैं तो उन्हें वापस करता है।

संप्रेषण का तीसरा पहलू अंतर्वैयक्तिक समझ है। उदाहरण के लिए, बहुत कुछ इसपर निर्भर करता है कि संप्रेषण में भाग लेनेवाला कोई पक्ष दूसरे पक्ष को भरोसेमंद, चतुर और जानकार व्यक्ति मानता है या उसके बारे में बुरी राय रखता है तथा उसे भोंदू व बेवक़ूफ़ समझता है।

        इस तरह संप्रेषण की एक ही प्रक्रिया में हम जैसे कि तीन पहलू पाते हैं :

1.   संसूचनात्मक(जानकारी का विनिमय)
2.   अन्योन्यक्रियात्मक(प्रक्रिया में भाग लेनेवालों की संयुक्त सक्रियता)
3.   प्रत्यक्षात्मक(एक दूसरे के बारे में धारणा)

इन तीन पहलुओं की समष्टि के रूप में देखे जाने पर संप्रेषण संयुक्त सक्रियता के संगठन और उसके सहभागियों के बीच संबंधों की स्थापना के एक साधन के रूप में सामने आता है।

संप्रेषण और सक्रियता की एकता-
        संप्रेषण और संयुक्त सक्रियता के बीच घनिष्ठ संबंध स्वतः स्पष्ट है। फिर भी प्रश्न उठता है कि क्या संप्रेषण संयुक्त सक्रियता का घटक है या दोनों समानतः स्वतंत्र प्रक्रियाएं हैं? संयुक्त सक्रियता में व्यक्ति को अनिवार्यतः अन्य लोगों से मिलना और उनसे संप्रेषण करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, वह संपर्क बनाने, परस्पर समझ के लिए प्रयत्न करने, आवश्यक सूचना पाने तथा बदले में सूचना देने, आदि के लिए विवश होता है। यहां संप्रेषण सक्रियता के अंग, उसके महत्त्वपूर्ण सूचनात्मक पहलू और पहले प्रकार के संप्रेषण ( संप्रेषण - १ ) के रूप में सामने आता है।

किंतु सक्रियता की प्रक्रिया में, जिसमें संप्रेषण-१ शामिल है, कोई वस्तु बना लेने ( कोई औजार बनाना, विचार प्रकट करना, परिकलन करना, मशीन की मरम्मत करना, आदि ) के बाद मनुष्य वहीं पर नहीं रुक जाता : उसने जो वस्तु बनाई है, उसके जरिए वह अपने को, अपनी विशेषताओं को और अपने व्यक्तित्व को दूसरे लोगों तक पहुंचाता है। मनुष्य द्वारा सृजित कोई भी वस्तु ( घर, कविता, मशीनी पुरज़ा, पुस्तक, गीत, लगाया हुआ वृक्ष, आदि ) एक ओर सक्रियता का विषय होती है और, दूसरी ओर, एक ऐसा साधन कि जिससे मनुष्य सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत जताता है, क्योंकि यह वस्तु दूसरे लोगों के लिए बनाई गई है। यह वस्तु लोगों के बीच संबंध स्थापित करती है और एक ऐसी साझी वस्तु के उत्पादन के अर्थ में संप्रेषण को जन्म देती है कि जो उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों की समान रूप से है।

        परंतु वर्तमान व्यवस्था में, श्रम के फलों के कारण लोगों के बीच साझी वस्तु के उत्पादन के अर्थ में समझे गये संप्रेषण में बाधा पड़ती है। अपने श्रम को किसी वस्तु में साकार बनाकर उत्पादक यह निश्चित नहीं कर सकता कि वह अपने को उनमें सुरक्षित रखेगा, जिनके लिए वह वस्तु बनाई गई थी। क्योंकि उसके श्रम का उत्पाद वह वस्तु, जो उसकी नहीं रह पाती, अब उसके व्यक्तित्व का नहीं, अपितु उस वस्तु के स्वामी के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार संप्रेषण, परस्पर समझ और परस्पर आदर में आरंभ से ही विघ्न पड़ता है। आदर्श स्थिति वह होगी, जब व्यक्तित्व को किसी अन्य के आर्थिक हितों के लिए बलिदान नहीं किया जाता और श्रम के उत्पाद उनके होते हैं जो उन्हें पैदा करते हैं।
       
        मनुष्य अपने को मनुष्य में ही जारी रख सकता है, इसी में उसका अमरत्व, उसका सौभाग्य और उसके जीवन की सार्थकता है। जीव-जंतुओं के विपरीत मनुष्य जब अपनी वंश-वृद्धि करता है, तो वह अपने वंशजों के लिए अपने आदर्श, सौंदर्यकांक्षाएं और जो भी उच्च तथा उदात्त है, उसके प्रति प्रतिबद्धता भी छोड़ जाता है। अपने को दूसरे में जारी रखने के रूप में संप्रेषण दूसरे प्रकार का संप्रेषण है, जिसे हम संप्रेषण-२ कह सकते हैं। यदि संप्रेषण-१ संयुक्त सक्रियता का सूचनात्मक पहलू है, तो संप्रेषण-२ सामाजिक दृष्टि से मूल्यवान और व्यक्तिगत दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वस्तु के उत्पादन की ओर लक्षित संयुक्त सक्रियता का अन्योन्यक्रियात्मक पहलू है। यहां संबंध उलट जाता है और सक्रियता संप्रेषण की एक आवश्यक पूर्वापेक्षा के रूप में सामने आती है।

        इस प्रकार सक्रियता संप्रेषण का एक अंग तथा एक पहलू है और संप्रेषण सक्रियता का एक अंग, एक पहलू है। दोनों ही सूरतों में संप्रेषण तथा सक्रियता परस्पर अविभाज्य हैं।


29 जनवरी 2011(लेखन की तिथि), TTDS VENKY CLG,दिल्ली
08/11/2018 (प्रकशन या पोस्ट की तिथि),वर्धा

संप्रेषण और भाषा

        यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संप्रेषण की अवधारणा पर चर्चा की थी, इस बार हम सूचना के विनिमय के रूप में संप्रेषण और भाषा पर चर्चा करेंगे।
        यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।

संप्रेषण और भाषा
        संप्रेषण की यह परिभाषा कि वह एक ऐसी साझी चीज़ का उत्पादन है, जो लोगों को उनकी अन्योन्यक्रिया ( Interaction ) तथा संयुक्त सक्रियता ( Joint activity ) के दौरान एक सूत्र में पिरोती है, इस धारणा पर आधारित है कि वह साझी चीज़ सर्वप्रथम भाषा है, जो संप्रेषण का साधन है। भाषा एक दूसरे के संपर्क में आनेवालों के बीच संप्रेषण सुनिश्चित करती है, क्योंकि इसे दोनों ही पक्षों द्वारा समझा जाता है, जो कोडित रूप में, यानि विशेषतः चुने गये शब्दों के अर्थों के रूप में सूचना अंतरित करता है, उसके द्वारा भी और जो विकोडित करके, यानि इन अर्थों को समझ कर इस सूचना को ग्रहण करता है तथा तदनुसार अपना व्यवहार बदलता है, उसके द्वारा भी।
       
        दूसरे को सूचना देनेवाले व्यक्ति ( संप्रेषक ) और यह सूचना पानेवाले व्यक्ति ( प्रापक ) को संप्रेषण और संयुक्त सक्रियता के उद्देश्य से एक ही तरह की कोडन और विकोडन पद्धति इस्तेमाल करनी चाहिए, यानि ‘साझी भाषा’ बोलनी चाहिए। अगर वे अलग-अलग कोडन पद्धतियां इस्तेमाल करते हैं तो वे एक दूसरे को कभी नहीं समझ पाएंगे और अपनी संयुक्त सक्रियता में सफल नहीं होंगे। बाइबिल में बाबुल की मीनार की एक कहानी मिलती है, जो कभी नहीं बन सकी, क्योंकि अचानक सभी बनानेवाले अलग-अलग भाषाएं बोलने लग गये। यह कहानी दिखाती है कि भाषाओं में अंतर के कारण कोडन तथा विकोडन प्रक्रियाओं के रुक जाने से कैसी गंभीर कठिनाइयां पैदा होती हैं और अन्योन्यक्रिया तथा संयुक्त सक्रियता असंभव बन जाती है।

        सूचना का आदान-प्रदान तभी संभव होता है, जब प्रयुक्त संकेतों ( शब्दों, इशारों, चित्राक्षरों, आदि ) को दिये गये अर्थ, संप्रेषण में भाग लेनेवाले दोनों पक्षों को मालूम होते हैं। संकेत परिवेशी विश्व के संज्ञान का एक माध्यम हैं और अर्थ संकेत का अंतर्वस्तु से संबंधित पहलू है। जिस प्रकार लोग औजारों के माध्यम से श्रम करते हैं, उसी प्रकार संकेत उनकी संज्ञानात्मक सक्रियता ( cognitive activities ) तथा संप्रेषण के माध्यम का काम करते हैं।

        शाब्दिक संकेतों की पद्धति, भाषा को सामाजिक-ऐतिहासिक अनुभव के वास्तवीकरण ( realization ), आत्मसात्करण ( absorption ) और अंतरण ( transference ) का माध्यम बनाती है।

        सामाजिक अनुभव के संचय तथा अंतरण के माध्यम के रूप में भाषा का जन्म श्रम की प्रक्रिया में हुआ और आदिम समाज के उषाकाल में ही उसका विकास शुरू हो गया। एक दूसरे को आवश्यक सूचना देने के लिए लोगों ने उच्चारित ध्वनियों का इस्तेमाल शुरू किया, जिनसे शनैः शनैः कुछ निश्चित अर्थ जुड़ गये। संप्रेषण के साधन के रूप में उच्चारित ध्वनियां बहुत सुविधाजनक थीं, विशेषतः तब, जब आदिम मानव के हाथ खाली नहीं होते थे, यानि वह उनमें कोई चीज़ या औजार पकड़े हुए होता था और आंखों का हाथों की गतियों को देखते रहना जरूरी था। ध्वनियां तब भी सुविधाजनक होती थीं, जब संप्रेषक तथा प्रापक एक दूसरे से दूर होते थे या अंधेरा अथवा कोहरा छाया होता था या पेड़ों-झाड़ियों की वजह से एक दूसरे को देख पाना मुमकिन न था।
      
  भाषा के जरिए संप्रेषण की बदौलत व्यक्ति के मस्तिष्क में विश्व का परावर्तन ( reflection ) , अन्य व्यक्तियों के मस्तिष्क में हुए परावर्तनों के आपसी विनिमय से निरंतर विकसित होता गया। लोग आपस में अपने विचारों और प्रेक्षणों ( observations ) का विनिमय करते हुए इसे और समृद्ध करते रहे।
    
परस्पर संपर्क के दौरान मनुष्य लगातार महत्त्वपूर्ण को महत्त्वहीन से, आवश्यक को सांयोगिक से अलग करना, वस्तुओं के बिंबों से उनके सामान्य गुणधर्मों को अलग करना और फिर उन्हें शब्दों के अर्थ में प्रतिबिंबित करने की ओर बढ़ना सीखता रहता है। शब्दों का अर्थ वस्तुओं के पूरे वर्ग की बुनियादी विशेषताओं को इंगित करता है और ठीक इसी कारण वह किसी निश्चित वस्तु से भी संबंध रख सकता है। जैसे कि, जब हम ‘समाचारपत्र’ कहते हैं, तो हमारा आशय दत्त क्षण में हमारे हाथ में मौजूद समाचारपत्र से ही नहीं होता, बल्कि वस्तुओं के जिस वर्ग में समाचारपत्र आता है, उस पूरे वर्ग को और अन्य मुद्रित सामग्रियों से इसके अंतरों को भी इंगित करते हैं।

हर शब्द का एक निश्चित अर्थ, अर्थात वास्तविक जगत से निश्चित संबंध होता है और जब कोई उस शब्द को इस्तेमाल करता है, तो उसको सुननेवाला उसे एक निश्चित परिघटना से ही जोड़ता है और इस संबंध में उन्हें कोई भ्रम नहीं होता। अर्थों की पद्धति मनुष्य के जीवन-भर बढ़ती तथा समृद्ध होती रहती है।

पंकज वेला
एम.ए. गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गाँधी अंतर्राष्टिय हिन्दी विश्वविधयालय,
वर्धा,महाराष्ट्र-442001 



Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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