उत्तर संरचनावाद और कविता के ‘पाठ’ का संकट...
इक्कीसवीं शताब्दी के इस दौर में विश्व लगभग एक बाजार में बदल गया है। अब किसी राष्ट्र की पहचान उसकी राजनीतिक भू सीमा, संस्कृति या गौरवपूर्ण इतिहास से नहीं, अपितु, उसकी आर्थिक शक्ति और सूचना तंत्र् की शक्ति से होती है। यह परिवर्तन किसी के रोके नहीं रुक सकता था, यह तो होना था और हो रहा है। आज के इस वैश्वीकरण का प्रधान लक्षण बाजारवाद और उपभोक्तावाद है। नवसाम्राज्यवाद और उत्तर आधुनिकतावाद इसके संरक्षक हैं। व्यापार, प्रबन्धन और सूचना संसार इस वैश्वीकरण के मूल आधार हैं। वैश्वीकरण के इस ‘सुनामी’ समुद्री तूफान से संसार के बुद्धिजीवी, चिंतक, कलाकार और साहित्यकार हिल उठे और अपनी साधना, सोच, चिंतन, सिद्धान्त व कला को पुनर्परिभाषित करने में जुट गए। यह उत्तर संरचनावाद इसी जलजले की परिणति है।
विश्व पटल पर पहले ‘आधुनिकता’ का प्रवेश हुआ, जिससे आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण की विराट् प्रक्रिया शुरू हुई। फिर उत्तर आधुनिकता का आगमन हुआ, साथ में समाज और भाषा पर केन्दि्रत संरचनावाद भी आया, जिसे आत्म शोधन कर उत्तर संरचनावाद के रूप में पुनर्परिभाषित होना पडा। विश्व के इन अभूतपूर्व भौतिक आर्थिक वैज्ञानिक परिवर्तनों ने चिंतकों, कलाकारों, दर्शनिकों और साहित्यकारों को झिंझोडकर रख दिया और वे सब नए युग में नए ढंग से अपनी कला, विचार और सिद्धान्त ‘गढने’ लगे। इनमें उत्तर संरचनावाद के अग्रणी प्रस्तोता जैक देरिदा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। देरिदा के चिंतन को आलोचना विधा में आयोजित किया गया, जिसका नाम ‘विखंडनवाद’ (Deconstruction) है। इस विखंडनवाद के कारण सम्पूर्ण संसार में लिखा जा चुका और लिखा जाने वाला तमाम साहित्य संकट में पड गया है, कविता तो उस विशाल साहित्य सागर की एक लहर मात्र् ह। उत्तर संरचनावाद के बीहड और दुर्गम इलाके में घुसने से पहले यह अच्छा होगा कि हम संरचनावाद (Structuralism) की तात्त्विक रचना को समझ लें, क्योंकि इसी के प्रतिक्रियास्वरूप उत्तर संरचनावाद सामने आया था। एक स्विस विचारक सस्योर ने संरचनावाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। संरचनावाद दो स्तरों पर आया था, सामाजिक संरचनावाद और भाषायी संरचनावाद। हमें दूसरे से मतलब है। इस सिद्धान्त का सार मर्म यह कि भाषा एक ऐसी संरचना है, जिसकी अपनी विधियाँ हैं। बाह्य विश्व या यथार्थ से सम्फ का माध्यम भी यही है, अतः यह समस्त मानवीय यथार्थ की विशिष्ट संरचना भी है। इसलिए इसका अध्ययन सावधानीपूर्वक होना चाहिए। इस संरचनावाद का प्रारम्भ 1960 से हुआ। भाषायी संरचनावाद की स्थापना करते हुए सस्योर का कथन है कि भाषा अविकल संकेतों का एक ऐसा तंत्र् है, जिसमें संकेत यानी शब्द आपसी अंतर से अर्थ ग्रहण करते हैं और वे अर्थ के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं, स्वयं का कोई अर्थ और अस्तित्व नहीं रखते। ऐसा प्रतीत होता है कि संरचनावादी सिद्धान्त की उत्पत्ति सात्र्र् के अस्तित्ववाद के विरोध स्वरूप हुई थी, जिसने वैयक्तिक स्वतंत्र्ता की पुरजोर माँग उठायी थी। जबकि संरचनावाद के अनुसार व्यक्ति कुछ नहीं, उसे कोई स्वतंत्र्ता नहीं है। मुख्य केन्द्र संरचना या समाज है। निर्णायक शक्ति समाज की होती है, व्यक्ति की नहीं। फ्रांस में तो ऐसे संरचनावादियों का बकायदा एक सम्प्रदाय ही खडा हो गया। इसकी अंतर्रचना में कहा गया कि सकलता (Totality) के कई भाग (Parts) होते हैं, इनमें पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं, यह सम्बन्ध ही संरचना (Structure) का निर्माण करते हैं। ये भाग जड नहीं होते। संरचनावादी मानते हैं कि दुनिया के सभी वस्तुएँ भाषा का स्वरूप हैं। ये स्वरूप (Forms) हमारे सामान्य विचार भी हैं। जब हम दूसरे लोगों से बातचीत करते हैं, तब शब्दों या पदों को काम में लेते हैं। इन शब्दों पदों का एक सामान्य अर्थ होता है, जिसे बातचीत करने वाले लोग समझते हैं। शब्दों के इस सामान्य अर्थ के पीछे कोई न कोई ताकिर्क व्यवस्था (Logical Order) अवश्य होती है। प्रायः बाहरी दुनिया हमें अताकिर्क दिखती है, पर संरचनावादी सिद्धान्त तो यथाथर्ता के तल में जाकर निहित ताकिर्क प्रतिमान तलाशता है। संरचनावाद की इस अवधारणा से भारत के प्राचीन भाषा वैज्ञानिक भर्तृहरि के विचार मेल खाते हैं, जिन्होंने समस्त पदार्थ और उसके ज्ञान को ‘शब्द से अनुविद्ध’ कहा और ‘सामान्य विचार’ की तुलना में अपना ‘स्फोटवाद’ प्रस्तुत किया। अपने विख्यात भाषा वैज्ञानिक ग्रंथ ‘वाक्यपदीयम्’ में भर्तृहरि लिखते हैं
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते ।
नुविद्वमिवज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ।।1
अथार्त्, विश्व के प्रत्येक पदार्थ का हमारा ज्ञान शब्द से अनुविद्ध है, जो ज्ञान ऐसा नहीं है, वह कदापि ज्ञान नहीं हो सकता। जबकि, संरचनावाद कथित ‘सबके सामान्य विचार’ के बरअक्स भर्तृहरि स्फोटवाद की अवधारणा रखते हैं, जिसके अनुसार
यदन्तः शब्दतत्वं तु नादैरेकं प्रकाशितम् ।
तदाहुरपरे शब्दं तस्य वाक्ये तथैकता ।।2
यानी अर्थ ग्रहण की स्फोट शक्ति के सारे गुण हमारे भीतर विद्यमान होते हैं। हम सभी सहज ज्ञान से अपने भीतर इसके अस्तित्व का अनुभव करते हैं। यह ध्वनियों या नाद द्वारा अभिव्यक्त होता है और इसकी एकता मुख्यतः वाक्य में रहती है।
सोस्योर के अनुसार भाषा के किसी भी शब्द या संकेत का अर्थ इस बात पर निर्भर है कि इसका दूसरे शब्दों या संकेतों के साथ क्या सम्बन्ध है ? संकेत (Sign) का सम्बन्ध ‘वस्तु’ (Object) के साथ नहीं होता। सस्योर के इस भाषायी संरचनावादी मॉडल या पैराडाइम का प्रारूप यह है कि भाषा में पूर्व धारणाएँ (Assumptions) निहित हैं, अतः वाणी (Speech) की अपेक्षा भाषा (Language) को देखना चाहिए। यह भी न समझें कि वाणी का निर्धारण भाषा करती हो। वाणी उपेक्षणीय नहीं है। अनपढ लोगों का व्यवहार तो वाणी से चलता है, भाषा की गहरी समझ से नहीं। यहाँ, सस्योर ‘शब्द’ को संकेत मानकर चलते हैं। एक भाषायी संकेत का अर्थ, अन्य संकेतों के साथ जो उसका सम्बन्ध है, उस पर निर्भर करता है। यानी एक शब्द से द्योतित होने वाले अर्थ को उससे भिन्न दूसरे अन्य वाक्य प्रयुक्त शब्द प्रकट करते हैं। अतः उस एक शब्द (संकेत) का अपना कोई अर्थ नहीं होता, जब तक कि हम दूसरे शब्दों की भिन्नता से उपजे अर्थ से उसका अर्थ न लगा लें। जैसे, ‘तीन’ शब्द का अर्थ, ‘एक’, ‘दो’ और ‘चार’ के साथ जो ‘तीन’ शब्द का सम्बन्ध है, उससे निकलता है।
इस तरह, ‘वाणी’ (Speech) और भाषा (Language) में अंतर स्थापित करते हुए सस्योर ने यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया कि भाषा, वाणी (बोलना) में निहित एक नई तर्क संरचना है। संरचना का मूल तत्त्व संकेत (शब्द) (Sign) है। यह संकेत भी तीन प्रकार का है 1. प्रतिमा संकेत (Icon) जो समानता सूचक होता है, 2. अभिसूचक संकेत (Index) जो दो या दो से अधिक वस्तुओं में आकस्मिक सम्बन्ध सूचित करता है और 3. मनमाने ढंग यानी यादृच्छिक संकेत (Arbitrary) जो मान लिया गया है, जैसे लाल रंग की तख्ती ‘ठहरो’ ('Stop') के अर्थ में। सस्योर के अनुसार भाषा की बुनियादी इकाई ‘संकेत’ है, जो यादृच्छिक होते हैं। इस संकेत के दो अभिन्न पहलू हैं संकेतक (Signifier) और संकेतित (Signified)। हमारा उद्देश्य, यहाँ उत्तर संरचनावाद की अवधारणा के चलते कविता के ‘पाठ’ का हाल मालूम करना है, अतः इसे यहीं छोडकर आगे बढना उचित होगा।
उत्तर संरचनावाद के साथ प्रमुख रूप से फ्रांस के दर्शनिक और भाषा वैज्ञानिक जैक देरिदा का नाम जुडा है, जिनके इस सिद्धान्त में आलोचना द्वारा परिगृहीत ‘विखंडनवाद’ (Deconstruction) भी अंतर्निहित है, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी। उत्तर संरचनावाद का जन्म सन् 1966 में देरिदा के एक व्याख्यान से हुआ, जिसमें उन्होंने भाषायी उत्तर संरचनावाद का नया आविष्कार करते हुए उसकी व्याख्या व सैद्धान्तिक प्रस्तुति दी। देरिदा ने इस अपने नये सिद्धान्त से सस्योर के संरचनावाद को मानो ‘फाँसी’ पर लटका दिया। जैसा कि अभी कहा गया, भाषा अविकल संकेतों (Signs) का एक ऐसा तंत्र् है, जिसमें संकेत यानी शब्द आपसी अंतर से अर्थग्रहण करते हैं। वे शब्द संकेत अपने अर्थ के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं, स्वयं का कोई अर्थ या अस्तित्व नहीं रखते। जबकि देरिदा ने इससे उलट अपना उत्तर संरचनावाद प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कहा कि वास्तव में न तो अर्थ कभी उत्पन्न होता हे, न कभी हम अर्थ को ग्रहण कर पाते हैं। जिसे हम ‘अर्थ’ समझते हैं, वह तो एक ‘संकेत’ के स्थान पर दूसरा ‘संकेत’ होता है, मगर वह अर्थ नहीं होता, जिसे हम चाहते हैं या तलाशते हैं। इस अर्थ की तलाश में एक चिह्न से दूसरा, दूसरे से तीसरा और तीसरे से चौथा चिह्न हम अंतहीन रूप में स्थापित करते हुए चलते हैं, किन्तु हमारा वाँछित अर्थ नहीं मिलता। उसका मूल कथन यहाँ देखना उचित है....
"To take one example from many; the metaphysics of presence is shaken with the help of the concept of sign. But, as I suggested a moment ago, as soon as one seeks to demonstrate in this way that there is no trancendental or privileged signified and that the domain or play of signification henceforth has no limit, one must reject even the concept and word 'sign' itself which is precisely what cannot be done. For the signification 'sign' has always been understood and determined in its meaning, as sign of, a signifier referring to a signified, a signifier different from its signified. If one erases the radical difference between signifier and signified, it is the word 'signifier' itself which must be abandoned as a metaphysical concept'.
भाषायी उत्तर संरचनावादी चिंतकों में जैक देरिदा के अलावा अन्य चिंतक हैं जॉन लॉक, रोला बार्थ, जूलिया क्रिस्टीवा और स्वनामधन्य मिशेल फूको। इनमें देरिदा और फूको ही विशेष प्रसिद्ध हैं।
उत्तर संरचनावाद में जो नयी बात देखने को मिलती है वह यह कि यह उच्चरित शब्द की अपेक्षा ‘लेखन’ (Writing) पर अपना विश्लेषण कायम करता है। यह ‘लेखन’ पढने वालों पर अपना दबाव नहीं डालता। सामाजिक संस्थाएँ और कुछ न होकर ‘लेखन’ हैं। देरिदा इस ‘लेखन’ को विखंडित करने की बात उठाते हैं और यह कहते हैं कि हर शब्द का एक केन्द्र (Center) होता है, वह केन्द्र शब्द के भीतर और उससे बाहर भी हो सकता है, उस केन्द्र को तोड दिए जाने (विखंडन) (Deconstruct) पर उसका कोई निश्चित अर्थ नहीं रह जाता। पाठक जैसा चाहे, वैसा अर्थ उस शब्द का लगा सकता है। संरचनावाद में जहाँ उच्चरित शब्द विश्लेषण के केन्द्र में था, वहीं देरिदा ने लिखित शब्द को रख दिया। इस ‘लेखन’ पर जोर देने से उसके foe'kZ (Discourse) पर जोर आ जाता है। किसी भी कथन या विमर्श का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता। एक विमर्श का अर्थ, दूसरे विमर्शों के सम्बन्धों से निकलता है। एक विमर्श का अर्थ खोजते दूसरे, फिर तीसरे विमर्शों में, उससे आगे चौथे विमर्श में और इस तरह गणित की संख्याओं की अनंतता की भाँति विमर्श की अनंतता का सिलसिला चल पडता है, जो कभी कहीं समाप्त नहीं होता। यानी किसी भी ‘लेखन’ का कोई अर्थ नहीं है, जो चाहो, सो अर्थ लगाते रहो। अर्थ के ‘भ्रम’ को मिटाने के लिए निकला उत्तर संरचनावाद खुद अंतहीन भ्रमों का शिकार होकर रह गया। यहाँ, यह भी ध्यान में रखने की बात है कि जिन विचारकों ने उत्तर आधुनिकतावाद को विकसित पल्लवित किया है, वे ही उत्तर संरचनावाद के विकास के लिए भी उत्तरदायी हैं। अतः वैश्वीकरण के इस व्यापक दौर में उत्तर आधुनिकता के साथ उत्तर संरचनावाद की साँठ गाँठ नजर आती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि फ्रांस दुनिया के प्रथम श्रेणी के उन्नत पूँजीवादी सुविकसित देशों में है और उत्तर आधुनिकता की हवा के चलते उसकी तरफ, फ्रांस की आबोहवा में साँस लेने वाले जैक देरिदा का झुकाव हो जाना स्वाभाविक है। उत्तर आधुनिकता का मूल मंत्र् भी यह कि कहीं कोई चीज स्थायी नहीं, किसी का कोई सांस्कृतिक मूल्य नहीं, सब कुछ अनिश्चित है, जो जैसा चाहे वह वैसा ही आचरण करे, हर आदमी अपने जीवन और चिंतन में स्वतंत्र् है। यानी सारी अनिश्चितताओं के बीच उत्तर आधुनिकता आकार पाती है तो उत्तर संरचनावाद इसी का पोषण करता प्रतीत होता है। ऐसे परिवेश में जब देरिदा यह कहे कि किसी भी शब्द का कोई अर्थ नहीं होता, जिसकी समझ में जो आ जाए, वही उसका अर्थ है तो वह गलती नहीं करते। उनसे और अपेक्षा करना भी फजूल है। देरिदा की अवधारणा से साहित्य, कविता, कला व आलोचना आदि में इस तरह असंख्य निर्वचनों (Discourses) का अंबार लग जाता है और हमें कोई एक सुनिश्चित अर्थ या विमर्श प्राप्त नहीं हो पाता। ऐसे अर्थ को हम निरन्तर ढढते रहते हैं, जो मिलता नहीं है और वह मिलना भी नहीं है, क्योंकि वह अर्थ वहाँ है ही नहीं। देरिदा की इस खोज से साहित्य और आलोचना के संसार में भारी अराजकता आने की आशंका उत्पन्न हो गयी है। देरिदा का आदर्श, मोण्टेन का यह सिद्धान्त है कि ‘‘हमें वस्तु के वास्तविक अर्थ के बजाय, प्राप्त अर्थों के अर्थ का ही विश्लेषण कर उसका अर्थ निकालना है’’
"We need to interpret interpretations
more than to interpret things". Montaigne
जैक देरिदा का यह उत्तर संरचनावाद एक जटिल व अमूर्त में ले जाने वाली अतिभौतिक अवधारणा है, जिसमें दर्शन व भाषिक संरचना दोनों का योगदान है। अतः इसे जरा और धीरज के साथ आत्मसात् करना आवश्यक है। इस उत्तर संरचनावाद से ही निकला ‘विखंडनवाद’ यहाँ हमारा अभीष्ट है, जिसे हम आज की हिन्दी कविता के पाठानुसंधान पर ‘लागू करके देखेंगे। पहले इसकी भीतरी संरचना को समझ लें। अपनी अवधारणा के चलते देरिदा ने कई भारी भरकम पारिभाषिक शब्द गढे चित्रलेखवाद (Grapho centrism), भिन्नता (Difference), लोगोसेण्ट्रिज्म, ब्रिकोलेज और ब्रिकोलियर, थियोलोजिकल थियेटर, अल्टरनेटिव थियेटर और थियेटर क्रूएल्टी तथा आर्केराइटिंग इत्यादि। इन पारिभाषिक शब्दों के सहारे अपने सिद्धान्त को खडा कर समझाने की कोशिश की।
यह ध्यान देने की बात है कि देरिदा ने प्लेटो से लेकर आज तक के बौद्धिक चिंतन का विश्लेषण किया और यह मंतव्य दिया कि दुनिया के चिंतकों ने ‘सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्’ की प्रायोजित खोज में विश्व के स्वाभाविक बौद्धिक विकास को अवरुद्ध किया है और यह उनकी ज्यादती थी। इससे मानव समाज की वास्तविक विचारधारा दबकर घुट गयी और उसकी जगह एक बनावटी आदर्शवादी विचारधारा हजारों वर्ष तक हावी होती चली गयी, यह उनके मत से ‘लोगोसेण्ट्रीज्म’ है। वे इसका विरोध करते हैं। क्योंकि इससे मानव जाति को कोई लाभ नहीं हुआ। यह कोशिश एक मृगतृष्णा सिद्ध हुई। सत्य, शिव व सुंदर की तलाश ने आज के मनुष्य को नितांत झूठ, फरेब और बदसूरती के चौखटे पर ला खडा किया है। ऐसे पाठों (Discourses) से मनुष्य को क्या मिला ? यहाँ उनके सारे पारिभाषिक शब्दों का विश्लेषण और व्याख्या न तो संभव है और न ही आवश्यक। पर इतना हम कह सकते हैं कि देरिदा की स्कॉलरली सिंसियरिटी में हम श्ंाका नहीं करते। उनकी चिंतनगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा सराहनीय है, तथापि उनके सिद्धान्त का सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किए बिना समर्थन नहीं किया जा सकता।
विखंडनवाद को समझाते हुए देरिदा ने अपने चित्रलेखवाद (Graphocentrism) का यह प्रारूप पेश किया कि हर शब्द के उच्चार का एक श्रौतबिंब व फिर उसका एक मानसिक बिंब होता है और अदृश्य श्रौतबिंब की दृश्य रचना ‘लेखन’ का रूप लेती है। डॉ. बच्चन सिंह ने इस सिद्धान्त को उदाहरण से समझाते हुए यह लिखा है कि ‘‘भाषा की पारम्परिक समझ दो शब्दों पर आधारित है लेखन और उच्चार। इन दोनों में भी उच्चार का महत्त्व अधिक है। उच्चार श्रौत बिंब है। यह एक प्रत्यय या अवधारणा को आहूत करता है। इस प्रक्रिया में श्रौत बिंब क्षण भर में ही खत्म हो जाता है। सुनते सुनते उच्चार तो नहीं रहता पर उनके द्वारा प्रस्तुत अवधारणा उभर आती है। पारिभाषिक शब्दावली में संकेतक (Signifier), संकेतित (Signified) का संकेत करते हुए स्वयं अनस्तित्ववान हो जाता है। उदाहरणार्थ एक शब्द को लीजिए पंकज। बोला जाकर वह ‘उच्चार’ होगा। पर बोलने की प्रक्रिया में ही उससे एक ‘प्रत्यय’ का ज्ञान होता है और उच्चार मौन में बदल जाता है। ‘पंकज’ उच्चार है, कमल का फूल प्रत्यय है। उसमें प्रत्यय का महत्त्व ज्यादा है। लिखित शब्द उसके उच्चार या श्रोतबिंब का चित्रलेख है। यह चित्रलेख उच्चार का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे शब्दों में यह अदृश्य श्रोतबिंब की दृश्य संरचना है।’’4
इस विश्लेषण में देरिदा ने तीन पारिभाषिक शब्दों पर जोर दिया
1. भिन्नता (Difference), 2. चिह्न (Trace) और आद्यलेखन (Arch writing)।
पहले दो शब्दों का सम्बन्ध स्वयं साहित्यिक रचना से, तीसरे शब्द का सम्बन्ध कथ्य की तलाश से है। पुनः ‘भिन्नता’ शब्द का सम्बन्ध दो तरह की क्रियाओं से है भिन्नता और विलंबन या स्थगन (Differing)। यहाँ, भिन्नता का तात्पर्य जो वह है, वह दूसरा नहीं। ‘विलंबन’ ऐसा कुछ, जो पूरे तौर पर ‘पाठ’ में नहीं है या स्थगित है। पहला दिक में और दूसरा काल में स्थित है। जो ‘पंक’ है, वह पंकज नहीं है, यह भिन्नता है। चिह्न की दूसरी शक्ति उसके अर्थ में विलंबन या स्थगन है। किसी कविता में प्रयुक्त ‘पंकज’ शब्द का अर्थान्वेषण हम तब शुरू करते हैं जब यह समझ लें कि वह पुष्प नहीं है, जिसे हम वास्तव में देखते हैं। कविता में यह कुछ दूसरा ही होता है। इस होने को खोजना आलोचना का कार्य है। अतः चिह्न ;ज्तंबमद्ध का आधा भाग वह, जो वह नहीं है और आधा वह है जो वहाँ मौजूद नहीं है। कोई भी शब्द संकेत न किसी शाश्वत वस्तु का संकेतक होता है न किसी मूल्य का सूचक। चिह्न की अर्थवत्ता संदर्भ में निहित होती है। प्रश्न उठता है कि जो चिह्न में नहीं है, उसकी तलाश कैसे हो ? आद्यलेखन (Arch writing) का जहाँ तक सवाल है, देरिदा का कहना है कि यह संकेतक नहीं होता, बल्कि ऐसे चिह्नों (Traces) से संपृक्त होता है, जिनसे अनुपस्थित (अर्थ) की तलाश की जाती है। इन चिह्नों से चित्रलेख में व्यापक अर्थ भर जाता है। यही पाठक या आलोचक की चेतना को गति देता है, गतिशील बनाता है। गतिशीलता किस दिशा में कहाँ जाकर सार्थक होगी, कुछ पता नहीं। इस तरह अनुपस्थित लेखन ही आद्य लेखन है और साहित्य आद्य लेखन की अभिव्यक्ति है। अपने विख्यात ग्रंथ ‘ऑफ ग्रेमेटोलॉजी’ में देरिदा ने ये विचार रखे हैं। उनकी और भी कई पुस्तकें हैं। पर हमारे लिए प्रासंगिक साहित्यिक रचना के संदर्भ में आलोचना कर्म को दिशा देते हुए वे लिखते हैं आलोचक का कर्म उस खोई हुई वस्तु की तलाश है, जो दृश्य चिन्ह पहदेद्ध में तो नहीं है, पर उसके कुछ निशान मौजूद हैं। इस खोई हुई वस्तु को वह आद्य लेखन कहता है। उनके अनुसार साहित्य की शक्ति न तो भाषा में है और न भाषा की पद्धति में। वह उस वस्तु में है, जो अदृश्य और अनुपस्थित है। परिणामस्वरूप, विखंडनवाद आलोचना का कोई मॉडल प्रस्तुत नहीं करता। वह हर मॉडल का विरोधी और ध्वंसक जरूर है। सभी मॉडलों और मानकों को ढहाकर भी देरिदा अपना कोई मॉडल या सही विकल्प प्रस्तुत नहीं करते। अतः यह विखंडनवाद, एक ‘साहित्यिक आतंकवाद’ में बदल जाता है, जहाँ किसी शब्द, किसी रचना, किसी कृति का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। हर शब्द, हर वाक्य, हर रचना अनेक निर्वचनों या तात्पर्यों का अंतहीन भंडार है। जो जैसा पढे, वह अपना मनचाहा अर्थ निकालता रहे। यह सर्वध्वंसवादी अवधारणा भला हिन्दी कविता के पाठ व उसकी आलोचना पर कहाँ, कैसे लागू की जा सकती है यह अपने में एक घोर चिंतनीय विषय है।
इस भयानक विखंडनवादी अवधारणा से हमें, बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की याद आए बिना नहीं रहती, जिसने कहा था कि कहीं कोई वास्तविक तत्व या सत्ता नहीं है। सब कुछ शून्य है। उनका मत चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्यवाद है। उनसे पूछा गया कि आप तो तथागत बुद्ध के अनुयायी और भक्त हैं, क्या तथागत भी शून्य हैं ? तो नागार्जुन ने उत्तर दिया कि ‘‘हाँ, तथागत बुद्ध भी शून्य हैं।’’ इस शून्यवाद को आगे चलकर आदि शंकराचार्य ने अपने ‘शारीरिक भाष्य’ में ‘सर्ववैनाशिकत्ववाद’ की संज्ञा दी, जो सही थी। जैक देरिदा की इस विखंडनवादी अवधारणा को भी हम ‘सर्ववैनाशिकवादी अवधारणा’ कह सकते हैं, जो नया निर्माण कर कुछ नहीं देती, बल्कि पूर्व निर्माणों को महज ढहाना जानती है। क्या इसे साहित्य में प्रयोजनीय महत्त्व दिया जा सकता है
प्रेमचन्द के उस अविस्मरणीय कथन को यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है जिसमें उन्होंने यह अकाट््य विचार प्रस्तुत किया कि संसार का कोई भी ज्ञान विज्ञान या साहित्य सृजन क्यों न हो, मैं उसे सामाजिक उपयोगिता की तुला पर तौलने का पक्षधर हूँ। वर्ना, उसकी कौडी भर कीमत नहीं है। यही बात यहाँ देरिदा के इस सिद्धान्त पर लागू होती है। सिद्धान्त बहुत ऊँचा है, बेमिसाल है, प्रतिभा का नायाब नमूना है, पर वह समाज के किस काम का है ? सोने की कटारी हो भी तो अपने पेट में नहीं भोंकी जा सकती।
देरिदा से तो बेहतर मिशेल फूको का उत्तर संरचनावाद है, जिसमें वे शब्द का अर्थ तलाशने के बजाय उसके विमर्श पर जोर देते हैं। फूको के अनुसार ‘विमर्श’ मानव मस्तिष्क की केन्द्रीय गतिविधि है। वह इस विडम्बना को रेखांकित करता है कि कोई भी सिद्धान्त उस समय तक स्वीकृत नहीं होता, जब तक वह अपने युग के राजनीतिक और बौद्धिक सत्ता केन्द्रों में सामंजस्य स्थापित नहीं कर लेता। फूको पर यद्यपि नीत्शे और माक्र्स का प्रभाव है, पर फिर भी वे अपना मौलिक सिद्धांत विकसित कर सके। बल्कि फूको में तो ऐसा बहुत कुछ है, जिससे अहम्मन्य माक्र्सवादी भी ‘ज्ञान या पद्धति’ के मामले में अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। खैर, हमें इस दिशा में अभी नहीं जाना है।
जैक देरिदा का यह सिद्धान्त गजब ढाने वाला आतंककारी सिद्धान्त है, जो सामाजिक दायित्व से आँखें मूँदे हुए, उत्तर आधुनिकता से अपनी गलबहियाँ मिलाता नजर आ रहा है। दिशाहीन, मतिहीन, प्रयोजनहीन, तर्कहीन, मूल्यहीन व मनमानी जीवनशैली और निरंकुश समाज निरपेक्ष आजाद जन्दगी की पैरवी करने वाली उत्तर आधुनिकता से इसका तालमेल स्पष्ट नजर आता है। बेचारे सस्योर जैसे दायित्वशील चिंतक के संरचनावाद का भट्टा बैठाने वाला यह खतरनाक सिद्धान्त विश्व की सम्पूर्ण अतीत, वर्तमान और भविष्य की साहित्य रचना विरासत को ध्वस्त कर उसका प्राण हरण करने वाला सिद्धान्त है। यह साहित्य रचना के लिए विष तुल्य है। देरिदा, लगता है कि उत्तर आधुनिकता और वैश्वीकरण की हरी भरी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अग्रदूत के रूप म साहित्य के हर पाठक को एक ‘कन्जूमर’ (उपभोक्ता) बना देना चाहता है, ताकि वह साहित्य के उत्पादित माल का जैसा मूल्य और उपभोग उपयोग करना चाहे, अपने में स्वतंत्र् है। उसे किसी परम्परा, संस्कार और साहित्यिक सौंदर्य, सामाजिक उपादेयता आदि ‘फालतू बातों’ से कोई मतलब नहीं है। वह जो चाहे जिस रचना का कैसा भी अर्थ निकाले और उसे माने। अब बताइए भला, हमारी आज की हिन्दी कविता का, देरिदा के कथनानुसार हम क्या अचार मुरब्बा बनाएँ ? यह सर्वध्वंसवादी विखंडनवाद, साहित्य और उसकी सामाजिक उपादेयता का हत्यारा है। डिकंस्ट्रक्शन आखिर ‘डिकांस्ट्रक्शन’ ही साबित होता है, जो जे.सी.बी. मशीन की तरह निर्माण को ढहाना तो जानता है, पर कोई नव निर्माण, नया आदर्श, नया मॉडल कोई सामयिक सही विकल्प प्रस्तुत नहीं करता। अतः यह विखंडनवाद साहित्य और भाषा के क्षेत्र् में अप्रयोजनीय और बहिष्कृत करने लायक है। देरिदा की तीक्ष्ण प्रतिभा के हम कायल हैं, पर यह प्रतिभा सृजनात्मक और मूल्य विधायक न होकर, विनाशकारी और नकारात्मक है।
जैक देरिदा की तुलना में प्राचीन भारत के काव्यशास्त्र् में व अन्य क्षेत्रें में अधिक परिष्कृत, समाजोपयोगी चिंतन मिलता है, जिसमें कुंतक का यह कथन कि ‘बन्धे व्यवस्थितौ’ ध्यानाकर्षक है। कुंतक यह कहते हैं कि ‘बन्ध’ यानी टेक्स्ट में ही उसका अर्थ व अर्थ सौंदर्य सब कुछ समाहित है, उससे बाहर नहीं। इसी तरह, जैन दर्शन के स्याद्वाद और सप्तभंगीनय और न्यायदर्शन का तर्कवादी चिंतन, भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ ग्रंथ में भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण अधिक आस्थामूलक, विश्व संस्कृति को आगे बढाने वाला और ऊँचा उठाने वाला है। संस्कृत में किसी सूक्तिकार ने ठीक ही कहा है कि ‘‘यद्यपि सिद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयं नाचरणीयम्।’’ यानी, कोई भी व्यक्ति या विचार कितना ही महान् और सिद्ध क्यों न हो, यदि वह लोकविरुद्ध है, तो आचरण में और व्यवहार में लाने योग्य नहीं है, नहीं है। विश्व की सभ्यता व संस्कृति का नियामक ‘लोक’ है, उसके विरुद्ध जो भी होगा, नष्ट हो जाएगा या भूला दिया जाएगा। प्रतिभा और प्रतिभाजन्य ऊँचे विचार कदाचित् ‘सत्य’ हो सकते हैं, पर ‘सत्य’ का आधार ‘हित’ है, वह भी लोकहित। अतः लोकहित के प्रतिकूल जाने वाला जैक देरिदा का यह विखंडनवाद साहित्य और आज की हिन्दी कविता का पाठ व तात्पर्य निकालने के लिए उपयुक्त साधन व माध्यम नहीं हो सकता।
18 Apr 2014 at 6:18 PM
डॉ. सत्यनारायण व्यास
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