Tuesday, 6 November 2018

लोकप्रियता और राग दरबारी




24 Apr 2013 at 12:21 AM
 
लोकप्रियता और राग दरबारी



      राग दरबारी पर कुछ लिखने का प्रस्ताव मिलने से हुए अनुभव को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. प्रस्ताव पर स्वीकृति की मुहर लगाने के बाद समस्या यह थी कि लिखने का विषय क्या हो? बहुत सारे विषय एक एक कर दिमाग में धक्कम पेल करने लगे. ‘घास खोदने’ की पद्धति का अनुसरण करते हुए मैंने कुछ घास खोदा लेकिन किसी एक विषय पर नहीं पहूंच पाया. लेकिन एक दिन यूँ ही एक आयोजन में मेरा अपने एक नाना जी से सामना हो गया. सामना ही हुआ था क्योंकि उनके पास सवाल थे और मैं उन सवालों से किसी तरह अपना बचाव करता जा रहा था. इन्हीं सवालों में एक सवाल यह भी था कि श्रीलाल शुक्ल का महत्त्व क्यों है? मैंने उन्हें बताया और इसी क्रम में ‘राग दरबारी’ की चर्चा हो गई. उन्होंने आदेश दिया कि मुझे भी पढ़वाओ. मैंने शाम में ही ‘राग दरबारी’ उन्हें उपलब्ध करा दिया. एक सप्ताह बाद फ़िर उनसे मिलना हुआ. इस बार उनके हाथ में ‘राग दरबारी’ थी और उसके चिन्हित पन्ने थे जिसका वह हमलोगो को बैठाकर पाठ कर रहे थे. कुछ ही दिनों में वे या पहले पाठन में ही वे राग दरबारी का हिस्सा बन चुके थे. रोलां बार्थ ने यहीं तो कहा था कि पाठ ऐसा हो जिसका पाठक अंदरूनी हिस्सा बन जाये. इसी क्रम में मुझे ‘राग दरबारी’ से जुड़ा एक और किस्सा याद आया. एक बारात में एक पंखा था. पंखा बार बार एक ही दिशा में घुम जाता था जिस दिशा में रहने से किसी को लाभ नहीं था. कितनी ही बार उसकी दिशा सुधारने का यत्न हुआ लेकिन निष्फ़ल. शीघ्र ही उसकी उपमा ‘राग दरबारी’ के ट्रक के गेयर से दे दी गई जो बार बार एक ही गेयर में आ जाता था और उसको पकड़ के रखना पड़ता था. 


    इस छोटे से गद्यांश के बाद मैं यह कहने में विलंब नहीं करना चाहता कि मेरे लिये अब यह कौतुहल का विषय था कि राग दरबारी की लोकप्रियता इतनी क्युं है? क्यों वह जीवन के लिये हमेशा प्रासंगिक हो उठता है?  हिन्दी में अनेक क्लासिक्स रचे गये हैं लेकिन ‘राग दरबारी’ के उद्धरण ही सामाजिक चर्चाओं में अधिक स्पेस क्यूं  लिये हुए हैं. राग दरबारी के जन्म से चार दशक की दूरी के बाद भी क्युं इसका जादू नहीं कम हो रहा है? आखिर क्या है जो इसका गद्य भी जबान पर चढ़ा हुआ है ? इस पर्चे में इसी प्रक्रिया को समझने की कोशिश की गई है.

लोकप्रिय का एक सीधा सीधा अर्थ है कि जो लोक को प्रिय हो जाये. लेकिन लोक कौन?  क्या यह लोक अंग्रेजी का फ़ोक है जिसका मतलब सामान्य जन से होता है और कभी कभी इसे आदिम और देहाती भी समझा जाता है.[i] साधारण अर्थ में  लोक में सभी शामिल हो जाते हैं लेकिन विशेष अर्थ में हम जानते हैं कि यह ‘विशेष’ से अलग होता है. कला के क्षेत्र में हम लोक और शास्त्रीय का विभाजन देखते हैं जिसमें शास्त्रीय का मतलब ही परिष्कृत और व्याकरणिक होता है जबकी लोक का मतलब अनगढ़  होता है. अंग्रेजी में लोकप्रिय शब्द का पर्यायवाची पोपुलर है. पोपुलर अच्छी तरह से पसंद किये जाने की सामाजिक स्थिति है जिसका प्रसार व्यापक होता है.[ii]  यानी जन सामान्य द्वारा अच्छी तरह से जानी गई और अच्छी तरह से पसंद की चीज पोपुलर होती है. इसी पोपुलर से पोपुलर संस्कृति की अवधारणा का विकास हुआ है. पोपुलर कल्चर दो अर्थों को धारण करता है पहला जो इसे दोयम दर्जे का मानता है और दुसरे अर्थ में इसे व्यापक पसंद किया जाने वाला समझा जाता है. लेकिन अधिकांशतः पोपुलर कल्चर का मतलब ही कमतर समझ लिया जाता है.[iii] और इस पोपुलर कल्चर में आने वाली हर निर्मति  जैसे सिनेमा, संगीत, साहित्य, क्रिकेट इत्यादि को दोयम दर्जे का मान लिया जाता है. संस्कृति अध्ययन नाम के अनुशासन ने पोपुलर संस्कृति के अध्ययन का रास्ता खोल दिया है अन्यथा विद्वत जनों के लिये यह त्याज्य क्षेत्र था. इसके अध्ययन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता था बावजुद इसके कि यह हमारे दैनंदिन जीवन के निर्मित हो रहे इतिहास के अध्ययन में सहायक है.


 ‘लोकप्रिय’ शब्द सुनते ही बौद्धक वर्ग के कान खड़े हो जाते हैं और वे इसकी ओर थोड़ा नीची निगाह से देखते हैं. और अपने आभिजात्य को इस लोकप्रिय अछूत से बचाने की कोशिश करते हैं. हिन्दी के उन कवियों का उदाहरण हमारे सामने है जिनकी ‘लोकप्रियता’ ने आलोचना के आभिजात्य से उनको लगभग बाहर करवा दिया. लेकिन उपन्यास का मसला अलग है. उपन्यास दरअसल लोकप्रिय विधा के रूप में ही सामने आया. उपन्यास का इतिहास ही बताता है कि छापेखाने के अविष्कार के बाद इस विधा का आगमन हुआ और निरंतर इसकी पठनीयता बढी और उपन्यास ने एक साहित्यिक विधा के रूप में अपना स्थान पक्का किया[iv]. भारत में भी उपन्यास का आगमन जिन परिस्थितियों में हुआ वो युरोप से भिन्न थी. ना यहां पुंजीवाद था, ना ही मध्यमवर्ग का उदय हुआ था और ना ही यहां के दर्शन में यथार्थवाद और व्यक्तिवाद था. लेकिन यहां आख्यायिका की परंपरा, थी दास्तान था, बाणभट्ट की कादंबरी और कथा सरित्सागर भी था.[v]  छापेखाने के अविष्कार के बाद छपने वाले साहित्य के रूप में सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, किस्सा तोता मैना इत्यादि भी था जो पाठक तैयार कर रहा था.(मुखर्जी,२०११, ४०) हिन्दी में उपन्यास की परंपरा का विकास किस्सों और दास्तानों की परंपरा से हुआ है. यद्यपि सरंचना और शिल्प पश्चिम से लिये गये थे लेकिन अन्य कला माध्यमों की तरह ये भारतीय परंपरा से जुड़ गये. किस्सा और दास्तान बहुत ही लोकप्रिय माध्यम था. दास्तानों की बैठके रात पर जमती थी. हिन्दी उपन्यास का विकास इन किस्सों और दास्तानों की इसी परंपरा की अगली कड़ी थी. देवकीनंदन खत्री के उपन्यास इस का उदाहरण है. मुंशी प्रेमचंद ने भी अपने लेखन में दास्तानों की परंपरा का दाय स्वीकार किया है[vi]. देवकी नंदन खत्री के उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हुए. उनका पहला ही उपन्यास चंद्रकांता इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी  कड़ी दर कड़ी निकलती गई और जैसा कि सर्वविदित है कि चंद्रकांता पढने के लिये लोगो ने हिन्दी सीखी. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है “ …जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने किसी ग्रंथकार ने नहीं. चंद्रकांता पढ़ने के लिए ना जाने कितने उर्दुजीवी लोगों ने हिंदी सीखी”[vii]. आगे इस बात का भी जिक्र है कि चंद्रकांता और इस जैसे अन्य उपन्यासों के प्रभाव में ना जाने कितने लेखक हो गये. चंद्रकांता ने हिंदी में तिलिस्मी और जासुसी उपन्यासों की एक परंपरा की शुरुआत की जो आज भी कायम है. इन उपन्यासों का संबंध लोकप्रियता से ही जुड़ा. और इन्हें साहित्य की उस कोटी में नहीं रखा गया. आचार्य शुक्ल ही लिखते हैं “इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना वैचित्र्य रहा; रससंचार, भावविभूति या चरित्र चित्रण नहीं. ये वास्तव में घटनाप्रधान कथानक या हिस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य की कोटी में नहीं आते” [viii] आचार्य शुक्ल केवल खत्री जी का ऐतिहासिक महत्त्व ही स्वीकार करते हैं वैसे उन्होंने किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों को साहित्य की कोटि में रखा जो उनकी कसौटी में समाते थे[ix]. इस तरह आरम्भ में ही उपन्यास में लोकप्रिय और साहित्यिक दो श्रेणी विभाजन हो गया. उसी प्रकार जैसा कि आधुनिक युग के आरम्भ में ही भारतेन्दु और उनके समकालीनों  ने  ‘आर्य शिष्टजनोपयोगी’ के नाम पर पारसी नाटकों को हेय दृष्टि से देखा  और साहित्यिक रंगमंच की स्थापना की कोशिशे की. वस्तुतः ऐसा सभी कला रूपों के साथ हुआ जिसमें आधुनिकता, राष्ट्रीयता और समाज सुधार के लिये उपयोगी रचनाओं को महत्त्व दिया गया और इससे इतर को हतोत्साहित किया गया. लेकिन जिन कला रूपों में यह उद्देश्य पूरा होता था उनको भी दरकिनार कर दिया गया क्योंकि वे आधुनिकता के मापदंडों पर खरी नहीं थी.[x]आभिजात्य आलोचना ने कला को मर्यादित और अनुशासित रखने के लिये ‘साहित्यिक’ कहे जाने की विशेष कोटी निर्मित कर दी थी. मनोहर श्याम जोशी लिखते हैं कि “आधुनिकता के दौर से पहले संस्कृति को लोकप्रिय और श्रेष्ठ दो बिलकुल अलग थलग हिस्सों में कभी नहीं बांटा गया था. यह कभी नही कहा गया था कि बौद्धिक लोगों द्वारा रचा हुआ साहित्य तमाम पुराने साहित्य से और जनता की समझ में आने वाले साहित्य से अलग और अनुठा होता है.”[xi] वस्तुतः  आभिजात्य और लोकप्रिय का यह विभाजन आधुनिकता की ही देन है. आधुनिकता  से विकसित चेतना ने जो पिछड़ेपन का बोध कराया उसमें परंपरा की बहुत सी चीज शामिल थी जिससे लगाव आधुनिकता के मार्ग में बाधक होता. अतः आधुनिकता के प्रसार के साथ ही  हर क्षेत्र में ऐसी कृतियां हुईं जो आधुनिक मूल्यों के वाहक बन सकें. साहित्य भी इससे अछुता कैसे रह सकता था.


जैसा कि उपर कहा गया कि कथा साहित्य का विकास ही लोकप्रिय किस्सों और कहानियों के क्रम में हुआ था. लेकिन आरंभिक उपन्यासकारों के सामने अंग्रेजी उपन्यास थे जिनका अनुसरण कर वे उपन्यास की सरंचना को अंग्रेजी उपन्यासों के नजदीक रखने लगे. जिस यथार्थवाद और व्यक्तिवाद का वे अनुसरण कर रहे थे वैसा यथार्थवाद यहां की जनता में न था. इसलिये उसी दौर में फ़ैंटेसी रचने वाली कहानियां और एतिहासिक उपन्यास आये वह जनता में अतीव लोकप्रिय हुए. साक्षरता के विकास के साथ साथ पाठक संख्या बढ़ती गई और उपन्यास जन सामान्य में जगह बनाती गई. चन्द्रकांता की लोकप्रियता का जिक्र हो ही चुका है. जिसने हिन्दी उपन्यास और हिन्दी भाषा को स्थापित किया.[xii] चन्द्रकांता के बाद जासुसी उपन्यासों और तिलिस्मी उपन्यासों के लेखन का एक पूरा इतिहास मौजुद है. प्रेमचंद के आगमन ने कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया. प्रेमचंद भी अत्यंत लोकप्रिय उपन्यासकार थे लेकिन उन्होंने अपने लेखन को मनोरंजन से उपर उठाकर कुछ मूल्यपरक भी बनाया. उन्होने ‘हुस्न का मेयार’ बदलने की सिर्फ़ बात ही नहीं की उसे बदला भी. प्रेमचंद के समान ही अन्य उपन्यासकारों को लोकप्रियता के तत्त्वों को शामिल करना पड़ा.  जैसा कि चारू गुप्ता भी लिखती हैं “हिंदु साहित्यिकों ने लेखन को अनुशासित करने का प्रयास तो किया मगर पढ़ने की आदतों ने  उन्हें भी अपनी रचनाओं में कुछ लोकप्रिय तत्त्व समाहित करने पर विवश कर दिया.”[xiii] पढ़ने की ये आदत यहीं थी जो चंद्रकांता और जासुसी उपन्यासों ने तैयार की थी. इसीलिये मैनेजर पांडे सही सवाल पूछते हैं कि “अगर देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों से एक बड़ा पाठक समुदाय पैदा नहीं हुआ होता, तो क्या प्रेमचंद एक के बाद एक गंभीर उपन्यास लिख पाते? संभव है अगर पहले देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी न हुए होते तो प्रेमचंद को वहीं काम करना पड़ता जो उन दोनों ने किया  था”. [xiv]



 हिन्दी में लोकप्रिय साहित्य कहने से अक्सर हमारा ध्यान लुगदी उपन्यासों और फ़ुटपाथी साहित्य पर चला जाता है. और फ़िर अध्ययन के केंद्रो से उसे बाहर कर दिया जाता है. सारा का सारा ध्यान गंभीर साहित्य पर ही रहता है. ये भूलाकर कि गंभीर साहित्य भी लोकप्रिय हो सकता है. या लोकप्रियता  मूल्यों के ह्रास का बोधक नहीं है या तथाकथित लोकप्रिय साहित्य के भी कुछ मुल्य हो सकते हैं जिनका अध्ययन कर समाज और समय को समझा जा सकता है. यह कुछ नहीं करते तो कम से कम अध्ययनशीलता की प्रवृति तो बढ़ाते ही हैं. अधिकांश लेखक भी यह कबुलते हैं कि उनके पढ़ने की आदत के पीछे ऐसे साहित्य की अध्ययन की बड़ी भूमिका रही है.[xv]  लोकप्रिय लेखन और साहित्यिक लेखन का भी विभाजन यह है कि ‘लोकप्रिय’ लेखन का उद्देश्य होता है कि पाठक की संवेदना को सहला कर उसका मनोरंजन करना जबकि साहित्यिक लेखन का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति होता है जो संवेदना के साथ साथ सोच पर भी असर करता है और किसी प्रकार का पलायन नहीं रचता है.  साहित्यिकता की कोटी भी समय अनुसार बदलती रहती है एक समय में साहित्यिक समझी गई कृतियां भविष्य में असाहित्यिक हो सकती हैं और इसी प्रकार लोकप्रिय समझी गई कृतियां साहित्यिक दर्जा पा सकती हैं.  ऊपर हमने पाठकों की बात की . हर किस्म के लेखन के अलग पाठक होते हैं . कोई भी रचना शुन्य में नहीं होती पाठक उसे चाहिये ही. लोकप्रियता का पैमाना पाठक ही है. अगर गंभीर लेखक को पाठक ना मिले तो? या जिन्हें हम गंभीर लेखक मानते हैं  क्या उनकी पाठक संख्या या लोकप्रियता कम रही है. प्रेमचंद और शरतचंद्र के पाठकों की सख्या किसी ‘लोकप्रिय’ लेखक से कम रही है!  यानी लोकप्रियता और साहित्यिकता कोई दो विपरित ध्रुवीय नहीं हैं. लोकप्रिय कृति भी साहित्यिक हो सकती है उसी प्रकार  साहित्यिक कृति भी लोकप्रिय. यहीं वह बिन्दू है जहां से ‘राग दरबारी’ के संदर्भ में लोकप्रियता की चर्चा आरंभ की जा सकती है.


किसी उपन्यास को  लोकप्रिय कैसे कहा जा सकता है? इस सवाल का सीधा सीधा जवाब है उसके पाठकों की संख्या के आधार पर. पाठकों की संख्या कैसे पता चले? उपन्यास के बिके हुए संस्करणों के  आधार पर.  हिन्दी में उपन्यास के बिके हुए प्रतियों की संख्या पता करना टेढ़ी खीर है.  कैसे! ध्यान दें “यह तथ्य गौरतलब है कि प्रकाशक ने पहले संस्करण (१९६८) के बाद सीधे ग्यारह्वे संस्करण(१९९२), उसके बाद नौवीं आवृति (२००४) और फिर बारहवें संस्करण (२००७) का ब्यौरा यथास्थान छापा है. साफ़ नहीं होता कि ग्यारहवें संस्करण के बाद उलटी गिनती क्यों शुरु हो गई? यह नौवीं आवृति क्या बला है ? आवृति और संस्करण में क्या फर्क है ?” [xvi] यह परेशानी निर्मला जैन की है. इसमें कुछ मेरी परेशानी जोड़ लीजिये.  १९६८ में राग दरबारी प्रकाशित हुआ था. प्रकाशन के बाद १५ साल के बाद पेपरबैक संस्करण में आया.  मेरे पास जो प्रति है उसमें सूचना दी गई है कि दसवां संस्करण (१९९१) और फ़िर बारहवीं आवृति. इतना ही अब तो राग दरबारी पेपरबैक में ही पूरे डिलक्स आकार में भी छपना शुरु हो गया है. कुल मिलाकर प्रकाशन गृह की सुचनाओं के आधार पर बिकी हुई प्रतियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. और वह घोषणा करेंगे ऐसी उम्मीद तो बेजा ही है. छपने के बाद से निरंतर राग दरबारी का संस्करण दर संस्करण निकलना इसकी लोकप्रियता का सबुत है. हिन्दी के अलावा ‘राग दरबारी’ का लगभग पन्द्रह विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. अंग्रेजी में भी इसका अनुवाद हो चुका है.  इन सबको मिलाकर देखने से इसकी लोकप्रियता का अनुमान लगता है.

बिक्री के यह आंकड़े तब है जब हिन्दी का प्रकाशन जगत पुस्तक  पाठकों को बेचने में सबसे कम दिलचस्पी लेता है. उसकी सारी दिलचस्पी सरकारी खरीद के लिये बेचने में होती है.  उसमें हिंदी के किताबों के लिये ना प्रचार-प्रसार का तंत्र बढिया है ना वितरण की नीति. दिल्ली में ही हिन्दी की किताबे खरीद लेना सहज नहीं है. आम पाठक इतना मेहनत ही क्यों करेगा? जबकि अंग्रेजी से उदाहरण लीजिये तो अंग्रेजी की किताबे हाइप, प्रचार और वितरण के तंत्र के सहारे बिकती हैं. आज अंग्रेजी के सबसे बिकने वाले उपन्यासकार की बिक्री का एक कारण यह भी है कि किताब की दुकानों को नई किताब के प्रकाशित होते ही भर दिया जाता है. जाहिर है, हर ओर वहीं किताब दीखता है और बिकता भी है. हिंदी की हालत यह है कि ब्रांडेड स्टालों पर तो हिंदी की किताब  भी नहीं मिलती. किताब बिक्री को केवल मेलों के भरोसे छोड़ दिया गया है और ‘पाठक’ नहीं होने का खटराग अलापा जा रहा है. जबकि इसी समय में हिन्दी दैनिकों, पाक्षिकों और मासिकों की बिक्री पहले से अधिक हो रही है.

यद्यपि ‘राग दरबारी’ के आगमन के साथ ही इसको आलोचकों द्वारा खारिज करने में विलंब नहीं किया गया था. नेमिचंद्र जैन ने इसे ‘असंतोष का खटराग’ तो मुद्राराक्षस ने इसे ‘व्यंग्य लेख संग्रह’ कहा था जिसमें ‘वेदनाओं का कार्टुन’ प्रस्तुत किया गया है.  श्रीपत राय ने तो इसे ‘महाऊब का महाग्रन्थ’ कहा था और अपठनीय रह जाने को इसकी नियति घोषित किया था.[xvii] नित्यानंद तिवारी ने अपनी समीक्षा के तीस वर्ष बाद इस का पुनर्पाठ किया और इसकी महत्त्व और प्रासंगिकता को स्वीकार किया . उन्होंने माना कि ‘यथार्थवादी ढांचा ‘राग दरबारी’ के मूल्यांकन के लिये पर्याप्त नहीं’  और ‘राग दरबारी’ की  जो अतिरंजनायें हैं तब व्यंग्यात्मक लगती थीं अब व्यंग्यात्मक से अधिक वास्तविक लगती हैं’[xviii]. ‘राग दरबारी को इस कदर खारिज कर दिया गया था कि श्रीलाल शुक्ल निराश हो गये थे और एक लेखक ने जब उपन्यास की प्रशंसा की तो उन्हें यकीन नहीं हुआ[xix].  हिन्दी आलोचना के लिये यह नई बात नहीं. इससे पूर्व ‘मैला आंचल’ को भी रामविलाश  शर्मा खारिज कर चुके थे और बाद में नामवर सिंह ने भी ‘मैला आंचल’ का सही मूल्यांकन ना कर पाने की असमर्थता का स्वीकार किया. वस्तूतः हिन्दी आलोचना की यह एक बड़ी परंपरा  है जिसमें लेखकों को उछालने और गिराने का खेल चलता ही है लेकिन फिर भी कृतियां ऐसी निकल ही जाती है जो आलोचकों को धत्ता बताते हुए पाठकों के सहारे खड़ी हो जाती है और आलोचक देखते रह जाते हैं. ‘राग दरबारी’ ऐसी ही कृति है जिसने पाठकों के बीच अपनी पुख्ता जगह बनाई. आश्चर्य ही लगता है कि प्रकाशन के दो वर्षों के भीतर इसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका था जो असमय पुरस्कार देने के लिये कुख्यात है.



‘राग दरबारी’ की लोकप्रियता को जानने के लिये कुछ संस्मरणों के अंश पढ़ना दिलचस्प होगा जो सचेत पाठकों ने या कहिये आलोचकों ने लिखे हैं. एक आलोचक  ने बड़ी इमानदारी के साथ स्वीकारा है कि उन्होंने राग दरबारी बकायदा चुरा कर पढी.[xx] एक बताते हैं कि कैसे ‘राग दरबारी’ का सामुहिक वाचन हुआ और उस वाचन के बाद  “उनमें से कुछ को सुनास की बिमारी हो गई थी. किसी चायघर में या कचहरी की किसी दुकान में बैठकर कुछ अंशों को सुनाते. इस दौरान सुनने वाला भी हंसता और सुनाने वाला भी हंसता”[xxi]एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार की स्वीकारोक्ति है कि पहली बार पढ़ने के  बाद यह किताब हमेशा उनके साथ रही.[xxii] एक आलोचक ने यह दर्ज किया है कि पहली बार राग दरबारी पढ़ने के मौका इसलिये उनके हाथ से जाता रहा क्योंकि दूसरा पाठक उनसे अधिक भाड़ा देने को तैयार था.[xxiii] खैर ये तो आलोचकों और साहित्य में सक्रिय लोगों के विचार है लेकिन इन सबके अलावा विविध क्षेत्रों से संबंद्ध पाठक से मिलने का मेरा अनुभव रहा है जो विशुद्ध पाठक है और जिन्हें ‘राग दरबारी’ अत्यंत रोचक लगा है. ऐसे पाठक भी जिनका पहला ही उपन्यास यह रहा और उसके बाद से मेरे पीछे पड़ गये कि ऐसी ही कुछ और पढ़वाओ.  ये प्रमाण हैं  राग दरबारी की अपठनीयता को निर्मूल करते हैं इसलिये रूपर्ट स्नेल ने कहा कि इस पर इसकी   ‘जबर्दस्त पठनीयता के लिये भी ध्यान दिया जाना चाहिये’(रूपर्ट स्नेल, २०००)
इसकी पठनीयता  आखिर क्यों है?  क्यों लेखक द्वारा स्वंय इसे अप्रासंगिक मान लिये जाने के बावजुद मौजुदा दौर में यह और प्रासंगिक होते जा रही है ?[xxiv] कैसे आज भी इसका जादु बरकरार है? इन सब का उत्तर पढ़ने की आदतों में हैं.   और पढने से मिलने वाले आनंद में है. आखिरकार किसी भी ‘काव्य’ का उद्देश्य शिक्षा और आनंद ही है. और  आनंदरहित कला तो ग्रहण ही नहीं की जा सकती. एक सामान्य पाठक[xxv]  आनंद  के लिये ही पढ़ता है.  रोलां बार्थ इसे ‘प्लेजर’ कहते हैं और पाठ से मिलने वाले ‘प्लेजर’ के कारकों की विस्तार से व्याख्या करते हैं. वे कहते हैं कि ‘पाठ ऐसा हो जिसकी पाठक ‘इच्छा’(desire) करे और जिसमें केवल पाठक  बोले और आदर्श रूप यह है कि पाठ के पीछे  ना कोई सक्रिय(लेखक) हो और ना कोई निष्क्रिय(पाठक).


   वह यह भी कहते हैं कि लक्ष्य पाठक को उपभोक्ता बनाना नहीं बल्कि उत्पादक बनाना है.  इस प्रक्रिया में वह पाठ को अपने तरिके से निर्मित करता है जो उसके पढ़ने के आनंद को बढ़ाता है. सिर्फ़  ‘पढ़ने’ की प्रक्रिया में वह केवल पाठ का स्वीकार या अस्वीकार करता है’[xxvi]. इन व्याख्याओं को राग दरबारी पर लागु करें.  निश्चय ही राग दरबारी पढ़ते समय पाठक केवल राग दरबारी नहीं पढ़ता बल्कि वह अपना एक ‘राग दरबारी’ भी लिखते चलता है. वह खोजते चलता है कि उसके समाज में कहां वैद जी हैं, कहां रंगनाथ हैं और कहां लंगड़. वह साथ साथ आकलन करते चलता है कि राग दरबारी की परिस्थितियों से वह और उसका समय कितना घिरा हुआ है[xxvii]. इस प्रक्रिया में हर पाठक को अपना एक शिवपाल गंज मिलता है जो धीरे धीरे पूरे भारत का रूपक बन जाता है.  राग दरबारी में घटने वाली हर घटना को पाठक अपने आस पास घटते हुए पाता है. ‘राग दरबारी’ की कथा के तीन संस्थान कालेज, कापोरेटिव और ग्राम पंचायत  जिस पर कब्जे से जनता पर नियंत्रण रखा जा सकता है आज भी वैद जी जैसे सामंतों के कब्जे में हैं जो ‘थें, हैं और रहेंगें’ इसकी पूरी संभावना है. और इन तीनों ही संस्थानों का क्षरण उत्तररोत्तर होता गया है. नेहरुवादी विकास की अवधारणा, जिसकी आलोचना ‘राग दरबारी’ करता है और एक अलग प्रकार से ‘मैला आंचल’ भी, में पीछे छुटे ये गांव आज भी विकास के हासिये पर पड़े हुए हैं और दिग्भ्रमित है. सामंती जड़े समाज में अपना रंग बदल कर घुलनशील हो गई हैं. वंशवाद की जड़े अंदर तक  हैं. उत्पादन के सभी साधनों और संस्थानों पर वैद्य जी के बाद ‘बद्री पहलवानों’ का कब्जा कायम हो ही गया है. लंगड़ आज भी मिसिल लेने के लिये भटक रहा है वैसे वह ‘सत्त की लड़ाई’ नहीं लड़ रहा क्योंकि उसकी अपंगता और बढ़ा दी गई है. नौकरशाही का शिकंजा कसा हुआ है  और गांव शहर के हाईवे से बहुत दूर जा चुके हैं या शहर  अपनी बिमारियों के साथ उन्हें अपने में शामिल कर चुका है.  राग दरबारी यथार्थ से इतना संबंध स्थापित करता है कि पाठक का साधारणीकरण हो जाता है और पाठक पाठ में आनंद लेने लगता है. लखनऊ अमीनाबाद का एक पुस्तक विक्रेता भी राग दरबारी के बिक्री का कारण भी यहीं बताता है कि राग दरबारी ग्रामीण राजनीति और और सरकारी मशिनरी का सटीक एवं सही विवरण देता है.[xxviii] इस तरह से ‘राग दरबारी एक राइटर्ली पाठ हो जाता है.


    बार्थ यह भी कहते हैं कि कहानी को एक स्वर में  अच्छी तरह से सीधे सीधे कहे जाने से आद्योपांत पढ़ना आसान होता है और इससे पढ़ने का आनंद बढ़ता है[xxix]. एक साधारण पाठक के लिये कहानी को सीधे सीधे पढ़ना आसान होता है. नैरेटिव स्ट्रक्चर को तोड़ देने से या इसके क्रम को उलट फ़ेर देने से उसके पढ़ने की गति प्रभावित होती है.   लोकप्रिय उपन्यायों का नैरेटिव स्ट्रक्चर को देखें तो वह बिलकुल रैखिक होता है. जासुसी उपन्यास भी एक रैखिक अंदाज में लिखे जाते हैं. परत दर परत रहस्य बढ़ता है, उद्घाटन होता है और पाठक उसमें रमता चला जाता है. अगर कहानी से इतर कोई अन्य कहानी उसमें जुटती है तो वह कथा के नैरेटिव स्ट्रक्चर को नहीं तोड़ती. उसके प्रवाह को रोककर उपकहानी कह ली जाती है और  फ़िर वापस कथा वहीं से बढ़ती है. ‘राग दरबारी’ की कथा सरंचना भी रैखिक ही हैं. बिलकुल सीधे सीधे इसका नैरेशन होता है. रंगनाथ रिसर्च से अवकाश लेकर गांव आता है, फिर गांव के माहौल का अध्ययन करता है  और फिर अंततः ऐसी परिस्थिति आती है जहां से उसे पलायन करना पड़ता है. इस विकास क्रम को श्रीलाल शुक्ल कहीं नहीं तोड़ते. जहां उन्हें दूसरी कथा कहनी होती है वहां वे कथा को रोककर दुसरी कथा सुनाते हैं.  जैसे वह सनीचरा के जीतने के बाद चुनाव जीतने की कथा को तफ़सील से सुनाते हैं.[xxx] कथा प्रवाह को रोककर कथा सुनाने की यह युक्ति पारंपरिक तौर पर, सिहांसन बतीसी, तोतामैना की कहानी, दास्तानगोई के दास्तानों इत्यादि में मिलती हैं. लखनऊ और लोकजीवन से जीवंत संपर्क के कारण श्रीलाल शुक्ल की शैली में इस युक्ति का आ जाना अनायास नहीं है.  ऐसे प्रसंग उपन्यास में कई जगह हैं. कथा में सिर्फ़ एक जगह श्रीलाल शुक्ल पीछे की घटनाओं को पाठकों को याद दिलाते हैं  २३८ वें पृष्ठ पर. इस युक्ति से कथा के प्रवाह में बह रहे पाठक को पीछे की घटनायें  पुनः सूत्रबद्ध हो जाती हैं और वह फिर कथा में आगे बढ़ता है . इस युक्ति से पाठक अचानक सचेत हो जाता है. वैसे उपन्यास में कई ऐसे जगह हैं जहां पाठक के बहाव को थाम कर उसे सचेत किया जाता है. ब्रेख्त की यह प्रसिद्ध रंग युक्ति है जिसका प्रयोग वे दर्शकों को क्रिटिकल बनाने के लिये करते थे. इस उपन्यास में कथावाचक की टिप्पणियां भी यह काम करती हैं. कभी कभी कथावाचक रूककर पात्रों की या घटनाओं की समीक्षा करने लगता है.



  ‘राग दरबारी’ की सबसे बड़ी खासियत है उसकी भाषा और उसका तेवर. इस तेवर ने ही कुछ आलोचकों के इसके खिलाफ़ कर दिया था. उन्हें लगा था कि इस भाषा का इस्तेमाल दर असल खिल्ली उड़ाने के लिये हुआ है जबकि इसकी भाषा समर्थ रूप से यथार्थ को अनावृत करती है और उस पर आंसु बहाने की बजाय हंसती हैं. हिन्दी में व्यंग्य की मुद्रा में उपन्यास इससे पहले नहीं लिखा गया था. रूपर्ट स्नेल लिखते हैं “ ..इसमें व्यंग्य का विध्वंसक अभिप्राय भी है जिसका उद्देश्य सुधार या समाकलन नहीं, खिल्ली उड़ाना है…हालांकि यह व्यंग्य लेखन भारतीय साहित्य में है लेकिन एक अच्छे खासे लंबे उपन्यास का मेरुदंड ही व्यंग्य हो यह जरा दुर्लभ है”(रूपर्ट स्नेल,२०००, १५३) नित्यानंद तिवारी लिखते हैं “ इसमें संदेह नहीं कि लेखक के पास सक्षम भाषा है (स्थितियों को भेदने वाली), दृश्यों और घटनाओं की सही पहचान है लेकिन उनके साथ कितना खेलना है, उसके उचित अनुपात का बोध नहीं है”[xxxi] लेकिन क्या सचमुच ऐसा है कि लेखक की मुद्रा खिल्ली उड़ाने वाली है या इसमें उचित अनुपात नहीं है. कुछ उदाहरणों से बात स्पष्ट होगी. उपन्यास का प्रारंभ ही इसकी भाषिक मुद्रा का घोषणा पत्र है, “ वहीं एक ट्रक खड़ा था. उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिये हुआ है. जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलु थे… आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था . स्थानीय पैसेंजर ट्रेन को रोज की तरह दो घंटा लेट समझ कर चला था, पर वह सिर्फ़ डेढ़ घंटा लेट होकर चल दी थी. शिकायती किताब के  कथा साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों के निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था(पृ-५)
 जब कभी क्लर्क वैद्य जी को ‘चाचा’ कहता था, प्रिसिंपल साहब को अफ़सोस होता था कि वे उन्हें अपना बाप नहीं कह पाते”(पृ-३३)
“ ‘चमरही’ गांव के एक मुहल्ले का नाम था जिसमें चमार रहते थे. चमार एक जाति का नाम था जिसे अछुत माना जाता था. अछुत एक प्रकार के दुपाये का नाम है जिसे लोग संविधान लागु होने से पहले छुते नहीं थे. संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद १७ में छुआछुत खत्म कर दी गई है क्योंकि इस देश के लोग कविता के सहारे नहीं, बल्कि धर्म के सहारे रहते हैं और क्योंकि छुआछुत इस देश के लोगों का धर्म है, इसलिये शिवपाल गंज में भी दूसरे गांवों की तरह अछुतों के अलग अलग मुहल्ले थे और उनमें सबमें  प्रमुख मुहल्ला चमरही था…”(१००)  


   अनेक उदाहरण उपन्यास से दिये जा सकते हैं जिसमें लेखक अपनी भाषा से यथार्थ की विडंबना को उजागर करता है. और पूरी संवेदना के साथ. इस भाषा में छिपी हुई वेदना आलोचकों के लिये अदृश्य है जो यथार्थ पर किसी प्रकार के भावुकता का मुलम्मा नहीं चढ़ाती. “ भाषा में चाबुक की मार है, लेखक की उपहास वक्रता हर डिटेल्स में इर्रैशनल को पकड़ती है और उसकी तर्कहीनता में भी उसे व्यवस्थित करती है”[xxxii] इसलिये सुधीश पचौरी इस भाषा की सराहना करते हैं जो मेलोड्रामा और रोमान के विरोध में खड़ी है. वैसे मेहनत करने पर उपन्यास में ऐसे प्रसंग ढूंढ निकालना मुश्किल नहीं जिसमें लगे कि वे खिल्ली उड़ा रहें हैं लेकिन यहां यह भी दर्शनीय है कि खिल्ली किसकी उड़ा रहें हैं. जैसी स्थितियां है क्या उसमें दुख प्रकट किया जाये किसी ‘सुबुक सुबुक वादी’ उपन्यास की तरह! या ऐसे पात्रों के साथ सहानुभूति बरती जाये जो सत्ता और शक्ति के प्रतीक है और संसाधनों पर कब्जे के लिये किसी स्तर तक जा सकते हैं. ध्यातव्य है  कि कथा में स्त्री और दलित चरित्र की उपस्थिति कम इसलिये ही हैं कि शिवपालगंज की सामाजिक सरंचना में उनकी जगह ही नहीं है. स्पेस के साथ भाषा भी उनके खिलाफ़ में है  जहां पात्र स्त्रियों के साथ भाषा में सहज आत्मीय संबंध बना लेते हैं(गालियों के रूप में).  इसलिये श्रीलाल शुक्ल का यह कथन बिलकुल जायज है कि उपन्यास का मूड गांवों के उस मूड से मेल खाती है जहां ‘विपत्तियों और संघर्षों के बावजुद लोग हर छोटी छोटी बात से अपने को खुश रखने की कोशिश करते हैं’. परिहास गांव की भाषा का सहज अंग है. इस भाषा का निकट परिचय तो गांव के संपर्क में लोगो को है. साहित्य में भी इसके प्रमाण मैला आंचल, आधा गांव, काशी का अस्सी इत्यादि में मिलता है.



श्रीलाल शुक्ल भाषा की सरंचना के साथ छेड़ छाड़ करते हैं और ऐसा तेवर वाली भाषा रचते हैं जो इससे पहले उपन्यास में इस्तेमाल नहीं हुई थी[xxxiii].
जैसे भारतीयों की बुद्धि अंग्रेजी की खिड़की से झांककर संसार का हालचाल देती है, वैसे ही सनीचर की बुद्धि रंगनाथ की खिड़की से झांकती हुई दिल्ली का हालचाल लेने लगी” (६७)
“यह कहते हुए उदाहरण देने के लिये, वे झपटकर इतिहास के कमरे में घुसे और यहीं कहते हुए पुराण के रोशनदान से बाहर कुद आये”(८९ )
हिन्दुस्तान में पढ़े लिखे लोग कभी कभी एक बिमारी के शिकार हो जाते हैं. उसका नाम ‘क्राइशिश आफ़ कांशस’ है. कुछ डाक्टर उसी में ‘क्राइसिस आफ़ फ़ेथ’ नाम की एक दूसरी बिमारी भी ढूंढ निकालते हैं. यह बिमारी पढे लिखे में आम तौर पर उन्हीं को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं बल्कि आहार-भय-निद्रा-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं (क्योंकि अकेले बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकीन बात है). इस बिमारी में मरीज मानसिक तनाव  और निराशावाद के हल्ले में लम्बे –लम्बे वक्तव्य देता है, जोर –जोर से बहस करता है, बुद्धिजीवी होने के कारन अपने को बिमार और बिमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अन्त में इस बिमारी का अन्त काफी हाउस की बहसों में, शराब की बोतलों में, आवारा औरतो की बांहों में, सरकारी नौकरी में और कभी कभी आत्महत्या में होता है.(१४४) 
 भाषा का ऐसा तेवर जो व्यक्ति और समाज की प्रवृति को उजागर ही नहीं करता बल्कि उसकी खबर भी लेता है. इस प्रवृति के उपर दैनंदिन आदत, सरोकार और दुसरी ‘नेक सदाशयताओं’ का जो पर्दा पड़ा हुआ है उसको अनावृत भी करता है. ऐसी भाषा अपने अनुठेपन के कारण ही नहीं बल्कि भाषा में निहित पीड़ा  के कारण ही गहरे असर करती है(आखिर व्यंग्य का जन्म भी तो पीड़ा से ही होता है) जो पाठक का रस रंजन ही नहीं करता बल्कि उसके मर्म पर भी आघात करता है. कुछ उदाहरण देखना ठीक होगा.
आसमान का कोई रंग नहीं, उसका नीलापन फ़रेब है. बेवकूफ़ लोग बेवकुफ़ों की मदद से बेवकुफ़ों के खिलाफ बेवकुफी करते हैं. घबराने की, जल्दीबाजी में आत्महत्या करने की जरूरत नहीं . बेईमानी और बेईमान सब ओर से सुरक्षित है. आज का दिन अड़तालीस घण्टे का है.”(२५८)
 उम्मीद तो ना थी, पर ऐसी रात के बाद भी सवेरा आ ही गया”(३२५) 



दिन अड़तालीस घंटों का होना और सवेरा होने की नाउम्मीदी के बाद सवेरा हो जाने की निराशा क्या ये लेखक की विनोद वृति है या वह पीड़ा है जिससे बाजादी के बीस साल बाद ही लोगों का मोहभंग होने लगा था.  जमीन से मीलों दूर बैठे लोग जमीन की योजनायें लागु  करते हैं जहां लागुकर्ता की सफ़लता योजना के विफ़ल हो जाने में है जिससे कि नई योजना बने और मलाई  काटा जाये. शहर में ‘आधुनिक मंदिर’ बनने लगे थे और देहात के महासागरों की ओर उन मंदिरो के नालों का मूंह मोड़ दिया गया था. उपन्यास की लोकप्रियता का यह भी कारण है क्योंकि यह रूमान और  आशावाद को खंडित करके उस तस्वीर को दिखाता है जो वर्तमन की नहीं बल्कि भविष्य की भी है. इस मोहभंग और निराशा के कारण ही तो जनता आज सरकार के खिलाफ़ हर जगह मोर्चा बनाने  जुट गई है और ‘राग दरबारी’ की पैठ और गहरी होती जा रही है. इस रूप में ‘राग दरबारी’ हिन्दी के कुछ स्टीरियोटाइप्स को भी तोड़ता है और  चित्रण की एकरसता को खंडित करता है. श्रीलाल शुक्ल भी कहते हैं कि उपन्यास लिखने की एक दृष्टि वे ग्राम जीवन के प्रति बनी हुई रूढियों को तोड़ने की है “ प्रेमचंद जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी साहित्य में, लगता है ग्रामीण जीवन के प्रति दो प्रकार की दृष्टियां विकसित हुईं हैं और दोनों ही रूढि बन गई हैं. पहली दृष्टि ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ वाली, दूसरी चरमर चरमर चूं चरर मरर  जा रही चली भैंसागाड़ी’ वाली”[xxxiv] लेखक की यह दॄष्टि उपन्यास में भी मिलती है और लेखक स्पष्ट करता है “ये बातें गोदान में इतनी साफ नहीं लिखी गई हैं और बम्बईया फ़िल्मों में –शायद कृष्नचन्दर और ख्वाजा अहमद अब्बास के डर के कारण – या प्रगतिशीलता के जोश में पचास फ़िसदी अन्धे हो जाने के कारण, या सिर्फ़ जेहालत के कारण- साफ तौर पर नहीं दिखाई गई है, इसलिये उन्हें जरा सफ़ाई से कहना पड़ा, अगर्चे अपने देश में सफाई का काम कलाकारों का नहीं है, फिर भी…”.(२०१) राग दरबारी में आद्योपांत देखिये कहीं भी  गांव का जीवन  मुग्ध करने वाला नहीं है. जहां कहीं कवि या लेख सौंदर्य देखते हैं वहीं श्रीलाल शुक्ल गर्द देखते हैं कीचड़ देखते हैं. ग्रामीण समाज के  व्यवहार के भी यथार्थ को उजागर करते हैं और उन संबंधों की पोल खोलते हैं जहां बाप की बेटे द्वारा की जाने वाली पिटाई वंशानुगत परंपरा बन गई है. जहां अखाड़ा पहलवानी के लिये नहीं बल्कि गुंडा उत्पादन के लिये चलते हैं. किसान को अपनी जमीन के अलावा दुसरे की जमीन प्यारी है और अक्सर वह अपने मवेशी दुसरों के खेत में ही चरने के लिये छोड़ देता है. यहां के व्यापारी भी शहरी बनियों के गुरू हैं. कालेज के लड़को को पढ़ने के नाम पर लफंगई का लाईसेंस मिल गया है. दलितों आज भी बाह्य प्रांतर में रहते हैं. राहजनी और लूटमार कईयों का पेशा बन गया है. वस्त्र पहनना यहां के फ़ैशन में ही नहीं हैं. और लिहाज तो यहां के प्रचलन में ही नहीं है. कोई किसी का रोब एक सीमा तक ही बर्दाश्त करता है और सत्य वचन बिना बुरा लगने का लिहाज किये उगल डालता है. छोटे पहलवान तो अपने गुरु का भी लिहाज नहीं करते “अरे गुरु मुंह मत खुलवाओ. वैद्य जी तुम्हारे मामा हैं पर हमारे कोई बाप नहीं लगत. सच्ची बात ठोंश दुंगा तो कलेजे में कल्लायेगी”  ये छोटे पहलवान वैद्य जी के कई योजनाओं के कार्यपालक है. लेकिन यहां तो रूप्पन बाबु  अपने पिता को आईना दिखाने में एक रत्ती संकोच नहीं करते. यहां मान, अपमान, गबन, समाज सुधार सभी चीजों की परिभाषा उल्टी है. एक मायने में या सही मायनों में ये ग्राम जीवन की सच्ची तस्वीर है. गांव के यथार्थ से जिनका सीधा नाता नहीं है वे ही वहां बहुत दिनों के बाद जाकर पकी सुनहरी फ़सलों की मुस्कान देख कर और जी भर कर गन्ने चुस कर लौट सकते हैं. गांव में आज भी अच्छी फ़सल होने के संकेत मौसम के साथ साथ ग्रामीण सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर भी बहुत निर्भर करता है जिसका संकेत  ‘राग दरबारी’ में है. राग दरबारी का शिवपालगंज मेरीगंज से कई मायनों में भिन्न है जहां उल्लास है अगर शोक है तो, भाइचारा है अगर द्वेष है तो. शिवपालगंज एक तरह से मेरीगंज को पूरा करता है. और आज का यथार्थ तो शिवपालगंज का ही हैं क्योंकि मेरीगंज में होने वाले उल्लास के पर्व अब लुप्त हो चुके हैं . अब तो शक्ति सरंचनाये हैं और सत्ता केंद्रों पर कब्जा जमाने की होड़ है. जिसने ग्रामीण सामाजिक संबंधों को प्रभावित कर दिया है. इसलिये रूप्पन बाबु को भी लगता है और आज के पाठक को भी लगता है कि सारे मुल्क में शिवपाल गंज फैला हुआ है. इस शिवपालगंज से बहुत से पाठक अपने को कोरिलेट करते हैं उनको यह अपनी स्थिति लगती है जिसमें से बहुत सारे रंगनाथ पलायन कर आये हैं और कभी ना खत्म होने वाले कर्मकांडों का हिस्सा बन गए हैं.  इसलीये यह उपन्यास उनको खींचता है, हंसाता है, मनोरंजन करता है और अंततः बेचैन करता है.


उपन्यास के रोचक होने का एक कारण उपन्यास को पढ़ने की परिप्रेक्ष्यात्मक दृष्टि भी है. एक आदमी इस उपन्यास को रंगनाथ के नजरिए से पढ़ सकता है. इस उपन्यास में उसकी यात्रा रंगनाथ के यात्रा के समांतर चलती है. जहां उसकी सारी शिक्षा और मान्यता ध्वस्त होते जाती है. एक एक कर के व्यवाहरिक पक्ष का उसका यह करीबी अनुभव उसे बेचैन करता है और अपने को उस वृतांत में बाहर का समझने वाला रंगनाथ अपने को उसका हिस्सा पाता है और कुछ ना कर पाने की विवशता से अधिक कुछ करने की कोशिश में मिले पराजय से उत्पन्न हताशा उसके कानों में ‘पलायन संगीत’ घोल देती है. रंगनाथ के नजरिये से पढ़ने वाला पाठक भी कुछ ऐसा ही अनुभव करता है. और वह अपने को ही उपन्यास का ‘सब्जेक्ट’ मानने लगता है.एक नजरिया वाचक का है जहां से पाठक कथा का रस लेते हुए पढ़ता है. वह वाचक के साथ साथ उन पात्रों और उन घटनाओं और उन स्थितियों का जायजा लेता है. ग्राम्य जीवन के संपर्क में रहने वाले पाठक वाचक के साथ साथ ही तादात्म्य स्थापित करते हैं क्योंकि ये  पात्रों उनके अनुभव का हिस्सा होते हैं और जब वाचक उनकी खबर लेता है तो वे खुद को भी उसमें शामिल पाते हैं.  रंगनाथ ऐसे पाठकों के लिये एक टाईप है जिसकी असफ़लता की उम्मीद उन्हें पहले से होती है और वैद्य जी सब कुछ ठीक कर लेंगे यह भी उन्हें पता होता.   इन दोनों तरिकों की आवाजाही भी पढ़ने के दरम्यान होती रहती  है. और एक तीसरी दृष्टि भी इन से स्वतंत्र बिलकुल तटस्थ पाठक की हो सकती है.
श्रीलाल शुक्ल परिमल संस्था के निकट संपर्क में थे जो कवियों की संस्था थी. और मानती थी की उपन्यास लिखना ही है तो अपराध उपन्यास  ही लिखना चाहिये[xxxv]. ‘आदमी का जहर’ नाम से श्रीलाल शुक्ल ने एक अपराध उपन्यास लिखा भी है. वैसे नामवर सिंह की माने तो राग दरबारी भी अपराध कथा ही हैं जिसमें वे वैद्य जी के अपराधिक कृत्यों को  उजागर करते हैं जो साफ़ तौर पर अपराध नहीं लगती. यह संयोग नहीं है कि काफी तह में जा कर श्रीलाल शुक्ल वैद्य जी की पृष्ठभूमि का उदघाटन करते हैं. इसीलिये रूपर्ट स्नेल को   मारियो पुजो के उपन्यास गाडफ़ादर(१९६९) की याद आती है. लेकिन गाडफ़ादर की तरह वैद्य जी अपराध में अपने हाथ गंदे नहीं करते. वे स्वंय ‘गांधीवादी’ की तरह व्यवहार करते हैं. वैसे भी उनके पास इन कामों के लिये बद्री पहलवान, जोगनाथ और छोटे हैं जिनके लिये ‘अपराध’ दैनिक कर्म की तरह है. शक्ति का सहारा इतना है कि उन्हें कोई मुश्किल परेशान नहीं करती.   इसके अलावा शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिये उनके पास बहुत से मान्य अमान्य तरीके हैं. ‘राग दरबारी’ एक तरह से अपराध कथा ही हैं. वैद्य जी की ही नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र और विकासवादी नारों का भी, जनता से छल की भी . और यहां यह कह देना अनावश्यक है कि इस अपराध कथा का वितान रोचक है और अपराध कथा पढ़ने में आनंद तो आता ही हैं.


‘राग दरबारी’ की लोकप्रियता के ये कुछ कारण नजर आते हैं और भी कारण नजर आ सकते हैं.  ‘राग दरबारी’ इसलिये लोकप्रिय नहीं हुई क्योंकि वह लोकप्रिय होने के लिये लिखी गई बल्कि एक सच को इमानदारी से पाठक तक पहूंचाने की कोशिश में लोकप्रिय हुई.  यह भावुकता के निषेध और व्यंग्य की तीखी मार के चलते ही लोकप्रिय हुई है. श्रीलाल शुक्ल ने बिल्लेसुर बकरिहा पर भी लिखा है. यह अनायास नहीं है. बिल्लेसुर बकरिहा में भी भावुकता का निषेध है. बिल्लेसुर अपने अनन्य देव हनुमान जी का सर उड़ा देता है क्योंकि वे उसकी बकरी की रक्षा करने में असमर्थ रहते हैं. तर्क ठीक ही है जब वे कुछ कर ही नहीं सकते तो रहें क्यों? श्रीलाल शुक्ल भी ग्राम्य जीवन की रोमानी और काल्पनिक छवि को उड़ा डालते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है “लोक या किसी जनसमाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गुढ़ और चिंत्य परिस्थितियां खड़ी होती रहती हैं उनको गोचर रूप में सामने  लाना और कभी कभी निस्तार का मार्ग प्रशस्त करना भी उपन्यास का काम है”[xxxvi]. आचार्य परिस्थितियों के उद्घाटन को सामने लाने को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं निराकरण करने के मार्ग सुझाने पर वह जोर नहीं देते. ‘राग दरबारी’ यहीं करता है वह निर्मम रूप से परस्थितियों को सामने लाता है और क्लोज रिडिंग करें तो इन परिस्थितियों के निराकरण का समाधान भी इन्हीं में मौजुद है. ‘राग दरबारी’ की चर्चा करते हुए खड़ी बोली गद्य के शुरुआती दौर की दो कृतियों की याद आती है. उसमें भाषा के जरिये व्यंग्य की ऐसी ही मार है एक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘भारत दुर्दशा’ नाटक और दुसरा बालमुकुंद गुप्त के  ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ . कल्पना और रोमान से दूरी बना कर यथार्थ की निर्मम अनावृति, सधी हुई किस्सागोई और भाषा का तेवर ही राग दरबारी की लोकप्रियता के स्रोत है. विडंबना ये है कि स्थिति दिन ब दिन सुधरने का नाम नहीं ले रही है  सारा मुल्क  निरंतर शिवपालगंज बनता जा रहा है इसलिये राग दरबारी  की लोकप्रियता भी बढ़ रही है. 



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Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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