Sunday, 20 August 2017

गांधी-हत्या के प्रयास 1934 से ही !.....





गांधीजी भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया  । पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था  । गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये  । हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था  । बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिसगरिपोर्ट में दर्ज है  । 1934 में तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज पर थी नहीं, 55 करोड रुपयों का सवाल ही कहा! से पैदा होता ?


गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया  । जुलाई 1944 में गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे  । तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा  । दिनभर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे  । इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया  । मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया  । शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका  । पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया  । पुलिस-रिकार्ड में नाथूराम का नाम नहीं है, परन्तु मशिशंकर पुरोहित तथा भीलारे गुरुजी ने गांधी-हत्या की जा!च करने वाले कपूर-कमीशन के समक्ष स्पष्ट शब्दों में नाथूराम का नाम इस घटना पर अपना बयान देते समय लिया था  । भीलारे गुरुजी अभी जिन्दा हैं  । 1944 में तो पाकिस्तान बन जाएगा, इसका खुद मुहम्मद अली जिन्ना को भी भरोसा नहीं था  । ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि 1946 तक मुहम्मद अली जिन्ना प्रस्तावित पाकिस्तान का उपयोग सना में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए ही करते रहे थे  । जब पाकिस्तान का नामोनिशान भी नहीं था, तब क्यों नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या का प्रयास किया था ?


गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास भी इसी वर्ष सितम्बर में, वर्धा में, किया गया था  । गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे  । गांधीजी बम्बई न जा सके, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहु!चा  । उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था  । उस गुट के ग.ल. थने के नाम के व्यक्ति के पास से छुरा बरामद हुआ था  । यह बात पुलिस-रिपोर्ट में दर्ज है  । यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था, ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था  । इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल (म.गांधी के सचिव) ने लिखा है : 'आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि स्वयंसेवक गम्भीर शरारत करना चाहते हैं, इसलिए पुलिस को मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई करनी पडेगी  । बापू ने कहा कि मैं उसके बीच अकेला जा  ।!गा और वर्धा 1रेलवे स्टेशन1 तक पैदल चलू!गा, स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें तो दूसरी बात है  । कृबापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला, तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है  ।


धरना देनेवालों का नेता बहुत ही उनेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी  । गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला  । (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)


इस प्रकार प्रदर्शनकारी स्वयंसेवकों की यह योजना विफल हुई  । 1944 के सितम्बर में भी पाकिस्तान की बात उतनी दूर थी, जितनी जुलाई में थी  ।


गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था  । गांधीजी विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे थे, उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था  । उस रात को डांइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये  । दूसरे दिन, 30 जून की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा : ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मु!ह से सकुशल वापस आया हू!  । मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुचाया  । मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है, फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती  । मेरी जान लेने का कल का प्रयास निष्फल गया  ।'


नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणील् नाम की मराठी पत्रिका निकालता था  । गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर जीने कौन देगा ?' यानी कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य है  । यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे  । 'अग्रणी' का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है  । 1946 के जून में पाकिस्तान बन जाने की शक्यता तो दिखायी देने लगी थी, परन्तु 55 करोड रुपयों का तो उस समय कोई प्रश्न ही नहीं था  ।इसके बाद 20 जनवरी,1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी पर, प्रार्थनागसभा में, बम फेंका और 30 जनवरी, 1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी  ।


55 करोड रुपयों के बारे में एक और हकीकत भी समझ लेना जरूरी है  । देशगविभाजन के बाद भारत सरकार की कुल सम्पनि और नकद रकमों का, जनसंख्या के आधार पर, बटवारा किया गया था  । उसके अनुसार पाकिस्तान को कुल 75 करोड रुपये देना तय था  । उसमें से 20 करोड रुपये दे दिये गये थे  । और, 55 करोड रुपये देना अभी बाकी था  । कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को यदि 55 करोड रुपये दिये गये, तो उसे वह सेना के लिए खर्च करेगा, यह कहकर 55 करोड रुपये भारत सरकार ने रोक लिए थे  । लार्ड माउण्ट बेटन का कहना था कि यह रकम पाकिस्तान की है, अतः उन्हें दे दी जानी चाहिए  । इस बात की जानकारी गांधीजी को हुई तो उन्होंने 55 करोड रुपये पाकिस्तान को दे देने की माउण्ट बेटन की बात का समर्थन किया  । 12 जनवरी को गांधीजी ने प्रार्थना-सभा में अपने उपवास की घोषणा की थी, और उसी दिन 55 करोड रुपये की बात भी उठी थी  । लेकिन गांधीजी का उपवास 55 करोड रुपये के लिए नहीं, दिल्ली में शान्ति-स्थापना के लिए था  ।


जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में एक मौलाना ने आकर गांधीजी से कहा था कि पाकिस्तान का विरोध करने वाले हमारे जैसे राष्टंवादी मुसलमान पाकिस्तान जा नहीं सकते, और हिन्दू सम्प्रदायवादी हमें यहा! जीने नहीं देते  । हमारे लिए तो यहा! नरक से भी बदतर स्थिति है  । आप कलकना में उपवास कर सकते हैं, पर दिल्ली में नहीं करते ? ऐसी शिकायत भी उस मौलाना ने गांधीजी से की थी  । गांधीजी मौलाना की बात सुनकर दुखी हो गये थे  । दिल्ली में शान्ति-स्थापना के लिए अनेक प्रयास होने के बावजूद शान्ति स्थापित नहीं हुई  । अन्त में 13 जनवरी से गांधीजी ने उपवास आरम्भ कर दिया  । यह उपवास साम्प्रदायिक शान्ति के लिए था, न कि 55 करोड रुपयों के लिए  । 55 करोड रुपयों का सवाल तो संयोगवश उसी समय प्रस्तुत हो गया था  । गांधीजी ने अपनी प्रार्थना-सभा में उपवास का हेतु स्पष्ट रूप से घोषित किया था और उसके बाद उनका उपवास समाप्त कराने के लिए हिन्दुत्ववादियों सहित तमाम सम्बन्धित पक्षों ने शान्ति की अपील पर हस्ताक्षर किये थे  । इसके बावजूद भी हिन्दुत्ववादी झूठे प्रचार करते जा रहे हैं  ।



गांधीजी की हत्या करने वाले यह दावा करते हैं कि 55 करोड रुपये की घटना से उनेजित होकर गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र रचा गया था  । इसका अर्थ तो यह होता है कि यह षड्यंत्र 13 जनवरी के बाद रचा गया था  । तो क्या मात्र सात दिनों में, गांधीजी पर बम फेंकने की घटना उस जमाने में सम्भव हो सकती थी ? मात्र 17 दिनों में ही हत्या करनेवाले इकट्ठे हो गये, षड्यंत्र रच लिया, ग्वालियर से पिस्तौल हासिल करके दिल्ली आये और गांधीजी की हत्या कर दी  । इतने कम समय में षड्यंत्र रच लिया गया उस पर अमल भी हो गया, यह बात गले से नीचे उतरने लायक नहीं  । 13 जनवरी को नाथूराम ने अपनी बीमे की पालिसी नाना आप्टे की पत्नी के नाम करा दी थी  । अदालत ने भी अपने फैसले में 1 जनवरी, 1948 को षड्यंत्र-रचने का दिन माना है  । कुछ क्षणों के लिए उनकी बात मान भी लें तो 55 करोड रुपयों का सवाल सामने आया उसके पहले से ही, गांधीजी की हत्या करने के प्रयास क्यों किये जाते रहे, यह प्रश्न अनुनरित ही रह जाता है  । एक घटना को छोडकर, बाकी सभी प्रयास महाराष्टं में, और पूना के ही हिन्दुत्ववादियों द्वारा क्यों किये गये ? तीन प्रयास तो खुद नाथूराम गोडसे ने किये  । इस तरह जाहिर है कि 55 करोड रुपये की बात तो बिलकुल झूठ है  ।


पंकज ‘वेला’
9:45 PM.

20/08/2017 

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Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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