चरित्र
दोस्तों ! मैं देश का गिरा हुआ चरित्र बोल रहा
हूँ...
घायल आदमी की कलाई से घडी खोल रहा हूँ
पैदा हुआ हूँ ; तब से जहर बाँट रहा हूँ
पूँजा घरों में मैं रोज पशुओं को बटवा रहा हूँ
।
इस सब ‘मैं’ नहीं ‘हम’ सभी शरीक हैं ।
जब चाहता हूँ मैं यहाँ गिरती हैं बिजलियां
साथ ही जलती हैं कुछ असहाय बस्तियां
इस ‘मैं’ के चलते आदमी असहाय हो गया हैं
लगता नहीं ये कि संतों फकीरों का देश हैं
लगता हैं अब ये दानव ,असुरों और नेताओं का देश
हैं
मजहब को भी लोगों ने अब खिलौना बना दिया हैं
अपने अपने कद के हिसाब से उसे एक बिछौना बना
लिया हैं
शांति और सत्य कहीं बेबसी में बैठे हैं अपना
मुहं दबाये
और छिप-छिप कर कहीं रो रहे हैं .
हाय ! बुद्ध और महावीर की जमी पर अब युद्द हो
रहे हैं
बेहतर था दोस्तों ! सचमुच वो कल का
जमाना
था रंग फकीरान और अंदाज़ सूफियाना
कपडा नहीं ,पैसा नहीं ,अनाज नहीं ...
लोगों में ईमान न हो ऐसा तो बिलकुल
नहीं था
सब कुछ था मगर लुट का कारोबार या
रीति-रिवाज नहीं था
बोये गए थे हाथ ...
बोये गए थे हाथ ...
पर वो अब हथियार हो गए
इस गद्दी का रंग देख कर
आज वाही हाथ
हमारे गद्दार हो गए ।
पंकज कुमार “
वेला ”
2:55 AM. 3
अप्रैल,2012,दिल्ली
No comments:
Post a Comment