22 मार्च,1931
साथियो,
स्वाभाविक
है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना
नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं
क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता.
मेरा
नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और
कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति
में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता.
आज
मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो
जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन
दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ
अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए
कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या
तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.
हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने
की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं
कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा
करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता.
इसके
सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक
सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी
बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.
आपका
साथी,
भगत सिंह
भगत सिंह
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