Monday, 26 June 2017

दैनिक जीवन में धर्म का व्यवहार




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दैनिक जीवन में धर्म का व्यवहार


निवारक उपाय के रूप में धर्म की उपयोगिता...
मुझे दैनिक जीवन में धर्म के व्‍यवहार के विषय में व्‍याख्‍यान देने के लिए कहा गया है । हमें समझना होगा कि धर्म से हमारा क्‍या अभिप्राय है । धर्म संस्‍कृत भाषा का शब्‍द है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘’निवारक उपाय’’ होता है । इसका व्‍यवहार हम समस्‍याओं से बचाव के लिए करते हैं । धर्म के व्‍यवहार में अपनी रुचि जागृत करने के लिए हमें यह समझना होगा कि जीवन समस्‍याओं से भरा है इसके लिए दरअसल बड़े साहस की आवश्‍यकता होती है । बहुत से लोग स्‍वयं को या अपने जीवन को गम्‍भीरता से नहीं लेते हैं । ये लोग दिन भर कठोर परिश्रम करते हैं और फिर शाम को मनोरंजन आदि से अपना ध्‍यान बांटते हैं क्‍योंकि वे बहुत थके हुए होते हैं । वे अपने अंतस्‍तल में झांककर अपने जीवन की समस्‍याओं को नहीं देखते हैं । यदि वे अपनी समस्‍याओं को देखते भी हें तो वे इस बात को स्‍वीकार नहीं करना चाहते कि उनके जीवन में संतोष नहीं है क्‍योंकि ऐसा करने से वे निराशा से भर जाएंगे । इसके लिए बहुत साहस चाहिए कि हम अपने जीवन के स्‍वरूप को परखें और यदि हमें अपना जीवन असंतोषजनक लगे तो उसे ईमानदारी से स्‍वीकार करें ।
असंतोषजनक स्थितियाँ और उनके कारण
नि:संदेह असंतोष के कई अलग-अलग स्‍तर होते हैं । हम कह सकते हैं, ‘’कभी-कभी मेरी मनोदशा खराब होती है और कभी-कभी सब ठीक-ठाक चलता है, लेकिन कोई बात नहीं । इसी का नाम जिंदगी है ।‘’ यदि हम इस स्थिति से संतुष्‍ट हैं, तब तो ठीक है । लेकिन यदि हमारे मन में इस बात को लेकर थोड़ी सी आशा हो कि हम स्थिति को थोड़ा बेहतर बना सकते हैं, तो फिर हमारे सामने यह प्रश्‍न आता है कि हम ऐसा करने का उपाय तलाश करें । अपने जीवन के स्‍वरूप में सुधार करने के उपाय तलाश करने के लिए हमें अपनी समस्‍याओं के मूल का पता लगाना होगा । अधिकांश लोग अपनी समस्‍याओं के मूल को बाहरी कारणों में तलाश करते हैं । ‘’तुम्‍हारे साथ मेरे सम्‍बन्‍ध में बिगाड़ तुम्‍हारे ही कारण से हुआ है ! तुम वैसा व्‍यवहार नहीं कर रहे हो जैसा मैं चाहता हूं ।‘’ हम अपनी परेशानियों का दोष राजनैतिक या आर्थिक स्थितियों पर भी मढ़ सकते हैं । मनोविज्ञान के कुछ जानकारों का मत है कि हमारी समस्‍याओं को हमारे बचपन की मानसिक आघात पहुंचाने वाली घटनाओं के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है । अपने दु:खेां का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ना बहुत आसान है । लेकिन वास्‍तव में अन्‍य लोगों या सामाजिक या आर्थिक कारणों पर दोष मढ़ देने से समस्‍या का समाधान नहीं होता है । यदि हम ऐसी अवधारणा रखते हैं और यदि हम क्षमाशील हुए तो इसका कुछ लाभ हो सकता है । लेकिन अधिकांश लोगों का अनुभव है कि केवल इतना भर करने मात्र से उन्‍हें अपनी मनोवैज्ञानिक समस्‍याओं से राहत नहीं मिली है और उनका दु:ख दूर नहीं हुआ है ।
बौद्ध मत कहता है कि हालांकि अन्‍य लोग, समाज आदि हमारी समस्‍याओं के लिए जिम्‍मेदार होते हैं, लेकिन वास्‍तव में ये हमारी समस्‍याओं के बद्ध मूल कारण नहीं हैं । अपनी समस्‍याओं के कारणों की जड़ तक पहुंचने के लिए हमें अपने अंत:करण में झांकना होगा । आखिरकार जब हम दु:खी होते हैं तो यह हमारी हालत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही तो है । एक ही स्थिति में अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं । यदि हम अपने आप को ही लें तो हम पाते हैं कि हम कठिनाइयों के प्रति अलग-अलग दिनों में अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं । यदि समस्‍या का कारण सिर्फ बाहरी परिस्थितियां ही होतीं तो हमें हर बार एक जैसी प्रतिक्रिया ही करनी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है । हम किस प्रकार प्रतिक्रिया करेंगे इस बात को बाहरी कारण प्रभावित करते हैं जैसे, कार्यस्‍थल पर हमारा दिन अच्‍छा बीता या नहीं आदि, लेकिन ये तो योगदान करने वाले केवल बाहरी कारण हैं । हमारे मन पर इनकी गहरी पैठ नहीं है ।
यदि हम समझने का प्रयास करें तो हमें मालूम होगा कि जीवन के प्रति, अपने प्रति, स्‍वयं और अपनी स्थितियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण बहुत हद तक यह तय करता है कि हम कैसा महसूस करते हैं । उदाहरण के लिए, यदि हमारा दिन अच्‍छा बीत रहा हो तो हमें अपने लिए दु:ख नहीं होता, लेकिन यदि दिन अच्‍छा न बीत रहा हो तो आत्‍म-दया का भाव लौट आता है । जीवन के प्रति हमारा बुनियादी दृष्टिकोण हमारे जीवन की अनुभूति को बहुत अधिक प्रभावित करता है । यदि हम और गहराई से विचार करें तो हमें पता चलता है कि हमारे दृष्टिकोण भ्रम पर आधारित होते हैं ।
भ्रम : समस्‍याओं का मूल कारण
यदि हम भ्रम का विवेचन करें तो हम पाते हैं कि इसका एक पहलू व्‍यवहार सम्‍बंधी कार्य-करण के विषय में भ्रम का होना है । हम इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति में हैं कि हम क्‍या करें या कहें और उसका क्‍या परिणाम होगा । हमारे मन में इस बात को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति हो सकती है कि हम किस प्रकार की नौकरी तलाश करें, विवाह करें या न करें, संतान उत्‍पन्‍न करें या न करें आदि । यदि हम किसी व्‍यक्ति के साथ कोई सम्‍बंध कायम करते हैं तो उसका क्‍या परिणाम होगा । इन प्रश्‍नों के जवाब हमारे पास नहीं होते । जीवन में हमारे चुनावों के क्‍या परिणाम सामने आएंगे इस बारे में हमारी धारणाएं कोरी कल्‍पनाएं हैं । हमें ऐसा लग सकता है कि यदि हम किसी व्‍यक्ति विशेष के साथ गहरा रिश्‍ता कायम कर लेते हैं तो उसके बाद हम जीवन भर सुखी रहेंगे, जैसा कि परी-कथाओं में होता है । यदि हम किसी परेशानी की स्थिति में हों तो हमें लगता है कि चीखने-चिल्‍लाने से स्थिति बेहतर हो जाएगी । इस बात को लेकर हमारी धारणाएं बड़ी अस्‍पष्‍ट होती हैं कि हम जो करने जा रहे हैं उस पर दूसरे व्‍यक्ति की क्‍या प्रतिक्रिया होगी । हम समझते हैं कि यदि हम दूसरों पर चिल्‍लाएंगे या अपनी राय बेबाकी से प्रकट कर देंगे तो हमें बेहतर महसूस होगा और सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है । हम जान लेना चाहते हैं कि क्‍या परिणाम निकलने वाला है । निराशा में हम ज्‍योतिष शास्‍त्र का सहारा लेते हैं या फिर द बुक ऑफ चेंजिज़, दी आई चिंगजैसी पुस्‍तकों पर पैसा खर्च करते हैं । हम नियति का नियंता बनना चाहते हैं ।
बौद्ध मत के अनुसार एक गहन स्‍तर पर भ्रम इस बात को लेकर होता है कि हमारे और दूसरे लोगों के अस्तित्‍व का आधार क्‍या है और इस जगत के अस्तित्‍व का क्‍या आधार है । हम नियंत्रण के पूरे मुद्दे को लेकर भ्रम की स्थिति में हैं । हम समझते हैं कि हमारे साथ जो कुछ घटित होता है उसे पूरी तरह से नियंत्रित कर पाना सम्‍भव है । इसी सोच के कारण हम हताश और कुंठित हो जाते हैं । परिस्थितियों को सदैव वश में कर पाना सम्‍भव नहीं है । यह वस्‍तविकता नहीं है । वास्‍तविकता तो बहुत ही जटिल होती है । जो होता है वह मात्र हमारे कृत्‍यों का परिणाम नहीं होता, बहुत सी बातें इसे प्रभावित करती हैं । ऐसा नहीं है कि हम बाहरी शक्तियों के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्‍त हैं और ऐसा भी नहीं है कि हम पूरी तरह से बाहरी शक्तियों के द्वारा नियंत्रित होते हैं । जो होता है उसमें हमारा योगदान तो होता है, लेकिन उसके घटित होने के लिए हम एकमात्र निर्धारक कारण नहीं हैं ।
अपने भय और असुरक्षा के भाव के कारण हम अक्‍सर विनाशकारी व्‍यवहार करते हैं और यह भी नहीं समझ पाते हैं कि ऐसा करना घातक है । ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि हम ऐसी अशांत करने वाली भावनाओं, दृष्टिकोण और उत्‍तेजना के आवेग के प्रभाव में होते हैं जो हमारी आदतों के परिणामस्‍वरूप उत्‍पन्‍न होते हैं । ऐसी स्थिति में हम दूसरों को तो नुकसान पहुंचाते ही हैं, साथ ही हम मुख्‍यत: आत्‍म-विनाशक व्‍यवहार करते हैं । दूसरे शब्‍दों में कहा जाए तो हम अपने लिए और भी ज्‍यादा समस्‍याएं खड़ी कर लेते हैं । यदि हम चाहते हैं कि हमें कम समस्‍याओं का सामना करना पड़े या समस्‍याओं से मुक्ति मिले, या इससे भी बढ़ कर, हम ऐसी क्षमता हासिल कर सकें कि हम दूसरों को समस्‍याओं से उबरने में मदद कर पाएं, तो हमें अपनी कमज़ोरियों के कारण को स्‍वीकार करना होगा ।
भ्रम से मुक्ति
मान लें कि हमने इस बात को समझ लिया है कि भ्रम ही हमारी समस्‍याओं का मूल कारण है । यह कोई बहुत कठिन बात नहीं है । बहुत से लोग इस सीमा तक पहुंचते हैं जहां वे कहते हैं, ‘’मैं बहुत भ्रम की स्थिति में हूं । मेरा सबकुछ गड़बड़ हो गया है ।‘’ तो क्‍या ? समस्‍या के हल के लिए किसी कोर्स में दाखिले पर खर्च करने या किसी एकांत आश्रयस्‍थल में जाने का फैसला करने से पहले हमें इस बात पर बहुत गम्‍भीरता से विचार करना होगा कि क्‍या हमें सचमुच इस बात का यकीन है कि हमें भ्रम से मुक्ति मिल सकती है । यदि हमें ऐसा नहीं लगता कि भ्रम से मुक्ति मिलना सम्‍भव है तो फिर हम क्‍या हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं ? यदि हम सिर्फ इस आशा के साथ जाते हैं कि वहां जाने से हमें भ्रम से मुक्ति मिलने की सम्‍भावना है, तो यह उम्‍मीद भी बहुत पक्‍की नहीं है । यह तो अपने मन की अभिलाषा को वास्‍तविकता समझने के जैसा है ।
हम यह उम्‍मीद लगा सकते हैं कि हमें विभिन्‍न माध्‍यमों से मुक्ति मिल सकती है । हम यह सोच सकते हैं कि कोई अपने को बचा लेगा । यह रक्षक ईश्‍वर जैसा कोई दैवीय रक्षक हो सकता है, और इस प्रकार आस्तिक के रूप में हमारा पुनर्जन्‍म होता है । इसके अलावा भ्रम की स्थिति से हमें बचाने के लिए हम किसी आध्‍यात्मिक गुरु, किसी संगी-साथी या किसी अन्‍य व्‍यक्ति का सहारा ढूंढ सकते हैं । ऐसी स्थितियों में प्राय: ऐसा होता है कि हम किसी दूसरे व्‍यक्ति पर निर्भर हो जाते हैं और अपरिपक्‍व व्‍यवहार करने लगते हैं । अक्‍सर अपने लिए किसी रक्षक की तलाश में हम इतने व्‍याकुल हो जाते हैं कि हमें इस बात का विवेक नहीं रहता कि हम कैसे व्‍यक्ति का चुनाव कर रहे हैं । हम किसी ऐसे व्‍यक्ति का चुनाव करने की भूल कर सकते हैं जो स्‍वंय भ्रम से मुक्‍त न हो और अपने अशांत भावों और दृष्टिकोण के कारण हमारी निष्‍कपट निर्भरता का फायदा उठा लें । यह जीवन में आगे बढ़ने का कोई सुव्‍यवस्थित तरीका नहीं है । हम अपने भ्रम से पूर्णत: मुक्‍त होने के लिए किसी आध्‍यात्मिक गुरु या किसी रिश्‍ते पर पूरी तरह आश्रित नहीं हो सकते । अपने भ्रम की स्थिति से बाहर निकलने के लिए हमें स्‍वयं प्रयास करना होगा ।
किसी आध्‍यात्मिक गुरु या संगी-साथी के साथ हमारा नाता अनुकूल परिस्थितियां तो उपलब्‍ध करा सकता है, लेकिन ऐसा तभी होगा जब हमारा नाता हितकारी हो । जब यह सम्‍बंध अहितकारी होता है तो परिस्थिति और भी बिगड़ जाती है । परिणामस्‍वरूप भ्रम और भी बढ़ जाता है । शुरुआत में यह मानते हुए कि हमारा गुरु या संगी-साथी पूर्णत: दोषमुक्‍त है, हम इस बात को स्‍वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं होते कि कहीं कोई गड़बड़ी भी हो सकती है, लेकिन धीरे-धीरे हमारी यह सरलता खत्‍म होती जाती है । जब हमें दूसरे व्‍यक्ति की कमजोरियां दिखाई देनी शुरु होती हैं, और यह आभास होता है कि वह व्‍यक्ति हमें हमारे भ्रम से मुक्ति नहीं दिला सकेगा, तो हम टूट कर ढह जाते हैं । हमें लगता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है, हमारे साथ विश्‍वासघात किया गया है । और यह एक बहुत ही डरावना अहसास है । यह महत्‍वपूर्ण है कि हम शुरुआत से ही ऐसे प्रयास करें जिससे कि ऐसी स्थिति उत्‍पन्‍न न हो । इसके लिए हमें धर्म, यानी निवारक उपायों का अभ्‍यास करने की आवश्‍यकता होती है । हमें यह समझना चाहिए कि क्‍या कर पाना सम्‍भव और कौन-कौन से कार्य कर पाना सम्‍भव नहीं है । हमें समझना होगा कि आध्‍यात्मिक गुरू हमारे लिए क्‍या कर सकता है और क्‍या नहीं कर सकता । टूट कर गिरने से स्‍वयं को बचाने के लिए हम निवारक उपाय करते हैं ।
हमें स्‍वयं को एक ऐसी मनोदशा में लाना होगा जहां कोई भ्रम न हो । ज्ञान या समझ भ्रम का विलोम है जो भ्रम को उत्‍पन्‍न होने से रोकेगा । धर्म का अभ्‍यास करते हुए यह हमारा दायित्‍व है कि हम आत्‍मविश्‍लेषण करें और अपने दृष्टिकोण, अपने अशांत भावों, अपने आवेगशील, और विक्षिप्‍तता के व्‍यवहार पर अपना ध्‍यान केंद्रित करें । इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपने अन्‍दर उन प्रवृत्तियों को पहचानें जिन्‍हें भला नहीं समझा जाता है, और अपने व्‍यक्तित्‍व में जिनके होने की बात को हम अस्‍वीकार ही करना चाहेंगे । जब हमें अपने अन्‍दर ऐसी प्रवृत्तियों का पता चले जो हमारी समस्‍याओं का कारण या लक्षण हैं तो हमें इन पर नियंत्रण पाने के लिए इन प्रवृत्तियों का प्रतिकार कर सकने वाली शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए । यह सब अध्‍ययन और ध्‍यान साधना के आधार पर किया जा सकता है । हमें अशांत करने वाले भावों और दृष्टिकोणों को पहचानने का अभ्‍यास करना होगा और इनकी उत्‍पत्ति के कारणों को भी समझना होगा ।
ध्‍यान साधना
ध्‍यान का अर्थ है कि हम एक नियंत्रित स्थिति में विभिन्‍न प्रतिकारी शक्तियों का प्रयोग इस प्रकार करते हैं कि हमें इस बात का बोध या ज्ञान हो जाए कि हम वास्‍तविक जीवन में इनका प्रयोग कर सकें । उदाहरण के लिए यदि कोई व्‍यक्ति हमारी इच्‍छा के अनुरूप कार्य न करे तो हमें उस पर क्रोध आता है, वैसे ही ध्‍यान के अभ्‍यास में हम इन स्थितियों के बारे में चिन्‍तन करते हैं और इन स्थितियों को एक अलग दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करते हैं । दूसरा व्‍यक्ति अनेक कारणों से अप्रिय व्‍यवहार में लिप्‍त हो सकता है । यह आवश्‍यक नहीं है कि वह विद्वेष के कारण ही हमारे प्रति वैसा व्‍यवहार कर रहा हो, बल्कि उसका कारण यह हो सकता है कि उसे हमसे प्रेम न हो । ध्‍यान के अभ्‍यास से हम इस प्रकार के दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करते हैं कि, ‘’मेरा/मेरी मित्र अब मुझसे प्रेम नहीं करता/करती क्‍योंकि उसने मुझे टेलीफोन नहीं किया ।‘’
यदि हम ऐसी स्थितियों में थोड़ा ज्‍यादा तनाव रहित मनोदशा में, समझदारी और धैर्य के साथ व्‍यवहार करने का अभ्‍यास कर लें तो यदि वह व्‍यक्ति हमें एक सप्‍ताह तक भी याद न करे तो भी हम इतने परेशान नहीं होंगे । जब हमें क्रोध आने लगे, तभी हमें यह ख़याल भी आएगा कि शायद वह व्‍यक्ति बहुत व्‍यस्‍त हो और इतना अधिक आत्‍मकेंद्रित होना ठीक नहीं कि हम स्‍वयं को उस व्‍यक्ति के जीवन में सबसे अहम व्‍यक्ति समझ लें । ऐसा करने से हमारे भावनात्‍मक उबाल को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है ।
धर्म एक पूर्णकालिक व्‍यवहार है
धर्म का व्‍यवहार कोई शौक की वस्‍तु नहीं है । इसका अभ्‍यास हम अपने पसंदीदा खेल या तनाव मुक्ति के साधन के रूप में नहीं करते हैं । हम किसी धर्म-केंद्र में किसी समूह का हिस्‍सा बनने या सामाजिक वातावरण का लाभ लेने के लिए नहीं जाते हैं । हम किसी व्‍यसनी की तरह अपनी लत को पूरा करने के लिए भी धर्म-केंद्र में नहीं जाते हैं प्रेरणा की एक ऐसी लत जहां कोई करिश्‍माई और दिलचस्‍प गुरु हमें खुश कर देता है । यदि ऐसा होता है, तो घर लौटते ही हमें फिर असंतोष और अवसाद होने लगता हे और हमें फिर अगली खुराक की जरूरत महसूस होने लगती है । धर्म कोई औषध व्‍यसन नहीं है । गुरू भी कोई नशे की दवा नहीं है । धर्म तो एक पूर्णकालिक व्‍यवहार है । हम अपने जीवन के सभी पहलुओं में अपने दृष्टिकोण में परिष्‍कार की बात कर रहें हैं । उदाहरण के लिए, यदि हम सभी सचेतन जीवों के प्रति अपने मन में प्रेम विकसित करने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो फिर हमें इसे केवल अपने परिवार पर ही लागू करने की आवश्‍यकता नहीं है । कितने ही लोग अपने-अपने कमरों में बैठे प्रेम के विषय पर मनन करते रहते हैं, लेकिन अपने माता-पिता या संगी-साथियों के साथ ही उनकी नहीं बनती । और यह बड़े दु:ख की बात है ।
अतिशयता से कैसे बचें
घर में या बाहर काम-काज के समय वास्‍तविक जीवन की परिस्थितियों में धर्म के आचरण को लागू करते समय हमें अतिशय से बचना चाहिए । पूरा दोष दूसरों पर मढ़ देना अतिशय का एक सिरा है । दूसरा सिरा यह है कि हम सारा दोष अपने ही ऊपर ओढ़ लें । हमारे जीवन में घटने वाली घटनाएं बड़ी जटिल होती हैं । दोनों ही पक्ष जि़म्‍मेदार होते हैं : कुछ दोष दूसरों का होता है, कुछ हमारा होता है । हम दूसरों का व्‍यवहार और दृष्टिकोण कदलने के लिए तो प्रयास करते हैं, लेकिन मैं यकीन के साथ कह सकता हूं और हम सभी अपने व्‍यक्तिगत अनुभवों से जानते हैं कि अपने लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं होता, खास तौर पर तब जब कि हम दिखावटी सदाचार के दंभ में भर कर दूसरों पर दोषी या पापी होने का आरोप मढ़ते हैं । स्‍वयं को बदलना कहीं ज्‍़यादा आसान होता है । हालांकि हम दूसरों को सुझाव देते हैं, यदि दूसरे लोग हमारे विचारों को ग्रहण करने के लिए तैयार हुए या हमारे सुझावों को सुनने के बाद भड़क न भी पड़ें तब भी हमें दूसरों से ज्‍यादा अपने अन्‍दर सुधार करने की आवश्‍यकता है ।
स्‍वयं को सुधारने की इस प्रक्रिया में हमें एक बार फिर अतिशयता के दो और सिरों का ध्‍यान रखने की आवश्‍यकता है : हम केवल अपनी भावनाओं से ही अभिभूत न बने रहें या हम अपनी भावनाओं से पूरी तरह अनजान न हो जाएं । पहली स्थिति आत्‍मासक्ति में तल्‍लीनता की स्थिति है । तब हमें सिर्फ अपनी ही भावनाओं की फिक्र होती है । दूसरे कैसा महसूस करते हैं हम इस बात से बेपरवाह रहते हैं । हम यह समझने लगते हैं कि जो हमें महसूस हो रहा है वह दूसरों की भावनाओं से कहीं ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है । वहीं दूसरी ओर ऐसा भी हो सकता है कि हम अपनी भावनाओं से पूरी तरह बेखबर हों और हमें कुछ महसूस ही न हो रहा हो, जैसे हमारी भावनाओं को नोवोकेन दवा के प्रभाव से चेतनाशून्‍य कर दिया गया हो । इस प्रकार की अतिशयता से बचने के लिए बड़े नाजुक संतुलन को बनाने की आवश्‍यकता होती है । यह कोई आसान काम नहीं है ।
यदि हम हमेशा ही अपनी गतिविधियों पर ध्‍यान केंद्रित रखते हैं तो इस हमारे अपने और हमारी भावना या कृत्‍य के बीच एक काल्‍पनिक द्वैत उत्‍पन्‍न हो जाता है । इस प्रकार हम सही अर्थ में अपने को किसी के साथ जोड़कर या सम्‍बद्ध होकर नहीं देख पाते हैं । असली कला तो इस बात में है कि अपना ध्‍यान अपने उद्देश्‍यों आदि पर बनाए रखते हुए भी हम सहजता और ईमानदारी से दूसरों के साथ जुड़ सकें । हमें ऐसा करने का प्रयास अवश्‍य करना चाहिए नहीं तो इसके बिना दूसरे व्‍यक्ति को ऐसा लगेगा जैसे हम उसके साथ मौजूद ही नहीं हैं । मैं यहां यह भी कहना चाहूंगा कि यदि हम किसी के साथ बातचीत या व्‍यवहार करते समय अपने लक्ष्‍य या अपनी भावना के विचार में व्‍यस्‍त हों तो उस व्‍यक्ति को अपनी व्‍यस्‍तता के बारे में बता देना कभी कभी बेहतर होता है । लेकिन उसे यह बात बताते हुए हमें यह संकोच होगा कि हम किसी आत्‍मासक्‍त व्‍यक्ति की तरह व्‍यवहार कर रहे हैं, अक्‍सर दूसरों को हमारी भावनाओं में कोई दिलचस्‍पी नहीं होती है । यदि हम यह सोचते हैं कि दूसरे हमारी भावनाओं को जानना चाहते हैं तो यह हमारा अहंकार ही है । जब हमें दिखाई दे कि हमारा व्‍यवहार स्‍वार्थपूर्ण होता जा रहा है तो हमें वैसा व्‍यवहार बंद कर देना चाहिए । हमें इसकी घोषणा करना आवश्‍यक नहीं है ।
एक और प्रकार की अतिशयता की स्थिति तब उत्‍पन्‍न होती है जब हम यह मानते हैं कि हम सभी बुरे हैं या सभी अच्‍छे हैं । यदि हम अपनी कठिनाइयों, समस्‍याओं या पीड़ादायक भावनाओं को बहुत ज्‍यादा महत्‍व देंगे तो हमें महसूस होने लगेगा कि हम बुरे व्‍यक्ति हैं । फिर यह भावना अपराध-बोध में बदल जाती है । ‘’मुझे अभ्‍यास करना चाहिए । यदि मैं अभ्‍यास नहीं करूंगा तो मैं बुरा व्‍यक्ति कहलाऊंगा ।‘’ अभ्‍यास करने का यह एक बड़ा ही नासमझी भरा तरीका है ।
हमें अपनी अच्‍छाइयों पर बहुत ज्‍यादा जोर देने की अतिशयता से भी बचना चाहिए । ‘’हम सभी दोषमुक्‍त हैं । सिर्फ अपनी बौद्ध प्रकृति को देखों । सब कुछ अद्भुत है ।‘’ यह स्थिति बहुत खतरनाक है क्‍योंकि इसका अर्थ यह हो सकता है कि हमें किसी प्रकार के दुर्गुणों का त्‍याग करने की आवश्‍यकता नहीं है, हमें किसी प्रकार के नकारात्‍मक भावों को नियंत्रित करने की आवश्‍यकता नहीं है क्‍योंकि हमें तो केवल अपनी बौद्ध प्रकृति को देखना है । ‘’मैं अद्भुत हूं, मैं परिपूर्ण हूं । मुझे अपने नकारात्‍मक व्‍यवहार पर रोक लगाने की आवश्‍यकता नहीं है ।‘’ हमें एक संतुलन स्‍थापित करना चाहिए । यदि हम बहुत निराशा में घिरे हों तो हमें अपनी बौद्ध प्रकृति को याद करना चाहिए; यदि हम अतितृप्‍त हो रहे हों तो हमें अपने दोषों पर ध्‍यान देना चाहिए ।
जिम्‍मेदारी स्‍वीकार करना
मूल रूप में हमें अपने व्‍यक्तित्‍व के विकास और अपनी समस्‍याओं का समाधार करने की जिम्‍मेदारी स्‍वयं लेनी चाहिए । इसमें संदेह नहीं कि हमें दूसरों की सहायता की आवश्‍यकता होती है । इस काम को अपने ही दम पर करना आसान नहीं होता है । इस काम में हम आध्‍यात्मिक गुरुओं, आध्‍यात्मिक बिरादरी के लोगों तथा ऐसे लोगों की सहायता ले सकते हैं जो आत्‍म सुधार के लिए प्रयास कर रहे हैं और जो अपनी समस्‍याओं के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण नहीं करते हैं । इसीलिए किसी भी साझेदारी में यह आवश्‍यक होता है कि हम एक-दूसरे के साथ एक जैसा व्‍यवहार करें और खास तोर पर कोई समस्‍या उत्‍पन्‍न होने की स्थिति में दूसरे को दोषी न ठहराएं । यदि दोनों साझीदार एक दूसरे को दोष देंगे तो साझेदारी निभ नहीं सकेगी । यदि एक साझीदार आत्‍मसुधार कर रहा हो और दूसरा केवल दोष देने का काम करे तब भी साझेदारी नहीं चल सकेगी । यदि हम किसी ऐसे नाते में हैं जहां एक दूसरा व्‍यक्ति दोष दे रहा हो और हम यह समझने का प्रयास कर रहे हों कि हम किस प्रकार से दोषी हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरे व्‍यक्ति से सम्‍बन्‍ध विच्‍छेद कर लें, लेकिन ऐसे सम्‍बन्‍ध को बनाए रखना अधिक कठिन होता है । ऐसे सम्‍बन्‍ध में हमें शहीद बनने से बचने का प्रयास करना चाहिए । ‘’मैं सब कुछ सहन कर रहा हूं ! यह बहुत कठिन है !’’ ऐसा करना बड़ा पागलपन होगा ।
प्रेरणा ग्रहण करना
किसी आध्‍यात्मिक गुरु, अपने ही जैसे विचार वाले लोगों की आध्‍यात्मिक बिरादरी और मित्रों से जिस प्रकार की सहायता हमें मिलती है उसे कभी-कभी प्रेरणाकहा जाता है । बौद्ध मत की शिक्षाओं में त्रिरत्‍नों, आध्‍यात्मिक गुरुओं आदि से प्रेरणा ग्रहण करने पर विशेष बल दिया जाता है । इसके लिए तिब्‍बती भाषा में जिनलाबशब्‍द का प्रयोग किया जाता है जिसका अनुवाद सामान्‍यतया आशीषके रूप में किया जाता है जो कि उपयुक्‍त अनुवाद है । प्रेरणा हमारे लिए आवश्‍यक है । हमें प्रगति करने के लिए किसी रूप में शक्ति की आवश्‍यकता होती है ।
धर्म का मार्ग आसान नहीं होता है । इस मार्ग पर जीवन की कुरूपताओं का सामना करना पड़ता है । इसके लिए हमें प्रेरणा के स्‍थायी स्रोतों की आवश्‍यकता होती है । यदि हमारी प्रेरणा के स्रोत ऐसे गुरु हों जो हमें स्‍वयं अपने बारे में या बौद्ध इतिहास के महापुरुषों से सम्‍बन्धित चमत्‍कारों की काल्‍पनिक कथाएं सुनाते हों तो उनसे मिलने वाली प्रेरणा बहुत टिकाऊ नहीं होगी । यह सब निश्चित रूप से बड़ा रोमांचक होगा, लेकिन हमें यह देखना चाहिए कि हमारे ऊपर इसका क्‍या प्रभाव पड़ रहा है । इन काल्‍पनिक कथाओं के कारण बहुत से लोगों में एक ऐसे काल्‍पनिक जगत की धारणा प्रबल होती है जहां हम चमत्‍कारों के माध्‍यम से मुक्ति की कामना करते हैं  । हम कल्‍पना करने लगते हैं कि कोई महान जादूगर अपनी जादुई शक्तियों से हमारी रक्षा करेगा या ये चमत्‍कारी शक्तियां अचानक हमें प्राप्‍त हो जाएंगी । हमें ऐसी अति काल्‍पनिक कथाओं के प्रति बहुत सावधान रहने की आवश्‍यकता है । इनसे हमारे विश्‍वास को प्रेरणा मिल सकती हे और यह एक अच्‍छी बात है, लेकिन हमारी प्रेरणा के लिए यह कोई टिकाऊ आधार नहीं है । हमें इससे ज्‍यादा स्‍थायी आधार की आवश्‍यकता है ।
बुद्ध का उदाहरण इस दृष्टि से एकदम सटीक है । बुद्ध ने काल्‍पनिक कहानियां सुनाकर लोगों को ‘’प्रेरित’’ या प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया । उन्‍होंने लोगों के बीच घूम-घूम कर और आशीष देकर अपनी श्रेष्‍ठता का प्रदर्शन नहीं किया । बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में बार-बार इस सादृश्‍य का प्रयोग किया कि बुद्धत्‍व को प्राप्‍त व्‍यक्ति सूर्य के समान होता है । सूर्य लोगों को तपाने का प्रयास नहीं करता । अपनी प्रकृति के अनुरूप वह तो स्‍वाभाविक रूप से सभी को ऊर्जा प्रदान करता है । कोई काल्‍पनिक कहानी सुनकर या सिर पर छुए जाने से या गले में पहनने के लिए एक लाल धागा दिए जाने से हम उत्‍साहित तो हो सकते हैं, लेकिन यह उत्‍साह स्‍थायी नहीं होता है । प्रेरणा का स्‍थायी स्रोत यह है कि गुरु अपने सहज-स्‍वाभाविक रूप में कैसा है उसका चरित्र क्‍या है, धर्म के अभ्‍यास के परिणामस्‍वरूप उसका व्‍यक्तित्‍व कैसा है । प्रेरणा इस बात से मिलती है, हमारा मनोरंजन करने के लिए किसी व्‍यक्ति द्वारा किए गए स्‍वांग से नहीं । यह बात किसी काल्‍पनिक कथा की तरह रोमांचक भले ही न लगे, लेकिन इससे हमें स्‍थायी प्रेरणा मिलेगी ।
जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, हमें अपनी प्रगति से स्‍वत: प्रेरणा मिलती है कोई चमत्‍कारी शक्तियां मिलने के कारण नहीं, बल्कि अपने चरित्र के विकास में हो रही प्रगति के कारण । उपदेशों में हमेशा अपने सकारात्‍मक कार्यों को देखकर आनन्दित होने की बात पर बल दिया जाता है । यहां यह बात समझना महत्‍वपूर्ण है कि प्रगति कभी भी एक रेखा के समान सीधी नहीं होती है । हर आने वाले दिन के साथ इसमें वृद्धि नहीं होती है । संसार की एक प्रकृति यह भी है कि जब तक हम संसार के चक्र से पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो जाते, जो कि आत्‍मविकास का एक अविश्‍वसनीय रूप से उन्‍नत सोपान है, तब तक हमारी मनोदशा में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं । हमें यह समझकर चलना चाहिए कि कभी हम प्रफुल्लितहोंगे तो कभी खिन्‍न भी होंगे  । कभी हम सकारात्‍मक ार्य करेंगे तो कभी बुरी आदतें हम पर हावी होंगी । इसलिए उतार-चढ़ाव तो होंगे । सामान्‍यतया चमत्‍कार नहीं होते हैं ।
आठ सांसारिक चिंताओं से मुक्ति के उपदेशों में इस बात पर बल दिया जाता है कि यदि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो तो हम गर्व से फूल कर कुप्‍पा न हो जाएं और जब परिस्थितियां हमारे प्रतिकूल हों तो हम अवसाद में न डूब जाएं । इसी का नाम जीवन है । हमें दीर्घकालिक प्रभावों को देखना चाहिए और अल्‍पकालिक प्रभावों से विचलित नहीं होना चाहिए । उदाहरण के लिए यदि हम पांच वर्षों से अभ्‍यास कर रहे हैं तो हम पाएंगे कि पांच साल पहले की तुलना में हमने बहुत तरक्‍की की है । कभी हम परेशान भी हो जाएं, और यह पाएं कि हम स्थिति का अधिक संयम और निर्मल मन-मस्तिष्‍क से स्थिति का मुकाबला कर सकते हैं तो यह इस बात को दर्शाता है कि हमने कुछ प्रगति की है । यह स्थिति प्रेरणादायी होती है । यह सब नाटकीय ढंग से नहीं होता है, हालांकि हम चाहेंगे कि यह नाटकीय ढंग से हो और हम इसके नाटकीय प्रदर्शन से उन्‍मत्‍त हो सकें । ऐसी प्रेरणा स्‍थायी होती है ।
व्‍यावहारिक दृष्टिकोण
हमें बहुत व्‍यावहारिक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए । जब हम वज्रसत्‍व क्रिया जैसी शुद्धीकरण की क्रियाएं करते हैं तो यह जरूरी है कि हम ऐसा न सोचें कि संत वज्रस्‍तव स्‍वयं हमारा शुद्धीकरण कर रहे हैं । किसी महान संत जैसा कोई बाहरी व्‍यक्ति हमारी रक्षा करके और हमारा शुद्धीकरण करके हमें आशीष नहीं देगा । वज्रसत्‍व तो निर्मल मन की उस स्‍वाभाविक शुद्धता का पर्याय हैं जो भ्रम से स्‍वभावत: दूषित नहीं होती । भ्रम को दूर किया जा सकता है । अपने ही प्रयासों से मन की सहज निर्मलता को पहचान कर हम अपराध-बोध, अन्‍तर्निहित नकारात्‍मक शक्तियों आदि से मुक्‍त हो सकते हैं । ऐसा करके हम शुद्धीकरण की प्रक्रिया को प्रभावकारी बना सकते हैं ।
इसके अलावा, इन सभी प्रक्रियाओं को करते समय और रोजमर्रा के जीवन में धर्म के आचरण का प्रयास करते समय हमें यह समझना और स्‍वीकार करना होगा कि हम अभ्‍यास के किस चरण में हैं । यह जरूरी है कि हम मिथ्‍याभिमान न करें और ऐसा न सोचें कि हमें अपने वर्तमान स्‍तर से ऊंचे सोपान पर होना चाहिए था ।
धर्म के प्रति कैथोलिक दृष्टिकोण रखना
यहां मौजूद हम में से अधिकांश लोग कैथोलिक पृष्‍ठभूमि से आते हैं  । अब जब हम धर्म के विषय में चर्चा और अध्‍ययन शुरू करने वाले हैं तो हमें यह नहीं समझना चाहिए कि इसके लिए हमें कैथोलिक मत का त्‍याग करके बुद्ध धर्म को अपनाना पड़ेगा । लेकिन यह जरूरी है कि हम इन दोनों मतों को आपस में मिलाएं नहीं । गिरजाघर में बैठने से पहले हम वेदी के सामने तीन बार साष्‍टांग प्रणाम करके नहीं बैठते  । इसी प्रकार बौद्ध परंपरा का पालन करते समय हम वर्जिन मेरी की कल्‍पना नहीं करते बल्कि बुद्ध की प्रतिमा की कल्‍पना करते हैं  । दोनों मतों की रीतियों का पालन हम अलग-अलग ढंग से करते हैं । जब हम गिरजे में जाते हैं तो हम गिरजे में जाते हैं, जब हम बौद्ध ध्‍यान साधना करते हैं तो हम बौद्ध ध्‍यान साधना करते हैं । लेकिन दोनों मतों के बीच प्रेम, एक दूसरे की सहायता करने आदि पर बल दिए जाने जैसी बहुत सी समानताएं हैं । इस प्रकार मूल स्‍तर पर दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है । यदि हम प्रेम, परोपकार और दूसरों की सहायता करने आदि जैसे सद्गुणों का व्‍यवहार करते हें तो हम एक अच्‍छे कैथोलिक मतावलंबी होने के साथ साथ अच्‍छे बौद्ध भी हुए । लेकिन अन्‍ततोगत्‍वा हमें इनमें से किसी एक का चुनाव करना होगा, लेकिन ऐसा करने की आवश्‍यकता तभी पड़ेगी जब हम बहुत अधिक आध्‍यात्मिक उन्‍नति हासिल करने के लिए पूरा प्रयास करने का इरादा रखते हों । यदि हम किसी इमारत की सबसे ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचना चाहते हैं तो हम दो सीढि़यां एक साथ नहीं चढ़ सकते हैं । मुझे लगता है कि यह एक अच्‍छा प्रतीक है1 यदि हम इमारत की बुनियादी निचली मंजिल पर प्रतीक्षा-कक्ष में ही काम कर रहे हैं, तब ठीक है । फिर हमें फिक्र करने की जरूरत नहीं है । हम दोनों ही स्थितियों से लाभ उठा सकते हैं ।
अनुपयुक्‍त निष्‍ठा से कैसे बचें
अपने जीवन में धर्म को लागू करते समय हमें इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि कहीं हम अपने मूल धर्मों को तुच्‍छ मानकर उनकी उपेक्षा न करें । ऐसा करना एक बड़ी भूल है । तब तो हम कोई कट्टरपंथी बौद्ध मतावलम्‍बी और कट्टर कैथोलिक धर्म विरोधी बन जाएंगे । साम्‍यवाद और लोकतंत्र के मामले में भी लोग यह भूल करते हैं । ऐसी स्थिति में अनुचित निष्‍ठा नाम की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हम पर हावी हो जाती है । अपने परिवार, अपनी पृष्‍ठभूमि आदि के प्रति निष्‍ठावान बने रहने की हमारी प्रवृत्ति होती है, इसलिए भले ही हमने कैथोलिक मत को अस्‍वीकार कर दिया हो, हम उसके प्रति निष्‍ठावान बने रहना चाहते हैं । यदि हम अपनी पृष्‍ठभूमि के प्रति निष्‍ठावान नहीं रहते हैं तो उसे बुरा बताकर पूरी तरह अस्‍वीकार कर देते हैं तो हमें लगता है कि हम एक दम बुरे हैं । क्‍योंकि यह स्थिति बेहद अप्रिय होती है, इसलिए हम अनजाने में ही अपनी पृष्‍ठभूमि के बारे में कोई ऐसी बात तलाश करते हैं जिसके प्रति हम निष्‍ठावान बने रह सकें ।
प्रवृत्ति यह होती है कि हम अनजाने में ही अपनी पृष्‍ठभूमि के किन्‍ही कम लाभकारी पहलुओं के प्रति निष्‍ठावान बने रहते हैं । उदाहरण के लिए हम कैथोलिक धर्म को छोड़ सकते हैं, लेकिन हम बोद्ध धर्म में नरक के अत्‍यधिक भय की बात को अपने साथ लेकर आएंगे  । मेरी एक मित्र बड़ी कट्टर कैथोलिक हुआ करती थीं जो बाद में एक कट्टर बौद्ध में परिवर्तित हो गई और फिर उनके सामने अस्तित्‍व का संकट खड़ा हो गया । ‘’मैंने कैथोलिक धर्म का त्‍याग किया इसलिए अब मैं कैथोलिक नरक में जाऊंगी, लेकिन यदि मैं बौद्ध मत को छोड़कर कैथोलिक धर्म में लौटती हूं तो फिर मैं बौद्ध नरक में जाऊंगी! यह बात हास्‍यास्‍पद लग सकती है, लेकिन मेरी उस मित्र के लिए यह एक गंभीर समस्‍या बन गई थी ।
अक्‍सर अनजाने में हम कैथोलिक मत की कुछ प्रवृत्तियों को अपने बौद्ध अभ्‍यासों में ले आते हैं । इन प्रवृत्तियों में अपराध बोध और अपनी रक्षा के लिए चमत्‍कारों या दूसरों की राह देखने की प्रवृत्तियां सबसे आम हैं । यदि अभ्‍यास नहीं करते हैं तो हमें लगता है कि हमें अभ्‍यास करना चाहिए, और यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम अपराध बोध से ग्रस्‍त हो जाते हैं । इस प्रकार के विचार बिल्‍कुल भी फायदेमंद नहीं हैं । जब हम ऐसी भूल करें तो हमें उसका पता लगाकर उसे ठीक करना चाहिए । हमें अपनी पृष्‍ठभूमि पर विचार करके उसके सकारात्‍मक पहलुओं को स्‍वीकार करना चाहिए ताकि हम नकारात्‍मक पहलुओं के बजाए सकारात्‍मक विशेषताओं के प्रति निष्‍ठावान बने रह सकें । यह सोचने के बजाए कि, ‘’मुझे तो अपराध बोध और चमत्‍कारों पर निर्भरता विरासत में मिली है’’ हम यह सोच सकते हैं कि ‘’मुझे कैथोलिक धर्म की प्रेम, परोपकार और कमनसीबों की सहायता करने की महान परम्‍परा विरासत में मिली है  ।‘’
अपने परिजनों के प्रति भी हमारा यही रवैया हो सकता है । हो सकता है कि हम उन्‍हें नापसंद करते हों और साथ ही यह भी हो सकता है कि हम उनकी सकारात्‍मक परम्‍पराओं के प्रति सचेतन मन से निष्‍ठावान रहने के बजाए अनजाने में उनकी नकारात्‍मक रीतियों के प्रति निष्‍ठावान कने रहें । उदाहरण के लिए यदि हम इस बात को स्‍वीकार करते हैं कि हम अपने परिवारों से मिली कैथोलिक पृष्‍ठभूमि के लिए अपने पूर्वजों के प्रति आभारी हैं, तो फिर हम अपने अतीत के बारे में किसी विरोध और नकारात्‍मक विचारों के कारण हमारी प्रगति के मार्ग में किसी भी प्रकार के जोखिम के बिना हम अपनी राह पर आगे बढ़ सकते हैं ।
मनोवैज्ञानिक स्‍तर पर इस तर्क की उपयुक्‍तता को समझना महत्‍वपूर्ण है । यदि हम अपने अतीत, अपने जन्‍म के समय के धर्म या किसी अन्‍य चीज़ के बारे में नकारात्‍मक दृष्टिकोण रखते हैं, तब तक हमारे मन में स्‍वयं के प्रति नकारात्‍मक सोच रखने की प्रवृत्ति बनी रहती है । वहीं दूसरी ओर यदि हम अपनी पृष्‍ठभूमि या अपने अतीत के सकारात्‍मक पहलुओं को अंगीकार करते हैं तो अपने बारे में हमारा रवैया ज्‍यादा सकारात्‍मक होता है । इससे अध्‍यात्‍म की राहत पर हमें ज्‍यादा स्थिरता से आगे बढ़ने में सहायता मिलती है ।
हमें धैर्य के साथ एक-एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए । जब हम कोई बहुत अधिक विकसित स्‍तर का उपदेश सुनते हैं या किसी तांत्रिक अनुष्‍ठान आदि के लिए जाते हैं तो हमें यह तय करना पड़ेगा कि क्‍या व्‍यवहार करने की दृष्टि से यह प्रक्रिया हमारे लिए बहुत उन्‍नत स्‍तर की तो नहीं, या क्‍या हम उसी समय से उस प्रक्रिया को नित्‍य-प्रयोग में ला सकते हैं । हालांकि प्राचीन काल के महान गुरुओं ने इस सम्‍बन्‍ध में यही कहा है कि, ‘’जैसे ही कोईे उपदेश सुनो, उस पर तुरन्‍त अमल शुरू कर दो ।‘’ यदि यह प्रक्रिया बहुत उन्‍नत स्‍तर की है तो हमें विवेक का प्रयोग करते हुए ऐसे उपायों को जानना होगा जो हमें उस प्रक्रिया पर अमल करने के लिए सक्षम बना सकें, और तब उन उपायों की सहायता से आगे बढ़ना होगा । मेरे एक गुरु गेशे ग्‍वांग धारग्‍ये ने इस बात को संक्षेप में इस प्रकार समझाया था, ‘’यदि हम काल्‍पनिक विधियां अपनाएंगे तो हमें अवास्‍तविक परिणाम मिलेंगे, यदि हम व्‍यावहारिक तरीके अपनाएंगे तो हमें व्‍यावहारिक परिणाम मिलेंगे ।

 वेला...

Sunday, 25 June 2017

प्रलेस की विचारधारा,भाग-२

जय हिन्द ..बाउजी प्रणाम ...



                                                                                    
                                        प्रलेस की विचारधारा,भाग-२            

सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों से हिंदी लेखन में स्वत:स्फूर्त, गतिशील विचारधारा का हमेशा प्रभाव रहा है । इसे जब किसी बिल्ला और झंडा विशेष के डंडा से हांकने का दबाव बनाया गया तो इसमें कुरुचि ओर स्तरहीनता का समावेश हुआ । उन्नीसवीं सदी के अंतिम चतुर्थांश और उसके बाद के समुचित, संपूर्ण भारतीय राजनीतिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का चरम विंदु सन 1910 और इसके आसपास के वर्ष हैं । यही गांधी के हिंद स्वराज, इकबाल के सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, बंदे मातरम के क्रांतिकारी लेख और उनके लिए अरबिंद की नजरबंदी, बाल गंगाधर तिलक का गीता रहस्य, सावरकर की पुस्तक फर्स्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंस, सुब्रमण्यम भारती की तमिल कविताओं, मैथिली शरण गुप्त की भारतभारती और प्रेमचंद की सरकार से टकराहट और उनकी आरंभिक हिंदीं पुस्तकों का प्रकाशन का समय है ।
उसके बाद के दो दशक में बिखंडनवादी, सांप्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी- नृजातिक विचारधाराओं का तेजी से प्रचार प्रसार होता है । इस काल में मुस्लिम लीग (1906), हिंदू महासभा (1910), द्रविण विचारधारा से उत्प्रेरित जस्टिस पार्टी (1916), नगा क्लब (1918), अकाली दल (1921), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1924) की स्थापना होती है । महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले ने उन्नीसवीं सदीं के अंतिम समय में जाति व्यवस्था के विरोध में समाज सुधार का आंदोलन चलाया था । उसे दलित वर्गों के संगठन (1919) और डॉ अंबेडकर के विचारों से विशेष बल मिला । भारतेंदु के समय से ही हिंदी में सामाजिक सुधार विषयक लेखन की प्रचुर परंपरा रहने के बाद भी इन आंदोलनों का प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है । विखंडनवादी विचारधाराओं के प्रभाव से भी सब मिला कर इस अवधि में हिंदी लेखन अलग ही रहा । राष्ट्रीय विचारधारा के साथ मिल कर हिन्दी में यह छायावाद का काल है ।
सन 1917 में रूस में बोलशेविक क्रांति हुई । भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना (1925) हुई । सन 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई । सन् 1936 में लखनउ में सज्जाद जहीर की पहल और प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संध (प्रलेस) का पहला सम्मेलन हुआ । स्मरणीय है कि पाकिस्तान बनते ही सबसे पहले सज्जाद जहीर पाकिस्तान चले गए थे । वहां रहना जब दूभर हो गया तो प्रधान मंत्री नेहरू की कृपा से वे किसी तरह फिर से भारत लौट पाए थे । आरंभ में पांच छ: वर्पों तक प्रलेस राष्ट्रवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट और सामाजिक सरोकारों में रुचि रखने वाले लेखकों का साझा मंच था । भारत छोड़ो आंदोलन में जब इससे जुड़े बहुत से लेखक जेल चले गए तो कम्युनिस्टों ने इस पर कब्जा कर लिया । उसके बाद स्टालिनवादी तानाशाही साँचे में ढली कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से विचारधारा के नाम पर अपने जेबी संगठन प्रलेस और इप्टा के जरिए साहित्य और संस्कृति की भूमिका की डंडामार कवायद आरंभ हुई ।


वेला.....


प्रलेस की विचारधारा

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                                             प्रलेस की विचारधारा                 


प्रलेस की विचारधारा के निर्धारण में जब शिवदान चौहान, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव जैसे आलोचकों का राजत्व काल था तब तुलसी और कबीर, रामचंद्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय के लेखन में प्रगतिशीलता और प्रतिगामिता के जीवाणुओं की मात्रा दलगत राजनीति के आधार पर ढूँढ़ी गई  । अनेक युवा कम्युनिस्ट साहित्यकार जो आज तबेले में लतिहाव जैसी कम्युनिस्ट लेखको की आपसी गिरोहबंदी से ईमानदारी से दुखी हैं, उनका विश्वास है कि यह स्थिति कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव के कारण हैं  । वस्तुत: जब कम्युनिस्ट पार्टी एक थी तब भी हिंदी के सवाल पर राहुल जैसे महापंडित के लिए गुटबंदी के चलते पार्टी में स्थान नहीं था और उन्हें दल से निष्कासित कर दिया गया था  । किसी भी कम्युनिस्ट लेखक ने इसके विरोध का साहस नहीं प्रदर्शित किया था  । उस समय भी रांगेय राघव रामविलास शर्मा पर वैसे ही हमला कर रहे थे जिस तरह पिछले कुछ वर्पों में रामविलास शर्मा न केवल नई कविता और उससे जुड़े लोहियावादियों पर बल्कि नेमिचंद्र जैन और मुक्तिबोध जैसे अपनी ही विचारधारा के लेखकों पर राजनीतिक कारणों से हमला करते हैं  ( साक्षात्कार, कल के लिए: रामविलास शर्मा विशेषांक-3, अक्टूबर 02-मार्च 03, पृ.18-19 ) । यह दुखद है कि झूठी विचारधारा के नाम पर लड़ी जाने वाली, कम्युनिस्ट लेखकों की इस अहंजन्य लड़ाई और दिशाहीन मानसिकता से उपजे सन्निपाती घात प्रतिघात की चपेट में अब रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन भी आ चुके हैं  ।

वेला

इतिहास-बोध:- संस्कृति और साहित्य

जय हिन्द ...बाउजी प्रणाम ...

         समय के संदर्भ में समाज, संस्कृति और साहित्य को समझने के लिए इतिहास-बोध आवश्यक है । व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र का इतिहास-बोध उनकी वर्चस्ववादी विचारधारा अथवा विश्वदृष्टि के साथ जुड़ा होता है । आज भारतीय समाज और संस्कृति को समझने की विश्वदृष्टि विखंडित होकर संप्रदायगत, दलगत और समुदायगत हितों में बदल चुकी हैं । इसने जिस मजहबी कट्टरता, जातिवादी विभाजन और दिशाहीन राजनीति को जन्म दिया है, उसका कुफल पूरा देश भोग रहा है । इन सवालों पर अलग से विचार करने की जरूरत है । प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास के विश्लेषण मे दो अतिवादी दृष्टियों से बचने की आवश्यकता है । कुछ लोग वैदिक परंपरा को ही एकमात्र भारतीय परंपरा मान लेते हैं । उनके अनुसार यह प्राचीन परंपरा भारत के स्वर्ण युग का प्रतिनिधित्व करती है । हिंदुत्व के आंदोलन के साथ इस विचार को नए सिरे से बल मिला है । इन विचारों के बोझ तले यह सत्य दब जाता है कि हिंदुओं के छ: दर्शनों में भी बड़ी विभिन्नता है । भारतीय चिंतन ने विविधता, बहुलता, विमर्श को सर्वदा प्रोत्साहित किया । असहमति और प्रतिरोध का कभी गला नहीं दबाया । दूसरी ओर कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित लेखक जन भावना, लोक परंपरा की बिलकुल अनदेखी कर यह प्रचारित करने की चेष्टा करते हैं कि हिंदुओं ने बौध्दो/जैनियों के मंदिर तोड़े । वे यह भुला देते हैं कि कोटि कोटि हिंदुओं के लिए बुद्ध और महावीर वैसे ही भगवानहैं जैसे राम और कृष्ण । संख्या की दृष्टि से असली अल्पसंख्यक यहूदियों और पारसियों को जहाँ अन्य जगहों पर प्रताड़ना मिली, उन्हें इस देश में अद्भुत सम्मान मिला । सदियों से यही भारतीय परंपरा रही हैं । कम्युनिस्ट संगठन सहमतद्वारा अपनी प्रदर्शनियों में राम और सीता का जन भावना के विपरीत जिस तरह चित्रण किया गया, वह कुत्सित मानसिकता का परिचायक है ।


वेला 

हिंदी लेखन, विचारधारा और इतिहास बोध...

जय हिन्द...बाउजी प्रणाम ...


हिंदी लेखन, विचारधारा और इतिहास बोध.....


पिछले दो तीन दशकों के हिंदी लेखन पर नजर दौड़ाने से यह बात स्पष्ट होती है कि इसमें पक्षधरता, विचारधारा, इतिहास बोध, कलावाद बनाम जनवाद, व्यक्ति बनाम वर्ग अथवा समाज का सवाल प्रचुर मात्रा में उठाया गया है । पश्चिम के कुछ लेखकों ने जब से इतिहास के अंत, विचारधारा के अंत और उत्तर आधुनिकता की चर्चा चलाई है, तबसे हिंदी लेखन में भी इनकी चर्चा है । कोई भी विवेकशील व्यक्ति इससे इंकार नहीं कर सकता कि समाज और संस्कृति के विश्लेषण में इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है । नई विचारधाराओं का उद्भव, सामाजिक परिवर्तन के दिशा निर्धारण में उनकी भूमिका और इतिहास के कालखंड विशेष में पारस्परिक संबंध है । सामाजिक परिवर्तन और गतिशीलता की प्रक्रिया, उनके पीछे अंतर्निहित सामाजिक शक्तियां, उनका राजव्यवस्था, अर्थतंत्र, संस्कृति, साहित्य से अंतर्संबंध और इनकी विवेकपूर्ण समझ इतिहास बोध है । जब तक समाज और संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तन, आंदोलन, संघर्ष; नये चिंतन के प्रस्फुरण; विज्ञान, प्रविधि के क्षेत्रा में नए आविष्कार; राजनीति, अर्थतंत्रा के क्षेत्र में गतिशीलता की प्रक्रिया विद्यमान है; तब तक इतिहास के अंत का सवाल ही नहीं पैदा होता है । इसी तरह जब तक समाज के विभिन्न समूहों और वर्गों के हित में टकराहट है, उनके सामाजिक पुनर्रचना के सपने और मनोवांछित मनुष्य के निर्माण की उनकी साध है, तब तक विभिन्न विचारधाराओं का अस्तित्व बना रहेगा ।
लेकिन हिंदी लेखन में इन सवालों को लेकर कुछ अतिरेक, कुछ समझ की कमी और कुछ दलगत राजनीति के प्रभाव के कारण अति उत्साह है । यह बात केवल आलोचना के क्षेत्र में ही लागू नहीं होती हैं । कविताओं के संकलन, कहानी संग्रह और उपन्यासों की भूमिकाएं भी इन सवालों को लेकर प्राय: संदर्भ से असंपृक्त उबाउ उद्धरणों से भर दी जाती हैं । दलगत राजनीति से जुडे कम्युनिस्ट लेखकों के प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे बहुरंगी संगठनों की आपसी टकराहट, ‘हंस’ ‘आलोचनातथा अनेक लघु पत्रिकाओं के लेखों और टिप्पणियों में बहुधा विचारधारा की सैद्धांतिक बहस का कमजोर मुखौटा टूटकर अशालीनता, गाली-गलौज और चरित्र-हनन में बदल जाता है । इसका राजनीतिक मताग्रह से भरा एक दूसरा चतुराई भरा पक्ष हैं । यदि कोई लेखक अपने साहित्यिक लेखन की गुणवत्ता के प्रति ईमानदार रह कर इन गिरोहों से अलग रहता है तो या तो उसकी पूरी तौर पर अनदेखी करने की चेष्टा की जाती है अथवा उसके योगदान को हलका बनाया जाता है । इस प्रवृत्ति के कई दुष्परिणाम हैं । विश्वविद्यालयों में नियुक्ति-प्रोन्नति की लालसा, थोड़ी सी बची प्रचारित पत्रिकाओं में छपने की इच्छा और आलोचना के क्षेत्र में आसीन लोगों द्वारा मान्यता न मिलने के आतंक के कारण लेखकीय स्वायत्तता और बौद्धिक ईमानदारी का हनन होता है । यह परिदृश्य लेखक और पाठक के बीच के प्रत्यक्ष संबंध को तोड़ता है । समीक्षकों और पत्रिकाओं के बंधे बंधाए वैचारिक साचें में एडजस्ट होने वाले लेखन का नतीजा है कि यह हास्यास्पद पैंफ्लेटबाजी में बदलता गया है ।
फिर भी विचारधारा और इतिहास बोध की प्रासंगिकता पर हिंदी लेखन में रामविलास शर्मा, निर्मल वर्मा और विजय देव नारायण साही के अपने परिप्रेक्ष्य हैं । रामविलास शर्मा के लेखन के दो पक्ष हैं । एक ओर तो उनके लेखन में मनीषी और विश्लेषक की झलक है । दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी के एक स्वघोषित कार्ड होल्डर के रूप में वे साहित्यिक समीक्षा में मार्क्‍सवादी विचारधारा के मुहावरों का प्रयोग करते हुए, साहित्यिक लेखन के आधार पर नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से भिन्न मत रखने वालों के प्रति, तथ्यों के विपरीत जाकर भी आक्रामक हैं । विचारधारा के छद्म के इस निजी घात प्रतिघात में विभिन्न गुटों से जुड़े कम्युनिस्ट लेखकों द्वारा अब रामविलास शर्मा पर भी हमला किया जा रहा है
दूसरी ओर निर्मल वर्मा का मानना है कि विज्ञान प्रकृति की चिरंतनता का उल्लंघन करने के कारण और आइडिओलॉजीभविष्य के लिए वर्तमान पर बलात्कार करने के कारण मनुष्य और कला का अमानवीयकरण करते हैं ।2 उनके अनुसार भारत के केंद्रीय सांस्कृतिक संकट को देखते हुए व्यक्ति स्वातंत्रय बनाम सामूहिकता की बहस अप्रासंगिक हैं । हिंदुस्तान में इस संकट के विषय में काम सिर्फ राजनीति में पहले गांधी फिर बाद में लोहिया के कर्म-चिंतन में हुआ । साहित्य इससे अछूता रहा जबकि तीसरी दुनिया के अन्य देशों में साहित्यकार इस विषय में सजग रहे हैं । उनका कथन है जब किसी साहित्य में सार्थक, जीवंत और संयत समीक्षा-पद्धति मुरझाने लगती है तो उसके साथ अनिवार्यत: एक परजीवी वर्ग, एक साहित्यिक माफिया पनपने लगता हैइन लोगों का साहित्य और संस्कृति के मूल्यों से कोंई सरोकार नहीं, किंतु पिछले वर्षों में इनके हाथों में एक छद्म किस्म की ताकत जमा होती गई है ।3
साही जायसी पर किए गए शोध के जरिए हिंदी आलोचना के क्षेत्र मे गहन विश्लेषण का मानक स्थापित करते हैं । विचारधारा के संदर्भ में वे मनोरंजक और संदेशवाहक दोनों तरह के साहित्य की सीमाओं को उद्धाटित करते हैं । उनके अनुसार वस्तुत: मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं । मनोरंजक साहित्य यह देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्व क्या हैं और कहां हैं ?….मात्र संदेशवाहक साहित्य यह मान कर चलता है कि मूलभूत प्रश्न और मूलभूत उत्तर सब प्राप्त हो चुके हैं….साहित्य में किसी दार्शनिक सिध्दांत और विचारधारा का वहन करना एक बात है और अपने युग की संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात है । यह आत्मस्थ चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है ।4 साही अपनी इन कसौटियों पर जायसी के पद्मावत के साहित्यिक अवदान और इतिहास बोध को कसते हैं । उनके अनुसार जायसी की सृजनात्मक क्षमता मात्र मनोरंजन और मात्र आघ्यात्मिक संदेश दोनों के खतरे से उपर उठने में है । जायसी ने इतिहास और युग की निर्मल छवि देखी और अपने आसपास की शताब्दियों में वे अकेले कवि हैं जिन्हें इस युग दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ
हिंदी के इन दो चिंतनशील विश्लेषकों ने दशकों पूर्व जिस माफिया प्रवृत्ति, सांस्कृतिक संकट के प्रति शुतुरमुर्गी दृष्टिकोण और विचारधारा की संदेशवाहकता के नाम पर चिंतनशीलता और बौद्धिक सघनता से पलायन की बात की है, उस पर खलीफाई अहम, निजी राग-द्वेष भरे आरोप, विचारधारा की आधी अधूरी समझ से उपजी छापामार लड़ाई जैसी आक्रामकता के कारण समुचित ध्यान नहीं दिया गया । उलटा जन संघर्षों, श्रमिक आंदोलनों से आजीवन जुड़ाव, लोहियावादी राजनीतिक विचारधारा से सक्रिय रूप से संबद्ध होने के बाद भी साहित्य में संदेशवाहक विचारधारा की सीमाओं से पूर्णत: भिज्ञ साही पर शीत युद्ध काल में कामरेडों की ओर से अमेरिका द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक स्वतंत्रता के मंच से जुड़ा होने का आरोप लगाया गया । गांधी और लोहिया की राजनीति के संदर्भ में एक सजग चिंतक के नाते सास्कृतिक संकट की ओर इंगित करने वाले निर्मल पर भूमंडलीकरण के युग में अन्य संकटों के साथ गहराते सांस्कृतिक संकट के बीच कम्युनिस्ट लेखको नें भगवावादीहोने का हथियार दाग दिया ।
हिंदी लेखन में मार्क्‍सवाद की आधी अधूरी समझ के नाम पर विचारधारा, इतिहास बोध और परंपरा को लेकर काफी भ्रम की स्थिति है । इसकी सफाई के लिए मार्क्‍स के पूर्ववर्ती, स्वयं मार्क्‍स और मार्क्‍स के बाद के चिन्तन में इन पर किस परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया है, इस पर प्रकाश डालना आवश्यक है ।

संदर्भ :
1. त्रैमासिक कल के लिएबहराइच, संयुक्तांक, अक्टूबर 2002-मार्च 2003, रामविलास शर्मा विशेषांक ।
2. नित्यानंद तिवारी अकेलेपन से संन्यास की ओर’ ‘संकल्प-समीक्षा दशकसंपादिका, निर्मला जैन, हिंदी अकादमी, दिल्ली, 1992, पृ. 40
3. ‘निर्मल वर्माअज्ञेय: आधुनिक बोध की पीड़ावहीं, पृ.60-61
4. विजय देव नारायण साही कवि के बोल खरग हिरवानीवहीं, पृ. 230-231

Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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