जय हिन्द ...बाउजी प्रणाम ...
समय के संदर्भ में समाज, संस्कृति और साहित्य को समझने के लिए
इतिहास-बोध आवश्यक है । व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र का
इतिहास-बोध उनकी वर्चस्ववादी विचारधारा अथवा विश्वदृष्टि के साथ जुड़ा होता है ।
आज भारतीय समाज और संस्कृति को समझने की विश्वदृष्टि विखंडित होकर संप्रदायगत,
दलगत और समुदायगत हितों में बदल चुकी हैं । इसने जिस मजहबी कट्टरता,
जातिवादी विभाजन और दिशाहीन राजनीति को जन्म दिया है, उसका कुफल पूरा देश भोग रहा है । इन सवालों पर अलग से विचार करने की जरूरत
है । प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास के विश्लेषण मे दो अतिवादी दृष्टियों से
बचने की आवश्यकता है । कुछ लोग वैदिक परंपरा को ही एकमात्र भारतीय परंपरा मान लेते
हैं । उनके अनुसार यह प्राचीन परंपरा भारत के स्वर्ण युग का प्रतिनिधित्व करती है
। हिंदुत्व के आंदोलन के साथ इस विचार को नए सिरे से बल मिला है । इन विचारों के
बोझ तले यह सत्य दब जाता है कि हिंदुओं के छ: दर्शनों में भी बड़ी विभिन्नता है ।
भारतीय चिंतन ने विविधता, बहुलता, विमर्श
को सर्वदा प्रोत्साहित किया । असहमति और प्रतिरोध का कभी गला नहीं दबाया । दूसरी
ओर कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित लेखक जन भावना, लोक
परंपरा की बिलकुल अनदेखी कर यह प्रचारित करने की चेष्टा करते हैं कि हिंदुओं ने
बौध्दो/जैनियों के मंदिर तोड़े । वे यह भुला देते हैं कि कोटि कोटि हिंदुओं के लिए
बुद्ध और महावीर वैसे ही ‘भगवान’ हैं
जैसे राम और कृष्ण । संख्या की दृष्टि से असली अल्पसंख्यक यहूदियों और पारसियों को
जहाँ अन्य जगहों पर प्रताड़ना मिली, उन्हें इस देश में
अद्भुत सम्मान मिला । सदियों से यही भारतीय परंपरा रही हैं । कम्युनिस्ट संगठन ‘सहमत’ द्वारा अपनी प्रदर्शनियों में राम और सीता का
जन भावना के विपरीत जिस तरह चित्रण किया गया, वह कुत्सित
मानसिकता का परिचायक है ।
वेला
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