जय हिन्द...बाउजी प्रणाम ...
संदर्भ :
हिंदी लेखन, विचारधारा और इतिहास बोध.....
पिछले दो तीन दशकों के हिंदी लेखन पर नजर
दौड़ाने से यह बात स्पष्ट होती है कि इसमें पक्षधरता, विचारधारा, इतिहास
बोध, कलावाद
बनाम जनवाद, व्यक्ति बनाम वर्ग अथवा समाज का सवाल प्रचुर मात्रा में
उठाया गया है । पश्चिम के कुछ लेखकों ने जब से इतिहास के अंत, विचारधारा
के अंत और उत्तर आधुनिकता की चर्चा चलाई है, तबसे हिंदी लेखन में भी इनकी चर्चा है । कोई
भी विवेकशील व्यक्ति इससे इंकार नहीं कर सकता कि समाज और संस्कृति के विश्लेषण में
इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है । नई विचारधाराओं का उद्भव, सामाजिक
परिवर्तन के दिशा निर्धारण में उनकी भूमिका और इतिहास के कालखंड विशेष में
पारस्परिक संबंध है । सामाजिक परिवर्तन और गतिशीलता की प्रक्रिया, उनके पीछे
अंतर्निहित सामाजिक शक्तियां, उनका राजव्यवस्था, अर्थतंत्र, संस्कृति, साहित्य
से अंतर्संबंध और इनकी विवेकपूर्ण समझ इतिहास बोध है । जब तक समाज और संस्कृति के
क्षेत्र में परिवर्तन, आंदोलन, संघर्ष; नये चिंतन के प्रस्फुरण; विज्ञान, प्रविधि
के क्षेत्रा में नए आविष्कार; राजनीति, अर्थतंत्रा के क्षेत्र में गतिशीलता की
प्रक्रिया विद्यमान है; तब तक इतिहास के अंत का सवाल ही नहीं पैदा
होता है । इसी तरह जब तक समाज के विभिन्न समूहों और वर्गों के हित में टकराहट है, उनके
सामाजिक पुनर्रचना के सपने और मनोवांछित मनुष्य के निर्माण की उनकी साध है, तब तक
विभिन्न विचारधाराओं का अस्तित्व बना रहेगा ।
लेकिन हिंदी लेखन में इन सवालों को लेकर कुछ
अतिरेक, कुछ समझ
की कमी और कुछ दलगत राजनीति के प्रभाव के कारण अति उत्साह है । यह बात केवल आलोचना
के क्षेत्र में ही लागू नहीं होती हैं । कविताओं के संकलन, कहानी
संग्रह और उपन्यासों की भूमिकाएं भी इन सवालों को लेकर प्राय: संदर्भ से असंपृक्त
उबाउ उद्धरणों से भर दी जाती हैं । दलगत राजनीति से जुडे कम्युनिस्ट लेखकों के
प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन
संस्कृति मंच जैसे बहुरंगी संगठनों की आपसी टकराहट, ‘हंस’ ‘आलोचना’ तथा अनेक लघु पत्रिकाओं के लेखों और
टिप्पणियों में बहुधा विचारधारा की सैद्धांतिक बहस का कमजोर मुखौटा टूटकर अशालीनता, गाली-गलौज
और चरित्र-हनन में बदल जाता है । इसका राजनीतिक मताग्रह से भरा एक दूसरा चतुराई
भरा पक्ष हैं । यदि कोई लेखक अपने साहित्यिक लेखन की गुणवत्ता के प्रति ईमानदार रह
कर इन गिरोहों से अलग रहता है तो या तो उसकी पूरी तौर पर अनदेखी करने की चेष्टा की
जाती है अथवा उसके योगदान को हलका बनाया जाता है । इस प्रवृत्ति के कई दुष्परिणाम
हैं । विश्वविद्यालयों में नियुक्ति-प्रोन्नति की लालसा, थोड़ी सी
बची प्रचारित पत्रिकाओं में छपने की इच्छा और आलोचना के क्षेत्र में आसीन लोगों
द्वारा मान्यता न मिलने के आतंक के कारण लेखकीय स्वायत्तता और बौद्धिक ईमानदारी का
हनन होता है । यह परिदृश्य लेखक और पाठक के बीच के प्रत्यक्ष संबंध को तोड़ता है ।
समीक्षकों और पत्रिकाओं के बंधे बंधाए वैचारिक साचें में एडजस्ट होने वाले लेखन का
नतीजा है कि यह हास्यास्पद पैंफ्लेटबाजी में बदलता गया है ।
फिर भी विचारधारा और इतिहास बोध की
प्रासंगिकता पर हिंदी लेखन में रामविलास शर्मा, निर्मल वर्मा और विजय देव नारायण साही के
अपने परिप्रेक्ष्य हैं । रामविलास शर्मा के लेखन के दो पक्ष हैं । एक ओर तो उनके
लेखन में मनीषी और विश्लेषक की झलक है । दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी के एक
स्वघोषित कार्ड होल्डर के रूप में वे साहित्यिक समीक्षा में मार्क्सवादी
विचारधारा के मुहावरों का प्रयोग करते हुए, साहित्यिक लेखन के आधार पर नहीं बल्कि
कम्युनिस्टों से भिन्न मत रखने वालों के प्रति, तथ्यों के विपरीत जाकर भी आक्रामक हैं ।
विचारधारा के छद्म के इस निजी घात प्रतिघात में विभिन्न गुटों से जुड़े कम्युनिस्ट
लेखकों द्वारा अब रामविलास शर्मा पर भी हमला किया जा रहा है ।1
दूसरी ओर निर्मल वर्मा का मानना है कि
विज्ञान प्रकृति की चिरंतनता का उल्लंघन करने के कारण और ‘आइडिओलॉजी’ भविष्य के
लिए वर्तमान पर बलात्कार करने के कारण मनुष्य और कला का अमानवीयकरण करते हैं ।2 उनके अनुसार भारत के केंद्रीय सांस्कृतिक
संकट को देखते हुए व्यक्ति स्वातंत्रय बनाम सामूहिकता की बहस अप्रासंगिक हैं ।
हिंदुस्तान में इस संकट के विषय में काम सिर्फ राजनीति में पहले गांधी फिर बाद में
लोहिया के कर्म-चिंतन में हुआ । साहित्य इससे अछूता रहा जबकि तीसरी दुनिया के अन्य
देशों में साहित्यकार इस विषय में सजग रहे हैं । उनका कथन है ‘जब किसी
साहित्य में सार्थक, जीवंत और संयत समीक्षा-पद्धति मुरझाने लगती
है तो उसके साथ अनिवार्यत: एक परजीवी वर्ग, एक साहित्यिक माफिया पनपने लगता है…इन लोगों
का साहित्य और संस्कृति के मूल्यों से कोंई सरोकार नहीं, किंतु
पिछले वर्षों में इनके हाथों में एक छद्म किस्म की ताकत जमा होती गई है ।’3
साही जायसी पर किए गए शोध के जरिए हिंदी
आलोचना के क्षेत्र मे गहन विश्लेषण का मानक स्थापित करते हैं । विचारधारा के
संदर्भ में वे मनोरंजक और संदेशवाहक दोनों तरह के साहित्य की सीमाओं को उद्धाटित
करते हैं । उनके अनुसार ‘वस्तुत: मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक
साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं । मनोरंजक साहित्य यह
देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्व क्या
हैं और कहां हैं ?….मात्र संदेशवाहक साहित्य यह मान कर चलता है
कि मूलभूत प्रश्न और मूलभूत उत्तर सब प्राप्त हो चुके हैं….साहित्य
में किसी दार्शनिक सिध्दांत और विचारधारा का वहन करना एक बात है और अपने युग की
संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात है । यह आत्मस्थ
चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है ।’4 साही अपनी इन कसौटियों पर जायसी के पद्मावत
के साहित्यिक अवदान और इतिहास बोध को कसते हैं । उनके अनुसार जायसी की सृजनात्मक
क्षमता मात्र मनोरंजन और मात्र आघ्यात्मिक संदेश दोनों के खतरे से उपर उठने में है
। जायसी ने इतिहास और युग की निर्मल छवि देखी और अपने आसपास की शताब्दियों में वे
अकेले कवि हैं जिन्हें इस युग दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ… ।
हिंदी के इन दो चिंतनशील विश्लेषकों ने दशकों
पूर्व जिस माफिया प्रवृत्ति, सांस्कृतिक संकट के प्रति शुतुरमुर्गी
दृष्टिकोण और विचारधारा की संदेशवाहकता के नाम पर चिंतनशीलता और बौद्धिक सघनता से
पलायन की बात की है, उस पर खलीफाई अहम, निजी
राग-द्वेष भरे आरोप, विचारधारा की आधी अधूरी समझ से उपजी छापामार
लड़ाई जैसी आक्रामकता के कारण समुचित ध्यान नहीं दिया गया । उलटा जन संघर्षों, श्रमिक
आंदोलनों से आजीवन जुड़ाव, लोहियावादी राजनीतिक विचारधारा से सक्रिय रूप
से संबद्ध होने के बाद भी साहित्य में संदेशवाहक विचारधारा की सीमाओं से पूर्णत:
भिज्ञ साही पर शीत युद्ध काल में कामरेडों की ओर से अमेरिका द्वारा प्रायोजित
सांस्कृतिक स्वतंत्रता के मंच से जुड़ा होने का आरोप लगाया गया । गांधी और लोहिया
की राजनीति के संदर्भ में एक सजग चिंतक के नाते सास्कृतिक संकट की ओर इंगित करने
वाले निर्मल पर भूमंडलीकरण के युग में अन्य संकटों के साथ गहराते सांस्कृतिक संकट
के बीच कम्युनिस्ट लेखको नें ‘भगवावादी’ होने का हथियार दाग दिया ।
हिंदी लेखन में मार्क्सवाद की आधी अधूरी समझ
के नाम पर विचारधारा, इतिहास बोध और परंपरा को लेकर काफी भ्रम की
स्थिति है । इसकी सफाई के लिए मार्क्स के पूर्ववर्ती, स्वयं
मार्क्स और मार्क्स के बाद के चिन्तन में इन पर किस परिप्रेक्ष्य में विचार किया
गया है, इस पर
प्रकाश डालना आवश्यक है ।
संदर्भ :
1. त्रैमासिक ‘कल के लिए’ बहराइच, संयुक्तांक, अक्टूबर 2002-मार्च 2003, रामविलास शर्मा विशेषांक ।
2. नित्यानंद तिवारी ‘अकेलेपन से संन्यास की ओर’ ‘संकल्प-समीक्षा दशक’ संपादिका, निर्मला
जैन, हिंदी अकादमी, दिल्ली, 1992, पृ. 40 ।
3. ‘निर्मल वर्मा’ अज्ञेय: आधुनिक बोध की पीड़ा’ वहीं, पृ.60-61 ।
4. विजय देव नारायण साही ‘कवि के बोल खरग हिरवानी’ वहीं, पृ.
230-231 ।
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