3/07/2009
वर्तमान में भारत की जो स्थिति है उसे देखते हुए महात्मा गांधी
द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘हिंद स्वराज’
की प्रासंगिकता कितनी बढ़ गई है, इस विषय पर आशुतोष कुमार सिंह ने
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और हिन्द स्वराज पर गहरी पकड़ रखने
वाले प्रो.
आनंद कुमार का साक्षात्कार लिया जो यहां ‘भारतीय पक्ष’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
गांधी और उनके समकालीन राजनीतिज्ञों की स्वराज दृष्टि
को आप किस रूप में देखते हैं?
गांधी स्वराज को मनुष्य और समाज दोनों के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और
आध्यात्मिक संदर्भों में परस्पर सहयोग की बुनियाद के रूप में अनिवार्य मानते थे।
जबकि अधिकांश भारतीय राजनीतिज्ञों की स्वराज दृष्टि में राष्ट्रीय सीमाओं के
अन्तर्गत राजनीतिक और आर्थिक सम्प्रभुता और आर्थिक स्वावलंबन का प्रधान्य था। आज
के राजनीतिज्ञों की दृष्टि में स्वराज का अर्थ राजनीतिक सत्ता तक ही सीमित हो गया
है।
आपको नहीं लगता की भारत विभाजन से हिन्द स्वराज की
आत्मा को ठेस पहुंची?
यूरोपीय इतिहास के घटनाचक्र, परिभाषित राज्य की अवधारणा ने भारत को स्वतंत्रता संग्राम में अल्पकालीन
लाभ एवं दीर्घकालीन हानि पहुंचाई है। राष्ट्र राज्य की यूरोपीय अवधारणा में भाषा,
धर्म, रंग, रूप, संस्कृति और आर्थिक एकरूपता को एक भौगोलिक चौखट में महिमा मंडित करना
प्रधान आग्रह था। इसके लिए धर्म, रंग एवं आर्थिक दृष्टि से
अनुकूलता भी थी।
सिर्फ भाषाई विविधता की चुनौती थी, फिर भी 19वीं और 20वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को साकार बनाने में
कितने युद्ध हुए और लगभग हर तरफ कब्रों की कतार बिछ गई। अन्तत: यूरोप अपनी अवधारणा
की अव्यवहारिकता को पहचान कर फिर से महाद्वीपीय सभ्यता के आधार पर दर्जनों राज्यों
को मिलाकर यूरोपीय महासंघ के निर्माण में जुट गया है।
गांधी राष्ट्र-राज्य की यूरोपीय अवधारणा की सीमाओं एवं खतरों के
जानकार थे। इसीलिए उन्होंने 1909 ई.
में ही हिन्द स्वराज के जरिए भारतीय स्वतंत्रता प्रेमियों को सजग किया था। गांधी
की दृष्टि में राज्य को विकेन्द्रित व्यवस्था के जरिए कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों के
समुदायों के अनुशासन में समाज के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। लेकिन कोई भी समाज
विराट राज्य सत्ता की धुरी पर स्वराज कायम नहीं कर सकता।
इसी प्रकार राष्ट्रीयता एवं मनुष्यता के बीच भाषा, धर्म, क्षेत्र, इतिहास और संस्कृति में से किसी भी आधार पर फासला पैदा करना राष्ट्रीयता
को विश्व मानवता के लिए जहर जैसा खतरनाक बनाता है। इसीलिए गांधी ने राष्ट्रीयता की
अपनी कल्पना को सम्पूर्ण मानवता को समेटने वाली अवधारणा बनाया। जिसमें मनुष्य
मात्र के बीच ‘हम’ भावना की व्याप्ति
के लिए पूरा अवसर मिले और सभी मानव एक दूसरे के प्रति कर्तव्यपालन की प्रेम डोर से
बंधे।
महाकवि टैगोर से लेकर तत्व ज्ञानी जे. कृष्णमूर्ति, क्रांतिकारी चिंतक राम मनोहर लोहिया और शांति
और करुणा के प्रतीक दलाई लामा तक ने गांधी की इस दृष्टि को अनुकरणीय माना है।
मार्क्सवादियों में भी स्टालिन और माओ को छोड़कर सभी ने संकीर्ण राष्ट्रीयता को
मानवीय गरीमा और स्वतंत्रता का विनाशक माना है।
आज पीछे मुड़कर देखने पर यह स्पष्ट है कि हमारे राजनेताओं ने
गांधी दृष्टि में नीहित उदारता को नहीं स्वीकारा। इसका सीधा नतीजा आजादी के साथ ही
राष्ट्रीयता के खंडित होने के भयावह सच के रूप में सामने आया। हमारी संकीर्ण
दृष्टि से राष्ट्र राज्य के झण्डे के नीचे अब आंतरिक उपनिवेशों का विस्तार हो रहा
है। इसी कारण 27 साल में ही दुबारा
पाकिस्तान टूट गया और दोनों टुकड़ों में दुख बदस्तूर जारी है। श्रीलंका में तमिल,
नेपाल में मधोसी और भारत में बीमार प्रदेशों में जी रहे करोड़ों
लोगों के दु:ख की जड़ इसी संकीर्णता में है। समूचा दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे
युद्धग्रस्त, अभावग्रस्त और आतंकग्रस्त इलाका बनता जा रहा
है। फिर भी यूरोपीय दिमाग से पैदा हुई यह अवधारणा हमारा पिंड नहीं छोड़ रही है।
ऐसी स्थिति में हम कितने स्वतंत्र हो पाए हैं?
गांधी जी का ‘हिन्द
स्वराज’ मेरी समझ में 21वीं सदी की
मनुष्यता का घोषणा पत्र है। इसके चार पक्ष हैं। पहला इतिहास दृष्टि, दूसरा आर्थिक दर्शन, तीसरा राजनीतिक दिशा और चौथा
समाज संगठन का शास्त्र।
विगत एक शताब्दी ने हिन्द स्वराज में प्रस्तुत इतिहास दृष्टि को
सही साबित किया है। क्योंकि यह विश्व मशीनी सभ्यता की मार से त्राहि-त्राहि कर रहा
है और पर्यावरण विनाश से लेकर भोगवादी जीवन शैली के आत्मघाती परिणामों तक को
दुनिया पहचान चुकी है।
गांधी का आर्थिक दर्शन उत्पादक श्रम की प्रतिष्ठा के जरिए
निर्धनता के निवारण, मानवीय
गरिमा का संवर्धन एवं प्रकृति का संरक्षण, इन तीन लक्ष्यों
को पूरा करने की राह बताता है। इसमें प्रभु राज्यों और प्रभु वर्गों को प्रचुरता
की तलाश से बचने और गुलाम देशों, पददलित वर्गों और समुदायों
को सत्य एवं न्याय सम्मत व्यवस्था के लिए संगठन, रचना एवं
सत्याग्रह के जरिये अन्यायों का उन्मूलन करने की प्रेरणा थी।
कुछ लोगों ने इसे विज्ञान और टेक्नोलाजी का अंधा विरोध बताया
लेकिन गांधी का आर्थिक दर्शन मशीनों की दासता से मुक्ति का मार्ग खोलता है। इसे
यूरोप के ग्रीन आंदोलन तक ने स्वीकारा है। गांधी की राजनीतिक दिशा मनुष्य को सत्ता
के लिए बेचैन राजनीतिक जीव मानने की बजाए समाज सापेक्ष आध्यात्मिकता में अपनी
पूर्णता तलाशने की ओर प्रेरित करती है।
गांधी राज्य सत्ता की दैवीय और सामाजिक सिद्धांत के दैवीय आधार
एवं सामाजिक समझौते वाले सिद्धांत जैसी विचारधाराओं से अलग, राजनीति को स्वराज का औजार और मनुष्य की
चन्द्रमुखी क्षमताओं के पुष्पित होने के लिए जरूरी माध्यम मानते थे। आज की दुनिया
व्यक्तियों एवं दलों की तानाशाही से लेकर जनता के वोट से चुने हुए प्रतिनिधियों तक
का राज देख चुकी है और सबको बारी-बारी से रद्द भी कर चुकी है। आज की दुनिया में
स्वराज के लिए सहभागी लोकतंत्र का दबाव बढ़ रहा है। इसमें अरस्तु से लेकर माओ तक
हासिए पर हो गए हैं। ऐसे में हिन्द स्वराज का पाठ सहभागी लोकतंत्र का सपना देखने
वालों को नया उत्साह देता है।
गांधी का समाज संगठन शास्त्र हिन्द स्वराज में बीज रूप में
प्रकट किया गया है। गांधी की समाज दृष्टि के निर्माण में पोरबंदर और काठियावाड़
में बिताया बचपन, इंग्लैंड
में प्राप्त शिक्षा दीक्षा और दक्षिण अफ्रीका में मिले खट्टे-मीठे अनुभवों का
योगदान था। गांधी ने समाज संगठन को प्रधानमंत्री के पुत्र एवं पौत्र के रूप में
देखा था। उनकी बातों में एक रंगभेदी राज्य में कुली और गिरमिटियां के रूप में
अपमान के अंतहीन सिलसिले में अस्तित्व रक्षा की लम्बी लड़ाइयों की यातना का भी सच
था।
गांधी के इस सतरंगी समाज अनुभव ने उनको मनुष्य और समाज के बीच
प्रेम बल, कर्तव्य भावना और आत्मसम्मान के त्रिभुज के बीच
समाज संगठन की नवरचना के लिए प्रेरित किया। इसमें उनको विश्व के महान धर्मों के
जरिए बार-बार प्रकट सनातन की सत्ता की व्यापकता से बल मिला। इसलिए उनका यह
सिद्धांत राज्य सत्ता, बाजार सत्ता अथवा सम्प्रदाय सत्ता के
बजाए समुदाय सत्ता को मूल आधार मानता है।
इस समुदाय में सत्य, अहिंसा, मैत्री और कर्तव्य परायणता की चतुर्भुजी
मर्यादा प्राण वायु जैसी होनी चाहिए, इसके बगैर मनुष्य समाज
शांति और सुख की तलाश के अंजाम तक नहीं पहुंच सकता।
वैश्विक पूंजी ने हमारी संस्कृति पर कितना प्रभाव
डाला है?
पूंजी का मूल धर्म बाजारीकरण की प्रक्रिया को गहरा एवं व्यापक
बनाना है। इसका दार्शनिक आधार भोगवाद है। बाजारीकरण की आंच में मानवीय संबंधों से
लेकर जंगल, पहाड़ और नदियां तक झुलस
जाती हैं। फिर भाषा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था
एवं राष्ट्रीय सम्प्रभुता के लिए वैश्विक पूंजी वसंत का उल्लास कैसे ला सकती है?
आज भाषा के मोर्चे पर वैश्विक पूंजी की पहली पसंद साम्राज्यवाद एवं
औपनिवेशिकता का माध्यम रह चुकी अंग्रेजी भाषा है।
अर्थव्यवस्था विश्व पूंजी के दबाव में देश को कंगालों एवं
करोड़पतियों के दो धा्रुवों के बीच तनावग्रस्त बना चुकी है। राष्ट्रीय सम्प्रभुता
अब बहुद्देशीय कम्पनियों के हितों के मापडंड पर फिर से परिभाषित की जा रही है। इस
शोक समाचार के बीच एक ही हास्यास्पद समाचार सुपरिणाम सुनने में आ रहा है कि विश्व
के सबसे धनी 100 व्यक्तियों में एक-आधा
दर्जन भारतीय भी गिने जाने लगे हैं। अब हमें तय करना होगा की हम वैश्विक पूंजी के
प्रभाव के बारे में गाएं या गुस्सा महसूस करें।
आपको नहीं लगता कि अपने देश में अन्तरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष,विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन का दबदबा बढ़ता जा रहा है ।
उदारीकरण एवं वैश्विकरण के दो दशकों के बाद हमारे देश का प्रभु
वर्ग तो विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष एवं विश्व व्यापार संगठन का अनुरागी हो चुका है। लेकिन जनसाधारण ने
गांधी, भगत सिंह, सुभाष, अम्बेडकर, नेहरू, लोहिया एवं
जय प्रकाश नारायण को फिर से तलाशना शुरू कर दिया है। यह भी नोट करना चाहिए कि
हमारा मध्यम वर्ग, मीडिया एवं विद्या प्रतिष्ठान अभी भी
प्रभुवर्ग के साथ ही विश्व पूंजी एवं बहुद्देशीय कंपनियों की जय बोल रहा है। इससे
चौतरफा धुंध की स्थिति व्याप्त हो गई है।
चरित्रवान लोग संसद में आएं,इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?
भारत की संस्कृति को वैदिक काल के मुनियों से लेकर संत विनोबा
तक ने ‘नित्य नूतन’ के विशेषण से
अलंकृत किया था। अंग्रेजी राज के 150 साल में चली पश्चिमीकरण
की लहर ने हमारी मौलिकता की जड़ों को दीमक की तरह आघात किया है।
आजादी के छ: दशकों में हम अपनी अस्मिता में पुन:
प्राण-प्रतिष्ठा के लिए प्रयासरत हैं। लेकिन निर्धनता एवं निरक्षरता के दो भागों
के बीच में हमारे स्वराजी सपने कैसे दयनीय हो गये हैं? इसलिए देशी प्रतिभा को अपनी मौलिकता को
संवर्धित करने के लिए आवश्यक परिवेश नहीं मिल रहा है। फिर भी गौतम बुद्ध से लेकर
गांधी तक के माध्यम से हम विश्व में अपनी पहचान बनाये हुए हैं।
भारत का भविष्य किस पार्टी में आपको सुरक्षित नजर आ रहा है?
भारतीय संविधान के नीतिनिर्देशों का पालन न होने का मुख्य कारण
प्रभुजाति का प्रजातंत्र है। हमारे देश के प्रभु जातियों के सम्पन्न तबकों ने
उन्नत बनाम पिछड़ा की नूरा-कुस्ती के जरिए वंचित भारत को जनतांत्रिक सत्ता
व्यवस्था से वंचित बनाए रखने का सिलसिला कायम कर रखा है।
जनतांत्रिक सत्ता के उपकरण के रूप में बने राजनीतिक दल
नवदौलतियां वर्गों और बहुद्देशीय कम्पनियों की गिरफ्त में हैं। फिर छोटे किसानों, दस्तकारों, आदिवासियों,
दलितों, पिछड़े अल्पसंख्यकों और बेरोजगार
नौजवानों की कैसे सुनवाई होगी? दूसरी तरफ हमारी संसदीय
मर्यादाओं में गिरावट के पीछे दो बीमारियां हैं- पहला उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार और
दूसरा राजनीति में सिद्धांतनिष्ठा के बजाए संसदवाद का बढ़ता बोलबाला।
आपको नहीं लगता कि देश अराजक स्थिति की ओर बढ़ रहा है?
वही राजनीतिज्ञ एवं राजनीतिक दल आने वाले समय में असरदार होगा,जिसकी भारत के भविष्य में अपना भविष्य जोड़ने की
क्षमता एवं भारत के प्रति निष्ठा होगी।
आज के अधिकांश राजनीतिक दल भारत के प्रति अपनी निष्ठा को कमजोर
बना चुके हैं। क्योंकि उनके सपनों के भारत में ‘गांव और गरीब’ के बजाए राजसत्ता और वोट बैंक की
केन्द्रीयता हो गई है। लेकिन जनतंत्र में जनता विकल्पहीनता की बंदी नहीं हो सकती।
इसलिए राजनीतिक दल या तो जनता से जुडेंग़े या जनता से दूरी बढ़ने पर बिना खाद-पानी
और जमीन के पौधो की तरह क्षत-विक्षत हो जायेंगे। ऐसे में उन्हीं राजनीतिज्ञों का
भविष्य उज्जवल होगा जो हमारे दलों को फिर से जनता के हितार्थ निष्ठावान, सक्रिय एवं प्रभावशाली बना सकें।
ऐसी स्थिति में जब पूरे देश में सरकारों के प्रति लोगों में
निराशा का भाव बढ़ता जा रहा है, आप को
क्या लगता है यह देश गांधी के सपनों को पूरा करेगा? भारत की
मौजूदा स्थिति के बारे में चार प्रामाणिक निवारण समाज के सामने आ चुके हैं। इस पर
हमारी सरकार की भी सहमति है।
श्री बंधोपाध्याय समिति के अनुसार आंध्र से बिहार के बीच के 125 जिलों में गैर जनतांत्रिक और शस्त्रासज्जित
राजनीतिक गिरोहों व दस्तों का जबर्दस्त प्रभाव हो चुका है। इसे तिरुपतिनाथ से
पशुपतिनाथ तक लगातार चौड़ी हो रही लाल पट्टी भी कहा जा रहा है। प्रधानमंत्री डा.
मनमोहन सिंह इसको देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे गम्भीर चुनौती घोषित कर चुके
हैं।
प्रो. अर्जुन सेन गुप्ता की अध्यक्षता वाली एक अन्य समिति की रपट के अनुसार देश के
तीन-चौथाई से ज्यादा श्रमजीवी परिवार के सदस्यों की दैनिक जरूरतों के लिए 20 रुपए प्रतिदिन से ज्यादा की आमदनी नहीं है।
दूसरे शब्दों में भारत के लगभग 80 प्रतिशत लोग निर्धनता और
कर्जदारी के दलदल में फंसे हुए हैं। ऐसे परिवारों के युवक-युवतियों को अपने
अस्तित्व रक्षार्थ अपहरण उद्योग से लेकर आतंकवाद तक अच्छे-बुरे सभी रास्ते बुलाने
लगे हैं।
न्यायमूर्ति श्री राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में बनी जांच समिति की रपट ने यह शर्मनाक सच भी
उजागर किया है कि देश के दूसरे सबसे बड़े धर्मावलम्बी समुदाय अर्थात भारतीय
मुसलमानों के अधिकांश सदस्य आजादी के बाद से लगातार आर्थिक गिरावट, सामाजिक अलगाव और राजनीतिक शक्तिहीनता से
पीड़ित हैं।
अगर जनतंत्र की सफलता की कसौटी अल्पसंख्यकों की खुशहाली और
सुरक्षा मानी जाए तो हमारी दशा के बारे में संतोष महसूस करना मुश्किल होगा।
अराजकता की आखिरी हद तक पहुंचने का ब्योरा प्रो. अमर्त्य सेन जैसे महाज्ञानियों की
लेखनी से पेश हुआ है। इसके अनुसार देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या
तेजी से गिरती जा रही है।
असल में तो भारत का सबसे खुशहाल इलाका कन्या-भ्रूण हत्या के पाप
में सबसे आगे बेधड़क चलता जा रहा है। राजधानी दिल्ली, अनाज के भंडार पंजाब और विश्व पूंजी का केन्द्र
बन रहे हरियाणा एवं राजस्थान में लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हम अभी तक 10-20
डाक्टरों और बालिकावध करने वाले परिवारों को भी इसके लिए दण्डित
करने का उपाय नहीं कर पाए हैं।
उपरोक्त
प्रामाणिक विवरणों से देश की मौजूदा स्थिति के बारे में सिर्फ चिंताजनक और दु:खद
निष्कर्ष ही सामने आए हैं। देश की इस दशा को स्वराज एवं प्रगति कैसे कहा जा सकता
है?
प्रस्तुतकर्त्ता-
पंकज ‘वेला’
एम।फिल।
गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग,
महात्मा
गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा ,महाराष्ट्र-442001
9990841992/9119568237
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