“गाँधी और
आधुनिकता”
महात्मा गांधी से प्रभावित अंग्रेजों की ना तो गांधी के जीवित रहते कमी थी और ना ही आज । और, गांधी-कथा का वैचित्र्य देखिए कि गांधी के असर में आये अंग्रेजों को, ब्रिटिश सत्ता से लड़ाई
के उन दुश्वार दिनों में भी लगता था कि गांधी को समझना मुश्किल है और यही स्थिति आज भी है, जब
भारत आजाद होकर ब्रिटिश-साम्राज्य के अधीन रहे ‘राष्ट्रकुल’
के देशों में प्रेम-भाव से शामिल है । मिसाल के लिए आज की ब्रिटिश
संसद के नेता-प्रतिपक्ष जेरेमी कोर्बिन या बीते कल में ब्रिटिश-सत्ता का हिस्सा
रहे साहित्यकार-पत्रकार जार्ज ऑरवेल का नाम लिया जा सकता है । #लेखक
जेरेमी कोर्बिन
ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नये नेता चुने गये हैं । इस साल सितंबर के पूरे महीने
हिन्दुस्तानी अखबारों के विदेश से संबंधित पन्नों पर कोरिबन की चुनावी जीत की खूब
चर्चा हुई । तकरीबन तीन दशक से ब्रिटेन के हाऊस ऑफ कॉमन्स में सांसद की हैसियत से
मौजूद जेरेमी कोर्बिन की जीवन-कथा के अनेक प्रसंग अनायास ही गांधी की याद
दिलाते हैं । गांधी के बारे
में मशहूर है कि वे भरसक रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में चलना पसंद करते थे और यही
हाल कोर्बिन का है । वे साइकिल से चलते हैं, कार नहीं रखी और
चुनाव-प्रचार की घड़ी में एक तस्वीर ऐसी भी छपी जिसमें वे ब्रिटेन की भीड़ भरी
लेटनाइट बस में जन-साधारण के बीच इस इंतजार में खड़े नजर आये कि कोई सीट खाली हो
तो छियासठ साल के अपने बुढ़ापे की थकान को उसपर संयत कर सकें । गांधी ने बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन
जाने को आतुर अपने बड़े बेटे हरीलाल को रोककर पारिवारिक जीवन में कटुता पैदा की ।
उन्हें लोगों से कहना पड़ा कि ‘हरीलाल की परेशानी से पार
पाना उनके लिए आजादी की लड़ाई लड़ने से ज्यादा कठिन है’ । बच्चे
की पढ़ाई को लेकर कोर्बिन ने भी अपने पारिवारिक जीवन में कड़वाहट घोली है । पत्नी
से उनकी अनबन इस बात को लेकर हुई कि पढ़ाई के लिए बच्चे का नाम किस स्कूल में
लिखवायें । पत्नी एक महंगे स्कूल में बच्चे का नाम लिखवाना चाहती थीं जबकि कोर्बिन
सरकारी स्कूल में नाम लिखवाने के हक में थे । समाजवाद के अपने सिद्धांत से निजी
जीवन में ना डिगने का व्रत लिए बैठे जेरेमी कोर्बिन का इस बात पर पत्नी से मतभेद
इतना बढ़ा कि नतीजा तलाक के रुप में सामने आया ।
गांधी निजी और सार्वजनिक जीवन में बाकी बातों के
साथ-साथ अपनी किफायतशारी के लिए भी जाने जाते हैं ।गांधी-प्रेमी बताते हैं कि गांधीजी ने अनेक चिट्ठियां इस्तेमालशुदा लिफाफों की खाली जगह पर लिखी और
फाउंटेन पेन आ जाने के बावजूद सैकड़ों चिट्ठियों को लिखने में दावात में डुबोकर
लिखनेवाली कलम का ही इस्तेमाल किया कि खर्चा कम पड़ेगा । कम-खर्ची गांधी की राजनीति से इस हद तक बंधी है कि
स्वराज्य के मायने तलाशने के लिए 21 वीं सदी में बारंबार
पढ़ी जाने वाली उनकी किताब हिन्द-स्वराज में आता है—‘जब तक
हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तबतक हम उसके बिना काम चला लेंगे । झाड़-फानूस को
आग लगा देंगे । मिट्टी के दीये में तेल डालकर और हमारे खेतों में पैदा हुई रुई की
बत्ती बनाकर दीया जलायेंगे । ऐसा करने से हमारी आंखे(खराब होने से) बचेंगी,
पैसे बचेंगे, हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज की धूनी रमायेंगे । ।’ कोर्बिन की
किफायतशारी इस दर्जे की तो नहीं तब भी इतनी तो है ही कि ब्रिटेन के अख़बारों ने
उन्हें निजी जरुरत के नाम पर राजकोष से सबसे कम खर्च लेने वाले सांसद के रुप
चिह्नित किया । सांसदों के अनाप-शनाप खर्च
के दावों और घोटालों से जूझती ब्रिटेन की संसद से जेरेमी कोर्बिन ने साल 2010
में मई से अगस्त के बीच एक सांसद के रुप में अपने प्रिन्टर के
लिए सिर्फ स्याही का खर्चा मांगा था ।
जेरेमी कोर्बिन
के जीवन-प्रसंगों से गांधी के जीवन-प्रसंगों के बीच तारतम्य बैठाने की यह कोशिश अगर ठीक ना लगे तो यह
सोचकर दिल बहलाया जा सकता है कि दोनों के बीच एक रिश्ता फिर भी बनता है
क्योंकि कोर्बिन कोगांधी फाउंडेशन ने दो साल पहले अपने
अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मान से नवाजा और प्रशस्ति में कहा कि कहा कि यह सम्मान
कोर्बिन को सांसद के रुप में तीस साल तक ‘सामाजिक
न्याय और अहिंसा जैसे गांधीवादी मूल्यों के लिए लगातार
कोशिश’ करते रहने के लिए दिया जा रहा है । सम्मान को स्वीकार
करते वक्त कोर्बिन ने अपने गांधी-प्रेम में जो कुछ कहा
उसमें मार्के की एक बात यह भी शामिल थी कि ‘गांधी उन लोगों में एक हैं जिनको लेकर लगता है कि हम तो उन्हें जानते हैं
लेकिन गांधी को जितना पढ़ो
उतना ही मन में यह बोध गहरा होता जाता है गांधी के बारे हम बहुत कम जानते और समझते हैं ’ ।
जेरेमी कोर्बिन
का एक अनौपचारिक रिश्ता जार्ज ऑरवेल से भी बनता है । नौजवान होते कोर्बिन को पिता
ने सोलहवें जन्मदिन पर ऑरवेल के लेखों की एक किताब भेंट की थी । यह तो दावा नहीं
किया जा सकता कि गांधी की आत्मकथा की समीक्षा के बहाने लिखा गया ‘रिफ्लेक्शन्स
ऑन गांधी’ नाम का ऑरवेल का लेख उस
किताब में शामिल था या नहीं लेकिन यह जरुर कहा जा सकता है कि गांधी को लेकर जैसा ऊहा-पोह कोर्बिन के भाषण
में है कुछ वैसी ही मनोदशा लेख में ऑरवेल की है । ऑरवेल गांधी को शब्द-बद्ध करने के लालच से बच भी नहीं
सकते थे । आखिर उनका जन्म इंडियन सिविल सर्विस के एक महकमे(अफीम) में करने वाले
नौकरशाह के घर बेटे के रुप में हुआ और खुद भी म्यांमार(तत्कालीन बर्मा) में इंडियन
इम्पीरियल पुलिस में एक वक्त तक मुलाजिम थे ।( नियति का विधान कहिए कि ऑरवेल का
जन्म मोतिहारी में हुआ जहां से गांधी की आंदोलन-भूमि रहे चंपारण की दूरी कायदे से पचास किलोमीटर भी नहीं) । गांधी की आत्मकथा को पढ़कर ऑरवेल के मन में वही
शंका जागती है जो शासक और संत या कह लें त्याग और भोग के बीच फर्क देखने वाले
लोगों के मन में जागा करती है । उनका लेख इस केंद्रीय प्रश्न से शुरु होता है कि गांधी संत हैं या राजनेता । ऑरवेल को लगता है गांधी का मूल्यांकन यह प्रश्न पूछकर होना चाहिए
कि इन बुजुर्ग ने चटाई पर पालथी मार, प्रार्थना में डूबकर
हासिल की जाने वाली ‘अध्यात्म की शक्ति से ब्रिटिश-साम्राज्य
को कहां तक हिलाया और “राजनीति में घुसकर, जो कि स्वभाव से ही ताड़न और छल-छद्म से बंधी है अपने सिद्धांतों के साथ
कहां तक समझौता किया ।” ऑरवेल को लगता है कि गांधी ने आत्मकथा अपनी संतई के पक्ष में लिखी
है क्योंकि वह पाठक को “याद दिलाती है कि इस संत के भीतर
बहुत चतुर और समर्थ आदमी छुपा था जो चाहता तो एक सफल वकील, प्रशासक
या फिर बनिया बनकर उभरता ।” गांधी को संसारी बनाम संन्यासी के द्वैत में देखने के कारण ऑरवेल को इस बात का
मलाल है कि पश्चिम की वामधारा की राजनीति में यह मानने का फैशन-सा चल पड़ा है कि गांधी उसके एक तरह से ‘अविभाज्य
हिस्से हैं । खासकर, शांतिवादी और अराजकतावादी यह देखकर कि गांधी केंद्रीकरण और राजसत्ता के हिंसाचार के
विरोधी थे, उन्हें अपना मान बैठते हैं और गांधी के सिद्धांतों के अ-संसारीपन और
मानवता-विरोधी प्रवृतियों की अनदेखी करते हैं ।’ कहना
मुश्किल है कि पश्चिम की वामधारा की राजनीति से जुड़े कोर्बिन के मन में गांधी के सिद्धांतों के संदर्भ में ऑरवेल
द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘मानवता-विरोधी’ को
पढ़कर क्या प्रतिक्रिया होगी लेकिन अगर यह शब्द आंखों को खटके तो फिर खटक को दूर
करने का एक सूत्र ऑरवेल के लेख में ही मौजूद है । गांधी की संतई पर कटाक्ष करते हुए ऑरवेल लिखते हैं- ‘ बेशक,
दारु, तंबाकू जैसी चीजों से किसी संत को जरुर
ही बचना चाहिए लेकिन संतई ऐसी शै है जिससे मनुष्य-मात्र को बचना चाहिए ।’
अगर गांधी के
संदर्भ में बहु-प्रयुक्त संत बनाम राजनेता का यही द्वैत विदेश में आज के कोर्बिन
और बीते कल के ऑरवेल के लिए गांधी को अबूझ बनाता है तो देश में गांधी की राजनीति के संगी-साथियों या फिर संगी-साथियों से समानान्तर दूरी बनाकर गांधी की राजनीति को साक्षी-भाव से देखने वाले
साहित्यकारों को भी । नेहरु ने स्वीकार किया है कि ‘गांधी को समझ पाना बहुत मुश्किल है । कभी-कभी उनकी भाषा एक औसत आधुनिक के लिए
तकरीबन अबूझ हो जाती है ।’’ ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे
मैक्डोनाल्ड ने जब वंचित तबकों के लिए पृथक निर्वाचक-मंडल की मंजूरी दी और गांधी ने विरोध में आमरण-अनशन की ठानी तो नेहरु
को अचरज हुआ । गांधी के इस
फैसले को याद करते हुए उन्होंने लिखा है- “राजनीतिक प्रश्नों
पर उनके धार्मिक और भावुक रुख और इस मामले में बार-बार ईश्वर की दुहाई देने को
लेकर मुझे क्रोध आता था । वे तो यह जताता जान पड़ते थे कि ईश्वर ने
उन्हें उपवास के दिन के बारे में संकेत किया है । कितनी खराब बात है यह ! ।”
‘संत होकर आधुनिक नहीं
हुआ जा सकता और चूंकि आधुनिक नहीं हुआ जा सकता इसलिए व्यक्ति-सत्ता को प्रतिष्ठित
करने वाली लोकतांत्रिक राजनीति भी नहीं की जा सकती’—इस सोच
ने गांधी के संगी-साथियों की
आंखों में गांधी को अबूझ
बनाया । नेहरु के प्रतिस्पर्धियों में से एक आचार्य कृपलानी की गांधी पर लिखी किताब ‘गांधी:
हिज लाइफ एंड थॉट’ के एक अध्याय का शीर्षक ‘वाज गांधीजी माडर्न’ बहुत
कुछ यही बताता प्रतीत होता है । कृपलानीगांधी के अन्यतम
साथियों में हैं । ‘भारत का भावी प्रधानमंत्री कौन’- इस सवाल पर आजादी की विहान-वेला में जब कांग्रेस के भीतर मतदान हुआ तो
सरदार पटेल के बाद आचार्य कृपलानी के पक्ष में सर्वाधिक मत पड़े थे लेकिन गांधीके निर्देश पर दोनों ने नेहरु के पक्ष में अपना नाम वापस लिया था ।
कहते यह भी हैं कि गांधी के ‘गांव-गणराज्य’ के सपने से कांग्रेस को दूर जाता
देखकर उन्होंने पार्टी छोड़ी और अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहने वाले लोगों की राजनीतिक-धारा में
शामिल हुए । जीवन की आखिरी सांस भी उन्होंने साबरमती आश्रम में ली ।
नेहरु की
पश्चिमी तर्ज की आधुनिकता पर किसी और को कोई शक हो तो हो लेकिन कृपलानी के मन में
रंच-मात्र ना था । उन्होंने नेहरु की पश्चिमी काट की आधुनिकता को गांधी की देशज
आधुनिकता के बरक्स रखकर चुटकी लेते हुए लिखा है—“जवाहरलाल के
सोच की धारा पश्चिमी थी, उनकी जीवन-दृष्टि दोलायमान थी,
कभी भारत की तरफ डोल जाती थी तो कभी पश्चिम की तरफ । जन-साधारण के
मुहावरे में व्यक्त गांधीजी के विचार पश्चिम से बहुधा
प्रभावित होने के बावजूद मुख्य रुप से भारतीय थे ।” दिलचस्प
यह है कि गांधी को आधुनिक
बताने के लिए जब वे दलील देते हैं तो उनका चित्त भी उसी तरह दोलायमान होता है जैसा
कि उन्होंने नेहरु के संदर्भ में लक्ष्य किया है और वे गांधी के ‘सत्य’ की खोज को गुण-धर्म
में प्रयोगशालाओं की परखनली में खोजे जाने वाले वैज्ञानिकों के सत्य के बराबर मान
बैठते हैं, मानो अंतिमत्ता का दावा ना करने भर से
प्रयोगशालाओं का सत्य उसी तरह ईश्वर में विश्वास की निष्पत्ति हो जैसे कि गांधी का सत्य ।
कृपलानी लिखते हैं कि गांधीजी अरुप ईश्वर के विश्वासी थे लेकिन “क्या
ईश्वर में विश्वास तर्कयुक्ति(रैशनलिटी) और विज्ञान(साईंस) के विरुद्ध है? सभी महान वैज्ञानिक नास्तिक हैं । वे मानते हैं कि सब कारणों के एकमात्र
कारण जो स्वयं कारणहीन हैं, से विज्ञान का कोई लेना-देना
नहीं है । दरअसल, आज के वैज्ञानिकों ने तो कारणता के विचार
को ही छोड़ दिया है । वे मात्र परिवर्तन की प्रक्रियाओं को खोजते और पकड़ते हैं ।
न्यूटन, आईन्सिटीन, जे सी बोस, रमण और कई अन्य ईश्वर में विश्वास के पक्षधर हैं, वे
सिर्फ प्रयोगशालाओं के भीतर ईश्वर को लेकर नहीं जाते और उनकी खोज सत्य की खोज थी
जो कि गांधी के अनुसार ईश्वर
है !” चूंकि विज्ञान का सत्य प्रयोग का विषय है, उसका बारंबार प्रक्रियाबद्ध अनुसंधान किया जाता है, वह
अंतरिम ही होता है, अंतिम नहीं और गांधी के सत्य के प्रयोग में भी अनिवार्य रुप
से यही गुण मिलते हैं इसलिए गांधी आधुनिक मानव हैं, चिर-पुरातन का साक्ष्य देते
महात्मा नहीं— कृपलानी के इस तर्क का एक इस्तेमाल गांधी के अध्येता भीखू पारेख ने भी किया है ।
इस तर्क की मुश्किल यह है कि अंतिम तौर पर वह आधुनिकता के मूल्यों को विज्ञान से
ही सिद्ध मानता है धर्म से नहीं और दूसरे स्वयं गांधी का लिखा-कहा इस स्थापना से मेल नहीं खाता । गांधी सत्य की अपनी तलाश को ईश्वर की अपनी धारणा की अनिवार्य निष्पत्ति बताते
हैं ।
गांधी के सत्य के बारे में जो बात राजनेता
आचार्य कृपलानी और राजनीति-विज्ञानी भीखू पारेख नहीं लक्ष्य कर पाये आश्चर्यजनक
तौर पर वह बात गांधी-भावी साहित्यकार जैनेन्द्र ने भांप
ली थी । लगभग पाँच दशक पहले छपी किताब ‘अकालपुरुष गांधी’ में जैनेन्द्र के गांधी विषयक सोच-विचार संकलित हैं । किताब की प्रस्तावना के लेखक धर्मवीर ने नोट
किया है कि जैनेन्द्र की गिनती हालांकि गांधीवादियों
में होने लगी है लेकिन वादी तो क्या जैनेन्द्र अपने को ‘गांधी का अनुयायी कहने में भी संकोच’ करते हैं और
जैनेन्द्र की विशिष्टता के उल्लेख में लिखा है कि वे ‘उन
चिन्तक साहित्यकारों में हैं जिन्होंने अपनी निजता खोये बिना गांधी-विचार को जांचा परखा है ’ । किताब में एक लेख
है ‘निपट मानव गांधी’ । लेख का शीर्षक अपने आप में इस बात की सूचना है कि लेखक ने गांधी के ऊपर महात्मा का चोला नहीं ओढ़ाया
बल्कि उन्हें ‘निपट मानव’ ही मानकर
सोच-विचार किया है । गांधी ने
स्वयं के किसी अनूठेपन या मौलिकता का दावा नहीं किया लेकिन जैनेन्द्र को गांधी में अनूठापन दिखता है अनूठापन इस बात का
कि गांधीको “विज्ञान और शास्त्र
ना ढंक पाता है, ना खोल ” पाता है ।
इसलिए “गांधी को वैज्ञानिक
प्रणालियों से पाना अंसभव” है जैनेन्द्र को लगता
है कि गांधी सांसारिक नियमों
के अनुसार नहीं हैं । सांसारिकों के बारे में तो “मनस्तत्व
विज्ञानी वे नियम प्रस्तुत कर सके हैं जो बता देते हैं कि एक आदमी और सब आदमी
क्यों और किन प्रेरणाओं के अधीन विविध वर्तन कर रहे हैं ” लेकिन गांधी बारे में यह नहीं बताया जा सकता । गांधी विरले लोगों में हैं, जैनेन्द्र के शब्दों में—“अतर्क्य पुरुष” जिनकी “कुंजी लाख खोजने पर भी दुनिया की नजर में
नहीं चढ़ती ” ।
गांधी को अतर्क्य पुरुष क्यों कहा जैनेन्द्र ने ?
वे गांधी का
ईश्वर विषयक कथन उद्धृत करते हैं—“गांधीजी ने एक बार कहा
मेरा सबकुछ ले लो मैं रहूंगा । हाथ काट लो, आँख कान ना रहें
तब भी रहूंगा । सिर जाये तब भी कुछ पल रह जाऊं । पर ईश्वर गया कि तब तो मैं उसी दम
मरा हुआ हूं ।” गांधी का
ईश्वर विषयक यह कथन ही उनके अतर्क्य होने का कारण है । जैनेन्द्र के शब्द हैं- “यह बात पढ़ने में चमत्कारी लगती है पर समझ में भी वह बंधकर बैठती है क्या
। ईश्वर के मंदिर हों और उसकी पूजा हुआ करे, यहां तक तो ठीक
है । इससे आगे नित्य-प्रति के काम से संबंध रखने वाली बुद्धि और तर्क की भाषा इस
ईश्वर को अपने में कहां बैठाये । परिणाम यह कि समूचे जीवन की वह नीति जो
ईश्वर-पूर्वकता से आरम्भ होती है गांधीजी तक सीमित जान
पड़ती है । व्यवहार से गांधी जी की समाज-नीति अनमिल और असिद्ध लग आती है । उसमें तर्क का साफ सूत नहीं
मिलता । लौकिक और गांधीजी के बीच का यह भेद मौलिक है ।
किसी तरह के ऊपरी तर्क से इस भेद को उड़ा देना खतरनाक हो सकता है ।”
इस भेद को
दुनिया उड़ा देती है इसी कारण गांधी को समझ नहीं पाती—“धर्मवादी
और ईश्वरवादी जो संसार को बंधन मानकर उनसे उत्तीर्ण होना चाहता है गांधीजी की तरफ आशा भरी निगाह से देखता है । पर यही पवित्रता का साधक उस
समय गांधीजी को नहीं समझ पाता जब वे राजनीति के
प्रपंचों में दीखते हैं और तरह तरह के कर्म की विराट योजनाओं का संचालन करते हैं ।
दूसरी और संसार में(उसके सुधार में) लगे हुए प्रकार-प्रकार के वादी कर्मीजन इस
कर्मण्य और प्रतापी पुरुष गांधी को देखकर उत्साहित होते हैं । जो सत्ता उन्हें इष्ट है वह गांधी जी को सिद्ध है । फिर भी राज को लेकर जो
तरह-तरह के तंत्रवाद मिलते हैं और समाज के निमित्त से जो समाजवाद और साम्यवाद
मिलते हैं,उनमें से किसी एक को छोड़कर किसी दूसरे का समर्थन गांधीजी से नहीं मिलता ।” जैनेन्द्र का निष्कर्ष है
कि “जीवन के विभक्त दर्शनों के लिए, अध्यात्मवाद
और भौतिकवाद के लिए, गांधी एक
ही साथ प्रश्न और समाधान हैं । राजनीति और धर्म में भेद है, विग्रह
भी है । लेकिन गांधीजी उन दोनों के अभेद हैं और संग्रह
हैं । वह जीवित उदाहरण हैं इस सत्य के कि जीवन संयुक्त, समग्र
और सिद्ध है तो वहां जहां वह निस्व है…इस मूल निष्ठा को पाकर
फिरगांधीजी का बस एक प्रयत्न रहा है । वह यह कि अपने समूचेपन और तन को लेकर उस
निष्ठा से तत्सम हो जायें…इस तरह दुनिया में रहकर गांधीजी सदा परीक्षा में हैं और उनके हाथो में राजनीति भी सदा परीक्षा में
।”
अद्भुत रुप से
जैनेन्द्र के इस गांधी-विवेचन में गांधी के एक आत्म-वक्तव्य की गूंज सुनायी देती
है । ‘निपट मानवगांधी’ शीर्षक लेख के
लिखे जाने के बरसों पहले यह आत्म-वक्तव्य गांधी ने डा । सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उनके प्रश्न के उत्तर के रुप में दिया था
। यह छपा ‘कंटेपररी इंडियन फिलॉस्फी’ नाम
की किताब में । किताब लंदन में 1936 में डा राधाकृष्णन के
संपादन में छपी । छापने का उद्देश्य था “पूरब और पश्चिम के
समग्र मानस की श्रेष्ठतर पारस्परिक समझ” बनाना । और इस
उद्देश्य की पूरा करने के लिए भारत के तत्कालीन प्रतिनिधि दार्शनिक के तौर पर
महात्मा गांधी, रबीन्द्र टैगोर,
स्वामी अभेदानंद, हरिदास भट्टाचार्य, के सी भट्टाचार्य, जी सी चटर्जी, आनंद कुमारस्वामी, एन जी दामले, भगवान दास, रास बिहारी दास और सुरेन्द्रनाथ
दासगुप्ता समेत पच्चीस चिन्तकों के आलेख छापे गये । पहला ही तकरीबन 500
शब्दों का आलेख आत्म-वक्तव्य के रुप में गांधी का है । गांधी के इस
आत्म- वक्तव्य को महत्वपूर्ण मानने की वजह है इसका परिवेश । गांधी ने यह आत्म-वक्तव्य किसी तात्कालिक
राजनीतिक समस्या के दबाव में प्रस्तुत नहीं किया था । ना ही यह वक्तव्य
पक्ष-प्रतिपक्ष के वैसे द्वन्द्व का परिणाम है जैसा कि गांधी की किताब हिन्द स्वराज में देखने को मिलता है । हिन्द-स्वराज के पात्र ‘संपादक’ और ‘पाठक’
के वाद-विवाद अपने पैनेपन में भले बेजोड़ लगें लेकिन वहां
तर्कों का पैनापन प्रतिपक्षी को तर्क के सहारे ध्वस्त करने की मंशा का परिणाम है,
सत्य के भावना-निरपेक्ष अनुसंधान का नहीं । हिन्द-स्वराज में घोषित
तौर पर द्वन्द्व पूरब और पश्चिम के बीच है जबकि ‘कंटेपररी
इंडियन फिलॉस्फी’ का घोषित उद्देश्य ‘पूरब
और पश्चिम के समग्र मानस की श्रेष्ठतर समझ’ बनाना है ।
‘कंटेपररी इंडियन
फिलॉस्फी’ के लिए राधाकृष्णन ने गांधी से तीन सवाल पूछे थे- (क) आपका धर्म क्या है, (ख) आप
धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए, और (ग) सामाजिक जीवन पर इसका
क्या असर रहा है ? प्रश्नों की प्रकृति से ही संकेत मिलते
हैं राधाकृष्णन ने गांधी को
धर्मप्राण मानकर सवाल किए । गांधी का उत्तर इसके अनुकूल ही था । गांधी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा “मैं धर्म से हिन्दू
हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का
श्रेष्ठतम् शामिल है । ” दूसरे प्रश्न के उत्तर में बताया—“मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते
प्रवृत्त हुआ । यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरु किया है… क्योंकि ईश्वर का नकार तो ज्ञात है लेकिन सत्य का नकार नहीं । यहां तक कि
मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है
। हम सब सत्य की कौंध हैं । इस कौंध का सकल-समग्र अनिर्वचनीय -अब तक अज्ञात सत्य,
जो कि ईश्वर है । मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट
पहुंचता हूं।” और तीसरे प्रश्न के उत्तर में गांधी ने बिल्कुल उसी शब्द का प्रयोग किया
जिसका अपने गांधी-विवेचन में जैनेन्द्र ने किया है ।गांधी ने कहा—“ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए
प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निस्व करना पड़ता है । सत्य का
साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है,
इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है।”
गांधी नाम की जो पहेली गांधी के अनुगामियों और अध्येताओं के बीच उलझती
जाती है, जैनेन्द्र जैसा सरीखा अपनी निजता को बरकरार रखने
वाला साहित्यकार उसे सुलझा लेता है । क्या यह भी कवि के रवि से आगे होने का एक
साक्ष्य नहीं है ।
मूल
लेखक-
प्रस्तुतकर्त्ता-
पंकज ‘वेला’
एम।फिल। गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग,
महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा ,महाराष्ट्र-442001
9990841992/9119568237
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