Monday, 26 August 2019

हिन्द स्वराज और आज की उपेक्षाएं


हिन्द स्वराज और आज की उपेक्षाएं...डॉ.इन्द्रनाथ चौधरी
हमारी सबसे बड़ी अपेक्षा है कि हम अपनी आधुनिकता को परिभाषित करें । 1909 में जब 'हिन्द स्वराज' लिखा गया तो उसके पीछे यही उद्देश्य था कि हम अपनी आधुनिकता को परिभाषित करें । हमारी आधुनिकता क्या है? कोई भी उत्तर नहीं दे सकता कि हमारी अपनी आधुनिकता के तत्व क्या हैं । जो कुछ भी आप आधुनिक कहेंगे वह विदेश से आयातित आधुनिकता के तत्व होंगे ।
'हिन्द स्वराज' में गांधीजी ने लिखा था, हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिए पर अंग्रेजी नहीं चाहिए । आप हिन्दुस्तान को अंग्रेजी बनाना चाहते हो । भारत की अपनी आधुनिकता को रेखांकित करने की जो कोशिश उस वक्त विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर या दूसरे किसी ने भी की, 'हिन्द स्वराज' लिखकर गांधीजी ने उसी को रेखांकित करने की कोशिश की ।
उन दिनों आधुनिकता का मतलब था विदेशी सभ्यता, विदेशी टेक्नालॉजी, विदेशी पार्लियामेन्टरी पद्धति । उनका अनुकरण हम कर रहे हैं, और सोच रहे हैं कि आधुनिक बन रहे हैं । परन्तु हमारी आधुनिक बनने की प्रक्रिया में कुछ भीतर ऐसा घट रहा था कि आधुनिकता ग्रहण करने के बाद भी उसके मूल्य और फलाफल के संबंध में हमारे मन में संशय बना हुआ था । उससे बीस-तीस साल पहले बंगाल के एक महत्वपूर्ण विद्वान राजनारायण बसु ने एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी थी एकाल शैकाल । उसमें उन्होंने सात मुद्दे उठाये थे, शरीर-दीक्षा, शिक्षा, उपजीविका, समाज, चरित्र, राज्य और धर्म ।
इन सातों की बात करते हुए उन्होंने यह प्रमाणित किया कि आज के संदर्भ में प्राचीनकाल के लोग (प्राचीन से उनका मतलब था सोलहवीं, सत्रहवीं, अठारहवीं शताब्दी) निश्चित रूप से इन सात स्थितियों में ज्यादा अच्छे थे । उन्होंने कहाः आज शारीरिक दृष्टि से मनुष्य दुर्बल हो गया है, नैसर्गिक प्रकृति में परिवर्तन आ गया है । उसका कारण उन्होंने कहा कि खाद्य के नाम पर हम कुखाद्य खा रहे हैं । समाजतंत्र पर आज राजतंत्र अधिकार किये हुए बैठा है । हम दिल से छोटे हो गये हैं । बात सिर्फ 1873 में राजनारायण बसु नहीं कह रहे हैं । सन् 1992 में, 1989 में और 1975 में भी लोग कह रहे हैं । इसका कारण क्या है?
इससे एक महत्वपूर्ण अर्थ निकलता है कि देश, काल, समाज से निरपेक्ष ऐसी एक प्रकार की कोई आधुनिकता नहीं हो सकती है । अगर आप अपनी आधुनिकता की बात करना चाहते हैं, तो आपके देश-काल समाज से जुड़ी आधुनिकता हो सकती है । एक और अर्थ भी निकलता है कि विशेष अवस्था के अनुसार आधुनिकता के विशिष्ट रूपों का निर्धारण, अर्थात तर्क, विचार और बुद्धि का उपयोग कर आधुनिकता के कौन से प्रकरण हमारे लिए उपयुक्त हैं, इसका निवारण ही यथार्थ आधुनिकता है अर्थात् आधुनिकता का कोई सार्वभौम रूप नहीं है । यह सामान्य संज्ञा नहीं हो सकती । उसके लिये हमें अपने देश-काल और समाज के आधार पर उसकी परिभाषा निर्धारित करनी होगी । 
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने एक निबंध लिखा था-''स्वदेशी समाज ।'' रवीन्द्रनाथ ने लिखा था: 'राष्ट्र प्रधान देश में राष्ट्र तंत्र के भीतर देश का मर्म स्थान विशेष रूप से आबद्ध रहता है । समाज प्रधान देश में सर्वत्र समाज तंत्र व्याप्त रहता है । पाश्चात्य राज्य शासन ने भारत को यहां आघात किया है । राज्य शासन ने उस पर अधिकार कर लिया, यानी विदेशी आधुनिकता ने हमारे मर्म स्थान पर आघात किया ।' गांधीजी ने इसी विचार को उठाकर 'हिन्द स्वराज' में अपनी बातें प्रस्तुत कीं ।
विवेकानन्द भी उन्हीं दिनों लिख रहे हैं कि 'इमिटेशन इज नाट सिविलाइजेशन ।' बिल्कुल स्पष्ट रूप से कह रहे हैं । कह रहे हैं कि मैं 'आर्थोडॉक्स' हूं । जिस तरह से गांधी 'आर्थोडॉक्सी' की बात कर रहे हैं । 'आर्थोडॉक्सी' में बड़ी दुर्घटनाएं हो सकती हैं । परन्तु 'आर्थोडॉक्स', आदमी को आदमी की पहचान कराता है । 'आर्थोडॉक्स' यह बताता है कि आदमी में विश्वास है । वह बताता है कि आदमी अपने पैरों को जमीन पर टेक कर खड़ा हो सकता है । इसलिए मैं इस आर्थोडॉक्सी को स्वीकार करने को तैयार हूं । इस पृष्ठभूमि में 'हिन्द स्वराज' रचा गया था । 
विवेकानन्द की तरह महात्मा गांधी भी बिल्कुल 'एक्स्ट्रीम पोजीशन' लेते हैं । उनके अंदर यह सामर्थ्य है कि वह 'एक्स्ट्रीम पोजीशन' लें, वह आत्यंतिक बात कह दें । मुझे ब्लेक की वह पंक्ति याद आती है कि ''आल एक्स्ट्रीम्स ओपन द गेट ऑफ हेवन ।'' हम लोग जब यह सुनते हैं कि ''उसकी साँस के सौरभ से पाषाण भी गल जाता है ।'' तब तो हम सवाल नहीं उठाते कि इस तरह की झूठी बात क्यों कही जा रही है, परन्तु जब महात्मा गांधी अपने ढंग की एक्स्ट्रीम पोजीशन लेते हैं तब हम सवाल उठाते हैं, और कह देते हैं कि गांधी जी ने जो कुछ कहा वह गलत कहा । 'हिन्द-स्वराज' की प्रस्तावना में उन्होंने तीन बातें कही हैं । पहली बात कि उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करना है, दूसरी बात, सत्य की खोज करना है, तीसरी बात, उसके मुताबिक बरतने की है । अर्थात् देश की अगर सेवा करनी है तो सत्य की खोज, और उस सत्य को बरतना, ये दो बातें हैं । अब पता चल रहा है कि 'हिन्द स्वराज' आधुनिक सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण आलोचना थी । सिर्फ आधुनिक सभ्यता की ही क्यों? वह एक भविष्यमूलक आलोचना भी है । 
आप सोचिए कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हमारे पास शब्द थे, 'डेवलपमेन्ट' और 'प्रोग्रेस', 'विकास और क्रान्ति' । इनसे पैदा हुई भयानक गलतियों, भयानक स्थितियों के बाद आज कोई 'प्रोग्रेस' की बात नहीं करता है । पश्चिम में आजकल अगर कोई बात है तो वह है 'इकोलॉजी' और 'कोऑपरेशन' की बात । कोई प्रोग्रेस की बात आजकल नहीं कर रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि 'प्रोग्रेस' से क्या-क्या कठिनाइयां हमारे सामने आ सकती हैं । किसी फ्रांसीसी महिला ने कहा था कि धर्म की आलोचना प्रत्येक आलोचना की शुरुआत थी । 
यह बात उन्होंने मार्क्स के संदर्भ में कही थी । उन्होंने कहा था कि बाइबिल और कुरान सोचते हैं कि एक मात्र सत्य का परिचय वे ही दे सकते हैं । कार्ल मार्क्स ने इसकी समीक्षा की और पहली बार दार्शनिक चिंतन का एक सही रास्ता दिखाया । उस वक्त वही रास्ता हमें सही लगा था । उसी रूप से 'डेवलपमेन्ट' लगभग एक प्रकार का धर्म का शब्द बन चुका है । इस 'डेवलपमेन्ट' के विचार की समीक्षा कर गांधीजी ने बताया कि आधुनिक दुनिया की व्यवस्था में क्या क्या मूलभूत खामियाँ हैं । तिलक ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की थी गीता पर भाष्य लिखकर । 
महात्मा गांधी ने, राजनैतिक गांधी ने, जो पुस्तक पहले लिखी वह गीता भाष्य नहीं, 'हिन्द स्वराज' थी । उसके बाद गीता भाष्य का अर्थ स्पष्ट है । पहले वे अपने यथार्थ की पहचान करना चाहते थे । अपनी आधुनिकता को रेखांकित करना चाहते थे । समझना चाहते थे कि हमारा जीवन, हमारा यथार्थ क्या है । उसके बाद स्वधर्म, निष्काम कर्म और आत्मबोध के द्वारा उसकी पुष्टि करना चाहते थे । इसके पीछे दो-तीन कारण हैं । 
एक तो वे अपने विरोधियों में पश्चिमी सभ्यता का हौवा समाप्त कर देना चाहते हैं । उसको वे 'डिग्लेमराइज' करना चाहते थे । वे जानते थे कि हम बड़े दुर्बल हो गये हैं । हमारे पास विदेशी सत्ता के खिलाफ लड़ने का कोई अस्त्र नहीं है । परन्तु हमारे पास जो दुर्बल अस्त्र हैं उसी को उन्होंने सबल बना दिया, अहिंसा आदि को । दूसरी बहुत महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं 'पार्लियामेन्ट' के विषय में । यह सच्ची बात कही है कि उसे बांझ और वेश्या कहा । आशय स्पष्ट है । 
आज और कौन-सा उदाहरण बाकी है उसकी सच्चाई को स्पष्ट करने के लिये? मिसाल के तौर पर अस्पृश्यता तथा दहेज प्रथा को संविधान के आधार पर खत्म कर दिया गया है, पर क्या ये सवाल खत्म हुए हैं? संसद को अगर वेश्या कहा तो क्या यह सही नहीं है कि जो विजेता दल पार्लियामेन्ट में आता है, वह पार्लियामेन्ट का अपने मुताबिक ही जोर-जबरदस्ती इस्तेमाल करता है? क्या हम लोग यह नहीं जानते कि पार्लियामेन्ट में आने के तौर तरीके क्या हैं? क्या हम लोग यह भी नहीं जानते कि जिस राजनीति को हम राजनीति कहते हैं वह माफियावाद के असर में अब राजनीति नहीं रही? गांधीजी इस कारण इसका विरोध कर रहे थे । 
गांधीजी के लिये 'अराजक' शब्द इस्तेमाल नहीं करूंगा । मैं उन्हें कहना चाहूंगा 'द्रष्टा ।' उनको मालूम था, वे दूर तक देखते थे कि स्थितियां कैसी आयेंगी । इसलिये उन्होंने चाहा था कि कांग्रेस पार्टी को खत्म कर दो । वे 'छुटकारा' शब्द का इस्तेमाल कर रहे थे । जब हम लोग स्वाधीनता का उत्सव रचा रहे थे, तो नोआखाली और कलकत्ता की गलियों में घूम-घूमकर आहत लोगों की सेवा में जुटे हुए थे । वह व्यक्ति दूर रहता था सत्ता के केन्द्र से क्योंकि उसको मालूम था, खतरा क्या है । उसको सब कुछ मालूम था । इसलिये 'हिन्द स्वराज' में सौ साल पहले वह बता गया था कि यह रास्ता ठीक नहीं है । उसे बदलिए । 
एक और महत्वपूर्ण कारण यह लगता है कि उन दिनों स्वाधीनता संग्राम के अग्रवर्ती लोग 'मिडिल क्लास इंटेलेक्चुअल'-संभ्रांत, मध्यवर्गीय बौद्धिक थे । किसान उनसे अलग थे । गांधीजी उन्हें आगे बढ़ाना चाहते थे । केन्द्र में वे किसानों को लाना चाहते थे । इसलिए पूरी की पूरी विचारधारा का उन्होंने बौद्धिक मुहावरा ही बदल दिया, 'डि-इंटेलेक्चुअलाइज' कर दिया । मतलब यह नहीं कि वे बौद्धिकता के खिलाफ थे । उनकी बौद्धिकता हमारे लिये खतरनाक हो सकती है, क्योंकि हमारी बौद्धिकता देश के लिए खतरनाक है । इसलिये वे किसान को आगे बढ़ाना चाहते थे । वे जानते थे कि देश में गरीबी है । गांव पर शहर अधिकार करना चाहता है ।
समाजतंत्र पर राजतंत्र अधिकार करना चाहता है । उस पर इससे देश का जो बड़ा किसान वर्ग है, अर्थात् देश की जनता पर काफी हमला हो रहा है । शासन तंत्र समाजतंत्र पर अधिकार कर रहा है । समाजतंत्र गांव में फैला हुआ है । वह समाजतंत्र किसी एक दल की राजनीति से जुड़ा हुआ नहीं है । वहां पर दलीय राजनीति चल नहीं सकती । आज स्थिति बदल गई है क्योंकि तीन तरह की शक्तियां आज गांवों पर अधिकार किये हुए हैं । शासन तंत्र, विशेषज्ञों का वर्ग, और दलीय राजतंत्र । उसका परिणाम यह हो रहा है कि वहां पर नीति की बात खत्म हो गई है । राज्य का अपराधीकरण बढ़ रहा है । गांधीजी हमें उसके बारे में सचेत कर रहे हैं । 
मैं याद दिलाना चाहूंगा कि वैश्विक आधुनिकता के प्रांगण में हम अछूते हैं । हमारा कोई स्थान नहीं है । हमारे लिए वह 'फैंसी मार्केट' है । वहां पर हम पहुंच सकते हैं । उस आधुनिकता के हम ग्राहक बन सकते हैं लेकिन उसके हम सृष्टा कभी नहीं बन सकते । सृष्टा बनने का अधिकार हमें नहीं है । इसलिए गांधीजी ने कहा था कि उस तरफ जाने की जरूरत नहीं है । जो लोग बातें करते हैं कि देश कभी 'सुपर पावर' बन सकता है-उन्हें समझना होगा कि हम कभी भी इस आधुनिकता को प्राप्त कर 'सुपर पावर' नहीं बन सकते । हम उसके सिर्फ ग्रहीता बन सकते हैं । इसलिए गांधीजी ने हमारी योजनाओं को सफल बनाने के लिए, इस देश को तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए, हमें दूसरे ढंग का मॉडल दिया । 
गांधीजी का बड़ा साफ मॉडल है । वह सभ्यता का, फर्ज अदा करने का, तरीका है । दूसरी बात, फर्ज़ अदा करना नीति का पालन है । तीसरी बात, नीति का पालन मन पर काबू लाने से होता है । चौथी बात, काबू का अर्थ है अपने को पहचानना । मुझे लगता है कि हमारी आधुनिकता की इससे बढ़कर और कोई परिभाषा नहीं हो सकती । यह परिभाषा बहुत प्राचीन है, परन्तु हमारे लिये बहुत नवीन है । नवीन इसलिए है, क्योंकि हमारे यहां जब भी आधुनिकता की व्याख्या करेंगे, वह विदेशी आधुनिकता के मुकाबले में दूसरे ढंग की होगी । 
विदेश में कहीं भी हम आधुनिकता की बात करते हैं, तो वहां पर आधुनिकता उपस्थित होती है प्राचीन को काटकर । प्राचीन को खंडित करके वहां पर आधुनिकता उभरती है । प्राचीन के साथ जुड़कर कभी नहीं उभरती है । हमारे देश में प्राचीन का कभी खंडन नहीं होता । जो चीज है, उसको कभी तोड़ते नहीं । उसके साथ जोड़कर एक विकल्प पैदा करते हैं । हमारे लिये आधुनिकता का अर्थ इस प्रकार से विकल्प पैदा करना है । दो-पांच विकल्प जब हमारे यहां पैदा हो जाते हैं, तब एक आधुनिक जीवन तैयार होता है । इसलिए हमारे यहां आधुनिकता को परिभाषित करने के लिए शब्द है, 'नैरंतर्य' । नैरंतर्य ही सबसे महत्वपूर्ण है । इसलिए जब गांधीजी अहिंसा, सत्याग्रह, प्राचीन सभ्यता, प्राचीन नीतियों की बात करते हैं, या जब वे तुलसीदासजी को अपने 'हिन्द स्वराज' में उद्धत करते हैं, तब हम लोगों को लगता है कि वह आधुनिकता हमारी सच्ची आधुनिकता है ।
गांधीजी रवीन्द्रनाथ की तरह पश्चिम के साथ पूर्व को जोड़ना नहीं चाहते थे । वे तो पश्चिम को आर-पार करके अपना एक मॉडल बनाना चाहते थे । इस बात पर मैं बहुत ज्यादा बल देने की कोशिश करूंगा, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि यह दोनों जुड़कर सामने आयें । उनके लिए जो आध्यात्म था, वह आध्यात्म बनाम भौतिकवाद नहीं था । आध्यात्मिकता और भौतिकवाद में से एक को चुनना है । इन दोनों में से किसी एक को बाध्य मानकर स्वीकार मत कीजिए । 
गांधीजी में स्पष्ट और महत्वपूर्ण बात है कि वे आध्यात्म को भौतिकवाद के मुकाबले में खड़ा नहीं करना चाहते थे । उन दोनों को उन्होंने हमारे सामने स्पष्ट करके रख दिया । हम किसे चुनना चाहते हैं? 'हिन्द स्वराज' गांधीजी की आधुनिकता की व्याख्या है । हमारे देश में विकास के रास्ते किस रूप में खुल सकते हैं, उसकी वह व्याख्या है । ऐसा रास्ता है जो हमें सहायता दे सकता है ।
  
प्रस्तुतकर्त्ता-
पंकज वेला
एम।फिल। गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग,
महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा ,महाराष्ट्र-442001
संपर्क सूत्र- kumarpankaj20jan1988@gmailcom
9990841992/9119568237


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Questions Paper@ IGNOU BPSC-133 : तुलनात्मक सरकार और राजनीति

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