विश्व शांति पूरी पृथ्वी में अहिंसा स्थापित करने का एक माध्यम
है, जिसके तहत देश या तो स्वेच्छा से या शासन की एक
प्रणाली के जरिये इच्छा से सहयोग करते हैं, ताकि युद्ध को
रोका जा सके। हालांकि कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग विश्व शांति के लिए सभी व्यक्तियों
के बीच सभी तरह की दुश्मनी के खात्मे के सन्दर्भ में किया जाता है।
जबकि विश्व शांति सैद्धांतिक रूप से संभव है, कुछ का मानना है कि मानव प्रकृति स्वाभाविक तौर पर इसे रोकती है। यह विश्वास इस विचार से उपजा है कि मनुष्य प्राकृतिक रूप से हिंसक है या
कुछ परिस्थितियों में तर्कसंगत कारक हिंसक कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे। तथापि
दूसरों का मानना है कि युद्ध मानव प्रकृति का एक सहज हिस्सा नहीं हैं और यह मिथक
वास्तव में लोगों को विश्व शांति के लिए प्रेरित होने से रोकता है।
विश्व शांति कैसे प्राप्त की जा सकती
है, इसके लिए कई सिद्धांतों का प्रस्ताव किया गया है। इनमें से कई नीचे
सूचीबद्ध हैं। विश्व शांति हासिल की जा सकती है, जब संसाधनों
को लेकर संघर्ष नहीं हो। उदाहरण के लिए, तेल एक ऐसा ही
संसाधन है और तेल की आपूर्ति को लेकर संघर्ष जाना पहचाना है। इसलिए, पुन: प्रयोज्य ईंधन स्रोत का उपयोग करने वाली प्रौद्योगिकी विकसित करना
विश्व शांति हासिल करने का एक तरीका हो सकता है।
Ø विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएं
दावा किया जाता है कि कभी-कभी विश्व
शांति किसी खास राजनीतिक विचारधारा का एक अपरिहार्य परिणाम होती है। पूर्व अमेरिकी
राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के मुताबिक "लोकतंत्र का प्रयाण (मार्च) विश्व शांति
का नेतृत्व करेगा." एक मार्क्सवादी विचारक लियोन त्रोत्स्की का मानना है कि विश्व क्रांति
कम्युनिस्ट विश्व शांति का नेतृत्व करेगी।
Ø लोकतांत्रिक शांति सिद्धांत
विवादास्पद डेमोक्रेटिक शांति
सिद्धांत के समर्थकों का दावा है कि इस बात के मजबूत अनुभवजन्य साक्ष्य मौजूद हैं
कि लोकतांत्रिक देश कभी नहीं या मुश्किल से ही एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ते
हैं।(केवल अपवाद हैं कोड युद्ध, टर्बोट युद्ध और ऑपरेशन
फोर्क). जैक लेवी (1988) बार-बार- जोर दे कर यह सिद्धांत
बताते हैं कि "चाहे कुछ भी हो, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों
में हमें एक व्यवहारिक कानून की आवश्यकता है".औद्योगिक क्रांति के बाद से लोकतांत्रिक बनने वाले
देशों में वृद्धि हो रही है। एक विश्व शांति इस प्रकार संभव है, अगर यह रुझान जारी रहे और अगर लोकतांत्रिक शांति सिद्धांत सही हो। हालांकि
इस सिद्धांत के कई संभव अपवाद है।
Ø पूंजीवादी शांति सिद्धांत
अपनी "कैपिटलिज्म पीस
थ्योरी" पुस्तक में आयन रैंड मानती है कि इतिहास के बड़े युद्ध उस समय के
अपेक्षाकृत अधिक नियंत्रित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों द्वारा मुक्त
(अर्थव्यवस्थाओं) के खिलाफ लड़े गये और उस पूंजीवाद ने मानव जाति को इतिहास में सबसे
लंबे समय तक शांति प्रदान की और जिस अवधि में पूरी सभ्य दुनिया की भागीदारी में 1815
में नेपोलियन युद्ध के अंत से 1914 में प्रथम
विश्व युद्ध के छिड़ने तक युद्ध नहीं हुए.
यह याद
रखा जाना चाहिए कि उन्नीसवीं सदी की राजनीतिक प्रणालियां शुद्ध पूंजीवादी नहीं थीं, बल्कि मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं वाली थीं। हालांकि पूंजीवाद के तत्व का
प्रभुत्व था, पर यह पूंजीवाद की एक सदी के उतने ही करीब था,
जितना मानव जाति के आने तक था। लेकिन पूरी उन्नीसवीं सदी के दौरान
राज्यवाद के तत्व फलते-फूलते रहे और 1914 में पूरी दुनिया
में इसके विस्फोट के समय तक शामिल सरकारों पर राज्यवाद की नीतियों का बोलबाला रहा।
हालांकि, इस सिद्धांत ने यूरोप के बाहर के देशों, साथ ही साथ
एकीकरण के लिए जर्मनी और इटली में हुए युद्धों, फ्रांको-पर्सियन
युद्ध और यूरोप के अन्य संघर्षों के खिलाफ पश्चिमी देशों द्वारा छेड़े गये क्रूर
औपनिवेशिक युद्धों की अनदेखी की। यह युद्ध के अभाव को शांति के पैमाने के रूप में
पेश करता है, जब वास्तविक रूप में वर्ग संघर्ष मौजूद रहा।
Ø कोब्डेनिज्म
कोब्डेनिज्म के कुछ समर्थकों का दावा है कि टैरिफ हटाने और अंतरराष्ट्रीय मुक्त व्यापार शुरू करने से युद्धों असंभव हो
जायेंगे, क्योंकि मुक्त व्यापार एक राष्ट्र को आत्मनिर्भर
बनने से रोकता है, जो लंबे युद्धों की एक आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए, यदि एक देश आग्नेयास्त्रों का उत्पादन और
दूसरा गोला-बारूद का उत्पादन करता है, तो दोनों एक-दूसरे से
ही लड़ेंगे, क्योंकि पहला गोला-बारूद हासिल करने में असमर्थ
होगा और दूसरा हथियार हासिल करने में ।
आलोचकों का तर्क है कि मुक्त व्यापार
एक देश को युद्ध के मामले में अस्थायी रूप से आत्मनिर्भर बनने की आपात योजना बनाने
से नहीं रोक सकता या एक देश साधारण तौर पर अपनी जरूरत एक दूसरे देश से पूरी कर
सकता है। इसका एक इस अच्छा उदाहरण पहला विश्व युद्ध है। ब्रिटेन और जर्मनी दोनों
युद्ध के दौरान आंशिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में कामयाब हो गये। यह विशेष रूप से
इस तथ्य की वजह से अहम था कि जर्मनी के पास एक युद्ध अर्थव्यवस्था बनाने की कोई
योजना नहीं थी।
अधिक आम
तौर पर, इसके अन्य समर्थकों का तर्क है कि मुक्त
व्यापार, भले ही युद्ध को असंभव नहीं बनायें, पर वह युद्ध करा सकता है और युद्धों के कारण व्यापार पर प्रतिबंध कई
विभिन्न देशों में उत्पादन, अनुसंधान और बिक्री में लगी
अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए महंगे साबित हो सकते हैं। इस तरह, एक शक्तिशाली लॉबी- जो केवल राष्ट्रीय कंपनियों के कारण उपस्थित नहीं होती
तो वह युद्ध के खिलाफ तर्क दे सकती है।
Ø द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश
द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश (कभी-कभी
इसे एमएडी (MAD) कहा जाता है) सैन्य रणनीति का एक सिद्धांत है, जिसमें दो प्रतिद्वंद्वी पक्षों द्वारा पूर्ण पैमाने पर परमाणु हथियारों
के उपयोग से हमलावर और रक्षक दोनो के विनाश का प्रभावी परिणाम निकलता है। शीत युद्ध के दौरान द्विपक्षीय आश्वस्त विनाश की नीति के समर्थकों की वजह
से युद्ध की घातकता इस कदर बढ़ी कि किसी भी पक्ष के लिए किसी शुद्ध लाभ की संभावना
नहीं बनी और इस तरह युद्ध व्यर्थ साबित हुए.
Ø वैश्वीकरण
कुछ लोग राष्ट्रीय राजनीति में एक प्रवृत्ति देखते हैं, जिसके
तहत नगर-राज्य और राष्ट्र-राज्य एकीकृत हो गये और सुझाव दिया कि अंतरराष्ट्रीय मंच
इसका पालन करेगा। चीन, इटली, संयुक्त राज्य अमेरिका,जर्मनी, भारत और ब्रिटेन जैसे कई देश
एकीकृत हो गये, जबकि यूरोपीय यूनियन ने बाद में इसका अनुपालन किया और
इससे संकेत मिलता है कि और अधिक भूमंडलीकरण एक एकीकृत विश्व व्यवस्था बनाने
में मदद करेगा।
Ø पृथकतावाद और गैर-हस्तक्षेपवाद
पृथकतावाद और गैर-हस्तक्षेपवाद के
समर्थकों का दावा है कि कई राष्ट्रों से बनी एक दुनिया उस समय तक शांतिपूर्वक
सह-अस्तित्व के साथ रह सकती है,जब तक वह घरेलू मामलों की तरफ
मजबूती से ध्यान केंद्रित रखे और दूसरे देशों पर अपनी इच्छा थोपने की कोशिश नहीं
करे ।
गैर-हस्तक्षेपवाद के संबंध में
पृथकतावाद को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। गैर-हस्तक्षेपवाद की तरह पृथकतावाद
दूसरे राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचने की सलाह देता है, लेकिन संरक्षणवाद और अंतरराष्ट्रीय व्यापार और पर्यटन
पर प्रतिबंध पर जोर देता है।दूसरी तरफ गैर-हस्तक्षेपवाद मुक्त व्यापार (कोब्डेनिज्म की तरह) के
राजनीतिक व सैन्य अ-हस्तक्षेप के संयोजन की वकालत करता है।
जापान जैसे राष्ट्र शायद अतीत में
पृथकतावादी नीतियों की स्थापना के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं। जापानी ईदो,
तोकुगावा ने एक पृथकतावादी अवधि ईदो अवधि शुरू की, जिसके तहत जापान ने पूरी दुनिया से अपने को अलग कर दिया। यह एक प्रसिद्ध
अलगाव अवधि थी और कई क्षेत्रों में अच्छी तरह प्रलेखित की गई।
Ø स्व-संगठित शांति
विश्व शांति को स्थानीय, स्व-निर्धारित व्यवहार के एक परिणाम के रूप में दर्शाया गया है, जो शक्ति के संस्थानीकरण को रोकता है और
हिंसा को बढ़ावा देता है। समाधान बहुत कुछ सहमति वाले एजेंडे या उच्च प्राधिकार,
चाहें वह दैवीय हो या राजनीतिक, में निवेश पर
उतना आधारित नहीं है, जितना आपसी सहमित वाले तंत्रों का
स्व-संगठित नेटवर्क, जिसका परिणाम एक व्यवहार्य
राजनीतिक-आर्थिक सामाजिक तानेबाने के रूप में निकलता है। अभिसरण के उत्प्रेरण के
लिए प्रमुख तकनीक विचारों का प्रयोग है, जिसे बैककास्टिंग
कहते है और इससे कोई भागीदारी में सक्षम हो सकता है, भले ही
वह किसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, धार्मिक सिद्धांत, राजनीतिक संबद्धता या जनसांख्यिकीय उम्र का हो। समान सहयोगी तंत्र विकिपीडिया सहित खुली स्रोत वाली परियोजनाओं
के आसपास इंटरनेट के जरिये उभर रहे हैं और सामाजिक मीडिया का विकास हो रहा है।
Ø आर्थिक मानदंडों का सिद्धांत
आर्थिक मानदंडों का सिद्धांत आर्थिक
स्थितियों को प्रशासन के संस्थानों और संघर्ष से संबद्ध करता है, व्यक्तिगत ग्राहकवर्गीय अर्थव्यवस्थाओं को अवैयक्तिक बाजारोन्मुख
अर्थव्यवस्थाओ से अलग करता है और बाद वाली अर्थव्यवस्थाओं को राष्ट्रों के भीतर और
उनके बीच स्थायी शांति की पहचान देता है।
हालांकि मानव इतिहास के ज्यादातर समाज
व्यक्तिगत संबंधों पर आधारित है: समूहों के व्यक्तिं एक दूसरे को जानते हैं और और
पक्ष का विनिमय करते हैं। आज समूहों के कम आय वाले समाज पदानुक्रम समूह के नेताओं
के बीच व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर धन वितरित करते हैं, जो अक्सर ग्राहकवर्गवाद और भ्रष्टाचार के साथ जुड़ी हुई एक प्रक्रिया मानी
जाती है। माइकल मोउसेयू का तर्क है कि इस प्रकार की सामाजिक-अर्थव्यवस्था में
संघर्ष हमेशा से मौजूद रहा है, भले ही वह प्रच्छन्न या खुला
रहा हो, क्योंकि व्यक्ति शारीरिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए
अपने समूहों पर निर्भर रहते हैं और इस तरह अपने राज्यों के बजाय अपने समूहों के
प्रति वफादार रहते है और क्योंकि समूह राज्य के खजाने तक पहुंच के लिए सतत संघर्ष
की स्थिति में होते हैं। आबद्ध समझदारी की प्रक्रियाओं के माध्यम से लोग मजबूत
सामूहिक पहचान के प्रति अभ्यस्त होते हैं और बाहरी ताकतों के डर व मनोवैज्ञानिक
पूर्वानुकूलता के कारण उसी दिशा में बह जाते हैं, जिससे
सांप्रदायिक हिंसा, नरसंहार और आतंकवाद संभव हो पाता है।
बाजारोन्मुख सामाजिक अर्थव्यवस्थाएं
व्यक्तिगत संबंधों से नहीं, बाजार के अवैयक्तिक बल से एकीकृत
होती है, जहां ज्यादातर व्यक्ति राज्य द्वारा लागू अनुबंधों
के तहत अजनबियों पर विश्वास करने के लिए आर्थिक रूप से निर्भर होते हैं। यह राज्य
के प्रति वफादारी पैदा करती है, जो कानून का शासन और अनुबंध
निष्पक्ष और विश्वस्त रूप से लागू करती है और अनुबंध करने की स्वतंत्रता में समान
संरक्षण प्रदान करती है, जिसे उदारवादी लोकतंत्र कहा जाता
है। युद्ध बाजार एकीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के भीतर और उनके बीच नहीं हो
सकते, क्योंकि युद्ध में एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की
आवश्यकता होती है और इस तरह की अर्थव्यवस्थाओं में हर कोई तभी आर्थिक रूप से बेहतर
रह सकता है, जब बाजार में दूसरे भी बेहतर रहें, बदतर नहीं। लड़ने के बजाय, बाजारोन्मुख सामाजिक
अर्थव्यवस्थाओं में नागरिक हर किसी के अधिकारों और कल्याण के बारे में गहरी चिंता
करते हैं, इसलिए वे घर में आर्थिक विकास और विदेश में आर्थिक
सहयोग और मानवाधिकारों की मांग करते हैं। वास्तव में, बाजारोन्मुख
सामाजिक अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में वैश्विक मुद्दों[ पर सहमति होती है और उन दोनों के बीच किसी विवाद में एक भी मौत नहीं हुई
है।
आर्थिक मानदंडों के सिद्धांत को
शास्त्रीय उदार सिद्धांत के रूप में भ्रमित नहीं होने देना चाहिए। बाद वाला मानता
है कि बाजार प्राकृतिक होते हैं और मुक्त बाजार धन को बढ़ावा देता है। इसके विपरीत, आर्थिक मानदंडों का सिद्धांत बताता है
कि कैसे बाजार-अनुबंध एक गहन अध्ययन वाला तरीका है और राज्य का खर्च, विनियमन और पुनर्वितरण यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि हर कोई
"सामाजिक बाजार" अर्थव्यवस्था में भागीदारी कर सके, जो हर किसी के हित में है।
पंकज 'वेला'
एम.फिल. गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग
MGAHV,वर्धा
समय-2019-21
kumarpankaj20jan1988@gmail.com
9119568237/ 9990841992
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