प्रत्येक सभ्यता के विकासक्रम में एक लम्बे अंधकार युग के पश्चात् नवीन दृष्टि एवं उल्लास के साथ जाग्रत हुई जन चेतना के समेकित स्वरूप को ही नवजागरण कहा जाता है। यह दृष्टि कहीं अधिक तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक, सुधारवादी एवं समन्वित होती है। रूढ़ि एवं अप्रासंगिक हो चुकी मान्यताओं का खण्डन कर सामाजिक प्रासंगिकता के अनुरूप नवीन परम्पराओं का उद्घाटन नवजागरण का मुख्य उद्योग है। इसके अलावा भी यह पूर्व मान्यताओं
की आधुनिक संदर्भों में व्याख्या करके उनकी उपयोगिता एवं महत्व को प्रतिपादित कर उनकी नयी भूमिका को भी रेखांकित करता है।
भारतीय संदर्भों में आधुनिकता की शुरूआत उन्नीसवी शदी के आरम्भ में विकसित हो रही नवजागरण की चेतना के सापेक्ष मानी जाती है। इस समय भारत में ब्रिटिश राज्य क्षेत्र का विस्तार हो रहा था। यूरोपीय प्रभाव के फलस्वरूप भारत की आर्थिक,
शैक्षणिक, सांस्कृतिक, तकनीकि आदि व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हो रहे थे। जिसके चलते समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। यहां नवजागरण दो विपरीत ध्रुवीय संस्कृतियों के टकराहट के रूप में अधिक स्पष्ट होता है। भारतीय नवजागरण पर विचार करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने पुनर्जागरण और नवजागरण में भेद न करते हुए इसे
‘दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा’
कहा है। उनके अनुसार,‘‘भारत के संदर्भ में पुनर्जागरण 19वीं शती से आरंभ माना जाता है। नयी यूरोपीय वैज्ञानिक संस्कृति
और पुरानी भारतीय धार्मिक संस्कृति की टकराहट के फलस्वरूप।’’ चूंकि यूरोपीय संस्कृति के आगमन का प्राथमिक केंद्र बंगाल क्षेत्र ही था,अतः नवजागरण की शुरूआत भी बंगाल क्षेत्र से ही हुई।
नवजागरण में सांस्कृतिक विकास के साथ ही मानव की व्यक्तिगत अस्मिता की एक सम्पूर्ण खोज का पक्ष भी निहित है। मनुष्य में भौतिक एवं आत्मिक स्वतंत्रता के साथ ही समाज, धर्म एवं राष्ट्र सापेक्ष जुड़ाव की चेतना का भी विकास प्रारंभ हुआ। उन्नीसवीं शती में बंगाल से लगायत सम्पूर्ण देश में विभिन्न ‘समाजों’
की स्थापना का प्रयास भारतीय राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में मानव चेतना के आपसी जुड़ाव का आरंभिक संकेत है। ‘ब्रह्म समाज’,
‘प्रार्थना समाज’,
‘आर्य समाज’,
’थियोसोफिकल सोसायटी’ आदि के द्वारा नवजागरण की चेतना का प्रसार अधिक तीव्रगति से प्रारंभ हुआ। जातीय गौरव का बोध, धार्मिक एवं सामाजिक सुधार, सांस्कृतिक पुनरूत्थानवाद, स्त्रियों की दशा में सुधार,
शिक्षा का प्रसार एवं आधुनिकीकरण आदि तत्कालीन नवजागरण चेतना के प्रमुख आयाम थे।
इस नवजागरण के परिणामस्वरूप मनुष्य का एक व्यापक एवं अधिक संश्लिष्ट स्वरूप सामने आया। मानव के इस नये बिम्ब की साहित्यिक अभिव्यक्ति
के लिए पारंपरिक विधाओं की अक्षमता के चलते यूरोपीय तर्ज पर उपन्यास विधा को अपनाया गया। यहां यह कह देना मात्र पर्याप्त
है कि यूरोप में भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते उपन्यास विधा का आविर्भाव हुआ था। जो मनुष्य को उसके पूर्ण एवं संश्लिष्ट
स्वरूप में,उसकी सम्पूर्ण
सामाजिकता एवं परिवेश के साथ चित्रित कर देने की क्षमता रखता है। ऐसा इस विधा की विशिष्ट शैली, शिल्प एवं आकार के कारण संभव होता है।
रवीन्द्रनाथ से पूर्व बंगला में जो भी उपन्यास लिखे गये उनमें नवजागरण की शुरूआती प्रतिध्वनि सुनाई देती है। बंकिम काल के उपन्यासों में नवजागरण के बीज लक्षण दिखाई पड़ते हैं। किंतु बीसवीं शती में नवजागरण अपनी सम्पूर्णता के साथ साहित्य में अवतरित होता है। रवीन्द्रनाथ के भी आरम्भिक उपन्यास
‘करुणा’, ‘बउ ठाकुराणीर हाट’ तथा
‘राजर्षि’ बंकिमकाल के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सके है और निश्चय ही रवींद्र साहित्य में कम महत्व के हैं।
रवींद्र के उपन्यास
‘चोखेरबालि’ (1902 ई0) का प्रकाशन बंगला उपन्यास साहित्य में एक महत्वपूर्ण घटना है। घटनाओं की अपेक्षा चरित्रों के मनोविज्ञान का यथार्थवादी ढंग से अनुसरण किया गया है। समकालीन समस्त स्त्री समस्याएं उपन्यास का विषय बनी है। बाल विवाह,
विधवाओं की स्थिति एवं स्त्री स्वतंत्रता के प्रश्न बड़ी ही तत्परता से उठाए गये हैं। एक युवा विधवा भी सामान्य स्त्रियों की तरह ही समाज में स्थान चाहती है। वह भी प्रेम और तद्जन्य सुख एवं अधिकार की लालसा रखती है। विधवा हो जाने में उसका कोई दोष नहीं और इस वजह से उसके मानस की स्वाभाविक यौवन वृत्तियां भी समाप्त नहीं हो जातीं। बाल-विधवाओं की स्थिति तो और भी जटिल होती है। कितनी बाल विधवाओं को तो यह पता भी नहीं होता कि वे सधवा कब थीं? जब तक कि वे होश संभालें उन पर विधवाओं के लिए निर्धारित सारी बाध्यताएं लाद दी जाती है। इस तरह से शापित विधवाएं सामाजिक समस्या का भी कारण बन जाती हैं। समाज इनकी भावनाओं की परवाह किये बिना इनसे सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग की अपेक्षा करता है किंतु सयत्न दबायी गयीं मनोवृत्तियां दुगुने वेग से उभरकर सामने आती हैं। विधवाओं की इन इच्छाओं को अनैतिक एवं अनुचित करार देकर समाज द्वारा उनकी प्रताड़ना का उपक्रम किया जाता है। रवीन्द्रनाथ ने विधवाओं के पुनर्विवाह को इस समस्या के हल के रूप में स्वीकार किया।
‘चोखेरबालि’ में विनोदिनी के विवाह का संकेत देकर एक क्रांतिकारी चेतना की शुरूआत हुई।
‘घरे-बाइरे’
में स्त्री स्वतंत्रता और अधिकार का प्रश्न महत्वपूर्ण है। निखिलेश के अनुसार स्त्री-मुक्ति के विचार के बिना पुरुष की सार्थकता अधूरी है। स्त्री को घर और समाज दोनों जगह स्वविवेक के प्रयोग की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसी क्रम में उसने अपनी पत्नी विमला को खुली छूट दे रखी है। विमला स्वदेशी आंदोलन के एक नेता संदीप के संपर्क में आती है। वह उसकी तरफ भावनात्मक रूप से आकर्षित होती है किंतु अधिक नजदीक से संदीप के व्यक्तित्व का यथार्थ देखकर वह उतनी ही तेज से विकर्षित होती है। अबकी बार वह अधिक निवेदित होकर निखिलेश के पास आ जाती है। इस प्रकरण में रवींद्रनाथ ने नारी की बुद्धि और यथार्थ अवलोकन की क्षमता पर भी विश्वास व्यक्त किया है। नारी स्वतंत्रता के विरोधियों को जवाब देते हुए उन्होंने दिखाने का प्रयास किया है कि स्वतंत्रता स्त्रियों के बिगड़ने का नहीं वरन् उनके उन्नयन का एक अवसर हो सकता है। स्त्रियों की विवेक क्षमता पर अकारण संदेह व्यर्थ है।
नारी विमर्श के कई संदर्भों को ‘गोरा’
उपन्यास में भी अभिव्यक्ति मिली है। नारी स्वतंत्रता को जातीय और राष्ट्रीय गरिमा से एकमेक करके देखने की बात कहते हुए गोरा कहता है, ‘‘नारी को जितना क्षुद्र समझ के और दूर हटा के रखा,
हमारा पौरुष उतना ही क्षीण हुआ। स्त्रियों को सिर्फ चौके में आबद्ध रखकर देखने से उन्हें हम छोटा करके देखते हैं,
इससे देश भी छोटा बनता जा रहा है।’’ भारतीय राष्ट्र की अवधारणा में गोरा स्त्रियों के पक्ष को पुरुषों से कमतर नहीं आंकता। समाज और राष्ट्र की आधी शक्ति का स्रोत स्त्री है। स्त्री शक्ति का संयोजन करके ही पूर्ण राष्ट्र की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है। गोरा कहता है, ‘‘केवल पुरुष की दृष्टि से भारतवर्ष को सम्पूर्ण रूप से प्रकट नहीं किया जा सकता है। हमारी स्त्रियों के सामने जिस दिन वह आविर्भूत होगा,
उसी दिन उसका प्रकट होना पूर्ण होगा।’’
यहां रवीन्द्रनाथ का स्पष्ट संकेत है कि स्त्री स्वतंत्रता और उसका यथोचित प्रदर्शन राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण आयाम है। आधी आबादी की उपेक्षा राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में एक बड़ी बाधा है उनके अनुसार भारत को केवल पुरुषों का देश मानकर स्त्रियों की उपेक्षा करना हमारे स्वदेश प्रेम का अर्धसत्य ही प्रकट करता है।
नवजागरण ने धर्म और आस्था में संकीर्णता की भावना का प्रतिकार किया। रवींद्र के उपन्यासों में भी राष्ट्र निर्माण के अनिवार्य तत्व के रूप में धार्मिक समभाव तथा सहिष्णुता की चेतना विद्यमान है।
‘गोरा’ उपन्यास का गोरा पहले कट्टर हिंदू धर्म समर्थक के रूप में प्रस्तुत होता है। किंतु उसकी कट्टरता हिंदू पुनरूत्थानवाद के स्वरूप में है। वह हिंदू धर्म की सांस्कृतिक चेतना के माध्यम से हिंदू नवजागरण की परिकल्पना को साकार करना चाहता है। वह छूआछूत और जाति व्यवस्था को केवल इसलिए स्वीकार कर लेता है ताकि इन्हें मानने वाले एक बड़े तबके को भी इस परिकल्पना का हिस्सा बनाया जा सके। अंततः गोरा की यह धार्मिक-सांस्कृतिक संकल्पना राष्ट्रीय चेतना में परिणत हो जाती है।
रवींद्रनाथ ने अपने उपन्यासों में पाश्चात्य संस्कृति और शिक्षा के भारत में प्रभाव का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया है। उनके उपन्यास
‘गोरा’ का यह एक मुख्य विषय है। उनके अनुसार पश्चिमी प्रभाव से आक्रांत हुए बिना उसके संसर्ग में आकर एक हिंदू मूल्यों पर आधारित पुनरूत्थानवादी राष्ट्रीय सचेतनता का प्रसार होना चाहिए। उन्होंने तत्कालीन भारत की सांस्कृतिक दुविधा को प्रकट किया है। एक तरफ अंग्रेजी प्रभाव एवं उसके अंधानुकरण से भारतीय जातीयता के गौरव एवं सांस्कृतिक पहचान को कायम रख पाने की मुश्किल थी तो दूसरी तरफ आधुनिक और अधिक वैज्ञानिक पश्चिमी सभ्यता को पूरी तरह से नकार कर भी हम बाकी विश्व से अपने को जोड़ पाने में असफल होते। उनके अनुसार अंग्रेजी शिक्षा करोड़ों भारतीयों से हमें जोड़ पाने में अक्षम होगी तो हमारे रूढ़ि रीति-रिवाज और जटिल सामाजिक श्रेणीबद्धता भी हमारे समाज के लिए उतनी ही घातक और खतरनाक है। उन्होंने भारतीय और पश्चिमी संस्कृतियों के समागम से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा को पहचाना। उनके अनुसार पश्चिमी संस्कृति से सकारात्मक तत्वों को ग्रहण कर भारतीय संस्कृति में सुधारवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिए। इस प्रकार सांस्कृतिक क्षरण से बचते हुए अपने समाज को और अधिक तर्कसंगत और मजबूत बनाया जा सकता है। इस प्रकार हम केवल अंग्रेजों से लेंगे ही नहीं अपितु अपनी सांस्कृतिक विविधता के बल पर उन्हें भी प्रभावित कर सकने में सक्षम होंगे। उपन्यास का उद्देश्य उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक प्रभाव के विश्लेषण के बावजूद किसी तरह के धार्मिक एवं जातीय विरोध की बजाय नवजागरण की समस्त सचेतनता के संदर्भ में भारतवर्ष की अवधारणा को जानना और प्रतिष्ठित करना है।
रवींद्रनाथ भातरवर्ष को भौगोलिक न मानकर वैचारिक स्तर पर स्वीकार करते हैं। जातीय एकता एवं वर्गीय विभेदों के समापन की भावना ही मजबूत भारतवर्ष के निर्माण का आधार हो सकती है। गोरा कहता है, ‘‘भारतवर्ष के छोटे-बड़े सबको लेकर ही एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में भारतवर्ष को स्वीकार करना होगा। एक मत्ऐक्य,
एक वृहत् संगीत के साथ मिलाकर सम्पूर्णता में भारतवर्ष को समझना होगा।’’ अपने मानवतावादी दृष्टिकोण की वजह से ही गोरा जाति व्यवस्था में विश्वास करता हुआ भी निम्न जाति और वर्ग के लोगों के मध्य जाकर उनसे संबंध कायम करता है। गोरा कहता है, ‘‘किसान को केवल खेती और जुलाहे को केवल कपड़ा बुनने से आबद्ध करके देखने से और उसकी अवज्ञा करने से उनका सम्पूर्ण रूप हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता है। मैं भारत के हरेक के साथ हूँ, इसीलिए यहां के सब मेरे अपने हैं’’
इस प्रकार गोरा एक संश्लिष्ट सामाजिक चित्र की कल्पना करता है।
रवींद्रनाथ के उपन्यास ‘शेषेर कविता’(1929 ई.) में मध्यमवर्गीय समाज के खोखलेपन को दर्शाया गया है। इसमें तथाकथित अत्याधुनिक माने जाने वाले लोगों द्वारा अंग्रेजों की तर्कहीन नकल,
विलायती फैशनपरस्ती एवं शौकीन प्रेमलीलाके दुष्प्रभावों का वर्णन है। पश्चिम के अंधानुकरण ने तत्कालीन समाज में इस प्रकार की बुराईयों को जन्म दिया था। प्रारम्भिक हिंदी के सुधारवादी उपन्यासों में भी यह विषय प्रमुखता से उठाया गया है। उपन्यास का प्रधान पात्र अमित राय भौतिकता की दौड़ में शामिल है और क्षणवादी सोच का व्यक्ति है। यहां रवींद्रनाथ ने क्षणवाद की अमरता का व्याख्यान किया है। किंतु लावण्य के प्रभाव में उसे प्रेम की शाश्वत प्रवृत्ति का बोध होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक काल के प्रारंभ में संक्रान्तिकालीन भारत का सम्पूर्णता से चित्रण रवींद्रनाथ के उपन्यासों में मिलता है। सामाजिक, राजनीतिक,
धार्मिक, राष्ट्रीय चेतनाएं और इसके फलस्वरूप नाना आंदोलनों, प्राचीन और नवीन आदर्शों का संघर्ष और इस संघर्ष के बीच के युगोपयोगी और शाश्वत तत्वों की खोज रवींद्रनाथ के उपन्यासों के प्रमुख प्रतिपाद्य है। नवजागरण की जो प्रवृत्ति तत्कालीन भारतीय समाज में नवस्फूर्ति का संचार कर रही थी,
अपने समग्र आयामों के साथ रवींद्रनाथ के उपन्यासों में परिलक्षित होती है।
मूल लेखक-
प्रमोद कुमार चतुर्वेदी
शोध छात्र
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी,10 मई 2011
प्रस्तुतकर्त्ता-
पंकज ‘वेला’
एम.फिल. गाँधी एवं शांति अध्ययन विभाग,
महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
वर्धा ,महाराष्ट्र-442001
संपर्क सूत्र- kumarpankaj20jan1988@gmail.com
9990841992/9119568237
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